"खाना" अब सरकारी मुहर के साथ पूरी तरह से कानूनी बन चुका है. खूब खाओ और खूब खिलाओ कहीं कोई भूखा न रह जाए.
कहीं आप ये तो नहीं समझ रहे हैं की अब इस देश में 'खाना' मिलने का हर व्यक्ति को अनिवार्य अधिकार बना दिया गया हो कि इस देश में कोई भूखा नहीं रहेगा - अरे नहीं कहाँ की बातें करते हैं? अजी - अब भूखे तो भूखे रहेंगे ही साथ ही साथ कुछ और लोगों का भी उसी हालत में पहुँचने की स्थिति आने वाली है. ये 'खाना' तो पहुँच वाले लोगों के लिए परोसा जा रहा है और वे भी 'वसुधैव कुटुम्बकम' के अनुयायी है. अकेले तो खाने जा नहीं रहे हैं, वे मिल बाँट कर खायेंगे - यही तो हमारी संस्कृति हमको सिखाती चली आ रही है. अगर आधी रोटी है तो उसको आधा आधा बाँट कर खाओ जिससे कोई भूखा न रहे.
अभी हाल ही में खबर मिली है कि सरकार ने अपने विभागों में कार्यकुशलता को बनाये रखने के लिए और सरकारी कामों में विलम्ब न हो इसके लिए संविदा पर नियुक्ति का प्रावधान शुरू कर दिया था. चलो यहाँ तक तो ठीक था . ये संविदा नियुक्ति भी बगैर 'खाए' और 'खिलाये ' नहीं हो पाती थी पर अब तो सरकार ने इस संविदा नियुक्ति से 'खाने' की पूरी सुविधा के द्वार भी खोल दिए हैं.
इस खबर का खुलासा जब हुआ तो लगा कि पढ़े लिखे मजदूर भी अब मजदूर मार्केट में खड़े होंगे और ठेकेदार उन्हें ले जाकर सरकारी विभागों में सप्लाई करेंगे और इसके एवज में उनके वेतन से भी ठेकेदारों का 'खाना' निकाला जाएगा.
पहले सोचा कि ये ठेकेदारी भली - एक बार सप्लाई कर दो, 'खाने' की थाली तो मिलती ही रहेगी. परन्तु पता चला कि पहले ठेकेदार बनने के लिए ऊपर 'खिलाओ' तब जाकर आपको 'खाने ' को मिलेगा और ये 'खाना' लाखों का पड़ेगा. अब एक थाली पहले सजाओ और आकाओं को पेश करो - आका अपने आकाओं का पहले भोग लगायेंगे, यानि कि कुल मिलाकर जो 'प्रसाद' बचेगा उसी को काफी समझ कर अपनी जेब में रख लेंगे.
देश के नामी गिरामी स्वायत्तशासी संस्थानों में भी 'खाने' की यही प्रथा लागू हो चुकी है. कौन जहमत उठाये कि आने वाले ढेरों आवेदनों में से छांटा जाय फिर उनको 'मेल' करके कॉल किया जाय. बस ठेकेदारों को ठेका दे दिया. उन्हीं में से छांट बीन कर रख लिए जायेंगे. अब इससे तो बाकी रखी सही कसर भी पूरी होनेवाली है. ये पढ़े लिखे डिग्रीधारी मजदूर अपने को क्या समझें? और अनपढ़ मजदूरों में क्या अंतर है? वह मजदूर जिन्हें ठेकेदार ट्रक में भर कर निर्माण कार्य के लिए ले जाता है और शाम को उनके मिलने वाली निश्चित मजदूरी से अपना कमीशन काट कर उनको दे देता है . वे खुश हो जाते हैं की आज के दिन के लिए बच्चों के पेट भरने के लिए पैसा मिल गया. किन्तु ये पढ़े लिखे युवा जिन्हें अपनी योग्यता के अनुरूप वेतन भी नहीं मिलने वाला है और उसमें से भी ठेकेदार की चढ़ौती पहले दो और बाद में वेतन के नाम पर मिलने वाले धन से भी एक हिस्सा देना होगा.
माँ - बाप के बड़े अरमां थे , पढ़ाई के लिए किसी ने घर गिरवी रखा, किसी ने बेच दिया और कोई तो सिर से पैर तक कर्ज में डूब गए. जब बेटा डिग्री लेकर निकला तो ये ठेकेदारी प्रथा का आगाज हो चुका था. अपने और बेटे के सपनों को साकार करने के लिए सब कुछ लुटा दिया था. अब वह 'खाना' जुटाने के लिए किसको गिरवी रखें. स्वयं को? पत्नी को या फिर शेष बच्चों को? उस गरीब के सपनों ने तो दिल में ही दम तोड़ दिया. बच्चे ने जो सपने सजाये थे - वे इस 'खाने' और 'खिलाने' की भेंट चढ़ गए.
अब आगे क्या होने वाला है? सारी दुनियाँ इस 'खाने' के लिए ही तो जी तोड़ मेहनत कर रही है - फिर चाहे वह दाल रोटी के रूप में हो या फिर 'खोका ' के रूप में.
ये हमारी सरकार है, किसके लिए सोच रही है? यह न हमें पता है और न इन बेचारों को - जो सिर्फ दिन-रात मेहनत ही तो कर पाते हैं और जो मिलता है उसको भाग्य का लेख समझ कर स्वीकार कर रहे हैं.
sach kitna kadva hota hai...
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