इस लेख को लिखने के बारे में हमारे ब्लॉग से प्रेरणा मिली. इससे सम्बंधित कई बातें पढ़ी और फिर बार बार सिर उठाने लगीं. यूँ ही ब्लॉग पर पढ़ने के लिए खोज रही थी कि नजर पढ़ी ऐसे पोस्ट पर कि जिसमें टिप्पणियों की संख्या बहुत ज्यादा थी. सोचा जरूर कोई अच्छा विषय होगा और पढ़ा तो कुछ ख़ास नहीं लेकिन जब टिप्पणियां पढ़ी तो पता चला कि ये एक विवाद है और उस विवाद में धत तेरे की मची हुई थी. आरोप प्रत्यारोपों की श्रंखला चली थी . कुछ शब्दों में कहूं तो तू ऐसा, तू ऐसी ....... मेरी विचारधारा तो यही है कि अगर कोई ब्लॉग लिखने वाला है तो जरूर ही प्रबुद्ध तो होगा. भाषा संयम, संस्कारित और शिक्षित भी होगा . लेकिन उसमें मिले विचारों ने मेरी सोच को ध्वस्त कर दिया और मैं सिर थाम कर सोचने लगी कि हमारी सोच कहाँ से अधिक प्रभावित होती है?
हमारी सोच का आधार क्या है --संस्कार, शिक्षा या संगति?
संस्कार जो हमें आँखें खोलते ही देखकर, सुनकर या माता पिता प्रदत्त होते हैं. इनमें से कुछ व्यक्ति ग्रहण कर लेता है और कुछ छोड़ भी देता है क्योंकि कभी कभी बहुत सज्जन माँ बाप के बच्चे बहुत ही निकृष्ट सोच के निकल जाते हैं. माता पिता का हमेशा यही प्रयास रहता है की वह अपने बच्चे को अच्छे संस्कार दे. इसके बाद वह पाठशाला की दहलीज चढ़ता है और वह भी उसके लिए उसकी सोच और आचरण के लिए मंदिर के समान होता है. इस पर पैर रखने के पहले वह बहुत कुछ सीख चुका होता है. अपने बड़ों से संवाद में प्रयुक्त शब्दों का चयन, सम्मान और अपमान जनक भाषा का प्रयोग या फिर अपशब्दों का प्रयोग. इसमें बच्चों की बचपन की संगति भी बहुत काम आती है.
अगर माँ बाप व्यस्त हैं और बच्चा आया या नौकरानी के साथ रहता है, उसके बच्चों के साथ खेलता है तो संस्कार वही पाता है और कभी नहीं भी पाता है. लेकिन अबोध मष्तिष्क पर ये छाप अंकित जरूर हो जाती है. अच्छे उच्च पदस्थ अधिकारियों, नेताओं और महिलाओं तक को गालियाँ बकते हुए सुना है. वे गालियाँ उनकी शिक्षा में समाहित नहीं होती हैं. पुस्तकों में भी नहीं लिखी होती हैं. यदि शिक्षक से सुनी हैं तो वे उसके जीवन में स्थान ले सकती हैं. तब उच्च शिक्षा और पद शर्मिंदा है. अक्सर डॉक्टरों तक को मरीजों से बहुत ही बुरी तरह से बात करते हुए सुना है.
--अगर पैसे नहीं थे तो यहाँ क्यों आये? क्या धर्मशाला समझ रखी है?
--पहले पैसे जमा करो तब मरीज को हाथ लगायेंगे.
--इतने ही पैसे हैं तो किसी और डॉक्टर के पास जाओ.
जब कि डॉक्टर को मरीजों के प्रति सहानुभूति पूर्ण रवैया और मानव सेवा की शपथ दिलाई जाती है. हमारी सोच हमारे संस्कारों से अधिक प्रभावित होती है. मैंने कई अच्छे संस्थानों में छात्रों को गन्दी गन्दी गालियाँ बकते हुए सुना है. भले ही वे आपस में दे रहे हों या मजाक में बात कर रहे हों लेकिन उनकी मेधा और शिक्षा इसमें कहीं भी शामिल नहीं होती है.
हम अपने संभाषण में , आरोपों और प्रत्यारोपों में जो अपशब्द प्रयोग करते हैं, वे हमें ही लज्जित करते हैं - हम दूसरों की दृष्टि में गिर जाते हैं. जिसने भी पढ़ा और सुना वो आपके प्रति अच्छी धारणा तो नहीं ही बनाएगा. वह बात और है कि हम अपने को बहुत दबंग या मुंहफट साबित कर रहे हों लेकिन ये सम्मानीय व्यक्तित्व को धूमिल कर देता है. हमारे पास इनके प्रयोग की सफाई भी होती है लेकिन कहीं हम अपना सम्मान खो चुके होते हैं. हमारी प्रबुद्धता कलंकित हो चुकी होती है. इसमें स्त्री या पुरुष का भेद नहीं है. जो बात गलत है वह सब पर लागू होती है. ऐसा नहीं है कि हम पुरुष है तो वह क्षम्य है और स्त्री हैं तो जघन्य अपराध. अपनी सोच और अभिव्यक्ति पर संयम ही आपको सम्मानित स्थान देता है और सम्मान किसी बाजार से खरीदा नहीं जाता बल्कि हमारे विचार और अभिव्यक्ति ही इसके लिए जिम्मेदार होते हैं. इस लिए भाषा का संयम सबसे पहल कदम है जो आपको प्रबुद्ध ही नहीं बल्कि एक जिम्मेदार और संस्कारित मानव की श्रेणी में रखता है.
कभी कभी सोच और कभी कभी सस्कार अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निबाहते है कई बार परिस्थितिजन्य भी व्यवहार कर बैठते है जिसमे पूर्व में देखि गई कोई घटना हावी हो जाती है और न चाहते हुए भी असंतुलित व्यवहार कर बैठता है इन्सान |यहाँ पर भी परिवेश और वातावरण का ही प्रभाव होता है और जैसा सोचते है वैसी भाषा ही हमारे मुख से निकलती है \कई लोग इतनी गाली गलौज करते है जिसे वे अपने से कमतर मानते है उस पर और उन्हें रंग बदलते देर नहीं लगेगी जब वे अपने से बड़े (ओहदे )से बात करते है आप सोच भी नहीं सकते कि यः इन्सान कितना शिष्ट है ?
जवाब देंहटाएंरेखा जी कहा जाता है घर इंसान का पहला विद्ध्यालय होता है.बालपन में जाने अनजाने परिवेश का असर उसपर होता है ..कई बार महज एक छोटी सी घटना का प्रभावी असर बालपन पर हो जाता है जिससे हम पूर्णत: अनजान रहते हैं.इसलिए बहुत जरुरी है कि बच्चों के सामने एक एक शब्द बोलने से पहले सोच लिया जाये.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट.
परिवेश का बहुत असर पड़ता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कीचड़ में कमल खिलने बंद हो गए हैं।
जवाब देंहटाएंगुसाईंजी कहें हैं,
जा की रही भावना जैसी।
प्रभु मूरत तिन देखी तैसी॥
मुझे लगता है कि हम अपना स्वभाव जन्मजात लेकर ही आते हैं। बस उसे पारिवारिक वातावरण और शिक्षा से कुछ परिष्कृत करते हैं। मैं जब अपने बारे में सोचती हूँ तो बचपन से स्वयं को एक ही सोच से घिरा पाती हूँ और उसी सोच वाले इंसानों से मित्रता की ईच्छा भी रहती है। किसी को भी अपशब्द बोलना बचपन से ही मन को निषेध था जबकि सम्पूर्ण आयु विपरीत वातावरण ही मिला। कई बार तो ऐसी स्थिति होती है कि आपका दुश्मन आपको परेशान कर रहा है और फिर भी आप उसे उत्तर देते समय सोच रहे हैं कि यह बोलना तो इसे अच्छा नहीं लगेगा। इसलिए मुझे तो लगता है कि हम जन्म से ही अपनी सोच लेकर आते है।
जवाब देंहटाएंएक हद तक मैं अजित जी की बातों से सहमत हूं। मैं स्वयं भी किसी को क्रोध में कुछ कहने से पहले चार बार यह सोचता हूं कि उसे कैसा लगेगा सुनकर। पर मुझे लगता है परिवेश और परिस्थितियां भी बहुत सी बातें सिखाते हैं।
जवाब देंहटाएंअजित जी,
जवाब देंहटाएंआप किसी हद तक सही हैं कि ये जन्म से आती है लेकिन और लोगों का ये कहना कि वातावरण का भी प्रभाव बहुत पड़ता है और साथ ही संगति का भी. लेकिन ये ब्रबुद्धा व्यक्ति क्या ऐसा बोल सकते हैं, अपनी कोई गरिमा नहीं होती. हम अच्छा सोचते हैं और लिखते भी है फिर कभी कभी इतने असभ्य क्यों दिखाने लगते हैं? क्या हमारा विवेक ख़त्म हो जाता है या हम अपना आत्मनियंत्रण खो बैठते हैं. जो भी हमें संयमित रहनेकी कोशिश करनी चाहिए.
पता नही यह सब क्यो गालिया निकालते है, मैने तो कईयो को देखा है बाप बेटा एक दुसरे को प्यार से बात करते समय भी गालिया निकालते है,मै अकसर चुप हो जाता हुं कोई मुझे गाली दे तो, वेसे आज तक बचपन को छोड कर ऎसा कभी हुआ नही, ओर हमे अपनी संगत मै भी देखना चाहिये कि हम केसे लोगो के संग बेठते ऊठते है, ओर उन के बच्चो के संग हमारे बच्चे क्या सीखेगे, लेकिन किसी को गाली दे कर हमे क्या मिलता है?? आत्म गलिन या कोई धन दोलत, बहुत सुंदर लेख लिखा आप ने, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंरोजमर्रा एवं सार्वजनिक जीवन में अपशब्दों का प्रयोग , कुत्सित मानसिकता का प्रतीक है और ऐसे शब्दों के प्रयोग करने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण भी करता है .मैंने अपने छोटे से ब्लॉग जीवन में बहुत सारी ऐसे टिप्पणिया देखी है जिन्हें हम इसी कुत्सित मानसिकता वाली श्रेणी में रख सकते है , भले ही उनपर लिपा पोती की गयी हो या उनपर मनोविज्ञान का मुलम्मा चढ़ा दिया गया हो.
जवाब देंहटाएंइस लिए भाषा का संयम सबसे पहल कदम है जो आपको प्रबुद्ध ही नहीं बल्कि एक जिम्मेदार और संस्कारित मानव की श्रेणी में रखता है..
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही है ..१०० प्रतिशत सहमत ..
sahi kaha rekha di aapne...........ghar ke parevesh ka asar bachcho par sabse jayda hota hai........
जवाब देंहटाएंye bhi sach hai, unke samne soch-samajh kar baat karni chahiye, wo turant baato ko pakadte hain......lekin aisa ho nahi pata.....sach kahun, mere se to bilkul nahi.......jab wo kshan beet jata hai, tab lagta hai.........uff kya yaar, kuchh dhyan hi nahi rahta.......
badhiya di........
जिसे भ्रम हो गया कि वो ज्ञानी है उसमें अहं की प्रबलता की संभावना रहती है और अहं संयम के बॉंध तोड़ने में सक्षम रहता है जबकि ज्ञानी को यह ज्ञात रहता है कि ज्ञान का सागर विशाल है जिसकी कुछ बूँदें ही अभी वह पी सका है; स्वाभाविक है कि यह उसमें विनम्रता लाता है।
जवाब देंहटाएंअपने बिल्कुल सही कहा, ज्ञान का अहंकार ही तो व्यक्ति अधिक अभिमानी बना देता है. अपने से श्रेष्ठ न किसी के न होने कि भ्रम उन्हें दूसरों की दृष्टि में गिरा देता है.
जवाब देंहटाएंbachha jab paida hota hai.uske manas patal par kuchh nahin hota.dhire dhire woh jo dekhta hai sunta hai usse uska swabhav banta hai.maan baap apne bachhon ko achhe sanskar dena chahte hain.bade ho kar woh aaspaas ki duniya se prabhavit hota hai.bade ho kar usko apne upar kitna niyantran hai uspar nirbhar.achhi soch kisi shicha ya sanskar ki gulam nahin hai yeh apne vyaktitwa par aadharit hoti hai mera aisa manna hai
जवाब देंहटाएंrekha jee
जवाब देंहटाएंpranam !
aap ke blog pe pehli baar aana hua , wo bhi sarthak laga. achcha aalekha hai . sadhuwad
saadar