सोमवार, 18 जुलाई 2011

खुद भी सुसंस्कृत बनें !

वैसे तो माँ - बाप के लिए जैसे ही किसी नए मेहमान के आने की बात सामने आती है , वे उसके भविष्य के लिए उसके नामकारण, शिक्षा और संस्कारों के लिए सपने बुनने लगते हैं (अपवाद इसके भी हो सकते हैं.) . जब वह दुनियाँ में आ जाता है तो फिर वह उसके इर्द गिर्द अपने जीवन को समेट लेते हैं. फिर मुँह से पहले शब्द के निकलने के साथ ही उसको अपने अनुसार ही शब्दों को सुनने के लिए लालायित रहते हैं. लेकिन ये पेरेंटिंग की जरूरत बच्चों को जितनी जरूरी है उतनी ही अपने आपको भी एक आदर्श ढांचे में ढाल कर रखने की जरूरत भी होती है. बच्चे सिर्फ वह नहीं देखते हैं जो आप उन्हें समझाते हैं बल्कि वे वह भी देखते हैं जो आप उनको अपने कार्यों के द्वारा दिखाते हैं. अपने व्यवहार को भी संयत रखने की बराबर जरूरत होती है.
मेरी एक परिचित के घर में उनके मायके वाले अक्सर ही आते रहते हैं और कभी बीमार होने पर यहाँ पर रुके भी रहते हैं. लेकिन उनकी सास-ससुर अगर आ जाते हैं तो उनका प्रयास रहता है कि वह कुछ दिन बाद देवर या जेठ के घर चले जाएँ. बच्चे इस बात को बहुत ही बारीकी से नोटिस में लेते रहे. एक बार उनके पिता जी आये उनको दमे की बीमारी थी.
वह कई महीने तक रहे और एक दिन उनकी बेटी ने कह दिया - मम्मी जब दादी यहाँ रहती थी और उनको खांसी आती थी तो आप कहती थीं कि इससे इन्फेक्शन लग सकता है और अब नाना जी के रहने से कोई इन्फेक्शन नहीं हो रहा है.
उन लोगों ने सोचा भी नहीं होगा कि उनकी अपनी बेटी जिसे वे संस्कार दे रहे हैं और अपनी बातों पर कभी ध्यान नहीं देते हैं कि हम क्या कर रहे हैं? उस बच्ची के कथन ने उन्हें आइना दिखा दिखा दिया. मेरे विचार से अगर हम अच्छे संस्कारित बच्चों की उम्मीद करते हैं तो हमें अपनी ओर भी ध्यान देना उतना ही जरूरी होता है.
ऐसी कहानी तो बहुत सुनी हैं और देखा भी है कि अगर घर में बच्चे अपने माता पिता को जैसा करते हुए देखते हैं वैसे ही करने कि उनकी सोच बनती है. नहीं मालूम ये कथा है लेकिन एक लघु कथा में पढ़ा था --
एक बच्चे के दादा जी का निधन हो गया तो उनके सारे समान को पिता ने घर से बाहर फ़ेंक दिया , बच्छा ये सब देखता रहा और बाहर जाकर उस कटोरे को उठा लाया जिसमें उसकी माँ दादा जी को खाना देती थी. जब उसके पिता ने देखा तो उससे पूछा - ये क्यों उठा कर लाये हो? इसको फ़ेंक दो न.'
'नहीं पापा जब आप बूढ़े हो जायेंगे न तब हम भी तो आपको इसी में खाना देंगे. इसी लिए उठा लाया.'
ये भी हमें कुछ सबक दे जाती है. देखने में बहुत छोटी सी बात है लेकिन कितनी गहराई से इसको सोचा जा सकता है और इसके परिणाम को सोच कर देंखें तो हमें यह बता जाता है कि हमारा व्यवहार ही बच्चों को कुछ सिखा जाता है.
मेरे एक मित्र बड़े परमार्थी हैं , उन्होंने कभी किसी भी जरूरतमंद को निराश नहीं किया. एक बार वे कुछ आर्थिक परेशानी में थे और उनकी बहन बीमार पड़ी , गंभीरता की स्थिति में बहन को उनके साथ की जरूरत महसूस हुई , उसने कहा कुछ भी नहीं लेकिन उन्हें महसूस हुआ कि उन्हें सहायता करनी चाहिए. उन्होंने अपने घर में बात की. उनकी बच्ची अपनी गोलक उठा कर लायी उसमें जामा किये हुए २००० रुपये पिता को दिए और कहा कि आप बुआ को ये दे दीजिये मेरे पास तो बेकार ही पड़े हैं न, उनके काम आ जायेंगे. '
ये सब चीजें सिखाने से नहीं आती हैं बल्कि बच्चों के द्वारा ग्रहण करने की होती हैं. जो हम उन्हें अपरोक्ष रूप से दिखाते हैं. कुछ प्रतिशत की बात छोड़ दें तो बच्चे घर से ही ग्रहण करते हैं और वही अपने जीवन में उतार लेते हैं. हमें तो बच्चों को सुसंस्कृत बनाने के लिए खुद को भी संयमित और सुसंस्कारित होने की जरूरत होती है. इसी लिए कहा जाता है कि बच्चे कोटि स्लेट की तरह से होते हैं और कुछ हम खुद लिख देते हैं और कुछ वे खुद ग्रहण कर लेते हैं . बच्चों के बिगड़ने पर हम उन्हें दोष नहीं दे सकते हैं. अपने गिरेबान में अगर खुद ही झांक कर आकलन कर लें तो बहुत अच्छा होगा न किसी को दोष देंगे और न कोई दोषी होगा.

9 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सहमत....बच्चे कहीं ज्यादा अपने आसपास हो रहे व्यवहार को देखकर सिखते हैं...अच्छा आलेख.

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  2. बिलकुल सही कहा है.सिखाने से कोई भी नहीं सीखता.अपने आस पास हो रहे व्यवहार को देखकर ही बच्चे सीखते हैं .

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  3. हम जैसा व्यवहार करेंगे वैसा ही हमारे बच्चे सिख्नेंगे . बोया पेड़ बबूल का तो आम कहा से खाय .

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  4. बिल्कुल सही कहा है ..बच्चे के द्वारा गहन अवलोकन किया जाता है ..और वो उससे ही बहुत कुछ सीखते हैं ... अच्छी पोस्ट

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  5. अथाह मानव मन और उसका व्‍यवहार.

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  6. आपकी पोस्ट से हर माता -पिता को प्रेरणा मिलेगी उद्देश्यपूर्ण और सार्थक आलेख

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  7. aapki baat se sehmat hu, or boht kuch seekha hai, kuch samay baad mai bhi is padaav mei kadam rakhne wali hu, aapke is lekh se boht kuch seekhne ko mila, dhanywaad

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  8. एकदम सही बात है। लेकिन जहाँ दुर्व्यवहार चलता है वहाँ शायद बच्चों को अपने-पराये का भेद भी सिखाया जाता है और फिर जीवन भर वही दोहरा चरित्र।

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