अपनी सोच का शब्दों से श्रृंगार करें और फिर बाँटें अपने विचर और दूसरे से लें. कितना आसन है उन सबसे लड़ना जो हमें दुश्वार लगते हैं. कोई दिशा आप दें और कोई हम दें 'वसुधैव कुटुम्बकम' कि सूक्ति सार्थक हो जायेगी.
बुधवार, 25 नवंबर 2009
जरा याद करो क़ुरबानी...............
कल एक वर्ष हो जाएगा मुंबई काण्ड को, हम उन सभी शहीदों को नमन करते हैं - जिन्होंने अपना जीवन देश के लिए कुर्बान कर दिया किंतु फिर हम उतने ही सवालों से घिर जाते हैं कि हमने यानि इस देश के वे लोग जो उनके प्रति न्याय के लिए जिम्मेदार हैं - क्या आज तक न्याय कर पाये?
उस समय बहुत बुरा लगा था न जब की शहीदों के परिजनों ने शोक प्रकट करने गए नेताओं , और मंत्रियों से मिलने से इन्कार कर दिया था। बड़ी बड़ी घोषणाएं और कसीदे काढ़े गए थे।
आज एक वर्ष बाद भी उनकी आत्माएं कहीं अपने बलिदान पर पछता रही होंगी, क्योंकि उनके घर वाले उस न्याय के लिए ख़ुद सोनिया गाँधी से मिलने जा रहे हैं। उनके बलिदान की याद दिलाने के लिए कि उनके बलिदान को व्यर्थ न जाने दें। वे क्या चाहते हैं? सिर्फ ये कि उन आतंकवादियों को फांसी की सजा दी जाय जिन्होंने सैकड़ों की जाने लीं और सैकड़ों को मृतप्राय बना दिया। हम उन्हें मेहमान की तरह से पाल रहे हैं।
संसद हमले का आरोपी आज कितने वर्ष बाद भी सुरक्षित है और उस काण्ड के शहीदों के परिजनों का कोई पुरसा हाल नहीं। और तो और उस क्षेत्र के जन प्रतिनिधि भी कभी उनकी सुधि नहीं लेते। क्या उनकी इस हरकत से जन सामान्य खुश होता है नहीं लेकिन उनके हाथ बंधे हुए हैं क्योंकि वे जन प्रतिनिधि चुनने का अपराध तो कर ही चुके हैं।
अपनी छवि बनने के लिए सरकार बड़ी - बड़ी घोषणाएं करती है लेकिन वे घोषणाएं सिर्फ उस समय अपनी छवि बनाने के लिए होती हैं। उनको मिलता कुछ भी नहीं है, और तो और कोई मंत्री, विधायक या सांसद इस बात को जानने की जरूरत ही नहीं समझता है की इस दिशा में कभी कोई खोजखबर ली जाय।
काण्ड हुए और हम भूल गए क्योंकि हमने तो कुछ खोया ही नहीं था, बस खोने वालों के चहरे देखे थे। उनकी मनःस्थिति को जिया नहीं था बस दूर से अहसास किया था।
हम इन आतंकवादियों को शायद किसी कांधार काण्ड की पुनरावृत्ति के लिए पाल रहे हैं। हमारी न्यायपालिका लचर है कि उसको लचर बनाने वाली कार्यपालिका और विधायिका भी इसमें शामिल है। वर्षों तक मामले लंबित रहते हैं। और वह भी ऐसे मामले जो देश की सुरक्षा से जुड़े रहे हों।
मेरी तो बस यही कामना है की जिन्होंने ने अपनों को इस दिन खोया था - ईश्वर उन्हें शक्ति और धैर्य दे और हमारी सरकार को सदबुद्धि कि अपने वोट बैंक की बजाय पहले देश के रक्षकों की सुधि ले। राजनीति से परे ये विषय है इसलिए लंबित है अगर कहीं किसी दल का प्रमुख मर गया होता तो तुरंत ही उसके परिजन को उत्तराधिकारी बना कर राजतिलक कर दिया गया होता। किंतु इन शहीदों का विकल्प हम कहाँ खोंजें। कोई तो उनके बच्चों के सर पर हाथ रखने वाला , माँ-बाप और पत्नी को सांत्वना देने वाला नहीं होता है। बस इसी कामना के साथ की ईश्वर उन्हें शक्ति और दृढ़ता प्रदान करे।
पुनः उन शहीदों को मेरा शत शत नमन.
मंगलवार, 24 नवंबर 2009
लोकतंत्र के टूटते आधार!
कहीं पढ़ा की 'कल्याण सिंह' फिर भाजपा में शामिल होने के बाद ६ दिसंबर को 'जय श्री राम ' बोलेंगे। ये तथाकथित नेता अपने को समझते क्या हैं? लोकतन्त्र को मजाक बना कर रखा है। जब जहाँ चाहे मुंह उठाकर चल दिए, क्योंकि चुनाव तो साम दंड से जीत ही चुके हैं और वे अपने ऊपर लोग प्रतिनिधि होने का भी लगा चुके हैं।
देश की वर्तमान दशायों के देखते हुए - क्या हम कह सकते हैं की इस जमीन में लोकतन्त्र की जड़ें बहुत गहरी हैं। पर लोकतन्त्र में लोक की भूमिका कितनी शेष है, यह तो विचारनीय विषय है। उदासीन सा लोक यह सोचता है की उसकी क्या भागीदारी हे? कितने प्रतिशत लोक भाग ले रहा है इस लोकतन्त्र में। देश में राजनीति का प्रदूषण लोकतन्त्र के जीवन का अंत किए दे रहा है।
ये नेता अपने अहम् की असंतुष्टि से जब चाहे वर्तमान दल छोड़ कर चल देते हैं और हाथ थम लेते हैं किसी और दल का। क्या ऐसे दलों की कमी है जो सिर्फ सरकार गिराने के लिए अपना समर्थन देते हैं और स्वार्थ पूर्ति न होने पर वापस ले लेते हैं। जब चाहे देश को आमचुनाव की विभीषिका में झोंक देते हैं। जब मन हुआ अपने लिए नया दल बना लिया और चल दिए सौदेबाजी के लिए।
जब संविधान बना था तब हमारी राजनैतिक और सामजिक स्थितियां कुछ और थी। यह नहीं मालूम था की आगे क्या हालत होने वाले हैं? हम अपने संविधान के अनुसार चल रहे हैं किंतु वह अब वर्तमान समय में बहुत संशोधन चाहता है। स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के कितने वर्ष बीत चुके हैं और हमारी स्वतंत्रता परिपक्व हो चुकी है लेकिन अगर लोकतन्त्र की ओर दृष्टिपात करें तो उसका आसन आज भी स्थिर नहीं है बल्कि डांवाडोल हो रहा है और उसके साथ ही लोक की आस्थाएं बदल रही हैं। इन दल बदलुओं के प्रति कोई विश्वास मन में नहीं रह गया है। आज विश्वास उसी पर है जो अपने दल के साथ निष्ठां रखते हैं। आज भी दल एक सुदृढ़ नेतृत्व के बल पर ही चलते हैं। उनकी एकता और निष्ठा से लोकतन्त्र सुरक्षित रह सकता है।
ऐसे लोगों के लिए स्थायित्व की ओर कदम बढ़ाये जाने की जरूरत है। किसी भी दल में शामिल होना और फिर निकल आना बिजली के स्विच के ऑन और ऑफ़ करने जैसा बन चुका है। राजनीति का अपराधीकरण तो अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका है। न्यायपालिका भी विवश नजर आती है। महाबली सांसदों और विधायकों की सेना ने लोक को भयभीत कर रखा है। जो जितना अधिक प्रश्नवाचकों से ग्रसित लोगों से समर्थन प्राप्त है वह उतना ही शक्तिशाली दल और नेता है। जहाँ वर्षों तक जेल में रहने वालों को दल अपना अब बना लेते हैं kyonki unako yah maaloom hai ina logon ke gurgon ke sahare jeet sunishchit hai.
आज संविधान के पुनरवलोकन की जरूरत बढ़ गई है, हम इतने वर्षों के बाद भी बदलते हालत के साथ उसको बदल नहीं पाये हैं।
इन हालातों में इन सुधारों की जरूरत महसूस हो रही है।
@ चुनाव में जीतने के बाद जिस दल का समर्थन किया हो उसको छोड़ने के बाद उस सदस्य की सदस्यता अधिकार निरस्त कर दिए जाए। उसे सदन में मतदान का अधिकार प्रदान न किया जाए।
@ अगर चयनित प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद निरंकुश व्यवहार करता है तो उसको बुलाने के अधिकार लोक के पास हों या फिर लोग अदालत में उसकी प्रस्तुति जरूरी हो और उससे पूछा जाय की क्यों न अधिकार के दुरूपयोग का दंड दिया जाय।
@ ५ वर्ष के लिए या कुछ अधिकार जो सारे जीवन के लिए इनको मिलते हैं, ये सारे जीवन के लिए नेताजी बन कर शासकीय सम्पति का दुरूपयोग भी करते रहते हैं।
@ नैतिक जिम्मेदारी तो इनकी कोई होती ही नहीं है, संपत्ति संचय कर कई पीढ़ियों तक का इंतजाम कर जाने में ही अपने जीवन को सार्थक मानते हैं।
@ दशकों पुराने मूल्यों को दुहाई देकर आज भी चुनाव जीतते आ रहे हैं। लाठी टेक कर चलने की क्षमता इनमें नहीं है, ये देश को चलाने का दम भर रहे हैं।
@ अपराध साबित हो या न हो जेल के अन्दर से किसी को भी चुनाव लड़ने का अधिकार न दिया जाय। वे जेल में भले हों उनके गुर्गे चुनाव जितने के लिए पर्याप्त होते हैं।
@ संविधान संशोधन का काम नेताओं का नहीं, संविधानविद, राजनीतिशास्त्रियों, और न्यायाधीशों के द्वारा होना चाहिए।
देश की वर्तमान दशायों के देखते हुए - क्या हम कह सकते हैं की इस जमीन में लोकतन्त्र की जड़ें बहुत गहरी हैं। पर लोकतन्त्र में लोक की भूमिका कितनी शेष है, यह तो विचारनीय विषय है। उदासीन सा लोक यह सोचता है की उसकी क्या भागीदारी हे? कितने प्रतिशत लोक भाग ले रहा है इस लोकतन्त्र में। देश में राजनीति का प्रदूषण लोकतन्त्र के जीवन का अंत किए दे रहा है।
ये नेता अपने अहम् की असंतुष्टि से जब चाहे वर्तमान दल छोड़ कर चल देते हैं और हाथ थम लेते हैं किसी और दल का। क्या ऐसे दलों की कमी है जो सिर्फ सरकार गिराने के लिए अपना समर्थन देते हैं और स्वार्थ पूर्ति न होने पर वापस ले लेते हैं। जब चाहे देश को आमचुनाव की विभीषिका में झोंक देते हैं। जब मन हुआ अपने लिए नया दल बना लिया और चल दिए सौदेबाजी के लिए।
जब संविधान बना था तब हमारी राजनैतिक और सामजिक स्थितियां कुछ और थी। यह नहीं मालूम था की आगे क्या हालत होने वाले हैं? हम अपने संविधान के अनुसार चल रहे हैं किंतु वह अब वर्तमान समय में बहुत संशोधन चाहता है। स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के कितने वर्ष बीत चुके हैं और हमारी स्वतंत्रता परिपक्व हो चुकी है लेकिन अगर लोकतन्त्र की ओर दृष्टिपात करें तो उसका आसन आज भी स्थिर नहीं है बल्कि डांवाडोल हो रहा है और उसके साथ ही लोक की आस्थाएं बदल रही हैं। इन दल बदलुओं के प्रति कोई विश्वास मन में नहीं रह गया है। आज विश्वास उसी पर है जो अपने दल के साथ निष्ठां रखते हैं। आज भी दल एक सुदृढ़ नेतृत्व के बल पर ही चलते हैं। उनकी एकता और निष्ठा से लोकतन्त्र सुरक्षित रह सकता है।
ऐसे लोगों के लिए स्थायित्व की ओर कदम बढ़ाये जाने की जरूरत है। किसी भी दल में शामिल होना और फिर निकल आना बिजली के स्विच के ऑन और ऑफ़ करने जैसा बन चुका है। राजनीति का अपराधीकरण तो अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका है। न्यायपालिका भी विवश नजर आती है। महाबली सांसदों और विधायकों की सेना ने लोक को भयभीत कर रखा है। जो जितना अधिक प्रश्नवाचकों से ग्रसित लोगों से समर्थन प्राप्त है वह उतना ही शक्तिशाली दल और नेता है। जहाँ वर्षों तक जेल में रहने वालों को दल अपना अब बना लेते हैं kyonki unako yah maaloom hai ina logon ke gurgon ke sahare jeet sunishchit hai.
आज संविधान के पुनरवलोकन की जरूरत बढ़ गई है, हम इतने वर्षों के बाद भी बदलते हालत के साथ उसको बदल नहीं पाये हैं।
इन हालातों में इन सुधारों की जरूरत महसूस हो रही है।
@ चुनाव में जीतने के बाद जिस दल का समर्थन किया हो उसको छोड़ने के बाद उस सदस्य की सदस्यता अधिकार निरस्त कर दिए जाए। उसे सदन में मतदान का अधिकार प्रदान न किया जाए।
@ अगर चयनित प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद निरंकुश व्यवहार करता है तो उसको बुलाने के अधिकार लोक के पास हों या फिर लोग अदालत में उसकी प्रस्तुति जरूरी हो और उससे पूछा जाय की क्यों न अधिकार के दुरूपयोग का दंड दिया जाय।
@ ५ वर्ष के लिए या कुछ अधिकार जो सारे जीवन के लिए इनको मिलते हैं, ये सारे जीवन के लिए नेताजी बन कर शासकीय सम्पति का दुरूपयोग भी करते रहते हैं।
@ नैतिक जिम्मेदारी तो इनकी कोई होती ही नहीं है, संपत्ति संचय कर कई पीढ़ियों तक का इंतजाम कर जाने में ही अपने जीवन को सार्थक मानते हैं।
@ दशकों पुराने मूल्यों को दुहाई देकर आज भी चुनाव जीतते आ रहे हैं। लाठी टेक कर चलने की क्षमता इनमें नहीं है, ये देश को चलाने का दम भर रहे हैं।
@ अपराध साबित हो या न हो जेल के अन्दर से किसी को भी चुनाव लड़ने का अधिकार न दिया जाय। वे जेल में भले हों उनके गुर्गे चुनाव जितने के लिए पर्याप्त होते हैं।
@ संविधान संशोधन का काम नेताओं का नहीं, संविधानविद, राजनीतिशास्त्रियों, और न्यायाधीशों के द्वारा होना चाहिए।