बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

खाकी क्या संवेदनाएं हर लेती है?

             
           पुलिस (खाकी) की छवि पूरे देश में कैसी भी हो? लेकिन यहाँ उ. प्र. में कानपुर की खाकी के किस्से से वाकिफ हूँ और उनको सुनकर तो लगता है कि इस वर्दी के पहनते ही चाहे वह पुरुष हो या फिर नारी - उसकी संवेदनाएं शून्य हो जाती है. इसकी तस्वीर रोज ही अखबार में किसी न किसी मामले में देखने को मिलती रहती है. लेकिन कोई नारी इतनी संवेदनहीन हो ऐसा सोच कर कुछ बुरा लगता है.
                कल कानपुर में बहन जी का आगमन निश्चित था , इस लिए कुछ दिन पहले कानपुर में एक प्रतिष्ठित नर्सिंग होम के आई सी यू में हुए बलात्कार के बाद मौत की शिकार किशोरी 'कविता' के माँ बाप उन्नाव से अपनी बेटी के लिए न्याय की गुहार लगाने के लिए कानपुर आये थे. हमारी पुलिस कुछ अधिक ही सतर्क है (ये सतर्कता अगर सामने वारदात होती रहे तब भी नहीं होती है, जितनी कि किसी नेता के आने पर आ जाती है.)  कानपुर की महिला पुलिस ने उस युवती की माँ को मुँह दबा कर वैन में डालकर थाने में बिठाये रखा और उस पर भी - 'कविता अब मर चुकी है, ज्यादा नौटंकी करोगी तो गंभीर परिणाम भुगतने होंगे.' जैसी धमकियां भी मिलती रहीं. उनको तब छोड़ा गया जब बहन जी कानपुर से रवाना गो गयीं.
              जिसकी बेटी गयी और उसको ही प्रताड़ना. क्या दरोगा साहिबा की बेटी के साथ ऐसा ही हादसा हुआ होता तो वह ऐसे शब्द खुद के लिए सोच सकती थीं. चंद  दबंगों के इशारे पर और अपनी नौकरी बचाने के लिए खाकी क्या नहीं कर गुजराती  है? इसकी मिसाल  इस कानपुर शहर में ही रोज ही मिलती रहती हैं. सिर्फ पैसे वालों के लिए मामले की धाराएँ इतनी तेजी से बदली जाती हैं कि उनके छूट  जाने के सारे रास्ते खुल जाएँ. जो मरा है वह तो चला ही गया , इन जिन्दा हैवानों से उनकी जेब गरम होती रहेगी और फिर वक्त पर मुफ्त सेवा भी मिलती रहेगी. क्या ये खाकी सिर्फ पैसे वालों के हाथ की कठपुतली है - जो मानव, मानवता और नैतिक मूल्यों से रहित रोबोट की तरह से सिर्फ आदेश का पालन करती है. इसका न्याय और कानून से कोई वास्ता नहीं होता , अगर वास्ता होता तो रोज ऐसे वाकये न सामने आते .


14 टिप्‍पणियां:

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  2. कहाँ रह गयी है मानवता, न्याय्…………सिर्फ़ कुछ लफ़्ज़ बन कर रह गये है ये सब्……………संवेदनहीन तो हो ही चुका है आज ये पूरा समाज फिर उसमे खाकी की तो बात ही क्या जगजाहिर है।

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  3. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (10/2/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
    http://charchamanch.uchcharan.com

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  4. इन को नक्सली ही सही सजा देते है...कमीना है सब..

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  5. इस महकमे की ऐसी दशा की वजह से ही तो कानून पर भरोसा नहीं रहा किसी को.

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  6. पुलिस? जिस प्रदेश की पुलिस के आफ़िसर एक नेता के जुते साफ़ करे वो न्याय के लिये जनता के साथ केसे खडी हो सकती हे.....

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  7. राज जी,

    ये हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जो अफसर अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर इस पड़ तक पहुंचाते हैं और उन्हें ऐसा कार्य करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है. ये जन प्रतिनिधि अगर मेधा और अनुशासन में देखे जाए ऐसे अफसरों के पैर की धूल के बराबर भी नहीं है . इसी के कहते हैं न किस्मत बुलंद तो धूल मकरंद.

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  8. बहुत विचारोत्तेजक लेख ... ताकत के गुमान में आदमी अंधा हो जाता है... सही गलत की सोच क्या उनमे खतम हो जाती है.... अभी बहन जी ने ही अपने सुरक्षा में तैनात ऑफिसर से अपने जूते साफ़ करवाए ..कल की ही खबर थी ... क्या कहेंगे रेखा जी इसे ...

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  9. जूते साफ़ करने के पीछे मै नहीं समझती कि हर कोई भगत सिंह जी जैसा बहादुर हो... जब नौकरी जाने का खतरा हो एक उमर के बाद ... घर में रोटी का संकट ...तो बेचारा किस मजबूरी और दबाव में झुका होगा.... ये तो उस राजनेता को सोचना चाहिए था जो ताकत के गुरूर में सामने वाले को तोड़ रही थी....

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  10. आइना हूं दाग़ दिखाउंगा चेहरे के
    जिसे बुरा लगे वो तोड़ दे मुझे
    आदर सहित

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