अपनी सोच का शब्दों से श्रृंगार करें और फिर बाँटें अपने विचर और दूसरे से लें. कितना आसन है उन सबसे लड़ना जो हमें दुश्वार लगते हैं. कोई दिशा आप दें और कोई हम दें 'वसुधैव कुटुम्बकम' कि सूक्ति सार्थक हो जायेगी.
बुधवार, 10 मार्च 2010
महिला आरक्षण विधेयक!
महिला दिवस पर महिला आरक्षण विधेयक का , जो पिछले १४ वर्षों से लंबित पड़ा हुआ है, वही हश्र हुआ जो इतने वर्षों से हो रहा था. इतिहास फिर दुहराया गया. आखिर क्यों? आधी दुनियाँ कहलाने वाली महिला क्या ३३% पाने की भी हक़दार नहीं है. कल जब राज्य सभा में इसको पारित किया गया तो किन हालातों में यह सभी को पता है और इससे बौखलाए सहयोगी दलों के प्रमुख अब सरकार के प्रति अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, बस उनको कुछ बिकाऊ सांसदों की तलाश है. ये सत्ताधारी आधी दुनियाँ के ऊपर अपनी सत्ता कायम रखने में कोई भी खतरा मोल नहीं लेना चाहते हैं. वे ५० प्रतिशत न सही ३३ प्रतिशत की हिस्सेदारी देने में भी हंगामा मचा रहे हैं.
सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और जदयू के लालू प्रसाद यादव सबसे प्रमुख विरोधियों में से हैं, क्या कभी ये सोचा है कि ऐसा क्यों है? मुलायम सिंह सिर्फ अपनी और अपनी ही सत्ता चाहते हैं. पार्टी के प्रमुख पदों पर उनके परिवार के लोग हैं. ये भाई भतीजावाद के पोषक पहले भाई , बेटा और फिर बहू . अगर महिला नेत्री नहीं चाहिए तो बहू क्यों ? क्योंकि वह तो अपने हाथ की कठपुतली है, उसकी अपनी सोच पर ससुर का ठप्पा ही चलेगा न. उससे कोई खतरा नहीं था.
लालू प्रसाद यादव भी इसके प्रमुख विरोधी हैं, फिर क्यों राबड़ी देवी को बिहार की मुख्यमंत्री की कमान रातोंरात सौपी गयी थी क्योंकि ये उनके हाथ की कठपुतली वैसे ही नाचेगी जैसा वे नचाएंगे. राजनीति की क ख ग से अनभिज्ञ राज्य का शासन चला सकती हैं और ३३ प्रतिशत आरक्षण अगर मिल गया तो राजनीति में शिक्षित महिलायें आएँगी और इस समाज में समाज सेवा के लिए समर्पित इतनी महिलायें हैं की उन्हें संसद में आराम से पहुंचा दिया जाएगा. वे किसी दल की मुहर की मुहताज नहीं हैं. यहाँ यादव द्वय के वर्चस्व का प्रश्न है. कोई बड़ी बात नहीं है की इस आरक्षण के बाद कोई नया महिला समर्थक दल गठित हो जाए और फिर संसद में ३३ के स्थान पर ५० प्रतिशत पर कब्ज़ा न कर लें.
अगर यह भय नहीं है तो विधेयक की प्रतियाँ फाड़कर संसद की जो अवमानना की है, वह निंदनीय कृत्य है. एक ऐसा कृत्य जिसे विश्व भर में देखा जा रहा है, वैसे तो हमारी संसद में शर्मसार करने वाले कृत्य होते ही रहते हैं. शर्मिंदा वे नहीं बल्कि हम होते हैं जो संसद से बाहर दुर्गति को होता हुआ देखते हैं. उन सबको भय इस बात का है कि ये तथाकथित नेता जिनके बल पर चुनाव जीतते हैं वे महलाएं ही हैं. गाँव की कितनी आबादी शिक्षित है? उनकी गरीबी और अज्ञानता का फायदा उठा रहे हैं. उनके सिर्फ चुनाव चिह्न दिखा दिया जाता है और साथ ही दे दिए जाते हैं कुछ रुपये - धोती - अनाज. उनको ये नहीं मालूम की इस मशीन के इस बटन को दबाने का अर्थ क्या है? इस बटन को दबाने का अर्थ - यदि महिलायें भी उतर आयीं तो ये निश्चित है की वे इन सब को अच्छे तरह से समझा कर उन्हें मतदान का अर्थ समझ देंगी और फिर इन अशिक्षित महिलाओं के पूर्ण नहीं तो आधे मत अवश्य ही ले जायेंगी और इस दावेदारी को किसी भी पार्टी की छवि रोक नहीं पाएगी.
दो दिन पूर्व मुलायम सिंह यादव ने कहा था की यदि ये विधेयक पास हो गया तो इस आरक्षण का परिणाम ये होगा कि सरकारी अफसरों की पत्नियाँ सरकार चलाएंगी. इस बात का क्या अर्थ है? अभी आधे से अधिक प्रबुद्ध वर्ग चुनावों के प्रति उदासीन रहता है किन्तु अगर संसद में कुछ प्रतिशत को छोड़ दिया जाय तो शेष सिर्फ पार्टी के मोहरे बने बैठे रहते हैं. सिर्फ संसद का कोरम पूरा करने के लिए - वे देश और देश की समस्याओं के बारे में क्या प्रश्न उठाएंगे.
सरकारी अफसरों के लिए इसलिए बोला क्योंकि ये आई ए एस और पी सी एस या अन्य प्रशाशनिक अधिकारी बनने तक ज्ञान के सागर में गोते लगाकर निकलते हैं और फिर इन तथाकथित नेताओं के समक्ष "जी सर" - जी सर" कहते हुए हाथ बंधे खड़े होते हैं. कभी कभी तो इनके दुर्व्यवहार के शिकार भी होते हैं. इस पीड़ा को उनकी पत्नियाँ भी सहती हैं और पत्नियाँ अंगूठा छाप तो नहीं ही होती हैं. अगर वे सामने आ जाती हैं तो समीकरण बिगड़ जायेंगे.
अब इन्तजार है की ये महिला विरोधी नेता आज संसद में कौन सा नया बखेड़ा खड़ा करते हैं ? शेष इस बखेड़े के बाद ...................
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