बुधवार, 10 जुलाई 2013

संस्कार कोई गिफ्ट पैक नहीं !

                             

  आज कल चल रहे समाज के वीभत्स वातावरण को देख कर आत्मा काँप जा रही है . हम किस उम्र की बात कहें ? सवा साल की बच्ची से दुष्कर्म की बात पढ़ कर तो लगा कि क्या वाकई बच्चियों को जन्म से पहले ही मार देने की प्रथा इसी लिए चलाई गयी थी . परदे की प्रथा इसी लिए शायद शुरू की गयी होगी लेकिन तब तो ऐसे कृत्य नहीं हुआ करते थे.

                              जो आजकल हो रहा है , मुझे नहीं लगता है कि  हमने ऐसे बच्चों को अगर सही संस्कार दिए होते तो बच्चे इतना नहीं भटकते . जो भटक रहे हैं या तो उनके घर का वातावरण सही नहीं होगा या फिर माता पिता  दोनों ही इतने व्यस्त रहे होंगे कि  उन्हें अपने बच्चों के लालन पालन के लिए समय नहीं मिला होगा . दोनों काम पर ( उस काम की श्रेणी कुछ भी हो सकती है .) और बच्चे अपने साथियों के साथ निरंकुश हो कर स्वच्छंद आचरण की तरह चल दिये. या फिर बहुत पैसे वाले माता  पिता की संतान भी पैसे के घमंड में पथ भ्रष्ट हो रहे है . पिता को कमाने से फुरसत नहीं है और माता को उस धन के उपयोग करने के लिए किटी पार्टी , क्लब या फिर अपनी सोशल स्टेटस को दिखाने  के लिए किसी न  किसी तरह से खुद को व्यस्त रखना है . बच्चे भी स्कूल से लौट कर अपने कमरे में कुछ भी करने के  लिए स्वतन्त्र होते है . अगर उनको उस समय घर में किसी का साया मिल जाए तो शायद वे स्कूल से लौट  कर कुछ देर उसके पास बैठ कर अपनी बातों  को शेयर कर कुछ अपनत्व पाकर कहीं और साथ खोजने या समय को बिताने के लिए बाध्य न हों . नेट हो , फिल्में हों या फिर मोबाइल के द्वारा बढ़ रहे विभिन्न गजेट्स से मनोरंजन के लिए भटकने की उनकी मजबूरी न हो और न वे अपने माता - पिता से इतने दूर हों .
                          इन सब वारदातों के लिए लड़कियों और महिलाओं को दोषी ठहराया जा रहा है , उनके पहनावे को, उनके रहन सहन को लेकिन इस कुत्सित मानसिकता के कारणों को खोजने के लिए पहल नहीं की जा रही है  . बड़े नेता , अफसर तक जब बयान  देंगे तो उनकी जबान फिसल जाती है , उनका विवेक शालीनता की सारी सीमायें लांध जाता है . उनके दिमाग में जो महिलाओं के प्रति भाव पलते हैं वे अवचेतन नहीं बल्कि सचेतन मन से निकल ही जाते हैं . कितनी बातें पर्दों के पीछे चल रही होती हैं उनको उजागर करने के संकेत देने वाले बयान  होते हैं .
                          हम संस्कारों की बात कर रहे हैं तो संस्कार किसी भी धर्म , वर्ग  और जाति की धरोहर नहीं है बल्कि ये तो अपने घर के वातावरण और उसके  सदस्यों के आचरण में पल रहे अनुशासन , नैतिक मूल्यों की उपस्थिति और आपसी सम्मान की भावना से मिलते है . ये कोई गिफ्ट पैक नहीं कि उनको हम सारे  संस्कार और नैतिकता भर कर उन्हें थमा दें और वे उसको लेकर अपने जीवन में उतार लें .  शिशु से जैसे जैसे बड़े होने की प्रक्रिया शुरू होती है माँ  प्रथम शिक्षक उसको बड़ों के नाम लेने से लेकर उनको सम्मान करने का प्रतीक अभिवादन चाहे जिस रूप में हो सिखाते हैं  और बच्चे जब अपने नन्हें नन्हें हाथों से चाहे पैर छुए या फिर वह नमस्कार करे माता - पिता के लिए ख़ुशी का पल होता है और अपनी संस्कृति से परिचय का पहला चरण . जब हमने पश्चिमी संस्कृति के अनुसार बच्चों को गुड मोर्निंग कहना सिखाते हैं तो बच्चे इसको हवा में उछालते हुए मॉम और डैड से मुखातिब हुए बिना ही सामने से गुजर जाते हैं . इस संस्कृति को जब हम अपनाने में गर्व महसूस करते है और तो फिर बच्चों की निजी मामलों  में दखल देने की मॉम और डैड जरूरत भी नहीं समझते है .
                            ऐसा नहीं है कि  जो हम देख रहे हैं और कई लोगों ने इस तरफ ध्यान भी आकर्षित किया है कि  इस तरह के अपराधों को अधिकतर निम्न वर्गीय परिवार के लडके अंजाम दे रहे हैं .  अपराधिक पृष्ठभूमि से आने वाले युवक इसी क्षेत्र में जाएँ ऐसा जरूरी नहीं है और सभी निम्न वर्गीय बच्चे चारित्रिक तौर से गिरे हुए हों ऐसा भी नहीं है लेकिन उनकी संगति  और परिवार  का वातावरण कैसा है ? इस बात का बहुत प्रभाव पड़ता है.    मैं इस बात के लिए  अभिभावकों  को दोषी नहीं  ठहरा  रही लेकिन फिर भी जब तक बच्चा माँ की गोद में रहता है और माँ से कुछ सीखता है तो उन्हें घर वालों के अलावा अपने से बड़ों और लड़कियों और महिलाओं को सम्मान देने की बात भी सिखानी चाहिए . नन्हे मष्तिष्क में जो भी भरा जाता है वह चिर स्थायी ही होता है . अगर बच्चा बचपन से घरेलु हिंसा को देखता है तो वह समझता है की ऐसा ही होता होगा और हमें ऐसा ही करना चाहिए . फिर उनको उस बात से अलग करके समझने वाला कौन होगा ? माँ कहती है तो बच्चे कहते हैं कि  पापा भी तो गलियां देते  हैं , फिर मैं क्यों नहीं ?  या फिर वे समझ लेते हैं कि  ऐसे व्यवहार किया जाता होगा और वे उसी का अनुगमन  करने  हैं . बात भी सही है बच्चे अपने माता पिता को ही अपना रोल मॉडल मानते हैं और उसके बाद किसी और को मानते हैं . तो फिर उन्हें सही संस्कार देने के लिए पहले हमें खुद सुसंस्कृत होना होगा .
                          यह तो स्पष्ट हो ही चुका  है  बचपन में बच्चे को सिखाई हुई हर चीज चिरस्थायी होती है और इसी समय दिए गए संस्कार गहरे पैठ बना लेते हैं . शुरुआत सही समय से करेंगे तो हमें कल सुहावना मिल सकेगा . इस काम में देर कभी नहीं होती, फिर आज से हम शुरू करें . कल की सुबह सुहानी होगी ऐसा विश्वास है .

रविवार, 7 जुलाई 2013

पहली बार केक काटा !

                           कभी इस तरह से सोचा ही नहीं कि जन्मदिन कैसे मनाया जाय ? अपने से तो कोई प्रोग्राम बनाया नहीं जाता और मैं खुद अपनी एनिवर्सरी या बर्थडे मनाने  लिए पार्टी रखने में विश्वास भी नहीं करती हूँ . बचपन से चार बहनों और एक भाई के परिवार में उस समय लड़कियों के जन्मदिन मनाये नहीं जाते थे . सो जाना ही नहीं की कैसे मनाया जाता है ?
                          जब लेखन के क्षेत्र में आई तो सत्तर के दशक में पत्र मित्र बनीं ( बने नहीं क्योंकि उस समय ऐसी अनुमति नहीं थी ) . कुछ जागरूक किस्म की सहेलियों ने जन्मदिन पर कार्ड भेजे तो बड़ा अच्छा लगा लेकिन घर में तब भी कोई खास तवज्जों नहीं दी जाती थी . शादी के बाद भी घर में ये जागरूकता आई कि  दामाद जी का जन्म दिन याद रखा जाय और विश कैसे किया जाय क्योंकि तब फ़ोन तो इतने कॉमन थे नहीं . जन्मदिन के कार्ड  उरई जैसे जगह पर उपलब्ध न होते थे . हाँ पत्र से शुभकामनाएं मिलने लगी . ससुराल में भी मेरी बर्थडे को ओइ तवज्जो नहीं मिली हाँ पतिदेव जरूर उस दिन अपने हिसाब से कुछ न कुछ अलग कर लेते थे .
                           इस दिन को सबसे अधिक तवज्जो मिली 2000 के बाद - जब आई आई टी में हमारी टीम में युवाओं ने कदम रखा , उस टीम में हम सबसे पुराने लोग ४ लोग ऐसे थे जो शादीशुदा और बच्चों वाले थे . हम लोग उन सबसे बड़े थे और वे सब नयें नए बी  टेक और एम् सी ए करके आये हुए लोग थे . तब सब सुबह सुबह विश करने लगे थे और जिसका बर्थडे होता वह लैब के हाल में छोटी मोटी  पार्टी कर लेता  था। मैंने केक भी कभी नहीं काटा था . वह पहली बार था जब कि  मेरी बर्थडे पर लैब ने सबसे अलग तरीके से मनाने की पहल की . मुझे कुछ नहीं पता था हाँ ये पता था कि  मुझे पार्टी देनी है और मैं किसी भी बच्चे को रुपये देती और कहती कि  जो सब लोग कहें वो सब चीजें ले आना . उस बार बड़ी लैब में बच्चों ने अपने तरफ से केक लाये और पार्टी भी उन्होंने ने ही रखी थी . मैंने जीवन में पहली बार केक काटा  था और इतने सारे लोगों के बीच अपना जन्मदिन मनाया था . वो यादें आज भी संचित हैं कुछ साझा कर लेते हैं . 

हमारी मशीन ट्रांसलेशन प्रोजेक्ट की टीम
               केक जो पहली बार मेरी बर्थडे पर काटा गया था .


और अब थी पार्टी की बारी , उसके बाद बहुत सारे बच्चे नयी जॉब मिलते हैं अलग अलग और कुछ लड़कियाँ शादी के बाद हमारी लैब को छोड़ कर एक एक करके विदा हो गयी . नए लोग आते रहे और फिर काम उसी तरह से चलता रहा . ये टीम सबसे प्रिय टीम थी और साथ गुजारा  हुआ सबसे अच्छा समय .  ये जन्मदिन मुझे हमेशा याद रहेगा क्योंकि बच्चों ने लैब की रीति को तोड़ कर कुछ अलग किया था मेरे लिए .



ये पार्टी की मस्ती फिर अब कभी नहीं करने को मिलेगी . मैं ही नहीं सारे बच्चे आई आई टी की लैब को आज भी मिस करते हैं .