गुरुवार, 30 सितंबर 2010

अदम्य इच्छाएं सीढ़ी है अपराध की !

                        मानव मनोभावों और इच्छाओं के बूते ही अपना सुखी जीवन और सुखी संसार बनाता  है. हर कोई चाहता है कि अपनी इच्छाओं कि पूर्ति के लिए कठिन परिश्रम करे और उनका सुख उठाये. किन्तु ये इच्छाएं भी उसके जीवन में अलग अलग प्रयोजनार्थ होती हैं, यदि ये सिर्फ स्वहित से जुड़ी हैं तो उनका मंतव्य कुछ और ही होगा और अगर ये परहित से जुड़ी हैं तो उनकी प्राप्ति के साधन का स्वरूप कुछ और ही होगा. जूनून दोनों में ही होता है लेकिन उसके लिए प्रयास विभिन्न प्रकार के होते हैं. 
                               आज के इस आधुनिकता और स्पर्धा के दौर में जीवन सिर्फ भौतिकताओं में सिमट कर रह गया है और उन्हीं के कारण ये अपने साधनों को चुनने लगे हैं. इससे जुड़ी अदम्य इच्छाएं ही व्यक्ति को ले जाती हैं अपराध की ओर. अगर वह परहित से जुड़ा है तो अपने सीमित साधनों से उसको हासिल करने की चेष्टा करता है किन्तु यदि ये स्वहित से जुड़ी हैं तो निश्चय ही वह उसके लिए कुछ भी करने को तैयार होता है और फिर ये अदम्य इच्छाएं उनके लिए अपराध की सीढ़ी बन जाती हैं और अपराध के दलदल में फंसा इंसां और गहरे में चला जाता है.
                               अपने क्षेत्र में सर्वोपरि बने रहने की अदम्य इच्छा ने व्यक्ति को इतना नीचे गिरा दिया कि वह हत्या करवाने जैसा जघन्य अपराध तक कर बैठता है. एक कोचिंग संचालक ने अपने प्रतिद्वद्वी को पहले अपहरण कर और उसके बाद हत्या कर ऐसे स्थान पर फिंकवाया की उसके मिलने की कोई गुंजाईश ही न थी और फिर मिल भी जाये तो शिनाख्त का कोई प्रश्न नहीं उठता किन्तु शायद उन बूढ़े माँ बाप के कुछ पुण्य शेष रहे होंगे तो उन्हें अपने बेटे की लाश मिल गयी किन्तु उनका तो जीवन ही समाप्त हो गया. जिस दिन अपहरण की सूचना मिली तो वे महोदय अपने क्लास में कह रहे थे कि आज तो मिठाई बांटने का दिन है. हो सकता है कि वे इसमें लिप्त न हों लेकिन अपरोक्ष रूप से वे ही माने गए. साक्ष्य  न मिले और मामला खत्म हो गया किन्तु????????????
                           भौतिक सुखों की  अदम्य  इच्छाएं तो उससे कुछ भी करवा सकती हैं क्योंकि  ये ही उसके जीवन का साध्य बन जाती हैं. इसके लिए वह प्रत्यक्ष रूप से नहीं परोक्ष रूप से चोरी  करेगा. दूसरों को धोखा देगा और अपने घर वालों  से भी झूठ बोलेगा. उनकी आपाधापी में न घर को समय है और न परिवार को. अनैतिक काम भी करेगा . यह वह किसके लिए करता है? करोड़ों का बैंक बैलेंस होगा लेकिन क्या वह रख पायेगा बैंक में. नहीं. बाहर रखेगा और घर की तिजोरी में रखेगा. असीमित धन होने पर भी क्या वह सोने के सिक्के चबायेगा. खाना वह वही खायेगा  क्योंकि इस कार्य में उसका स्वास्थ्य उसको बहुत कुछ खा पाने की पाबन्दी लगा चुका होगा. सोयेगा वह बिस्तर पर ही वह बात और है कि मखमली बिस्तर पर सोये और ज़री के चादर बिछा ले लेकिन क्या नीद उसको चैन की आएगी? गाड़ियाँ वह १० रख सकता है लेकिन चल सिर्फ एक में ही पायेगा. करोड़ों रुपये का मालिक क्या आसमान में पैर रख कर चलेगा, चलना उसे जमीं पर ही पड़ेगा और जब फिर जब जाएगा तो खाली हाथ. उसके साथ कुछ भी नहीं जायेगा. बस उसकी अदम्य इच्छाओं ने उसको गुनाहगार बना दिया. 
                           प्रभाव और स्वामित्व की अदम्य इच्छाएं भी व्यक्ति को किसी और अपराध की ओर ले जाती हैं. राजनीति इसका सबसे पहला पाठ पढ़ती है. अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए वह कितने अपराध करता और करवाता है. चुनाव शुरू नहीं हुए और हत्याओं का दौर शुरू हो गया. अपने प्रभाव को मनवाने का सबसे सफल तरीका है. अपने प्रभाव को कायम रखने के लिए वह अपराधी भी पालता है जो उसके स्थान पर हत्या और अपहरण जैसे छोटे मोटे काम कर सकें. माफिया क्या होते हैं? इन्हीं अदम्य इच्छाओं के स्वामी होते हैं. बस्तियां जलवा दी और बन गया काम्प्लेक्स उसकी कमाई पाप की है लेकिन उनके नाम से लोग थर्राते हैं. किसी को उठवा लेना, किसी को टपका देना और किसी से खोके की मांग ही उनको अपराध जगत में स्थापित करती है. ये भी उनकी अदम्य इच्छा है लेकिन बस सिर्फ यही इच्छा पूरी होती है . शेष घर और परिवार के लिए वे दुर्लभ होते हैं. एक आम इंसां की जिन्दगी क्या होती है? इससे वे अनभिज्ञ  होते हैं.
                        इसका सबसे घिनौना रूप होता है - जब इंसां सेक्स की अदम्य इच्छा का शिकार होता है. इसका कोई अंत नहीं होता है और वह इसके लिए उम्र , जाति और नैतिक और अनैतिक तरीके से भी नहीं डरता है. ये छोटी छोटी लड़कियों के साथ होने वाले कृत्य ,  गरीब या सुन्दर लड़कियाँ जिन पर ऐसे लोगों की नजर पड़ी फिर वे इसके लिए कुछ भी करेंगे. उनकी बुद्धि इतनी भ्रष्ट हो चुकी होती है कि उनको कुछ भी नहीं दिखाई देता है. ये अपराध तो उन्हें सबसे नीचे गिरा देता है. हो सकता है कि वे प्रभाव से बच जाते हों और इसका शिकार किसी और को बना देते हो लेकिन न्याय  तो कभी न कभी होता ही है और फिर ऐसे लोग न घर के होते हैं और न घाट के. ऐसे कार्य के लिए बड़े बड़े अफसर , डॉक्टर , इंजीनियर से लेकर छोटे तबके लोगों तक के चेहरे काले हुए हैं.
                   ऐसा नहीं है, ये अदम्य इच्छाएं यदि परहित के लिए होती हैं तो वे उसको बहुत बड़ा स्टेटस नहीं दे जाती लेकिन उस इंसां के चेहरे के ख़ुशी और मन के सुकून को कोई पा नहीं सकता है. ऐसे ही एक सज्जन हैं जिनको जूनून है कि वे लावारिश लाशों का अंतिम संस्कार ले जाकर  करते हैं और वर्षों से इस काम में जुटे हैं. उनसे मिलकर लगता है कि क्या ये भी कोई कर सकता है लेकिन उनका जूनून है. 
                     मदर टेरेसा जैसी महान आत्मा को क्या दीन- दुखियों की सेवा कि अदम्य इच्छा ने ही यहाँ भारत में लाकर नहीं रखा और उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर सबकी माँ नहीं बना दिया. बस इसके रूप और उद्देश्य अलग अलग होते हैं.

शनिवार, 11 सितंबर 2010

अवसाद, कुण्ठा और तनाव : जीवन के खतरनाक मोड़ !

अवसाद (Depression ) , कुण्ठा (Frustration ),  और तनाव (Tension )  : जीवन के खतरनाक मोड़ होते है , इन मोड़ों पर कभी कभी ये भी देखने को मिलता है  --


*सैनिक ने आत्मा हत्या कर ली
*साथियों पर अंधाधुंध  गोलियां चलाईं  और खुद को गोली मार ली.
*अफसरों के व्यवहार से क्षुब्ध होकर आत्महत्या.
*पत्नी के झगड़कर मायके जाने या वापास न आने पर फाँसी लगा ली.
*परीक्षा में फेल होने के डर से परिणाम से पहले आत्महत्या.


                               जीवन एक सुगम, सरल रास्ता नहीं है , इस पर चलने वाले कितने मानसिक व्याधियों से गुजरते हैं - कभी काबू पा लेते हैं और कभी हार जाते हैं . इन मानसिक स्थितियों का धन - दौलत और ऐश्वर्य से कुछ भी लेना देना नहीं है. 
बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लोग अपने इस हाल में घर वाले , मित्र  आदि को अपना हमराज बना लेते हैं और ये सामने वाले की समझदारी होती है कि वे उसको इससे उबारने में कैसे सहायता करते हैं? अक्सर उबर भी जाते हैं.
                           इसके विपरीत  एक पक्ष अंतर्मुखी लोगों का होता है , ये इन स्थितियों में अधिक खतरनाक निर्णय ले बैठते हैं. ये सिर्फ अपने में जीते हैं, उनकी मानसिक स्थिति सिर्फ उनकी संपत्ति है और इससे वे ही निपट सकते हैं ऐसी सोच उनको और सीमित कर देती है. ऐसे लोगों का व्यवहार , बातचीत और दायरा एकदम अलग होता है. 
                           जीवन के खतरनाक मोड़ कुछ लोगों को मौत के द्वार तक ले जाते हैं . इसका स्वरूप आत्महत्या, दूसरों की हत्या कर आत्महत्या या अंधाधुंध शराब पीकर वाहन चलाना दूसरों को क्षति पहुँचाना या खुद को ही पहुँचाना. इस स्थिति में सड़क पर चलते हुए या कहीं भी जाते हुए आगे पीछे के होर्न या अन्य संकेतक कुछ भी नहीं समझ आते हैं और फिर दुर्घटना. 
            इन स्थितियों से यथासंभव बचने का प्रयास करना चाहिए लेकिन मनोवेगों पर भी व्यक्ति का पूर्ण नियंत्रण नहीं होता है. यदि स्वविवेक से कार्य किया जा सके तो अच्छा है अन्यथा मनोचिकित्सक के पास  जाकर इसके लिए रास्ते मिल सकते हैं. कोई भी अनियंत्रित स्थिति पागलपन  की  हद तक जा सकती है. इससे पूर्व कि स्थिति पागलपन या जीवन की समाप्ति के निर्णय तक पहुँच जाये , घर वालों को सतर्क होना चाहिए. अंतर्मुखी व्यक्ति को  हमेशा इस बात के लिए उत्साहित करना चाहिए कि वह डायरी लिखने की आदत डाल ले और भी तरीके से वह अपनी आतंरिक मनोभावों को अभिव्यक्त कर सकता है. कविता कहानी के रूप में या फिर चाहे वह उसको लिख कर फाड़ ही दे लेकिन ये निश्चित है कि वह कुछ हद तक अपनी मानसिक स्थिति से मुक्ति नहीं तो उससे उत्पन्न गलत विचारों से निज़ात  अवश्य ही पा सकता है. दिमाग में उमड़ते घुमड़ते तनाव, कुंठा या अवसाद जब शब्दों में लिख कर निकल जाते हैं तो इंसां बहुत हल्का हो जाता है और वे रास्ते जो उसको सिर्फ और सिर्फ स्वयं को क्षति पहुँचने के लिए खुले मिलते हैं , वे बंद हो जाते हैं.
                            एक जागरुक मानव होने के नाते इस पर एक बार विचार कीजिये और कोशिश कीजिये कि ऐसे कुछ लोग अगर आपके संपर्क में हों तो उन्हें एक नई दिशा दीजिये. सिर्फ और सिर्फ लेखन कितने को बचा सकता है. चलिए इस दिशा में प्रयास करें.