बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

साँझ जीवन की : रोशन करें हम !




                                      


                दिन के बाद जब साँझ आती तो दिन का अवसान होने को होता है और फिर रात और नयी सुबह , लेकिन जीवन एक ऐसा दिन है जो दिन , महीने और सालों के बाद ही सुबह, दोपहरऔर साँझ तक जाता है और फिर रात यानि कि अवसान।  साँझ सबके लिए घर लौटने का समय होता है , पशु , पक्षी या फिर काम पर निकले हुए मानव।  जीवन साँझ ऐसी होती है कि वहां से कोई वापस पुराने जीवन में नहीं लौट सकता है बल्कि वह अपने जीवन के सुबह से लेकर साँझ तक के समय को अपने दिल और दिमाग में दुहराया करता है। उनकी स्मृतियाँ अपने अपने अनुसार होती है।  लेकिन ये सांझ फिर कभी ख़त्म न होने के लिए होती है और अधिकतर लोग इस उम्र तक आते आते पराश्रित हो जाते हैं।  आर्थिक न सही , शारीरिक तौर पर तो वह कमजोर हो ही जाता है।  कुछ आर्थिक तौर पर भी दूसरों  यानि कि  अपने बच्चों पर निर्भर हो जाता है क्योंकि जीवन के सुबह और दिन का सारा समय तो अपनी सन्तत्ति के ऊपर ही न्योछावर करते चले आ रहे थे और शाम में अकेले रह गए। 

     टूटता परिवखर का मोह :-

                  कभी समय था कि  घर के बुजुर्ग सबसे ज्यादा सम्मानीय होते  थे , चाहे उसकी उम्र शत वर्ष के करीब क्यों न पहुँच जाए ? धीरे धीरे हम नौकरी की खोज में घर छोड़ कर बाहर निकले और फिर घर के मोह से मुक्त होने लगे।  पाश्चात्य रंग में रंगने लगे और फिर सिर्फ "मैं" पर आधारित जीवन को महत्व दिया जाने लगा लेकिन हम उसको पूरी तरह से ग्रहण न कर पाये।  बुजुर्ग ये न सोच पाये कि वे नयी पीढ़ी के लिए व्यर्थ या बोझ बन कर रह गए हैं।  नयी पीढ़ी ने कहीं उन्हें नौकर बना कर रख दिया और कहीं तिरस्कृत व्यक्ति।  कोई उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आया क्योंकि वे अपने जीवन शैली में उनकी कहीं जगह नहीं पा रहे हैं  या फिर वे उस जीवन शैली को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।  रात भर  चलने वाली पार्टियां , बच्चों का देर रात तक घूमना या फिर घर से बाहर रहना - आज की संस्कृति के अनुरूप स्वीकार्य है, लेकिन बुजुर्ग जहाँ नहीं देख पाते हैं तो टोकने लगते हैं और फिर वे बन जाते आँख की किरकिरी।  उनके बेटे बहू भी अपने या बच्चों की जीवन शैली में उनकी दखलंदाजी सहन नहीं कर पाते हैं क्योंकि वे पिछड़े विचारों के हैं। उनके विचार एक संस्कृति से प्रभावित होते हैं और वह संस्कृति ही उनके जीवन का आधार रही होती है।  वे एक घर और एक आँगन में रहते हुए कई पीढ़ियों को जीते देखते चले आ रहे थे।  अनुशासन और सम्मान उनके आचरण का एक अंग था लेकिन इस अधकचरी संस्कृति को वे स्वीकार नहीं कर पाते हैं। 
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  क्या  वृद्धाश्रम विकल्प हैं ?                 

                    आर्थिक तौर पर निर्भर बुजुर्ग तो अपने खर्चे पर भी वृद्धाश्रम में रह सकते हैं लेकिन क्या वहां वे पूरी तरह से संतुष्ट हो पाते हैं , बिलकुल नहीं उनकी आँखें अक्सर ये खोजती  रहती हैं कि उनके बच्चे अपनी गलती को स्वीकार करेंगे और उन्हें ले जाएंगे, लेकिन ऐसा  दिन कभी आता नहीं है क्योंकि अगर उनको लेने आना होता तो वे घर से बाहर करते ही क्यों ? कुछ समझदार बुजुर्ग अपने को उसी वृद्धाश्रम के माहौल में सबके साथ खुश रख  लेते हैं लेकिन अपने बच्चों को भूल पाते हैं क्या? अपने साथियों के बीच भी वे अपने अतीत के बारे में किस्से सुनाया करते हैं और ये क्या दिखाता है कि वे अपने को घर से अलग कर देने के बावजूद भी उससे अलग कहाँ हो पाये हैं ? लेकिन घर में बच्चों के कटाक्षों और अपमान के विष को पीने से तब भी बचे रहते हैं। \उनके अपने बच्चे भी ये भूल जाते  कि कल ये पड़ाव उनकी जिंदगी में भी आएगा।  ये कौन सा मद है ,  जो उनका विवेक हर लेता है और वे सिर्फ "मैं" बन कर रह जाते हैं। 

  अपनों से ठगे बुजुर्ग :-

                          दूसरे बुजुर्ग वे हैं जो घर में रहते हैं और उनके पास अपना पैसा भी होता है लेकिन उनकी स्थिति अच्छी नहीं होती है। कई जगह बच्चे अपने ही माता पिता से किसी न किसी रूप में हर महीने पैसे लेते रहते हैं।  कभी तो सीधे सीधे खाने पीने का खर्च कह कर ले लेते हैं। तब बड़ा कष्ट होता है उन्हें कि जिन बच्चों को अपना पेट काट कर पाला वे उनसे खर्च मांग रहे हैं। इतने पर भी तो ठीक है लेकिन कहीं कहीं तो उनके जीवन की जमा पूँजी किसी न किसी बहाने से बच्चे निकलवा लेते हैं और वे प्रेम वश सब कुछ दे देते हैं और फिर बोझ बने होने का ताना भी सुनते हैं। ऐसे जीवन संध्या कोई भी जीना नहीं चाहता है।  लेकिन देखने और सुनाने वालों को बुरा लगता है। 
  
आप की भूमिका :-
                   
             आप ऐसे लोगों के बच्चों को बदल नहीं सकते हैं और उनके घर के मामले में कुछ बोलने का अधिकार भी नहीं रखते हैं।  कुछ बोलने का मतलब है समाज सुधारक होने का तमगा लगना या फिर आप ही इन्हें ले जाइए - जैसे जुमले सुना दिए जाते हैं।  आप ऐसे लोगों के लिए बस इतना ही कर सकते हैं कि उनके साथ कुछ समय बिताएं।  मैं बहुत बड़े लोगों के बीच नहीं रहती क्योंकि मैं धरती से जुडी हूँ और उसी पर रहती हूँ।  न अपार्टमेंट एरिया है और न बढ़िया टाउनशिप। ऐसे घरों में न बुजुर्गों को किसी से मिलने को मिलता है और न वे किसी से मिलते जुलते हैं ।  ऐसा नहीं कि वे मिलना जुलना नहीं चाहते , उन्हें मिलने नहीं दिया जाता ।
            गली मोहल्ले की तरह बसाये हुए इलाके में रहती हूँ और आम निम्न मध्यम वर्गीय या मध्यमवर्गीय लोगों के बीच रहती हूँ। कुछ स्वभाव वश कुछ सामाजिकता के नाते अपने दायरे के परिवारों में दखल रखती हूँ और वे आम परिवार हैं।  आज के परिवेश के प्रभाव से डूबे हुए ।  लेकिन मैं अपने उम्र से बड़े बुजुर्गों के साथ उनके स्तर पर बात कर लेती हूँ।  उनके सुख दुःख से सरोकार रखती हूँ। उनके दुखी होने पर उनकी काउंसलिंग भी करती हूँ।  कभी अकेले पड़ने पर बहू सास की बुराइयां बतलायेगी तो उसको उसके स्तर पर समझती हूँ और बुजुर्गों को उनके स्तर पर ताकि सामंजस्य बना रहे।  
                      बड़े शहरों की बात तो नहीं जानती लेकिन हम अपने ही घरों में देख लें तो ये आम बातें हैं।  बुजुर्गों को मानसिक सम्बल की जरूरत होती है तो हम दे सकते हैं। अपनी बात कह कर वे हल्के हो जाते  हैं और उन्हें अहसास होता है कि उनका दुःख सुनने वाला कोई तो है। हम दो घंटे फेसबुक नहीं करेंगे तो कुछ कमी नहीं हो जायेगी लेकिन अगर कहीं पार्क में बैठी हुई अकेली / अकेले बुजुर्ग के साथ कुछ देर बिता आएंगे तो दिन सार्थक हो जाएगा और उनको अपने मन की बात कह पाने का एक अवसर।  फिर रोज का ये सिलसिला कई लोगों के लिए आशा का दीप बन जाता है जो उनकी जीवन साँझ को आशा की हल्की रोशनी तो दे ही सकती है।  

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

नववर्ष : प्रथम दिवस !

                         जीवन में अनुभव से धारणा बनती है और धीरे धीरे जब ये अनुभव बार बार होते जाते हैं तो ये धारणाएं मन में अपनी  गहरी पैठ बना लेती हैं।  बस ऐसा ही कुछ नए साल के पहले दिन से जुड़े मेरे मन के पूर्वाग्रह भी हैं और यह ऐसे ही नहीं बने हैं बल्कि पुख्ता सबूत के साथ बने हैं।  
                        जैसा और जिस तरह से आप इस दिन को गुजारते हैं या कभी कभी ईश्वर भी अपनी कलाकारी देखा कर गुजारने के लिए मजबूर  कर देता हैं , मेरे अपने अनुभव के अनुसार वह क्रम पूरे वर्ष बार बार होता है।  वैसे तो अपना अपना अनुभव है।  इसी के तहत मैं इस दिन वर्षों से यानि जब से कलम गंभीरता के साथ संभाली है लिखती जरूर हूँ।  ताकि ये संरचनात्मक काम पूरे वर्ष चलता ही रहे।  
                         कहा न कभी ईश्वर अपनी मर्जी से इस काम में व्यवधान डाल देता है तो फिर वह काम भी कभीकभी पूरे  साल होता है।  वर्ष १९७७ की बात याद आती है - उस दिन मेरे मकान मालिक का स्वर्गवास हुआ था और वे हमें बहुत प्रिय थे।  हम बच्चों को अपने बच्चों की तरह ही प्यार करते थे।  उस दिन हम लोग बहुत रोये थे।  फिर उस साल मेरी दादी भी नहीं रहीं।  पूरे साल ऐसे ही हालत पैदा होते रहे कि मैं अपने बारे में जानती हूँ कि  पूरे वर्ष ही रोते रोते गुजर गया।  
                       कभी भी  इस दिन को बेकार के कामों में नहीं गुजारा और न ही कोई गलत काम किया है।  कुछ वर्षों से तो संकल्प दिवस के रूप में मना लेती हूँ।  इस बार भी संकल्प किया है कि किसी संस्था से जुड़ कर सेवा कार्य करूंगी।  वैसे भी करती ही हूँ लेकिन अब एक साथ मिल जाएगा तो दिशा निश्चित हो जायेगी कि घर से निकल कर वहां तक उसके लिए यह काम करना है।
                       सभी को प्रथम दिवस ऐसा ही कुछ करने का संकल्प करना चाहिए।  बहुत फलित होता है।