समाज में परिवार , मित्र और औपचारिक परिचय सबमें एक तारतम्य होता है और इसके लिए ही सामाजिक संबंधों का अपना महत्व है। हमारी संस्कृति में पुरातन काल से ही और गांवों में आज भी धर्म जाति से परे एक सम्बन्ध बना होता है । अगर जमादारिन है तो उसको भी चाची के संबोधन से पुकारा जाता है । वृद्ध हैं तो दादा या बाबा के संबोधन से। पिता के समकक्ष तो चाचा ही बुलाते हैं । गाँव में निकल गए तो जो मिला उससे ही दुआ सलाम और हाल चाल लेते हुए एक अपनत्व जो इन संबोधनों में होता है , इस शहरी सभ्यता में उसकी तो अब इतिश्री हो चुकी है।
इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं, पश्चिमी संस्कृति के अन्धानुकरण ने हमें बहुत अधिक औपचारिक बना दिया है। मेरे पति के पुराने मित्रों के बच्चों में आज भी मैंने एक बात महसूस की है कि वे कभी भी हम लोगों से आंटी या अंकल जैसे संबोधन से नहीं बुलाते हैं। चाहे जितने बड़े हो चुके हैं। अपने देश के परिवेश से बहुत दूर हैं लेकिन जब भी मिलेंगे। चाची और चाचा ही कहेंगे। कितना अपनत्व महसूस करते हैं और हम सभी इस बात पर गर्व भी करते हैं की कम से कम हमने अपने बच्चों तक तो इस संस्कार को जीवित रखा है।
आज आधुनिकता कि दौड़ में तो पिता के सगे भाई को भी अंकल कहने का जो फैशन बन चुका है, शायद चाचा कहने में खुद को पिछड़ा हुआ महसूस करते होंगे। पर इन संबोधनों का एक भावात्मक सम्बन्ध होता है, ऐसा मेरा मानना है शेष लोगों का या जो इसको अपने जीवन में शामिल कर चुके हैं उनका क्या सोचना है? यह तो वही जान सकते हैं। परिवार और रक्त संबंधों में तो मेरे ख्याल से इन संबोधनों को शामिल नहीं करना चाहिए। उन्हें अपनत्व के दायरे से दूर करने वाले संबोधन और दूर कर देते हैं।
शायद अंग्रेजी को अपनी जिन्दगी में प्राथमिकता देने का भी परिणाम हो सकता है। पर अंग्रेजी संस्कृति के समान ही अब सब आपस में उस अपनत्व को खोते भी जा रहे हैं। उससे बड़ा तो ये है कि आने वाले समय में आज कि नवल पौध तो अधिकतर इकलौती ही संतान होती है और फिर उनके बच्चों के लिए चाचा , बुआ जैसे रिश्तों के लिए कोई जगह ही नहीं है। सब अकेले और जो दूर के हुए वे अंकल हो गए । सब कुछ अकेले ही जीना और सहना होगा। अपने द्वारा बनाये संसार में हम और हमारे आने वाले बच्चे अकेले ही अकेले रहेंगे।
जो हालात चल रहे हैं, उनमें बच्चे माँ से अधिक अपनी आया के करीब होते हैं, इन परिस्थितियों में संस्कार भी कहाँ से सीख रहे हैं? अपने बुजुर्गों के साथ रहना शायद उनको रास नहीं आता है और फिर संस्कार देने के समय न माँ के पास होता है और न पिता के पास। इन रिश्तों के संसार की गरिमा कौन समझे और समझाये।
अपनी सोच का शब्दों से श्रृंगार करें और फिर बाँटें अपने विचर और दूसरे से लें. कितना आसन है उन सबसे लड़ना जो हमें दुश्वार लगते हैं. कोई दिशा आप दें और कोई हम दें 'वसुधैव कुटुम्बकम' कि सूक्ति सार्थक हो जायेगी.
शनिवार, 26 दिसंबर 2009
गुरुवार, 3 दिसंबर 2009
विकलांग दिवस - एक संदेश!
आज अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस है!
एक ऐसा वर्ग , जो सामान्य से इतर है किंतु वे बेचारे नहीं है - इसके लिए इतिहास लिख रहे हैं। यह समाज आज भी उनको सम्मान नहीं दे पाता है, जिसके वे हक़दार हैं। एक अहसास रखते हैं उनके लिए कि वे विकलांग हैं, पर वे वास्तव में बेचारे नहीं हैं।
सम्पूर्ण विश्व में इनकी संख्या ६५० मिलियन है आंकी गई है और प्रत्यके देश में इनकी संख्या १५ से २० प्रतिशत तक है। इतने सारे लोग अक्षम कहे जाते हैं , वह बात और है कि इनकी विकलांगता का स्वरूप अलग अलग हो सकता है। एक महत्वपूर्ण बात यह है की जो विकलांग पैदा होते हैं - उनकी बाल्यावस्था और किशोरावस्था में उनके साथ किया गया व्यवहार और मनोवैज्ञानिक संबल उनको भविष्य के लिए तैयार करता है। इस काल में उनके सामने सम्पूर्ण जीवन होता है और वे भविष्य के प्रति आशंकित होते हैं। उनकी इन आशंकाओं के जन्मदाता हम ही होते हैं। उनके घर, परिवार और परिवेश में यदि सकारात्मक सोच हो तो वे फिर अपने को सक्षम बना सकते हैं। इसमें सबसे बड़ी भूमिका माता-पिता और भाई बहनों की होती है।
कानपुर की दो बहनें श्रुति और गोरे अपने आप में एक मिशाल हैं, जो विकलांग होने के बाद भी सिर्फ राज्य स्तर पर ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी पुरस्कृत की गई हैं। उन्हें गायन का शौक है और वे अपने इस शौक से ही अपना ही नहीं बल्कि सभी विकलांगों के लिए एक उदाहरण बन कर खड़ी हैं।
इस तरह से सभी विकलांगों में सक्षम होने के जज्बे को भरने की जरूरत है। भीख माँगते हुए विकलांगों की तस्वीर यदि मन को द्रवित कर जाती है तो अपने हाथों से साइकिल चलाकर १५ किमी तक की दूरी तय करके नौकरी के लिए जाती हुए नित्या पर गर्व किया जा सकता है। बस वह ये सहन नहीं कर पाती कि लोग उसको 'बेचारी' की संज्ञा से नवाजें।
ये 'बेचारा' शब्द इन लोगों के लिए एक मायूसी का माहौल पैदा कर सकता है। उनका हाथ पकड़ कर खड़ा नहीं कर सकते तो उनको धक्का भी मत दीजिये। वे आपसे सहानुभूति नहीं बल्कि हौसला अफजाई की उम्मीद रखते हैं। सक्षम तो वे हैं ही- अपनी अक्षमताओ को चुनौती मानकर लड़ने के लिए भी तैयार है। आप बस उनके लिए स्तम्भ बन जाइए।
मैंने १९८४ में किशोर विकलांगों के आत्मविश्वास का अध्ययन किया था। सिर्फ ५ प्रतिशत लोग ऐसे थे , जिनमें आत्मविश्वास नहीं था , वह भी अपने घर , परिवार और परिवेश में मिली उपेक्षा और असहयोगपूर्ण रवैये के कारण।
बाकी अपने कार्य को करने के लिए पूर्ण प्रयास कर रहे थे। उन्हें भी 'बेचारा' शब्द बिल्कुल भी पसंद नहीं था। उनके अनुसार यह शब्द उनके कानों में पड़कर हताशा देने वाला बन जाता है। वे किसी से सहायता नहीं चाहते किंतु हिम्मत बढ़ाने के लिए ताकत चाहते हैं , कर तो वे ही सब लेंगे लेकिन हम उन्हें बस साहस की ओर ले जा सकते हैं। अपने काम उनको स्वयं करने दीजिये। उनकी वैशाखी मत बनिए। अपने पैरों पर खड़े होकर डगमगायेंगे और गिरेंगे भी किंतु कल वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। वे दौड़ेंगे और मंजिल तक पहुँच जायेंगे।
अपने आत्मविश्वास से ही वे महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए हैं। ऐसा नहीं सरकार भी उन्हें अवसर प्रदान करती है किंतु उन अवसरों तक पहुँचने के लिए मनोवैज्ञानिक संबल तो हम और आप ही दे सकते हैं।
आज का संकल्प है की जो विकलांग है, उन्हें हाथ बढ़ाकर खड़ा करें और चलने की प्रेरणा दें वे हम से कम न रहें । वे सम्पूर्णता से जिए।
बुधवार, 25 नवंबर 2009
जरा याद करो क़ुरबानी...............
कल एक वर्ष हो जाएगा मुंबई काण्ड को, हम उन सभी शहीदों को नमन करते हैं - जिन्होंने अपना जीवन देश के लिए कुर्बान कर दिया किंतु फिर हम उतने ही सवालों से घिर जाते हैं कि हमने यानि इस देश के वे लोग जो उनके प्रति न्याय के लिए जिम्मेदार हैं - क्या आज तक न्याय कर पाये?
उस समय बहुत बुरा लगा था न जब की शहीदों के परिजनों ने शोक प्रकट करने गए नेताओं , और मंत्रियों से मिलने से इन्कार कर दिया था। बड़ी बड़ी घोषणाएं और कसीदे काढ़े गए थे।
आज एक वर्ष बाद भी उनकी आत्माएं कहीं अपने बलिदान पर पछता रही होंगी, क्योंकि उनके घर वाले उस न्याय के लिए ख़ुद सोनिया गाँधी से मिलने जा रहे हैं। उनके बलिदान की याद दिलाने के लिए कि उनके बलिदान को व्यर्थ न जाने दें। वे क्या चाहते हैं? सिर्फ ये कि उन आतंकवादियों को फांसी की सजा दी जाय जिन्होंने सैकड़ों की जाने लीं और सैकड़ों को मृतप्राय बना दिया। हम उन्हें मेहमान की तरह से पाल रहे हैं।
संसद हमले का आरोपी आज कितने वर्ष बाद भी सुरक्षित है और उस काण्ड के शहीदों के परिजनों का कोई पुरसा हाल नहीं। और तो और उस क्षेत्र के जन प्रतिनिधि भी कभी उनकी सुधि नहीं लेते। क्या उनकी इस हरकत से जन सामान्य खुश होता है नहीं लेकिन उनके हाथ बंधे हुए हैं क्योंकि वे जन प्रतिनिधि चुनने का अपराध तो कर ही चुके हैं।
अपनी छवि बनने के लिए सरकार बड़ी - बड़ी घोषणाएं करती है लेकिन वे घोषणाएं सिर्फ उस समय अपनी छवि बनाने के लिए होती हैं। उनको मिलता कुछ भी नहीं है, और तो और कोई मंत्री, विधायक या सांसद इस बात को जानने की जरूरत ही नहीं समझता है की इस दिशा में कभी कोई खोजखबर ली जाय।
काण्ड हुए और हम भूल गए क्योंकि हमने तो कुछ खोया ही नहीं था, बस खोने वालों के चहरे देखे थे। उनकी मनःस्थिति को जिया नहीं था बस दूर से अहसास किया था।
हम इन आतंकवादियों को शायद किसी कांधार काण्ड की पुनरावृत्ति के लिए पाल रहे हैं। हमारी न्यायपालिका लचर है कि उसको लचर बनाने वाली कार्यपालिका और विधायिका भी इसमें शामिल है। वर्षों तक मामले लंबित रहते हैं। और वह भी ऐसे मामले जो देश की सुरक्षा से जुड़े रहे हों।
मेरी तो बस यही कामना है की जिन्होंने ने अपनों को इस दिन खोया था - ईश्वर उन्हें शक्ति और धैर्य दे और हमारी सरकार को सदबुद्धि कि अपने वोट बैंक की बजाय पहले देश के रक्षकों की सुधि ले। राजनीति से परे ये विषय है इसलिए लंबित है अगर कहीं किसी दल का प्रमुख मर गया होता तो तुरंत ही उसके परिजन को उत्तराधिकारी बना कर राजतिलक कर दिया गया होता। किंतु इन शहीदों का विकल्प हम कहाँ खोंजें। कोई तो उनके बच्चों के सर पर हाथ रखने वाला , माँ-बाप और पत्नी को सांत्वना देने वाला नहीं होता है। बस इसी कामना के साथ की ईश्वर उन्हें शक्ति और दृढ़ता प्रदान करे।
पुनः उन शहीदों को मेरा शत शत नमन.
मंगलवार, 24 नवंबर 2009
लोकतंत्र के टूटते आधार!
कहीं पढ़ा की 'कल्याण सिंह' फिर भाजपा में शामिल होने के बाद ६ दिसंबर को 'जय श्री राम ' बोलेंगे। ये तथाकथित नेता अपने को समझते क्या हैं? लोकतन्त्र को मजाक बना कर रखा है। जब जहाँ चाहे मुंह उठाकर चल दिए, क्योंकि चुनाव तो साम दंड से जीत ही चुके हैं और वे अपने ऊपर लोग प्रतिनिधि होने का भी लगा चुके हैं।
देश की वर्तमान दशायों के देखते हुए - क्या हम कह सकते हैं की इस जमीन में लोकतन्त्र की जड़ें बहुत गहरी हैं। पर लोकतन्त्र में लोक की भूमिका कितनी शेष है, यह तो विचारनीय विषय है। उदासीन सा लोक यह सोचता है की उसकी क्या भागीदारी हे? कितने प्रतिशत लोक भाग ले रहा है इस लोकतन्त्र में। देश में राजनीति का प्रदूषण लोकतन्त्र के जीवन का अंत किए दे रहा है।
ये नेता अपने अहम् की असंतुष्टि से जब चाहे वर्तमान दल छोड़ कर चल देते हैं और हाथ थम लेते हैं किसी और दल का। क्या ऐसे दलों की कमी है जो सिर्फ सरकार गिराने के लिए अपना समर्थन देते हैं और स्वार्थ पूर्ति न होने पर वापस ले लेते हैं। जब चाहे देश को आमचुनाव की विभीषिका में झोंक देते हैं। जब मन हुआ अपने लिए नया दल बना लिया और चल दिए सौदेबाजी के लिए।
जब संविधान बना था तब हमारी राजनैतिक और सामजिक स्थितियां कुछ और थी। यह नहीं मालूम था की आगे क्या हालत होने वाले हैं? हम अपने संविधान के अनुसार चल रहे हैं किंतु वह अब वर्तमान समय में बहुत संशोधन चाहता है। स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के कितने वर्ष बीत चुके हैं और हमारी स्वतंत्रता परिपक्व हो चुकी है लेकिन अगर लोकतन्त्र की ओर दृष्टिपात करें तो उसका आसन आज भी स्थिर नहीं है बल्कि डांवाडोल हो रहा है और उसके साथ ही लोक की आस्थाएं बदल रही हैं। इन दल बदलुओं के प्रति कोई विश्वास मन में नहीं रह गया है। आज विश्वास उसी पर है जो अपने दल के साथ निष्ठां रखते हैं। आज भी दल एक सुदृढ़ नेतृत्व के बल पर ही चलते हैं। उनकी एकता और निष्ठा से लोकतन्त्र सुरक्षित रह सकता है।
ऐसे लोगों के लिए स्थायित्व की ओर कदम बढ़ाये जाने की जरूरत है। किसी भी दल में शामिल होना और फिर निकल आना बिजली के स्विच के ऑन और ऑफ़ करने जैसा बन चुका है। राजनीति का अपराधीकरण तो अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका है। न्यायपालिका भी विवश नजर आती है। महाबली सांसदों और विधायकों की सेना ने लोक को भयभीत कर रखा है। जो जितना अधिक प्रश्नवाचकों से ग्रसित लोगों से समर्थन प्राप्त है वह उतना ही शक्तिशाली दल और नेता है। जहाँ वर्षों तक जेल में रहने वालों को दल अपना अब बना लेते हैं kyonki unako yah maaloom hai ina logon ke gurgon ke sahare jeet sunishchit hai.
आज संविधान के पुनरवलोकन की जरूरत बढ़ गई है, हम इतने वर्षों के बाद भी बदलते हालत के साथ उसको बदल नहीं पाये हैं।
इन हालातों में इन सुधारों की जरूरत महसूस हो रही है।
@ चुनाव में जीतने के बाद जिस दल का समर्थन किया हो उसको छोड़ने के बाद उस सदस्य की सदस्यता अधिकार निरस्त कर दिए जाए। उसे सदन में मतदान का अधिकार प्रदान न किया जाए।
@ अगर चयनित प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद निरंकुश व्यवहार करता है तो उसको बुलाने के अधिकार लोक के पास हों या फिर लोग अदालत में उसकी प्रस्तुति जरूरी हो और उससे पूछा जाय की क्यों न अधिकार के दुरूपयोग का दंड दिया जाय।
@ ५ वर्ष के लिए या कुछ अधिकार जो सारे जीवन के लिए इनको मिलते हैं, ये सारे जीवन के लिए नेताजी बन कर शासकीय सम्पति का दुरूपयोग भी करते रहते हैं।
@ नैतिक जिम्मेदारी तो इनकी कोई होती ही नहीं है, संपत्ति संचय कर कई पीढ़ियों तक का इंतजाम कर जाने में ही अपने जीवन को सार्थक मानते हैं।
@ दशकों पुराने मूल्यों को दुहाई देकर आज भी चुनाव जीतते आ रहे हैं। लाठी टेक कर चलने की क्षमता इनमें नहीं है, ये देश को चलाने का दम भर रहे हैं।
@ अपराध साबित हो या न हो जेल के अन्दर से किसी को भी चुनाव लड़ने का अधिकार न दिया जाय। वे जेल में भले हों उनके गुर्गे चुनाव जितने के लिए पर्याप्त होते हैं।
@ संविधान संशोधन का काम नेताओं का नहीं, संविधानविद, राजनीतिशास्त्रियों, और न्यायाधीशों के द्वारा होना चाहिए।
देश की वर्तमान दशायों के देखते हुए - क्या हम कह सकते हैं की इस जमीन में लोकतन्त्र की जड़ें बहुत गहरी हैं। पर लोकतन्त्र में लोक की भूमिका कितनी शेष है, यह तो विचारनीय विषय है। उदासीन सा लोक यह सोचता है की उसकी क्या भागीदारी हे? कितने प्रतिशत लोक भाग ले रहा है इस लोकतन्त्र में। देश में राजनीति का प्रदूषण लोकतन्त्र के जीवन का अंत किए दे रहा है।
ये नेता अपने अहम् की असंतुष्टि से जब चाहे वर्तमान दल छोड़ कर चल देते हैं और हाथ थम लेते हैं किसी और दल का। क्या ऐसे दलों की कमी है जो सिर्फ सरकार गिराने के लिए अपना समर्थन देते हैं और स्वार्थ पूर्ति न होने पर वापस ले लेते हैं। जब चाहे देश को आमचुनाव की विभीषिका में झोंक देते हैं। जब मन हुआ अपने लिए नया दल बना लिया और चल दिए सौदेबाजी के लिए।
जब संविधान बना था तब हमारी राजनैतिक और सामजिक स्थितियां कुछ और थी। यह नहीं मालूम था की आगे क्या हालत होने वाले हैं? हम अपने संविधान के अनुसार चल रहे हैं किंतु वह अब वर्तमान समय में बहुत संशोधन चाहता है। स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के कितने वर्ष बीत चुके हैं और हमारी स्वतंत्रता परिपक्व हो चुकी है लेकिन अगर लोकतन्त्र की ओर दृष्टिपात करें तो उसका आसन आज भी स्थिर नहीं है बल्कि डांवाडोल हो रहा है और उसके साथ ही लोक की आस्थाएं बदल रही हैं। इन दल बदलुओं के प्रति कोई विश्वास मन में नहीं रह गया है। आज विश्वास उसी पर है जो अपने दल के साथ निष्ठां रखते हैं। आज भी दल एक सुदृढ़ नेतृत्व के बल पर ही चलते हैं। उनकी एकता और निष्ठा से लोकतन्त्र सुरक्षित रह सकता है।
ऐसे लोगों के लिए स्थायित्व की ओर कदम बढ़ाये जाने की जरूरत है। किसी भी दल में शामिल होना और फिर निकल आना बिजली के स्विच के ऑन और ऑफ़ करने जैसा बन चुका है। राजनीति का अपराधीकरण तो अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका है। न्यायपालिका भी विवश नजर आती है। महाबली सांसदों और विधायकों की सेना ने लोक को भयभीत कर रखा है। जो जितना अधिक प्रश्नवाचकों से ग्रसित लोगों से समर्थन प्राप्त है वह उतना ही शक्तिशाली दल और नेता है। जहाँ वर्षों तक जेल में रहने वालों को दल अपना अब बना लेते हैं kyonki unako yah maaloom hai ina logon ke gurgon ke sahare jeet sunishchit hai.
आज संविधान के पुनरवलोकन की जरूरत बढ़ गई है, हम इतने वर्षों के बाद भी बदलते हालत के साथ उसको बदल नहीं पाये हैं।
इन हालातों में इन सुधारों की जरूरत महसूस हो रही है।
@ चुनाव में जीतने के बाद जिस दल का समर्थन किया हो उसको छोड़ने के बाद उस सदस्य की सदस्यता अधिकार निरस्त कर दिए जाए। उसे सदन में मतदान का अधिकार प्रदान न किया जाए।
@ अगर चयनित प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद निरंकुश व्यवहार करता है तो उसको बुलाने के अधिकार लोक के पास हों या फिर लोग अदालत में उसकी प्रस्तुति जरूरी हो और उससे पूछा जाय की क्यों न अधिकार के दुरूपयोग का दंड दिया जाय।
@ ५ वर्ष के लिए या कुछ अधिकार जो सारे जीवन के लिए इनको मिलते हैं, ये सारे जीवन के लिए नेताजी बन कर शासकीय सम्पति का दुरूपयोग भी करते रहते हैं।
@ नैतिक जिम्मेदारी तो इनकी कोई होती ही नहीं है, संपत्ति संचय कर कई पीढ़ियों तक का इंतजाम कर जाने में ही अपने जीवन को सार्थक मानते हैं।
@ दशकों पुराने मूल्यों को दुहाई देकर आज भी चुनाव जीतते आ रहे हैं। लाठी टेक कर चलने की क्षमता इनमें नहीं है, ये देश को चलाने का दम भर रहे हैं।
@ अपराध साबित हो या न हो जेल के अन्दर से किसी को भी चुनाव लड़ने का अधिकार न दिया जाय। वे जेल में भले हों उनके गुर्गे चुनाव जितने के लिए पर्याप्त होते हैं।
@ संविधान संशोधन का काम नेताओं का नहीं, संविधानविद, राजनीतिशास्त्रियों, और न्यायाधीशों के द्वारा होना चाहिए।