सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों के कसक (15)

      आज  अगर सोचते हैं कि  कल हमने क्या सोचा था ? क्या चाहां था? और क्या कर पाए? सब के पीछे एक बात आकर खड़ी  हो जाती है कि  ये हकीकत है कि  लड़कियों को सपने देखने का हक तो होता है  उनके पूरा होने या पूरा करने में अपने घर  वालों की सहमति  की जरूरत होती है और वह सहमति  अगर उनके अनुसार अनुकूल लगती हैं तब तो हम पूरा कर पाते  हैं नहीं तो वह रास्ता अपनाना पड़ता है जो सुगम हो। वह सपने बस एक लड़की के बेचारगी का शिकार हो जाते हैं। इसमें दोष घर वालों का नहीं होता है बल्कि उस माहौल का होता है जिसमें वे रहते हैं  और एक सामाजिक प्राणी का तमगा लगाये बेबस दिखाई देते हैं। फिर नए माहौल में अनुकूल माहौल मिलेगा ही ये नहीं जानते लेकिन अगर मिल भी गया तो शर्तों के साथ - मुझे तो नहीं दिखलाई दिया की नए माहौल में अगर कोई लड़की अपनी इच्छानुसार अपने सपनों को बिना रोक टोक के पूरा कर पाई हो। लेकिन इससे भी कोई शिकायत नहीं करती है - वह उसमें भी खुश और दूसरों की ख़ुशी में अपने सपनों को दफन कर खुश रहती है। यही तो उसका वह रूप है जो नमनीय है। 
            
   
                      आज अपने सपनों के साथ आयीं है रजनी नय्यर मल्होत्रा 



अधूरे सपनों की कसक  ------------  दिल में कसक  उसी  बात की रह जाती है जो पूरी नहीं हो पाती ,या जिसे आपने अपने पलकों पर पाले और किसी कारणवश वो आपके पलकों से आंसुओं की तरह ढलक जाते हैं या ढलका दिए जाते हैं |बचपन से ही अपने नाम के आगे डॉ लगाने की इच्छा थी |  मैं क्लास 5 -6  सेही खेल-खेल में सदा डॉ बनती थी, और मेरे जन्मभूमि का  जहाँ गाँव   है एक सरकारी नर्स  मेरे पैतृक मकान में  भाड़े में रहती थी  उन्हें देख -  देख कर मरीजों को सुई लगाना हलकी बीमारी की दवाएं देना मैंने सीख लिया | और दसवीं आते -  आते मेरे अन्दर का डॉ. कब जाग गया पता ही नहीं चल पाया | जब मेरी ही लापरवाही से मेरी छोटी बहन को चोट लगी , और मैंने बिना किसी को बताये उसे कुछ दवाएं  लाकर दी और मम्मी पापा ने  जब किसी डॉ को बताया और सारी दवाएँ सही निकलीं  तब मेरा डॉ बनने का जूनून उड़ान भरने लगा ,पर होनी कुछ और थी , मुझे दसवीं के बाद उस जगह से दूर विज्ञान  के कॉलेज में
दाखिला के लिए पापा ने मना कर दिया | ये कह कर की  दूर नहीं जाना है पढने| जो है यहाँ उसी को पढो , और पापा ने मेरी पढ़ाई कला से करने को अपना फैसला सुना दिया | मैं  कुछ दिल तक कॉलेज नहीं गयी | खाना छोड़ा और रोती रही , पर धीरे -धीरे मुझे स्वीकार करना पड़ा उसी सच्चाई को |  


           एक दिन सरस्वती पूजा को मेरी  कुछ अपने पुराने दोस्तों से मुलाक़ात हुई , उनसे सुना वो सब बाहर पढ़ रहीं साइंस कॉलेज में , मैं रुयांसे होकर घर आई , अब पापा ने मेरा उन सबसे  मिलना बंद करवा दिया ये कह कर की वो लोग मेरा ब्रेन वाश कर रहीं | मैंने बेमन से आर्ट्स में 12  वी पूरी की फिर आगे अर्थशास्त्र से बी. ए .    करने का इरादा किया |मेरा विवाह पढ़ाई के दौरान ही मम्मी पापा ने तय कर दिया जबकि जानते थे बेटी मेरी मेधावी है मैंने बचपन से ही पढ़ाई या अन्य क्षेत्रों  में सदा पहले दर्जे की सफलता हासिल की ,जिसका मेरे माता पिता को सदा गर्व हुआ | पर इस बार मम्मी का जवाब था अब आगे नहीं पढ़ा सकती क्योंकि मैं  तीन बहनों में सबसे बड़ी थी , और उन्हें मेरी पढ़ाई और करियर से बड़ी जिम्मेवारी मेरी विवाह की थी , मेरे मेधावी होते हुए भी उन्होंने मेरे सपनों के विषय में एक बार भी नही सोंचा, और मैं  व्याह कर अपने ससुराल आ गयी |
           पर कहते हैं न , कोई भी चीज़ सिद्दत से चाहो तो  ऊपरवाला  साथ देता है | मैंने अपने पति से पहले ही दिन कहा  कि मेरी आगे पढ़ने की इच्छा है , क्या   वो मुझे आगे पढ़ाएंगे ? औरउन्होंने इस शर्त पर मुझे सहमती दी की मैं संयुक्त परिवार में हूँ सारी जिम्मेवारी निभाते हुए यदि कर सकती हूँ तभी , अन्यथा परिवार में किसी भी तरह की कमी या उतार चढाव  मेरा पढ़ाई का रास्ता बंद कर देगी |  मैं पारिवारिक जिम्मेवारी निभाते हुए धीरे- धीरे आर्ट्स से  बी.ए. किया, फिर बी. एड.    एम्. ए. की    और कंप्यूटर साइंस में बी.सी. ए. की   साइंस तो मिली पर डॉ नहीं बन पाई |  अब  बेटी को डॉ बनाने का सपना  पाले हूँ ,सभी जानते हैं घर में , और बेटी को भी कहा है , मेरे सपने तो  अधूरे  रह गए पर अब  इसे तुम्हे पूरी करनी  है | मम्मी - पापा का आज भी एक ही जवाब  है तुम्हें डॉ नहीं शायर बनना था , जब डॉ बन जाती तो शायर नहीं बन पाती | जब भी मिलती हूँ मम्मी पापा से बस एक यही मलाल रहता है , उन्होंने साथ दिया होता तो शायद आज मैं ........... .  मेरी शायरी उसी कमी को कह रही |  "जब उड़ने   की तमन्ना  थी ,
 आसमान     नहीं      मिला ,
 पंख   फैलाये        खड़े    थे ,
 आसमान    की    चाह    में,
 आज    आसमान    तो    है ,
 पर पंख    नहीं   क़तर  गए "    

14 टिप्‍पणियां:

  1. :(...पता नहीं क्यों करते हैं माता पिता ऐसा.

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  2. बहुत सुन्दर पोस्ट ,आपको बधाई.इसी तरह अपना लेखन सफ़र आगे बढाती रहें.

    मोहब्बत नामा
    मास्टर्स टेक टिप्स
    इंडियन ब्लोगर्स वर्ल्ड

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  3. वह समय बीत चुका. संतोष यही कि हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ उन बंदिशों से मुक्त रहेंगी !

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  4. वक्त के सितम ऐसे ही होते हैं अब जो कमी रह गयी थी यदि बेटी की इच्छा है तो उसके माध्यम से पूरी करिये।

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  5. मन से ये बात चाहकर भी नहीं जाती ...

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  6. कोई बात नहीं, अब पूरा ध्यान बेटी पर उसके डाक्टर बन जाने से आपका मन हल्का होगा और गर्व भी..
    बहुत बहुत शुभकामनाएं..

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  7. एक बात कहना चाहूँगा, अगर आपकी बेटी को डाक्टर बनने में रुचि ना हो तो कृपया अपने सपने उस पर ना डालें. जिससे भविष्य में वह भी ऐसे ही पोस्ट लिखने को मजबूर ना हो.

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  8. रजनी जी आपका और मेरा एक ही सपना था था क्या अभी भी आने वाली पीढ़ी में ढूंढ रहे हैं वो अपना सपना शुभकामनायें

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  9. रजनी जी ,हम लोगों का वक्त गया ...बहुत सपने अपनों की वजह से टूट और कुछ पूरे हुए पर अब .....मैं भी ये ही कहूँगी कि जो बेटी का मन हो उसे वही करने दे ....वक्त बहुत तेज़ी से बदला है ...ऐसा ना हो कि बेटी भी कहें कि ''मेरी माँ ही मुझे नहीं समझ सकी ''...सादर

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  10. वक़्त के आगे किसकी चली हैं . आब बस यही दुआ हैं आपकी बेटी आपके सपने को पूरा करे बहुत बहुत शुभकामनाये आपकी बेटी के लिए

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  11. सादर ,

    आपसभी के विचारों से अवगत हुई ,अच्छा भी लगा और कुछ नयी विचार सिखने को मिले , मैंने अपनी विचारधारा को बेटी के ऊपर नहीं थोपा है | बचपन से ही बेटी के खेलों में डॉ. की भूमिका को देखकर मेरा मन तय करने लगा था की इसके अन्दर भी कोई डॉ.पनप रहा है, और जब भी बेटी से बड़ा होकर क्या बनना चाहती हो पूछा , जवाब में डॉ.सुनकर मैंने उसके सपने में अपने सपने को हकीकत बनाने का सांचा देख लिया , और कह दी अपने दिल की बात मई भी डॉ बनना चाहती थी , अब तुम पूरा करो ये सपना जो दोनों का बन चुका है |

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  12. har karya ke peechhe ek karan hota hai rajneeji...jo karan ka bhee karan khoj lete hen ve log bhagya ke swayamnirmata hote hen...aapko badhai ek unnat soch ke lie ,,,eeshwar aapki betee ko vo saaree khushiyan de jo aap paa na sakeen...

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