गुरुवार, 15 मई 2014

संयुक्त परिवार दिवस !

                                    संयुक्त परिवार कल आने वाली पीढ़ी इतिहास के पन्नों पर पढ़ेगी जैसे हम अपने इतिहास में गुजरे ज़माने की पर्दा प्रथा , सती प्रथा और अबोध बच्चों के विवाह की प्रथा के विषय में पढ़ कर जान लेते हैं।  परिवार संस्था का अस्तित्व भी अब खतरे की और बढ़ने लगा है और फिर संयुक्त परिवार के विषय में आने वाली पीढ़ी इसी तरह से पढ़ कर आश्चर्य करेगी - क्या कभी ऐसा भी होता था ? माय गॉड  प्राइवेसी नाम की चीज तो होती ही नहीं होगी। आज कल सबकी अपनी लाइफ होती है और बच्चे भी उसमें दखलंदाजी पसंद नहीं करते हैं।  
                                   हमारी आज की पीढ़ी तक तो  संयुक्त परिवार में रहे हैं और उसमें पलने वाले प्यार को आज भी महसूस करते हैं और बल्कि हम  सभी भाई बहन ( पापा तीन भाई थे और उनके सब मिला कर 13 बच्चे थे जिसमें दसवें स्थान के भाई को अभी हाल ही में खो दिया ) आज भी वैसे ही जुड़े हुए हैं।  बचपन से लेकर मेरी शादी तक हर त्यौहार सभी लोग एक जगह पर मानते थे और तब रौनक देखते बनती थी।  गर्मियों  छुट्टियां घर पर ही होती थी।  कुछ दिन सब लोग अपने अपने ननिहाल जाते और फिर वापस घर आ जाते।  आज पापा वाली पीढ़ी में सिर्फ माँ और एक चाचा शेष हैं लेकिन अभी  भी लगता है कि हम सारे भाई बहन कहीं भी रहें जुड़े रहेंगे और एक  दूसरे के सुख और दुःख में शामिल रहेंगे।  हर समय सशरीर नहीं  लेकिन अपनी भावात्मक उपस्थिति  का अवश्य ही अहसास कराते रहते हैं।
                संयुक्त परिवार से मिलते संस्कार , आपसी सामंजस्य , एक दूसरे के प्रति प्रेम और सहानुभूति सब सिखाता आया है।  एक दूसरे के सुख और दुःख को महसूस करते देखा है। बच्चों के बीच माता और पिता होने की लकीर नहीं खिंची होती थी।  सब बच्चे सबके होते थे। तब लोगों में महानगरीय संस्कृति की छाया  नहीं  पड़ी थी। मानवता  के भाव भी वहीँ  मिलते थे।  
                                     आज एक तो एकल परिवार और फिर  एक ही संतान  रखने के निर्णय ने सारे  रिश्तों को सीमित कर  दिया है।  अब अगर एक बेटी है तो फिर उसके बच्चों के लिए मौसी और मामा जैसे  रिश्ते कहने का अवसर ही नहीं मिलता है और अगर बेटा है तो उसके बच्चों के लिए चाचा और बुआ जैसे रिश्ते महसूस करने का अवसर नहीं मिलता है।  हमारे बच्चे तो माँ और पापा के मित्रों में मौसी , मामा , चाचा और बुआ जैसे सम्बोधन ही बोलते आ रहे हैं।  आज की कल्चर में तो सब अंकल और आंटी ही रह गए हैं।  संयुक्त परिवार तो अब आने वाली पीढ़ी समाजशास्त्र में पढ़ा करेगी.

मंगलवार, 6 मई 2014

नयी पीढ़ी का स्वरूप !

                     


                कभी कभी कोई एक पंक्ति या फिर एक कमेंट पूरे के पूरे आलेख की पृष्ठभूमि तैयार कर जाती है. किस सोच के पीछे कौन सा मनोविज्ञान छिप कर उजागर कर जाएगा इसको कोई नहीं जानता।  पिछले बार  स्टेटस मैंने अपडेट किया --

                 क्या आप भी ये अनुभव करते हैं कि आज के युवा अधिक संघर्षशील , उदारमना और बड़ों को आदर देने वाले होते जा रहे हैं बजाय उनके को उनके माता पिता की उम्र की पीढ़ी के लोगों के। इसे आप ये भी कह सकते हैं कि आँखों के देखने का दायरा सीमित होता है और वह अपने आस पास अधिक देख पाती हैं।

                           और इसके कमेंट में रश्मि रविजा ने जो लिखा इससे कुछ कौंध गया दिमाग में और रश्मि ने सच ही लिखा था --

                  .    बिल्कुल सहमत हूँ ...उनके माता -पिता की पीढ़ी ने तो आधी से ज्यादा ज़िन्दगी डर डर कर ही गुजार दी. 

                          बिलकुल सच लिखा  है रश्मि ने वाकई हम लोगों की जिंदगी तो डरते डरते ही गुजर गयी।  हमारी पीढ़ी 50s  और 60s में पैदा होने वाले लोग अपने माता पिता से बत डरते थे।  माँ से कम पिता से ज्यादा।  पापा घर में आये नहीं कि  बच्चे घर के कोने खोजने लगते थे छिपने के लिए भले ही वे कोई शैतानी न कर रहे हों या नहीं।  सिर्फ पिता ही के लिए नहीं बल्कि सभी बड़ों की नजर खास तौर पर बहू और बेटियों पर  लगी रहती थी।  सिर्फ बचपन में ही नहीं बल्कि शादी के बाद भी हमारे समय में बहू और बेटे इतने आज़ाद नहीं थे।  सास ससुर का पूरा अंकुश और इसी को डर डर कर जीना कहते हैं।  भले ही उनकी तरफ से कोई विशेष दबाव न हो लेकिन हम बचपन के  संस्कारों से  बंधे चले आ रहे है , उनको तोड़ने का साहस नहीं कर पाये। कई बार  मन मार कर भी रह गए। 
                        आज की पीढ़ी ने बचपन से हमारे उस रूप को भी देखा है और हमने भी उस अनुशासन को जो कभी बेड़ियां बन कर पैरों में पड़ी रहीं और हमने दिल से स्वीकार नहीं किया।  फिर उनमें से कुछ तो अपने हाथ में सत्ता आते ही अपने बड़ों के किए हुए सख्ती और अनुशासन को तोड़ कर या फिर उनकी अवज्ञा करके अपने को बहुत बड़ा समझने  लगते हैं या अपनी दमित कुंठाओं का प्रतिशोध लेने की हद तक  बोलने लगते हैं।  मैंने अपने ही हमउम्र के दंपत्ति को अपने माता पिता से कहते सुना है -- हमें क्या अपनी गुलामी के लिए पैदा किया था ? '  इसके माता पिता का ये कहना कि  'क्या इसी दिन के लिए तुम्हें पैदा किया था ? कारण  बन अजता है और कभी इसके पीछे  कठोर अनुशासन और दमित  इच्छाएं भी इसकी पृष्ठभूमि  में होती है ( आज  में ऐसे मामलों  की कमी नहीं है , जहाँ माँ बाप तिरस्कृत किये जा रहे हैं ) . 
                             आज के बच्चे क्यों इतने संवेदनशील और समझदार हो रहे हैं क्योंकि नन्हा मष्तिष्क अपने माता - पिता को बड़ों के गहरे दबाव में जीते हुए देख रहे होते हैं और माता - पिता भी जो वे स्वयं अपने माता पिता से नहीं  पा सके वह सब कुछ वे अपने बच्चों को देना चाहते हैं और वे अपने बच्चों को अपने आश्रित नहीं बल्कि अपने दोस्त की तरह से देखते और व्यवहार करते हैं। वे माता पिता की वह भयावह तस्वीर जो स्वयं देखते आ रहे थे अपने बच्चों के सामने प्रस्तुत नहीं करना चाहते।  समय के साथ या फिर बाल मनोविज्ञान और माता पिता दोनों के  शिक्षित और कामकाजी होने से भी दुनियां को देखने का नजरिया बदल जाता है।  वे अपनी इच्छाओं को बच्चों पर थोपते नहीं है और जहाँ बच्चों को स्वयं सम्मान मिलता है तो वे उससे कुछ सीखते ही हैं।   आज के बच्चों को अपनी बाते अपने माता पिता से छिपाने की जरूरत नहीं होती है। जब उनके सामने ऐसा कुछ होता ही नहीं है तो फिर वे स्वयं ही समझदार और संवेदनशील होते हैं।  
                          बात उन घरों की भी है जहाँ पर बुजुर्ग तिरस्कृत किये जाते हैं -  वहां पर युवा पीढ़ी अपने माता पिता द्वारा अपने बुजुर्गों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को भी स्वीकार नहीं करते हैं बल्कि वे अपने  दादा दादी के प्रति अपनी संवेदनाएं रखते हैं।  भले ही वे अपने माता पिता का विरोध न कर पाएं लेकिन वह उनके पीछे अपने बुजुर्गों के आंसूं पोंछने से लेकर उनको सांत्वना देने तक सारे काम करते हैं।  वे अपने माता पिता को गलत काम के लिए अनुसरण बिलकुल भी नहीं करते हैं।  किसी भी स्वरूप में हमने देखा है की आज के युवाओं का मनोविज्ञान सही दिशा में सोचने और कार्य करने की क्षमता को सही दिशा देता है।  अगर बच्चों को घर में सही दिशा निर्देश और वातावरण मिलता है तो वे  स्वयं एक नया स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं.
 

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

सब ठीक हो जाएगा !

                                हमारी सोच सकारात्मक हो तो हमें अपने जीवन में परिणाम भी अच्छे मिलते हैं।  ये बात हमें दार्शनिकों , बड़े बूढ़ों और अपने शिक्षकों से सुनने को मिलती रही है.   हम चाहे जीतनी भी आधी आबादी के आत्मनिर्भर होने , सशक्तिकरण और उसकी हर क्षेत्र में हिस्सेदारी की बात करें फिर भी "सब ठीक हो जाएगा " एक ऐसा आशा का दीप बना कर जलाया करते हैं कि उसके जलने की प्रतीक्षा में उसका जीवन बद से बदतर बन सकता है।  ये सिर्फ एक नारी के लिए ही नहीं बल्कि उसके माँ बाप के लिए एक सुखद और शांतिपूर्ण जीवन की एक किरण दूर से नजर आती रहती है और फिर वह महीनों नहीं बल्कि वर्षों उसी किरण का पीछा करते हुए गुजार देते हैं।  कभी ऐसा हुआ हो तो उसको अपवाद ही कहा जाएगा लेकिन इस आशा की किरण के पीछे दौड़ते दौड़ते कभी जिंदगी बदसूरत होकर उसके लिए अभिशाप बन जाती है और कभी जिंदगी की चाल अचानक रुक जाती हमेशा हमेशा के लिए।
                              हम कितने ही प्रगतिशील होने का दम भरे लेकिन आज भी बेटी के विवाह पर लड़के वालों से उनकी मर्जी जरूर जानना चाहते हैं कि वे चाहते क्या  है ? शायद ही कोई लड़का वाला ऐसा होगा जिसकी कोई चाह न हो। प्रत्यक्ष , परोक्ष किसी न किसी रूप में सामने आ ही जाता है.  समझौते की आशा वे लड़की वाले होने के नाते खुद ही करना सीखे हैं।   होने पर ये कभी नहीं सोचेंगे कि ऐसे प्रस्ताव को छोड़ देना चाहिए, पता नहीं भविष्य में उनकी मांग कितनी बढती जाय ? बेटी को  समझा देते हैं कि बाद में सब ठीक हो जाएगा , लेकिन क्या हमेशा ऐसा ही होता आया है ? ये  सवाल सिर्फ लड़की की शादी के लिए दहेज़ पर नहीं है बल्कि लडके के विषय में भी - अगर कोई नकारात्मक खबर या अफवाह  में सुनने को मिलती है तो भी तो भी लड़की को यही कह कर चुप करा दिया जाता है।
                              सिर्फ लड़कियों की जिंदगी ही तो दांव पर लगायी जाती है।  मुझे  पता है और मैं उस जीते जागते हादसे की गवाह भी हूँ।  बड़े घर का बेटा ड्रग लेने का आदी था , उन्होंने शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा के सहारे एक पढ़ी लिखी किन्तु गरीब घर की लड़की से शादी कर दी कि शादी के बाद लड़की उसको बदल लेगी लेकिन उस लड़की की व्यथा वह किससे कहती ? आखिर सब कुछ ठीक कभी नहीं हुआ और ३ साल के बाद वह फेफड़े के कैंसर से चल बसा।
                            लडके के संगति  और आदतें ख़राब हों तो माँ बाप इसी जुमले के सहारे जुआँ खेल लिया करते हैं और कभी १०० में १ बार जुमला सही साबित हो गया तो वह एक मिसाल बन जाती है। लड़की के माँ बाप बेटी को इसी "सब ठीक हो जाएगा " की बैसाखी पकड़ा कर ससुराल में भेज देते हैं।  दहेज़ की बात हो या फिर घर वालों के व्यवहार की।  लड़का किसी लड़की के साथ जुड़ा हो और माँ बाप को वह पसंद नहीं तो वह इसी के सहारे उसकी शादी तक कर देते हैं फिर भले ही वह लड़की जीवन भर उस का इन्तजार करती रहे। 
                          हमारी आशावादी सोच जीवन को कहाँ से कहाँ पहुंचा सकती है ये बात हम सोचने की तकलीफ तक नहीं करते हैं और आखिर करें भी क्यों? इसके सहारे हम एक बोझ से मुक्त होने जो जा रहे हैं।  कुछ और कभी ठीक नहीं होता है।  यथार्थ के धरातल पर चल कर ही काँटों की चुभन महसूस कीजिये और उस पर औरों को चलने की सलाह मत दीजिये।  वैसे तो कहते हैं कि आशा से आसमान टिका है लेकिन जीवन बहुत महत्वपूर्ण होता है, उसे सोच समझ कर और धैर्यपूर्वक ही इस जुमले के सहारे छोड़ें।  
                            

सोमवार, 31 मार्च 2014

नव वर्ष शुभ हो !

             हिन्दू धर्म के अनुसार चैत्र मास की प्रतिपदा से नव वर्ष आरम्भ होता है और इसी दिन से हमारे नए पंचांग का निर्माण होता है और नवग्रहों की स्थिति को लक्षित किया जाता है।आज से विक्रम संवत्सर २०७१ का शुभारम्भ हो रहा है।  वैसे मेरा कुछ अनुमान है कि हमारे देश का जो शासकीय वर्ष अप्रैल से आरम्भ होता है उसके पीछे हिंदी वर्ष की अवधारणा ही रही होगी। 
                                        इसको हमारी पीढ़ी जानती लेकिन क्या इसके बारे में हमारी नयी पीढ़ी जानती है।  गहन ज्ञान न सही लेकिन बच्चों को इस बारे में जानकारी होना भी जरूरी है।  हम अंग्रेजी साल और अंग्रेजी महीनों को अपने जीवन में इतनी गहराई से उतार चुके हैं कि इसके बारे हम लोगों में भी कुछ लोग ऐसे है जिन्हें ज्ञात नहीं होता है कि हिंदी महीनों का क्रम क्या है? हमारी हिंदी तिथियों के बारे में भी पूरी जानकारी नहीं है।  ग्रह और नक्षत्रों की बात तो बहुत दूर की होती है।  
                                          जब से हमारे देश में पब्लिक स्कूल की संस्कृति आरम्भ हो चुकी है , वहाँ तो हम अपनी संस्कृति की जानकारी की आशा कर ही नहीं सकते हैं।  जब कि वो पब्लिक स्कूल हम लोग ही चला रहे हैं लेकिन व्यापार में तो वह सब प्रयोग किया जाता है जिससे लाभ हो और छवि प्रगतिशील होने की बन रही हो। हम अपनी छवि खुद ही धूमिल करने पर तुले हुए हैं।  उन्हें तो हम बदल नहीं सकते हैं लेकिन घर के बड़े होने के नाते अगर हमारे बच्चों को ये ज्ञान नहीं है तो ये हम उनको दे सकते हैं।  ये गर्व की बात है कि हम अपनी एक अलग पहचान भी रखते हैं।  वैसे तो अब नेट पर सर्च करने से सब कुछ मिल जाता है लेकिन ऐसी जानकारी प्राप्त करने में बच्चे कितने उत्सुक हैं ये बात और है।  फिर भी हमें इसकी जानकारी जरूर देनी चाहिए।  हमें अपने से अपना परिचित  होना बहुत जरूरी है।