हमारी सोच सकारात्मक हो तो हमें अपने जीवन में परिणाम भी अच्छे मिलते हैं। ये बात हमें दार्शनिकों , बड़े बूढ़ों और अपने शिक्षकों से सुनने को मिलती रही है. हम चाहे जीतनी भी आधी आबादी के आत्मनिर्भर होने , सशक्तिकरण और उसकी हर क्षेत्र में हिस्सेदारी की बात करें फिर भी "सब ठीक हो जाएगा " एक ऐसा आशा का दीप बना कर जलाया करते हैं कि उसके जलने की प्रतीक्षा में उसका जीवन बद से बदतर बन सकता है। ये सिर्फ एक नारी के लिए ही नहीं बल्कि उसके माँ बाप के लिए एक सुखद और शांतिपूर्ण जीवन की एक किरण दूर से नजर आती रहती है और फिर वह महीनों नहीं बल्कि वर्षों उसी किरण का पीछा करते हुए गुजार देते हैं। कभी ऐसा हुआ हो तो उसको अपवाद ही कहा जाएगा लेकिन इस आशा की किरण के पीछे दौड़ते दौड़ते कभी जिंदगी बदसूरत होकर उसके लिए अभिशाप बन जाती है और कभी जिंदगी की चाल अचानक रुक जाती हमेशा हमेशा के लिए।
हम कितने ही प्रगतिशील होने का दम भरे लेकिन आज भी बेटी के विवाह पर लड़के वालों से उनकी मर्जी जरूर जानना चाहते हैं कि वे चाहते क्या है ? शायद ही कोई लड़का वाला ऐसा होगा जिसकी कोई चाह न हो। प्रत्यक्ष , परोक्ष किसी न किसी रूप में सामने आ ही जाता है. समझौते की आशा वे लड़की वाले होने के नाते खुद ही करना सीखे हैं। होने पर ये कभी नहीं सोचेंगे कि ऐसे प्रस्ताव को छोड़ देना चाहिए, पता नहीं भविष्य में उनकी मांग कितनी बढती जाय ? बेटी को समझा देते हैं कि बाद में सब ठीक हो जाएगा , लेकिन क्या हमेशा ऐसा ही होता आया है ? ये सवाल सिर्फ लड़की की शादी के लिए दहेज़ पर नहीं है बल्कि लडके के विषय में भी - अगर कोई नकारात्मक खबर या अफवाह में सुनने को मिलती है तो भी तो भी लड़की को यही कह कर चुप करा दिया जाता है।
सिर्फ लड़कियों की जिंदगी ही तो दांव पर लगायी जाती है। मुझे पता है और मैं उस जीते जागते हादसे की गवाह भी हूँ। बड़े घर का बेटा ड्रग लेने का आदी था , उन्होंने शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा के सहारे एक पढ़ी लिखी किन्तु गरीब घर की लड़की से शादी कर दी कि शादी के बाद लड़की उसको बदल लेगी लेकिन उस लड़की की व्यथा वह किससे कहती ? आखिर सब कुछ ठीक कभी नहीं हुआ और ३ साल के बाद वह फेफड़े के कैंसर से चल बसा।
लडके के संगति और आदतें ख़राब हों तो माँ बाप इसी जुमले के सहारे जुआँ खेल लिया करते हैं और कभी १०० में १ बार जुमला सही साबित हो गया तो वह एक मिसाल बन जाती है। लड़की के माँ बाप बेटी को इसी "सब ठीक हो जाएगा " की बैसाखी पकड़ा कर ससुराल में भेज देते हैं। दहेज़ की बात हो या फिर घर वालों के व्यवहार की। लड़का किसी लड़की के साथ जुड़ा हो और माँ बाप को वह पसंद नहीं तो वह इसी के सहारे उसकी शादी तक कर देते हैं फिर भले ही वह लड़की जीवन भर उस का इन्तजार करती रहे।
हमारी आशावादी सोच जीवन को कहाँ से कहाँ पहुंचा सकती है ये बात हम सोचने की तकलीफ तक नहीं करते हैं और आखिर करें भी क्यों? इसके सहारे हम एक बोझ से मुक्त होने जो जा रहे हैं। कुछ और कभी ठीक नहीं होता है। यथार्थ के धरातल पर चल कर ही काँटों की चुभन महसूस कीजिये और उस पर औरों को चलने की सलाह मत दीजिये। वैसे तो कहते हैं कि आशा से आसमान टिका है लेकिन जीवन बहुत महत्वपूर्ण होता है, उसे सोच समझ कर और धैर्यपूर्वक ही इस जुमले के सहारे छोड़ें।
हम कितने ही प्रगतिशील होने का दम भरे लेकिन आज भी बेटी के विवाह पर लड़के वालों से उनकी मर्जी जरूर जानना चाहते हैं कि वे चाहते क्या है ? शायद ही कोई लड़का वाला ऐसा होगा जिसकी कोई चाह न हो। प्रत्यक्ष , परोक्ष किसी न किसी रूप में सामने आ ही जाता है. समझौते की आशा वे लड़की वाले होने के नाते खुद ही करना सीखे हैं। होने पर ये कभी नहीं सोचेंगे कि ऐसे प्रस्ताव को छोड़ देना चाहिए, पता नहीं भविष्य में उनकी मांग कितनी बढती जाय ? बेटी को समझा देते हैं कि बाद में सब ठीक हो जाएगा , लेकिन क्या हमेशा ऐसा ही होता आया है ? ये सवाल सिर्फ लड़की की शादी के लिए दहेज़ पर नहीं है बल्कि लडके के विषय में भी - अगर कोई नकारात्मक खबर या अफवाह में सुनने को मिलती है तो भी तो भी लड़की को यही कह कर चुप करा दिया जाता है।
सिर्फ लड़कियों की जिंदगी ही तो दांव पर लगायी जाती है। मुझे पता है और मैं उस जीते जागते हादसे की गवाह भी हूँ। बड़े घर का बेटा ड्रग लेने का आदी था , उन्होंने शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा के सहारे एक पढ़ी लिखी किन्तु गरीब घर की लड़की से शादी कर दी कि शादी के बाद लड़की उसको बदल लेगी लेकिन उस लड़की की व्यथा वह किससे कहती ? आखिर सब कुछ ठीक कभी नहीं हुआ और ३ साल के बाद वह फेफड़े के कैंसर से चल बसा।
लडके के संगति और आदतें ख़राब हों तो माँ बाप इसी जुमले के सहारे जुआँ खेल लिया करते हैं और कभी १०० में १ बार जुमला सही साबित हो गया तो वह एक मिसाल बन जाती है। लड़की के माँ बाप बेटी को इसी "सब ठीक हो जाएगा " की बैसाखी पकड़ा कर ससुराल में भेज देते हैं। दहेज़ की बात हो या फिर घर वालों के व्यवहार की। लड़का किसी लड़की के साथ जुड़ा हो और माँ बाप को वह पसंद नहीं तो वह इसी के सहारे उसकी शादी तक कर देते हैं फिर भले ही वह लड़की जीवन भर उस का इन्तजार करती रहे।
हमारी आशावादी सोच जीवन को कहाँ से कहाँ पहुंचा सकती है ये बात हम सोचने की तकलीफ तक नहीं करते हैं और आखिर करें भी क्यों? इसके सहारे हम एक बोझ से मुक्त होने जो जा रहे हैं। कुछ और कभी ठीक नहीं होता है। यथार्थ के धरातल पर चल कर ही काँटों की चुभन महसूस कीजिये और उस पर औरों को चलने की सलाह मत दीजिये। वैसे तो कहते हैं कि आशा से आसमान टिका है लेकिन जीवन बहुत महत्वपूर्ण होता है, उसे सोच समझ कर और धैर्यपूर्वक ही इस जुमले के सहारे छोड़ें।