संयुक्त परिवार कल आने वाली पीढ़ी इतिहास के पन्नों पर पढ़ेगी जैसे हम अपने इतिहास में गुजरे ज़माने की पर्दा प्रथा , सती प्रथा और अबोध बच्चों के विवाह की प्रथा के विषय में पढ़ कर जान लेते हैं। परिवार संस्था का अस्तित्व भी अब खतरे की और बढ़ने लगा है और फिर संयुक्त परिवार के विषय में आने वाली पीढ़ी इसी तरह से पढ़ कर आश्चर्य करेगी - क्या कभी ऐसा भी होता था ? माय गॉड प्राइवेसी नाम की चीज तो होती ही नहीं होगी। आज कल सबकी अपनी लाइफ होती है और बच्चे भी उसमें दखलंदाजी पसंद नहीं करते हैं।
हमारी आज की पीढ़ी तक तो संयुक्त परिवार में रहे हैं और उसमें पलने वाले प्यार को आज भी महसूस करते हैं और बल्कि हम सभी भाई बहन ( पापा तीन भाई थे और उनके सब मिला कर 13 बच्चे थे जिसमें दसवें स्थान के भाई को अभी हाल ही में खो दिया ) आज भी वैसे ही जुड़े हुए हैं। बचपन से लेकर मेरी शादी तक हर त्यौहार सभी लोग एक जगह पर मानते थे और तब रौनक देखते बनती थी। गर्मियों छुट्टियां घर पर ही होती थी। कुछ दिन सब लोग अपने अपने ननिहाल जाते और फिर वापस घर आ जाते। आज पापा वाली पीढ़ी में सिर्फ माँ और एक चाचा शेष हैं लेकिन अभी भी लगता है कि हम सारे भाई बहन कहीं भी रहें जुड़े रहेंगे और एक दूसरे के सुख और दुःख में शामिल रहेंगे। हर समय सशरीर नहीं लेकिन अपनी भावात्मक उपस्थिति का अवश्य ही अहसास कराते रहते हैं।
संयुक्त परिवार से मिलते संस्कार , आपसी सामंजस्य , एक दूसरे के प्रति प्रेम और सहानुभूति सब सिखाता आया है। एक दूसरे के सुख और दुःख को महसूस करते देखा है। बच्चों के बीच माता और पिता होने की लकीर नहीं खिंची होती थी। सब बच्चे सबके होते थे। तब लोगों में महानगरीय संस्कृति की छाया नहीं पड़ी थी। मानवता के भाव भी वहीँ मिलते थे।
आज एक तो एकल परिवार और फिर एक ही संतान रखने के निर्णय ने सारे रिश्तों को सीमित कर दिया है। अब अगर एक बेटी है तो फिर उसके बच्चों के लिए मौसी और मामा जैसे रिश्ते कहने का अवसर ही नहीं मिलता है और अगर बेटा है तो उसके बच्चों के लिए चाचा और बुआ जैसे रिश्ते महसूस करने का अवसर नहीं मिलता है। हमारे बच्चे तो माँ और पापा के मित्रों में मौसी , मामा , चाचा और बुआ जैसे सम्बोधन ही बोलते आ रहे हैं। आज की कल्चर में तो सब अंकल और आंटी ही रह गए हैं। संयुक्त परिवार तो अब आने वाली पीढ़ी समाजशास्त्र में पढ़ा करेगी.
हमारी आज की पीढ़ी तक तो संयुक्त परिवार में रहे हैं और उसमें पलने वाले प्यार को आज भी महसूस करते हैं और बल्कि हम सभी भाई बहन ( पापा तीन भाई थे और उनके सब मिला कर 13 बच्चे थे जिसमें दसवें स्थान के भाई को अभी हाल ही में खो दिया ) आज भी वैसे ही जुड़े हुए हैं। बचपन से लेकर मेरी शादी तक हर त्यौहार सभी लोग एक जगह पर मानते थे और तब रौनक देखते बनती थी। गर्मियों छुट्टियां घर पर ही होती थी। कुछ दिन सब लोग अपने अपने ननिहाल जाते और फिर वापस घर आ जाते। आज पापा वाली पीढ़ी में सिर्फ माँ और एक चाचा शेष हैं लेकिन अभी भी लगता है कि हम सारे भाई बहन कहीं भी रहें जुड़े रहेंगे और एक दूसरे के सुख और दुःख में शामिल रहेंगे। हर समय सशरीर नहीं लेकिन अपनी भावात्मक उपस्थिति का अवश्य ही अहसास कराते रहते हैं।
संयुक्त परिवार से मिलते संस्कार , आपसी सामंजस्य , एक दूसरे के प्रति प्रेम और सहानुभूति सब सिखाता आया है। एक दूसरे के सुख और दुःख को महसूस करते देखा है। बच्चों के बीच माता और पिता होने की लकीर नहीं खिंची होती थी। सब बच्चे सबके होते थे। तब लोगों में महानगरीय संस्कृति की छाया नहीं पड़ी थी। मानवता के भाव भी वहीँ मिलते थे।
आज एक तो एकल परिवार और फिर एक ही संतान रखने के निर्णय ने सारे रिश्तों को सीमित कर दिया है। अब अगर एक बेटी है तो फिर उसके बच्चों के लिए मौसी और मामा जैसे रिश्ते कहने का अवसर ही नहीं मिलता है और अगर बेटा है तो उसके बच्चों के लिए चाचा और बुआ जैसे रिश्ते महसूस करने का अवसर नहीं मिलता है। हमारे बच्चे तो माँ और पापा के मित्रों में मौसी , मामा , चाचा और बुआ जैसे सम्बोधन ही बोलते आ रहे हैं। आज की कल्चर में तो सब अंकल और आंटी ही रह गए हैं। संयुक्त परिवार तो अब आने वाली पीढ़ी समाजशास्त्र में पढ़ा करेगी.
आवश्यक एवं महत्वपूर्ण लेख ! आभार आपका
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