रविवार, 7 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (2)

                               कितनी अजीब होती है अपने सपनों की पूरी होने की अभिलाषा कि  हम अपने जीवन में उनकी उम्मीद नहीं छोड़ते हैं। आखिर छोड़ें भी क्यों ? हम अपनी सामाजिक सीमाओं की बलि चढ़ गए तो गया उसके  फलीभूत होने की आशा तो कर ही सकते हैं और फिर इस एक आशा ने ही तो जीवन की डोर को बाँध रखा है . अपने एक सपने की डोर थामे राजेश कुमारी जी आज भी अपना सफर पूरा कर रही हैं और मेरी यही कमाना है की वो सपना जरूर जरूर पूरा हो।
                            आज  की कड़ी में राजेश कुमारी जी की बात हो रही है --





चलो सपनों की बात करें !
 कौन से  सपनों की बात करें जो बंद  आँखों से देखे जाते हैं या फिर खुली आखों से ??  बंद आखों का सपना एक छलावा है आँख खुली और छू मंतर . चलिए उस सपने की बात करती हूँ , जो खुली आँखों से  देखा जाता है - जाग्रत और चेतन  मष्तिष्क के साथ . हाँ कभी मैंने भी देखा था एक सपना जो पूरा न हो सका क्यूं ?  भी जान लीजिये  उम्र  महज छः बच्चा खेल खेल में कुछ सपने बुनना सीखता  है ,  तब एक्टिंग के माध्यम से कल्पना लोक में एक स्वप्न का बीज स्फुटित होने लगता है। उसी उम्र में जब मैं अपने पिताजी को मरीजों को इंजेक्शन लगाते  हुए , पट्टी बाँधते  हुए, दवाई देते हुए, टूटी हड्डियों पर प्लास्टर करते हुए देखती थी तो मेरे नन्हे मष्तिष्क में उन्ही की तरह अर्थात डॉक्टर बनने का सपना जन्म लेने लगा . जब भी हम सब बच्चे मिलकर घर घर खेलती तो मैं हमेशा डॉक्टर का रोल प्ले करती . लकड़ी तोड़कर उसका इंजेक्शन बनाती और बच्चों को लगाने की एक्टिंग करती। उसी तरह से दिन बीतते गए और मैं बड़ी होती गयी . मेरे साथ मेरा सपना भी बड़ा होता गया क्योंकि बड़े लोग कहते हैं कि  डॉक्टर बनने के लिए पढाई में सबसे होशियार रहना है, अतः मैं जी तोड़ कर मेहनत करके कक्षा में हमेशा अव्वल आती और सबसे शाबाशी पाती इस तरह से मैं आठवीं पास कर गयी। 
                            यहाँ मैं एक बात बताना जरूरी समझती हूँ कि  उस वक्त हमारे पाठ्यक्रम के अनुसार  कक्षा में अपने मनपसंद के विषय श्रेणी चुननी होती थी अर्थात कोई आर्ट विषय और कोई  साइंस विषय और कोई होम साइंस आदि विषय चुनता था। आठवीं पास करने के बाद गर्मियों की दो महीने की छुट्टियों में अपने बड़े भाई (जो दसवीं पास कर चुका था उन्हीं दिनों) की पुस्तकें  लेकर पढ़ना शुरू कर दिया और छुट्टियाँ इसी उत्साह में इन्तजार में बीतती रहीं . यहाँ एक बात और बताना चाहूंगी -- मैं जिस स्कूल में (आर्य कन्या पाठशाला इंटर कॉलेज , मुजफ्फर नगर ) में पढ़ रही थी , उसमें में विज्ञान / गणित विषय आठवीं के बाद नहीं थे , अतः अगर
 विज्ञान आदि विषय लेने होते तो  के दूसरे स्कूल में  यानि  को-एड में  एडमिशन लेना होता था . 

                           उन्हीं दिनों मेरे दादाजी घर आये हुए थे। कॉलेज  खुलने ही वाले थे, मेरे पिताजी ने दादा जी से भी विचार विमर्श  किया और दादाजी ने निर्णय सुना दिया गया कि कॉलेज नहीं बदलना है . उसी कॉलेज में आर्ट विषय लेकर पढ़ना है , मानो दिल पर एक आघात लगा था। कुछ दिन विद्रोह किया लेकिन बाद में उनका फैसला मानना ही पड़ा। उनके निर्णय के पीछे कारण  था - उनको को-एड कालेजों का ख़राब वातावरण , प्रतिदिन अखबारों में कई कई घटनाओं का आना और उस पर दादाजी के विचारों का संकीर्ण होना कुछ यही कारण रहे होंगे . ऐसा मैं आज सोचती हूँ। कभी इस बात से खिन्न होती थी तो पिताजी मजाक में कहते थे कि डॉक्टर से शादी कर देंगे तो अपनी मम्मी  की तरह डाक्टरनी तो कहलाओगी  और मैं गुस्से से पैर पटकते हुए वहां से भाग जाती थी। 
                 आज  भी मेरे साथ की कुछ लड़कियाँ फेमस डॉक्टर हैं। बच्चे हुए तो फिर इस सपने ने सिर  उठाया कि  कोई सा बच्चा नाना जी की तरह से डॉक्टर बने वहां भी ये सपना हार गया . बेटा सॉफ्टवेयर इंजीनियर और  बेटी एम बी ए . पर वह सपना अभी भी हारने वाला नहीं - सोचती हूँ कि  कोई सी नातिन या पोता जरूर मेरा सपना साकार करेगा . कहते हैं न  कि जब तक सांस है तब तक आस है।

13 टिप्‍पणियां:

  1. ईश्वर आपकी आस पूर्ण करे राजेश कुमारी जी ।

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  2. सपने पूरे होंगे....किसी न किसी रूप में...आज नहीं तो कल...

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  3. हमारे समाज की यही त्रासदी है लड़कियों को सपने देखने का हक भी नहीं दिया जाता.
    पर आप आस नहीं छोड़ना आपके सपने किसी न किसी रूप में जरुर पूरे होंगे.

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  4. सपना ...जड़ में है तो अंकुरित होना ही है,पर जो पौधे आस-पास लहलहा रहे हैं,वे अपनी अहमियत सपनों सी ही रखते हैं

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  5. अवश्य पूरा होगा आपका सपना!
    'आर्यकन्या पाठशाला'मुज़फ़्फ़रनगर ,में आपने पढ़ा है,राजेश जी सुन कर प्रसन्नता हुई ,मैंने वहाँ 1959 से 61 तक पढ़ाया है .मेरे साथ सरोजनी शर्मा और सरला शर्मा,सरीनजी इत्यादि भी थीं .

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  6. रेखा जी आपने तो मेरा दिन ही बना दिया बहुत अच्छा लगा पढ़कर सबसे बड़ी हैरानी और ख़ुशी की बात ये है की मेरे स्कूल की टीचर प्रतिभा सक्सेना जी के विषय में पढ़ा भले ही वो मेरे वहां एडमिशन लेने से पहले यानी १९६१ में स्कूल छोड़ चुकी थी मैंने १९६८ में एडमिशन आठवी में वहां लिया था फिर भी मेरी टीचर हुई ना कह नहीं सकती मुझे कितनी ख़ुशी हो रही है आपकी इस पोस्ट की चर्चा कल चर्चा मंच पर जरूर करुँगी

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  7. मैं इन सब से थोडा हट कर लिखूंगी ...सपना अगर सच हो जाता तो वो सपना ही क्यों होता


    पूरा नहीं हुआ इस लिए तो मन की कसक और सपना है

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  8. हाँ ये हमारे दौर की हकीकत थी वहां शादी ब्याह ही नहीं कैरिअर्स भी नियोजित होते थे थोपे जाते थे ऊपर से हाई कमान की तरह .लेकिन सपने मरते कहाँ हैं पल्लवित होतें हैं .हम भी जब पढ़ते थे नौवीं में बनना चाहते थे संगीतकार .संगीत पढ़ सीख न सके .११ वीं में आये अभी भी एक इच्छा बाकी थी ,साहित्यकार बनना है ,एक नाम चीन लेखक बनना है .हिस्से में आया एमएससी फिजिक्स .लेकिन सपना मरा नहीं .प्रयास ज़ारी है .जन विज्ञान का बीड़ा उठाया हुआ है तीस पैंतीस सालों से .सपना मरा नहीं है .

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  9. चलिये सपने को ज़िंदा रखिए .... ज़रूर पूरा होगा सपना ...

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  10. कौन से सपनों की बात करें जो बंद आँखों से देखे जाते हैं या फिर खुली आखों से ?? बंद आखों का सपना एक छलावा है आँख खुली और छू मंतर
    bahut sahi kaha aapne ................ sapne to dekhta hi man ............. par use poora karne ka housla agar jara sa bhi doosro se mil jaye to man ka pankhi bahut unchi uran bharne lagta hain ........
    mere shahar ki hain aap dehradun se bhi muzaffarnagar se bhi ....... bahut achcha lagega agar aapse kabhi rubru mil pai .shubh kamnaye

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  11. राजेश कुमारी जी ! आपका संस्मरण पढ़ कर कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा है ,
    मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर
    लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया !
    मेरा युग आपसे शायद एक दशक और पुराना था ! इसलिए रूढिवादिता, प्रतिबन्ध और सख्तियाँ कुछ अधिक थीं ! लेकिन हर सपने की परिणति तो दुखांत ही होनी थी ! फिर वह हल्की चोट से टूटा या भारी चोट से क्या फर्क पड़ता है ! हम भी आपके हमसफ़र हैं ! स्वागत है !

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  12. सही कह रही हैं साधना जी बहुत बहुत हार्दिक आभार मेरे सपने में आप भी शरीक हुई

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