सोमवार, 15 मार्च 2010

दायित्व बनाम क़ानून!

                            समाज में  संस्कार, संस्थाएं और उनसे बनी हमारी संस्कृति में बिखराव झलकने लगा है. इसको हम ज़माने का तकाजा या पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं लेकिन क्या हम खुद इस उत्तर से खुद को संतुष्ट कर पाते हैं? 
                       परिवार रुपी वृक्ष कि जड़ें है हमारे बुजुर्ग और यदि इन्हीं को उपेक्षित कर हम पत्तों और शाखों की वृद्धि की आशा करे तो ये तो बेमानी हैं  . पानी हम पेड़ कि जड़ में ही तो डालते हैं तभी तो फूल, पत्तों और फलों से लदे रहते  हैं. समाज का वर्तमान स्वरूप जिस परिवार की परिकल्पना को सिद्ध  कर रहा है, वहा हमारी संस्कृति के अनुरूप नहीं है. 
                         ये समस्या आज नहीं खड़ी नहीं हुई है,  आज से करीब ३५  साल पहले भी ऐसी ही एक घटना ने विचलित किया था , उसको लिख कर अपने आस पास चर्चा का विषय बना दिया था कि  उससे जुड़े लोग मुझे तलाशने लगे थे. जब पता चला तो उलाहना मेरे भाई साहब को मिला, "तुम्हारी बहन ने यह अच्छा नहीं किया?" लड़कियाँ उस समय अधिक बाहर नहीं निकलती थी. 
उस समय मेरे भाई साहब ने यही कहा था, "वह जो भी लिखती है? इसको मैं मना नहीं कर सकता, वो लिखने के लिए स्वतन्त्र है और अगर कहीं कुछ लग रहा है तो जाकर मानहानि का केस कर सकते हो."  
                             मैं एक बहुत छोटी जगह से हूँ, जहाँ सब एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं. वैसी  घटना तब एक या दो ही घटित होती थी और आज ये चलन हो चुका है. आज परिवार में बुजुर्गों को पर्याप्त सम्मान और स्थान मिला रहे ये बहुत बड़ी बात है.  इस विषय में एक घटना उल्लेखनीय है कि ऐसे ही सुपुत्रों ने अपने अपाहिज पिता को मरणासन्न  अवस्था में  सड़क पर फ़ेंक दिया और सड़क से किसी भले मानुष ने उन्हें एक किनारे बने फुटपाथ पर खिसका दिया और दो दिन वहीं पड़े पड़े उन्होंने प्राण त्याग दिए. पुलिस ने लावारिस में उनका संस्कार कर दिया.
                           समय की मांग और जरूरत के अनुसार इस दिशा में स्वयंसेवी संस्थाएं, समाज कल्याण मंत्रालय वरिष्ठ नागरिकों के लिए आश्रय का प्रयास कर रही है. इसके लिए क़ानून भी बनाये जा रहे हैं कि अपने अभिभावकों के प्रति उनकी संतान के दायित्व निश्चित होंगे और उनको उन्हें पूरा करना पड़ेगा. ये तो निश्चित है कि वर्तमान  शक्ति - सामर्थ्य सदैव नहीं रहेगी , आज वो जिस स्थिति और उम्र से गुजर रहे हैं कल निश्चित ही हमको भी उसी में आना है.  पर हमको कल नहीं सिर्फ और सिर्फ आज दिखलाई देता है. 
                    संसद में पारित होकर विधेयक एक क़ानून बन जाएगा किन्तु क़ानून बनना और उसको लागू करवाना दोनों ही जमीन आसमान की दूरी पर हैं. क़ानून बनाना अधिक सरल है, पर ऐसे क़ानून लागू नहीं करवाए जा सके हैं. 
कर्त्तव्य, दायित्व और सम्मान के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता है.  क़ानून बनाकर भी नहीं. जुरमाना और जेल की सजा के बाद इस वरिष्ठ नागरिको के लिए  अपना घर ही पराया हो जाएगा, भले ही उसको पराया पहले से ही बना रखा हो. एक जुर्म की सजा सिर्फ एक बार ही दी जा सकती है. सजा पाकर दोषी अधिक उद्दंड भी हो सकता है. 
                                वरिष्ठ नागरिकों या अभिभावकों की इस उपेक्षा के ९० प्रतिशत मामले सामने आ रहे हैं. इसके पीछे सबसे अधिक है युवा वर्ग का पाश्चात्य संस्कृति के प्रति आकर्षण. इसके साथ ही अभिभावकों की अपने बच्चों पर आर्थिक निर्भरता या फिर पेंशनयाफ्ता अभिभावक जिनसे बच्चे ये अपेक्षा करते हैं कि वे अपनी पूरी पेंशन उनको सौंप दें. आज मिथ्याडम्बर और महत्वाकांक्षाओं कि ऊँची उड़ान से प्रेरित अधिक से अधिक अर्जन की लालसा ने युवा पीढ़ी को जरूरत से अधिक व्यस्त और तनावपूर्ण बना दिया है, जिससे वे घर पहुंचकर अपने कमरे में कैद होकर टी वी  या फिर म्यूजिक सिस्टम के साथ अपना समय बिताना चाहते हैं. अनुशासन और बंदिशें उन्हें पसंद नहीं.
                              इस उपेक्षा में दोषी मात्र युवा पीढ़ी ही नहीं है. दोनों पक्षों का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष के तौर पर यही सामने आया कि दबाव में कराया गया कार्य सौहार्दता तो नहीं ला सकता है.  हमेशा बच्चे ही गलत हों, ऐसा भी सामने नहीं आया है. कहीं कहीं बदमिजाज और जिद्दी बुजुर्ग भी देखे है.  सारे दिन काम से लौटा बेटा या बहू से जरूरत से अधिक अपेक्षा करना भी गलत है. उनको भी समय चाहिए . लेकिन अपने समय में तानाशाही करने वाले पुरुष या स्त्री अपनी उपेक्षा को  सहन नहीं कर पाते लिहाजा एक तनाव पूर्ण वातावरण पैदा कर देते हैं. 

                          तनाव किसी कि भी तरफ से हो, पीड़ित तो शेष सदस्य ही रहते हैं. इसके लिए सामाजिक दृष्टिकोण से सोचा जाय तो सबसे अधिक कारगर साधन कुछ हो सकता है तो वो "काउंसिलिंग " ही है. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तब भी. बहुत से तनावों का निदान इससे खोजा गया है और खोजा जा सकता है.  इसके लिए स्वयंसेवी संस्थाएं, एनजीओ या फिर सरकार कि ओर से परामर्श केंद्र कि स्थापना की जा सकती है. इस समस्या का निदान मानवीय प्रयासों से अधिक आसानी से खोजा जा सकता है. यह भी सच है कि ये काउंसिलिंग यदि घर से बाहर वाला व्यक्ति करता है तो अधिक समझ आता है क्योंकि पीड़ित इस बात को समझता है कि ये मेरा हितैषी है. 
                     यदि युवा पीढ़ी है तो उसको समझाया जा सकता है कि उनके कामकाजी होने के नाते बच्चों को जो अपनत्व दादा दादी से प्राप्त होता है वह - न आया से और नहीं किसी क्रेच में डालने से प्राप्त होगा. संस्कार या तो माता-पिता देते हैं या फिर घर के बड़े बुजुर्ग. बाकी किसी को बच्चों कि मानसिक स्थिति या फिर विकास से कोई मतलब नहीं होता बल्कि उनके लिए ये एक पेशा होता है और वे उसके प्रति न्याय कि चिंता नहीं करते हैं. अतः घर के बुजुर्ग सिर्फ बोझ नहीं बल्कि एक आया या क्रेच से अधिक प्यार देने वाले और संस्कार देने वाले सिद्ध होते हैं. ये सोच उनको काउंसिलिंग से ही प्राप्त कराइ जा सकती है. 
                     इसके ठीक विपरीत यही काउंसिलिंग बुजुर्गों के साथ भी अपने जा सकती है. उन्हें पहले समझ बुझा कर समझने कि कोशिश करनी चाहिए . यदि वे नहीं समझते हैं तो उन्हें अस्थायी  तौर पर 'ओल्ड एज होम' में रखा जा सकता है. घर की सुख -सुविधा और अपनों के दूर रखकर ही उनको इसके महत्व को समझाया जा सकता है और इस दिशा में किया गया सही प्रयास 'काउंसिलिंग ' ही है. अपने घर , अपनत्व और बच्चोंके द्वारा की गयी देखभाल का अहसास होना ही उनको सही दिशा में सोचने के लिए विवश कर सकता है. माँ - बाप के आश्रित होने की दशा  में बच्चों को भी समझाया जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन कि सारी पूँजी अपने बच्चों को काबिल बनने में खर्च कर दी है और उसी के बदौलत आप सम्पन्न हैं.फिर उनका दायित्व कौन उठाएगा? ये सब बातें न तो क़ानून और न न्यायाधीश ही समझा सकता है बल्कि इसको सामजिक मूल्यों के संरक्षण के प्रश्न से जुड़े मानकर मनोवैज्ञानिक तरीके  से ही सुलझाया  जा सकता है. इसके परिणाम बहुत ही बेहतर हो सकते हैं. बस इस दिशा में पहल करने कि आवश्यकता है. मानसिक बदलाव संभव है और परिवार संस्था को पुराने स्वरूप में सरंक्षित किया जा सकता है. हमारी परिवार संस्था पाश्चात्य देशों में आदर्श मानी जाती है और हम खुद भटक रहे हैं. इस भटकाव से बचना और बचाना ही भारतीयता को संरक्षण देना है.

                  

7 टिप्‍पणियां:

  1. हां बुजुर्गों की उपेक्षा चिन्तनीय और निन्दनीय है. आज महानगरों में एक बार फिर स्वार्थवश बुजुर्गों को साथ रखने की परम्परा शुरु हो रही है, लेकिन अधिसंख्य स्थानों से उनकी उपेक्षा की खबरें ही पढने को मिलती हैं.

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  2. रेखा जी बहुत ही अच्छा आलेख लिखा है आपने .सभी पहलुओं का निष्पक्ष सार निकला है...सारा दोष युवाओं पर नहीं मड दिया...बुजुर्गों की समस्या निंदनीय है ,परन्तु इसका हल सभी मिलकर ढूँढना चाहेंगे तभी मिलेगा ..आपने काउंसलिंग का जो रास्ता सुझाया वो सर्वश्रेष्ट है परन्तु समस्या ये हैं की लोग काउंसलिंग कराना भी हे समझते हैं.

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  3. सचमुच बहुत ही चिंतनीय है यह,अच्छा विषय उठाया आपने...और अच्छे सुझाव भी दिए हैं.
    ...इस तरह की घटनाएँ आए दिन सुनने में आ रही हैं....हाल में ही मुंबई में एक खबर पढ़ी,एक वृद्ध सज्जन ने अपना २ बेडरूम का फ़्लैट बेचकर, दोनों बेटे को एक एक बेडरूम फ़्लैट खरीद दिया और बेटे उन्हें सड़क पर छोड़कर चले गए. उनकी जेब में मात्र १०० रुपये थे. एक महीने स्टेशन पर काटने के बाद उन्हें एक स्वयंसेवी संस्था ले गयी.
    और उन बुजुर्ग का प्यार देखिये, वे अपने बच्चों का नाम नहीं बता रहें कि उन्हें ऑफिस में शर्मिंदगी होगी.

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  4. "कर्त्तव्य, दायित्व और सम्मान के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता"

    "हमारी परिवार संस्था पाश्चात्य देशों में आदर्श मानी जाती है और हम खुद भटक रहे हैं. इस भटकाव से बचना और बचाना ही भारतीयता को संरक्षण देना है."

    समस्या और समाधान - समझने वालों के लिए सब कुछ है आपके आलेख में - आभार और धन्यवाद्

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  5. "कर्त्तव्य, दायित्व और सम्मान के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता"

    "हमारी परिवार संस्था पाश्चात्य देशों में आदर्श मानी जाती है और हम खुद भटक रहे हैं. इस भटकाव से बचना और बचाना ही भारतीयता को संरक्षण देना है."

    समस्या और समाधान - समझने वालों के लिए सब कुछ है आपके आलेख में - आभार और धन्यवाद्

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  6. शिखाजी,

    आपने सही कहा है की लोग काउंसलिंग करना हेय समझते हैं लेकिन परिवार के मूल्यों के इस विकृत स्वरूप को सुधारना तो हमीं को हैं न. बेटों और बुजुर्गों का प्रतिशत ६० और ४० का है. दोनों दोषी होते हैं, बस बुजुर्गों के साथ बाहर वाले सहानुभूति अधिक रखते हैं और बच्चों के दृष्टिकोण से वहाँ नहीं सोचते . दोषी बेटे बहू हैं तब तो हैं ही लेकिन अगर नहीं है तब भी लोग उन्हीं को कहेंगे. समाज की दृष्टि में दोषी बनने से अच्छा है की अपना अहम् त्याग कर कौन्सिलिंग का सहारा लियाजाय. लेकिन इसके लिए कोई तो रास्ता खोजना ही पड़ेगा.

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  7. बुजर्गों की उपेक्षा निश्चित रूप से दयनीय है लेकिन आज वो समय है जब हमारे बुजर्गों को अपने बच्चों के साथ उतनी ही सदाशयता दिखाने की जरूरत है जितनी जरूरी है...समय के पहले अपनी दौलत बच्चो के नाम बिलकुल न करे..जरूरत पड़े तो बच्चो के खिलाफ कड़े कदम उठाएं...कानून उनके साथ है...उपेक्षा वहां ज्यादा होती है...जहां बच्चो को लगने लगता है अब वे तो उन पर निर्भर हैं...उनका उनके सिवाय कोई और ठौर-ठिकाना नहीं है...इसलिए उन पर निर्भर बिलकुल मत होइए...जिंदगी में एक सम्मानपूर्ण जीवन से महत्वपूर्ण और कुछ नहीं होता...सादर।

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