अपनी सोच का शब्दों से श्रृंगार करें और फिर बाँटें अपने विचर और दूसरे से लें. कितना आसन है उन सबसे लड़ना जो हमें दुश्वार लगते हैं. कोई दिशा आप दें और कोई हम दें 'वसुधैव कुटुम्बकम' कि सूक्ति सार्थक हो जायेगी.
सोमवार, 17 मई 2010
निर्णय से पहले सोचें और विचार करें !
कल की ही बात है मेरे एक बहुत ही आत्मीय मेरे पास आये, उनको ये लगता है कि मैं जो भी सलाह दूँगी वह सही और तार्किक रूप से बतलाई गयी होगी. उनकी समस्या भी बेटी से ही जुड़ी थी. वे उसकी शादी के लिए लड़का देख रहे थे और कुछ जगह बात भी चला रहे थे. उससे पहले भी उनके पास बेटी के साथ पड़े हुए एक ठाकुर लड़के का प्रस्ताव उनको मिला था. जिसको उन्होंने मुझे बताया था लेकिन बात आई -गयी हो गयी. उनकी गतिविधियाँ तेज हो गयी कि लड़की पुणे से गुडगाँव आ गयी है और मुझे सुविधा भी रहेगी. एक दो जगह उन्होंने लड़की को दिखाया और लोगों ने उसे पसंद कर लिया लेकिन उनमें से कुछ उसको नौकरी नहीं करने देना चाहते थे. लड़की ने बी टेक किया तो नौकरी न करवाने के लिए ये भी तैयार नहीं थे.
जब लड़की ने देखा की पापा की गतिविधि में तेजी आ रही है तो उसने अपने साथी से कहा कि वह पापा से बात करे. एकदिन पहले ही उस लड़के ने फ़ोन करके प्रोपोजल सामने रखा. मेरे आत्मीय जी बहुत गुस्सा हुए, इसने हिम्मत कैसे की? उससे पहले उसके पिता ने भी बात की थी जिसको इन्होने भाव नहीं दिया था. उन्होंने अपनी पत्नी से कहा की बेटी से बात करो कि क्या चक्कर है? बेटी से बात की तो उसने कहा कि हाँ लड़का ठीक है मेरे साथ पढता था और वहाँ भी मेरी बहुत हेल्प की थी. ये सुनकर वो और गुस्सा हो गए.
सुबह ही मेरे पास आये कि मैं क्या करूँ? वो कभी साथ पढता था इसका मतलब ये तो नहीं कि हम शादी ही कर दें.
मैंने उनको समझाया कि अगर हम आज के परिवेश के अनुसार अपने को न ढाल सके तो पीछे रह जायेंगे. फिर अब हमारी जिन्दगी कितनी है, १०, २० साल और हमने अपनी जिन्दगी अपने अनुसार जी ली. इन बच्चों के सामने अभी पूरा भविष्य पड़ा है और आज के माहौल के अनुसार सब कामकाजी हैं. जो शारीरिक क्षमता हमारे अन्दर थी वह इन बच्चों में नहीं है क्योंकि हमने बचपन में प्रकृति से लेकर आहार तक जो शुद्धता को ग्रहण किया है वो इन बच्चों को नसीब नहीं है. हमने नौकरी के साथ संयुक्त परिवार में ११ लोगों के साथ गुजारा किया और घर और बाहर सब बराबर हिस्सेदारी थी और आज भी है . हम अपने बच्चों से न ऐसी उम्मीद करें और न करनी ही चाहिए. उनकी सोच और हमारी सोच अब अलग है. उन्हें अब अपनी सोच से मिलता हुआ जीवन साथी चाहिए. उनका जीवन अभी शुरू होने जा रहा है , अगर उनकी आपसी समझदारी अच्छी है तो बेहतर है कि हम उनकी ख़ुशी में खुश हों. अब ये जाति-पांति की संकीर्ण मानसिकता से आगे बढ़ जाना चाहिए. अगर वे हमारी पसंद के साथ सामंजस्य न बिठा सके तो ये हमें भी अफसोस रहेगा कि हमने इसी की बात मान ली होती कम से कम खुश तो रहती. अपने निर्णय में वे सहन करने और सामंजस्य बिठाने का पूरा प्रयास करते हैं और सफल भी होते हैं. कभी इसके भी अपवाद हो जाते हैं लेकिन फिर हम अपने चुनाव के लिए भी तो जुआ ही खेलते हैं. नए घर और नए लोगों के बीच बेटी देते हैं. बाहरी स्वरूप आप देख सकते हैं उनकी सोच और बाकी बातें बहुत बाद में पता चलती हैं.
मैंने उन्हें समझा तो दिया और वे समझ कर चले गए. लेकिन मेरी ये राय सबके लिए है कि सिर्फ जाति के लिए हम योग्य लड़के को नकार दें या लड़की को स्वीकार न करें तो ये हमारी सबसे बड़ी भूल होगी और फिर हम बच्चों कि नजर में अपना वो सम्मान खो देते हैं जिसकी हम अपेक्षा रखते हैं. ये मेरी राय है, इससे किसी की सहमति या असहमति के मुद्दे को लेकर किसी विवाद की अपेक्षा नहीं रखती हूँ.
शनिवार, 15 मई 2010
दिशा बदलें और बदलें शिक्षा का प्रारूप !
वैसे तो ये रोज की बात है की दो चार हत्या , आत्महत्या के प्रकरण अखबार में न रहे हों. हम पढ़ कर उसको फ़ेंक देते हैं, यह सोचते भी नहीं है की क्या इससे जुड़े लोगों को इसके कारणों से बचा पाने की जानकारी थी. क्या ये हत्या या आत्महत्या का ख्याल टाला नहीं जा सकता था? काश ऐसा हो सकता तो कितने ही घर बच जाते, पता नहीं इन लोगों से जुड़े कितने लोग असहाय और बेसहारा बन कर रह जाते हैं.
एक दिन का अख़बार लेकर बैठी ही थी तो तीसरे पेज पर सिर्फ और सिर्फ हत्या और आत्महत्याओं की खबरे थी.
- एक परिवार में दादी, माँ और बेटी तीनों की हत्या.
- दो प्रेमियों की अलग अलग आत्महत्या
- बाप बेटे की सोते समय हत्या
- परीक्षा में फेल होने के डर से किशोरी ने फाँसी लगाई.
- पिता के डांटने पर बेटे ने जहर खा लिया.
- पति से झगडे में पत्नी ने बच्चे सही आग लगाकर आत्महत्या.
ये सब चीजें व्यक्ति के मानसिक अस्थिरता को प्रदर्शित करती हैं. आज के परिवेश में सिवा मानसिक तनावों , कुंठा, अवसाद के कुछ भी नहीं मिल रहा है. आज के परिवेश में ये घटनाएँ घट रही हैं ऐसा नहीं है कि उनको टाला नहीं जा सकता है किन्तु टालें तो कैसे? अंतर्मुखी प्रवृति ने मनुष्य को अन्दर ही अन्दर घुटने के लिए छोड़ दिया है. उसको व्यक्त करने के लिए कोई साधन भी उन्होंने नहीं खोजा है या फिर उनके संज्ञान में नहीं है.
अगर हत्याओं के कारणों पर अपना ध्यान केन्द्रित करें तो ये पाते हैं की प्रतिशोध, प्रतिष्ठा, प्रतियोगिता और प्रणय ये ही कारण होते हैं.
जहाँ ३ सदस्यों की हत्या की गयी वो घर का दूधवाला था. दूध देने आया तो पहले से ही तैयार होकर आया था और फिर एक एक करके सबको ख़त्म कर दिया. उसे घर के मुखिया ने किसी दिन उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे घर में सफाई करवा ली थी और तभी से वह बदले के मौके की तलाश में था. वह ख़त्म को मुखिया को ही करना चाहता था लेकिन फिर जो मिल गया.
प्रेमिका के आत्महत्या की खबर मिलने पर उसे देखने गया और लौट कर खुद फाँसी लगा कर झूल गया. अवसाद को झेल ही नहीं पाया.
परीक्षा में फेल होने की आशंका में ही आत्महत्या, पिता के डांटने पर फाँसी लगाना. ये दो ऐसी स्थितियां है कि हर वर्ष परीक्षाफल आने के समय पर इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है. कितने आशंकित रहते हैं माँ बाप ? खासतौर पर जब की बच्चे प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहे होते हैं. वर्ष भर के परिश्रम के बाद भी जो असफल हो जाते हैं या फिर इच्छित फल नहीं पाते हैं तो वे अवसाद में चले जाते हैं. इस समय उन्हें बहुत सावधानी से देखने और नजर रखने की जरूरत होती है. आज जब कि प्रतियोगिता का जमाना है और हर कोई अपनी पूरी क्षमता से उसमें जुटा हुआ है तो ये मानसिक स्थिति बन जाना अस्वाभाविक नहीं होती है. पर इन स्थितियों से उन्हें बाहर लाने की जरूरत होती है.
हम बड़े फख्र के साथ कहते हैं की आज कल के बच्चों की IQ बहुत अच्छी है , उनमें संवेदनशीलता भी उतनी ही अच्छी होती है. इसमें दोष किसी का नहीं है ये तो जीवन शैली का एक अंग बन चुका है. वह उम्र जो बच्चों के खेलने कूदने की होती है. माँ के आँचल में छुपकर अठखेलियाँ करने की होती है, तब न उन्हें ममता मिल पाती है और न ही स्वस्थ संरक्षण. इस बात के लिए मैं माँ को दोषी नहीं ठहरा सकती क्योंकि वह खण्डों में बँटी वह चट्टान है जिसको हर कोई अपने अपने तरीके से उपयोग करना चाहता है.
उसका प्रयोग पति अपनी इच्छानुसार, सास ससुर अपनी, अगर वह कामकाजी है तो कार्यस्थल पर अपने कार्य स्वामी के इच्छानुसार चलने को मजबूर होती है. अगर घर में रहती है तो जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी हुई. निम्न मध्यम वर्ग के लिए स्थिति और भी गंभीर होती जा रही है. बच्चे अपनी माँ के पास कितने घंटे रह पाते हैं. कितना वो प्यार दे पाती है.
बच्चों को उस उम्र में क्रच और डे केयर सेंटर में छोड़ दिया जाता है जब कि वे बोलना भी नहीं सीख पाते हैं. उनका कोमल मष्तिष्क उस आयु में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ग्रहण करने लगता है. वह पूर्णतया सकारात्मक नहीं होता है. जब ये कार्य एक व्यवसाय के रूप में किया जाता है तो बच्चों के लिए घर जैसा माहौल की उम्मीद नहीं की जा सकती है. जैसे जैसे वे बड़े होते हैं -वहाँ की आया ( जो प्रशिक्षित नहीं होती) जो संचालिका होती हैं वे भी बाल मनोविज्ञान से वाकिफ नहीं होती हैं. सिर्फ और सिर्फ एक व्यवसाय के रूप में काम करती हैं. इनमें कुछ बच्चे अंतर्मुखी होते हैं और कुछ आक्रामक भी बन जाते हैं. उन्हें समझाने या फिर उनके मनोभावों के अनुरूप कोई भी व्यवहृत नहीं करता. ये बालमन की नींव होती है और जैसे भी उनके मन में बस गया वह अमिट हो जाता है. या फिर उसकी शिक्षा के साथ उनको बाल मनोविज्ञान के अनुसार शिक्षित किया जाय और उनके लिए प्रशिक्षित टीचर रखें .
जहाँ से बच्चा स्कूल के वातावरण में प्रवेश कर जाता है, वह अपनी टीचर को अपना आदर्श मान लेते हैं. माँ की बात से अधिक उन्हें टीचर की बात सही लगती है. मैंने कभी अपने एक आलेख में ये जिक्र किया था की लड़कियों के साथ हो रही छेड़खानी और अन्य असामाजिक व्यवहार से बचाने के लिए उन्हें बचपन से ही मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे अपनी सुरक्षा करने में स्वयं को सक्षम पायें. ठीक इसी तरह से बचपन से ही सभी स्कूलों में योग , ध्यान का भी समावेश होना चाहिए. जैसे आज बच्चों में बड़ी तेजी से परिपक्वता के लक्षण नजर आने लगे है तो ये स्वाभाविक है कि वे मानसिक तौर पर अपनी आयु से अधिक संवेदनशील और विचारशील हो रहे हैं. उनकी मनःस्थिति को समझाने की भी बहुत जरूरत महसूस होने लगी है.
अगर इनके पीछे होने वाले कारणों को देखने की कोशिश की जाय तो हमें यही पता चलता है की ये तनाव और कुंठाएं उसको परिजनों से भी मिलती हैं. हम बहुत समझदार होने का दवा करते हैं लेकिन फिर भी कभी हमारे ही बच्चे आपस में तुलना करने लगते हैं कि आप दूसरे को अधिक प्यार करती हैं और मुझे कम. ये भाई और बहन में तो बहुत ही अधिक पाया जाता है.तब हमें स्वयं खुद को भी तौलने की जरूरत होती है कहीं हम जाने अनजाने में ऐसा व्यवहार तो नहीं कर बैठते हैं कि बच्चों के मन में ये बात घर कर जाए. किशोरावस्था सबसे नाजुक होती है, वे त्वरित निर्णय लेकर उसको अनुप्रयोग कर डालते हैं. इस दृष्टि से कभी भी किसी भी परिप्रेक्ष्य में दो बच्चों की तुलना नहीं करनी चाहिए. सब में अपनी अपनी विशेषताएं होती हैं और सबकी अपनी अपनी बुद्धिमत्ता और ग्रहणशीलता होती है.
इस तरह की घटनाक्रम किशोरावस्था या इससे आगे और पीछे की आयु वाले लोगों के द्वारा ही दोहराए जा रहे हैं. चाहे कुंठा , अवसाद या तनाव कोई भी स्थिति हो, यदि व्यक्ति किसी के साथ बाँट लेता है तो उसके मन का बोझ हल्का हो जाता है लेकिन यदि वह अपने तक ही सीमित रहता है तो उससे उबर नहीं पता है बल्कि उसी के बीच डूबता और तैरता रहता है. निराशा की स्थिति में उसे हर तरफ से निराशा हाथ लगती है और वे अपनी समस्या में किसी को शामिल भी करना पसंद नहीं करते हैं. यदि उन्हेंस्कूल स्तर से ही इस तरह की शिक्षा दी जाय तो वे आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण जैसी बातों से परिचित हो जायेंगे और फिर उनके भटकते हुए मन को योग और ध्यान के द्वारा केन्द्रित किया जा सकता है. जो दूसरों से नहीं ही बांटना चाहते हैं , उनके लिए ये बात समझाई जा सकती है कि बहुत तनाव या अवसाद की स्थिति में डायरी लिखना भी एक बहुत अच्छा अभिव्यक्ति का साधन होता है और मन के गुबार या कुंठा को वह एक बार चाहे किसी से कहकर या फिर लिखकर व्यक्त कर देता है तो वो इस स्थिति से उबर आता है. अब ये स्थिति युवाओं के मामले में नहीं बल्कि बालपन से ही उभर कर सामने आ रही हैं. बच्चों के मनोविज्ञान से परिचित शिक्षिकाओं को ही इस कार्य के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए. अगर इस दिशा में सकारात्मक प्रयास किये जाएँ तो जल्दी ही हमें उसके परिणाम भी दिखने लगेंगे.
इस समस्या के बारे में यदि और अच्छे तरीके आप लोग सुझा सकें तो और भी बेहतर होगा क्योंकि मनोविज्ञान और मनोचिकित्सक की आवश्यकता आज के समय में अधिक महसूस की जा रही है.
शुक्रवार, 7 मई 2010
जनगणना और जाति सहित जनगणना !
देश में जनगणना का कार्य आरभ्य होने जा रहा है, हमारा गृह मंत्रालय इसके लिए प्रारूप तैयार कर चुका है. कल ये प्रश्न उठा कि इनमें जाति के उल्लेख के लिए कोई कॉलम नहीं है और गृह मंत्री इसके लिए तैयार भी नहीं है. लेकिन जाति के उल्लेख के बारे में सभी विपक्षी दल ही नहीं बल्कि सत्ता दल के लोग भी एक मत हैं. हमारी व्यवस्था में इसको बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है.
क्योंकि प्रारूप तैयार हो चुका है और प्रिंट होकर तैयार भी हो चुके हैं.
जनगणना कोई रोज होने वाली प्रक्रिया नहीं है और न ही किसी एक व्यक्ति के निर्णय से होने वाला काम है. गहन विचार के बाद ही प्रारूप तैयार होना चाहिए था और जब हमारे देश में जती के आधार पर कुछ क्षेत्रों में सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं तो फिर इसका संज्ञान तो बहुत जरूरी हो जाता है. हमारे देश में कितनी पिछड़ी जातियाँ है और उनकी संख्या कितनी है? इसी तरह से जनजातियों , अनुसूचित जातियों और इससे भी बढ़कर अल्पसंख्यक वर्ग की गणना कि जानकारी भी बहुत जरूरी है.
हमारे संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग को विशिष्ट सुविधाएँ और आरक्षण प्रदान किया गया है और इतने वर्षों में ये अल्पसंख्यक कहलाने वाले वर्ग उस सीमा से आगे बढ़ चुके हैं लेकिन आरक्षण के अधिकारी बने हुए हैं क्यों कि उनको संविधान में घोषित किया गया. इस अल्पसंख्यक वर्ग को भी पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है. वर्षों से चली आ रही परंपरा को अब ख़त्म करना भी आवश्यक हो चुका है. या फिर इस जाति व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया जाय और इसका उल्लेख कहीं भी नहीं होना चाहिए . अगर इसको जारी रखना है तो हमें ज्ञात होना चाहिए कि हम कितने हैं ? हमारा पूरे देश में क्या प्रतिशत है ? और क्या प्रतिनिधित्व है.
वैसे इस जनगणना के साथ यदि वाकई जाति के स्थान पर राष्ट्रीयता को महत्व दिया जाय तो देश का कल्याण हो सकता है. जो गणना हो वह भारतियों की हो, कोई जाति नहीं ,कोई वर्ग नहीं. हाँ अगर उत्थान की दृष्टि से देखना है तो हमें ये स्तर और वर्ग आर्थिक विकास की दृष्टि से बनाने चाहिए ताकि जो पिछड़े हैं या आर्थिक तौर से कमजोर हैं , उनको आरक्षण का लाभ मिल सके. सिर्फ जाति के नाम पर आरक्षण लेने वालों में समृद्ध और समृद्ध होता जा रहा है और जो पिछड़े हैं वे वहीं के वही हैं उन तक लाभ पहुँच ही नहीं पाता है.
क्योंकि प्रारूप तैयार हो चुका है और प्रिंट होकर तैयार भी हो चुके हैं.
जनगणना कोई रोज होने वाली प्रक्रिया नहीं है और न ही किसी एक व्यक्ति के निर्णय से होने वाला काम है. गहन विचार के बाद ही प्रारूप तैयार होना चाहिए था और जब हमारे देश में जती के आधार पर कुछ क्षेत्रों में सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं तो फिर इसका संज्ञान तो बहुत जरूरी हो जाता है. हमारे देश में कितनी पिछड़ी जातियाँ है और उनकी संख्या कितनी है? इसी तरह से जनजातियों , अनुसूचित जातियों और इससे भी बढ़कर अल्पसंख्यक वर्ग की गणना कि जानकारी भी बहुत जरूरी है.
हमारे संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग को विशिष्ट सुविधाएँ और आरक्षण प्रदान किया गया है और इतने वर्षों में ये अल्पसंख्यक कहलाने वाले वर्ग उस सीमा से आगे बढ़ चुके हैं लेकिन आरक्षण के अधिकारी बने हुए हैं क्यों कि उनको संविधान में घोषित किया गया. इस अल्पसंख्यक वर्ग को भी पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है. वर्षों से चली आ रही परंपरा को अब ख़त्म करना भी आवश्यक हो चुका है. या फिर इस जाति व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया जाय और इसका उल्लेख कहीं भी नहीं होना चाहिए . अगर इसको जारी रखना है तो हमें ज्ञात होना चाहिए कि हम कितने हैं ? हमारा पूरे देश में क्या प्रतिशत है ? और क्या प्रतिनिधित्व है.
वैसे इस जनगणना के साथ यदि वाकई जाति के स्थान पर राष्ट्रीयता को महत्व दिया जाय तो देश का कल्याण हो सकता है. जो गणना हो वह भारतियों की हो, कोई जाति नहीं ,कोई वर्ग नहीं. हाँ अगर उत्थान की दृष्टि से देखना है तो हमें ये स्तर और वर्ग आर्थिक विकास की दृष्टि से बनाने चाहिए ताकि जो पिछड़े हैं या आर्थिक तौर से कमजोर हैं , उनको आरक्षण का लाभ मिल सके. सिर्फ जाति के नाम पर आरक्षण लेने वालों में समृद्ध और समृद्ध होता जा रहा है और जो पिछड़े हैं वे वहीं के वही हैं उन तक लाभ पहुँच ही नहीं पाता है.