समाज के बढ़ते हुए प्रगतिशील कदमों ने हमारे नैतिक मूल्यों पर सबसे अधिक प्रहार किया है। उन मूल्यों के रक्षा के लिए ही, हम कानून पर क़ानून बनाते जा रहे हैं। लेकिन यह एक विचारणीय विषय है कि क्या नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए भी कानून की जरूरत होगी और कानून सिर्फ बनाये जा सकते हैं, क्या उनको लागू कराने के लिए भी कोई आचार संहिता है कि उनको कैसे पालन करवाया जाय। नहीं ऐसा कुछ भी नहीं हो सकता है , क़ानून और संविधान की धज्जियाँ उड़ते हुए हम ही देख रहे हैं। नैतिक मूल्यों की अवमानना भी हम ही देख रहे है और हममें में से कितने कर रहे हैं।
नारी उत्पीड़न के विरुद्ध कानून बना दिए गए और क्या इससे नारी उत्पीडन रुक गया , नहीं रुका तो नहीं है बल्कि इन कानूनों की आड़ में कहीं नारी ही उत्पीड़क बनती जा रही है। दहेज़ के झूठे मुक़दमे और फिर ग़लत आरोपों के चलते टूटते हुए परिवारों ने हमें क्या सिखाया है? क़ानून बनने से मानसिकता नहीं बदल जाती है। न दहेज़ हत्याएं रुकीं , न भ्रूण हत्या रुकी और न ही नारी उत्पीडन रुका। सब वैसे के वैसे ही है, बस उससे बचने के नए नए तरीके निकाल लिए हैं।
सहयोग भी हमारा समाज और परिवार ही दे रहा है.
परिवार में वरिष्ठ लोगों के संरक्षण के लिए क़ानून बना दिए गए हैं की कोई भी पुत्र या पुत्री उनके दायित्वों से नहीं बच सकते हैं, इसके लिए सजा का भी प्राविधान कर दिया गया है। क्या इससे निदान हमको मिल सकता है? नहीं कभी भी नहीं। माँ-बाप घर में रहते हैं लेकिन उसके साथ कैसा व्यवहार होता है, कौन सा क़ानून है जो इसके लिए पहरे बिठा सकता है? बेटे या बहू को बाध्य कर सकते है कि वे उनको उचित सम्मान और परवरिश दें। उनको वृद्धाश्रम में भेज देना वे अधिक बेहतर समझते हैं। ख़ुद और उनकी पत्नी इस दायित्व से मुक्त रहेंगे। उनके पास समय नहीं होता है कि अपने जनक और जननी का हाल-चाल भी पूछ लें।
इस विषय को उठा कर मैं किसी पर आक्षेप नहीं लगा रही हूँ, बल्कि इसका सुगम उपाय जो मैंने अपने विचार से सोचा है, उसको सबके साथ बाँट कर एक अलग दिशा खोजना चाहती हूँ। आखिर हम भी बुद्धिजीवी होने का जो दम भरते हैं ,उनका समाज और नैतिकता के प्रति कुछ तो धर्म बनता है तो क्यों न अपनी अपनी सोच से रास्ता खोजें पता नहीं कब कौन सा रास्ता सफल सिद्ध हो।
मेरे विचार से काउंसिलिंग सबसे बेहतर रास्ता हो सकता है। यह काम छोटे से बड़े सभी स्तर के लोगों के साथ करना होगा। कभी बड़े ग़लत होते हैं और अपने अहम् के मारे उसको स्वीकार नहीं कर पाते हैं या फिर बच्चों को छोटा जानकर उनकी बात सुनने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं। क़ानून बनाने के रास्ते के अलावा भी एक यह रास्ता है और बहुत ही कारगर है। मैंने इसको अपनाया है और बहुत बड़ी बात नहीं , कम से कम दस बीस लोगों को तो सही दिशा दिखाई और वे आज अपने पथ पर सफल हैं।
आवश्यकता है इस मार्ग को सहज बनाने की , इस तरह के केन्द्र खोले जाने चाहिए , जहाँ पर काउंसिलिंग की सुविधा प्राप्त हो, इसके लिए स्वयमसेवी संस्थाएं, मनोवैज्ञानिक और कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों को पहल करनी होगी। पीड़ित व्यक्ति के साथ साथ दूसरे की भी बात सुनकर उनको सही दिशा दिखाई जा सकती है। क़ानून और सजा अपराधी को और अधिक उद्दंड बना देता है किंतु काउंसिलिंग उनको सही और ग़लत सभी दिशाओं के बारे में बताते हुए, सही दिशा चुनने का विकल्प सामने रखता है। परिवार में कहें तो हर समय बेटे या बेटियाँ ही गलत नहीं होते हैं, कहीं कहीं बुजुर्ग भी अपने हठधर्मी और अधिकार का दुरूपयोग करते हुए बच्चों को परेशान कर देते हैं। वहां उन बुजुर्गों को जरूरत है समझाने की। जहाँ बच्चों के उपेक्षा और तिरस्कार का शिकार बुजुर्ग होते हैं तो वहां समझाने की जरूरत है उन बेटे और बेटियों को।
यह सही है कि यह रास्ता आसान नहीं है, किंतु प्रयास किया जा सकता है और क़ानून जिसे नहीं रोक सकता है ,वहां पर काउंसिलिंग रोक सकती है और उन्हें दिशा दिखा सकती है। बच्चे उद्दंड हो रहे हैं, लेकिन हमारे पास यह समझाने का समय ही कहाँ है कि वे ऐसे क्यों हो रहे है? उन्हें जो बचपन से घर में दिखाई दे रहा है , उसको ही ग्रहण कर रहे हैं। हमारे पास समय कहाँ है उनकी बात सुनाने का ? उनको सही दिशा कौन दे? जो उन्होंने अपने साथियों में देखा , घर में देखा उसी पर चलना शुरू कर दिया। हमने ग़लत देखा तो बस फटकार और मार को हल समझ लिया लेकिन अपनी गलती तब भी नहीं देख पाये। जब तक अपनी गलती समझते हैं तब तक पानी सर से गुजर चुका होता है। यह काम पुरूष से अधिक नारी कर सकती है। बच्चों को संस्कार पिता से कम और माँ से अधिक मिलते हैं, क्योंकि वह सबसे करीब माँ के होता है। पहले घर से शुरू करें और फिर अपने आस-पास चले। सही होने पर कितने आपको ग़लत समझेंगे। मर्म समझाने पर सभी इसको स्वीकार कर लेंगे.
फिर क्यों न एक बार मेरे इस विचार को मूर्त रूप देने में आप सभी सहयोग दें और फिर देखें की हम कितने सफल हैं अपने प्रयास में। जिस स्थिति में आज देश और समाज खड़ा है उसके लिए कुछ तो करने का संकल्प लेना पड़ेगा।
शायद हम कुछ कर सकें.