अधूरे सपनों की कसक को लेकर चली थी कि सबके आधे अधूरे सपनों से दो चार होंगे और फिर सोचेंगे कि इन सपनों के सजने और टूटने में क्या था? किसने अधिक इस सफर में अपने सपनों के साथ समझौता किया और कौन उसके लिए जिम्मेदार रहा? उसका नारी होना या फिर सामाजिक सीमाओं की परिधि।
सबसे पहले तो अपने उन सभी साथियों को धन्यवाद कहूँगी जिन्होंने ने मेरे इस अनुरोध को मान दिया और सहयोग किया अपने सपनों की कसक को बांटने में। फिर इस बात को लेकर एक कसक मन में रह गयी कि सपनों की कसक को बांटने का आश्वासन देकर कुछ साथी मुझे लालीपॉप दिखाते रहे और फिर छुप कर खुद ही खा गए और हम रोज इन्तजार करते रहे कि वो हमें आज मिलेगी , कल मिलेगी लेकिन वो तो आज तक मिली ही नहीं . दिवाली के बाद बहुत दिनों तक इन्तजार करते रहे कि शायद त्यौहार के बाद समय मिले तो मिल जाए लेकिन मेरा इन्तजार तो व्यर्थ ही गया।
मेरे इस सफर में सबसे अधिक साथ दिया आधी आबादी ने - शायद हम सब की पीड़ा कहीं न कहीं एक जैसी ही रही थी लेकिन शेष आधी आबादी ने सहयोग तो दिया लेकिन बहुत कम फिर भी मैं अपने सभी साथियों का हार्दिक धन्यवाद करती हूँ जिन्होंने ने मेरे अनुरोध का मान रखा और उन्हें भी जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि ऐसा कुछ उनके जीवन में हुआ ही नहीं।
इस सफर से कुछ तो उपलब्धि हुई ही है , हम कहते हैं कि नारी आज सशक्त हो रही है और सक्षम भी लेकिन कितनी? इसको इसी बात से देखा जा सकता है कि उच्च शिक्षित होने के बाद भी हमारी पीढी हो या फिर आज की युवा पीढी -- आधी आबादी ने अपने सपनों को एक परिवार से दूसरे परिवार में आने पर बलिदान कर दिया और अपनी जिम्मेदारियों को उठाते हुए अपने सपनों को दूसरी तरफ रुख कर के अपनी संतुष्टि के रास्ते को खोज लिया। वही अपने पहले परिवार के साथ भी निश्चित सीमाओं के कारन अपने सपनों को वहीँ अधूरा छोड़ दिया और उसे आज भी अपने मन में पलते हुए अफसोस को अपने आने वाली पीढी में पूरा होने की आशा कर रही है।
सपनों के साकार होने में कल भी और आज भी आधी आबादी के साथ कभी न्याय नहीं हो सका है। हाँ इतना जरूर है कि हम जो अपने अधूरे सपनों की कसक लिए कभी सोचते हैं तो फिर अपने बच्चों के सपनों को कभी न टूटने देने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। लेकिन फिर भी अपनी बेटी की शादी के बाद नहीं जानते कि उसके इस बार भी देखे गए सपने और हमारे द्वारा दी गयी दिशा को वहां कितना समर्थन मिलेगा? वह अपनी पढाई और शिक्षा के उद्देश्य को कितने प्रतिशत पूरा कर पायेगी ? ऐसे कितने केस मेरे सामने है कि लड़कियाँ मात्र औपचारक शिक्षा नहीं नहीं बल्कि एम टेक , एम सी ए और एम बी ए जैसी शिक्षा पाने के बाद भी दूसरे घर में जाने के बाद अपने माता पिता की खून और पसीने की कमाई से पढाई करने के बाद भी वे सिर्फ गृहणी बन कर रह गयीं . उनके सपने वहीँ के वहीँ रह गए और उनके साथ सजे उनके माता पिता के सपने भी .
लेकिन इसको माता पिता भी अपने अधूरे सपने की कसक के साथ इस कसक को भी सह लेते हैं। ऐसा शेष आधी दुनियां के साथ नहीं होता है। वह अपने सपनों को भी हक से पूरा कर लेता है और अगर न भी हो सके तो फिर भी उसके लिए कोई बंधन नहीं होता है कि उसकी सीमायें इतने भी ही सीमित हैं . एक नहीं ऐसे कितने ही मामले हो सकते हैं। हम एक बुद्धिजीवी वर्ग के सामने थे और फिर उनके सपनों की रह को नापा था लेकिन शायद कुछ ही प्रतिशत ऐसे लोगों के उत्तर मिले कि मेरा कोई भी सपना अधूरा नहीं रहा बल्कि मेरे हर सपने को अपना मक़ाम मिला . बस यही तो सोच रही थी और सोच रही हूँ की काश ऐसे गर्व से पूरे संसार में सभी कह सकें की मेरा कोई भी सपना अधूरा न रहा . वह अधूरापन जो की उसके लिए मजबूरी न बने
सबसे पहले तो अपने उन सभी साथियों को धन्यवाद कहूँगी जिन्होंने ने मेरे इस अनुरोध को मान दिया और सहयोग किया अपने सपनों की कसक को बांटने में। फिर इस बात को लेकर एक कसक मन में रह गयी कि सपनों की कसक को बांटने का आश्वासन देकर कुछ साथी मुझे लालीपॉप दिखाते रहे और फिर छुप कर खुद ही खा गए और हम रोज इन्तजार करते रहे कि वो हमें आज मिलेगी , कल मिलेगी लेकिन वो तो आज तक मिली ही नहीं . दिवाली के बाद बहुत दिनों तक इन्तजार करते रहे कि शायद त्यौहार के बाद समय मिले तो मिल जाए लेकिन मेरा इन्तजार तो व्यर्थ ही गया।
मेरे इस सफर में सबसे अधिक साथ दिया आधी आबादी ने - शायद हम सब की पीड़ा कहीं न कहीं एक जैसी ही रही थी लेकिन शेष आधी आबादी ने सहयोग तो दिया लेकिन बहुत कम फिर भी मैं अपने सभी साथियों का हार्दिक धन्यवाद करती हूँ जिन्होंने ने मेरे अनुरोध का मान रखा और उन्हें भी जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि ऐसा कुछ उनके जीवन में हुआ ही नहीं।
इस सफर से कुछ तो उपलब्धि हुई ही है , हम कहते हैं कि नारी आज सशक्त हो रही है और सक्षम भी लेकिन कितनी? इसको इसी बात से देखा जा सकता है कि उच्च शिक्षित होने के बाद भी हमारी पीढी हो या फिर आज की युवा पीढी -- आधी आबादी ने अपने सपनों को एक परिवार से दूसरे परिवार में आने पर बलिदान कर दिया और अपनी जिम्मेदारियों को उठाते हुए अपने सपनों को दूसरी तरफ रुख कर के अपनी संतुष्टि के रास्ते को खोज लिया। वही अपने पहले परिवार के साथ भी निश्चित सीमाओं के कारन अपने सपनों को वहीँ अधूरा छोड़ दिया और उसे आज भी अपने मन में पलते हुए अफसोस को अपने आने वाली पीढी में पूरा होने की आशा कर रही है।
सपनों के साकार होने में कल भी और आज भी आधी आबादी के साथ कभी न्याय नहीं हो सका है। हाँ इतना जरूर है कि हम जो अपने अधूरे सपनों की कसक लिए कभी सोचते हैं तो फिर अपने बच्चों के सपनों को कभी न टूटने देने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। लेकिन फिर भी अपनी बेटी की शादी के बाद नहीं जानते कि उसके इस बार भी देखे गए सपने और हमारे द्वारा दी गयी दिशा को वहां कितना समर्थन मिलेगा? वह अपनी पढाई और शिक्षा के उद्देश्य को कितने प्रतिशत पूरा कर पायेगी ? ऐसे कितने केस मेरे सामने है कि लड़कियाँ मात्र औपचारक शिक्षा नहीं नहीं बल्कि एम टेक , एम सी ए और एम बी ए जैसी शिक्षा पाने के बाद भी दूसरे घर में जाने के बाद अपने माता पिता की खून और पसीने की कमाई से पढाई करने के बाद भी वे सिर्फ गृहणी बन कर रह गयीं . उनके सपने वहीँ के वहीँ रह गए और उनके साथ सजे उनके माता पिता के सपने भी .
लेकिन इसको माता पिता भी अपने अधूरे सपने की कसक के साथ इस कसक को भी सह लेते हैं। ऐसा शेष आधी दुनियां के साथ नहीं होता है। वह अपने सपनों को भी हक से पूरा कर लेता है और अगर न भी हो सके तो फिर भी उसके लिए कोई बंधन नहीं होता है कि उसकी सीमायें इतने भी ही सीमित हैं . एक नहीं ऐसे कितने ही मामले हो सकते हैं। हम एक बुद्धिजीवी वर्ग के सामने थे और फिर उनके सपनों की रह को नापा था लेकिन शायद कुछ ही प्रतिशत ऐसे लोगों के उत्तर मिले कि मेरा कोई भी सपना अधूरा नहीं रहा बल्कि मेरे हर सपने को अपना मक़ाम मिला . बस यही तो सोच रही थी और सोच रही हूँ की काश ऐसे गर्व से पूरे संसार में सभी कह सकें की मेरा कोई भी सपना अधूरा न रहा . वह अधूरापन जो की उसके लिए मजबूरी न बने