मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (3)


                                सपने अपने अपने विचारों और सोच के अनुरूप ही देखते हैं हम और फिर उनको साकार होने की कमाना करना भी उचित ही है। आज की कड़ी में मैं प्रतिभा सक्सेना जी के अधूरे सपने की कसक को देख रहे हैं जो सबसे अलग है . ज्यादातर जीवन में अपने निजी जीवन से जुड़े सपने हम देखा करते हैं लेकिन वह निजी सपना कब और कहाँ से जुडा इस बात का अधिक महत्व है। प्रतिभा जी को लगा की शायद  ये मेरे विषय से इतर है लेकिन नहीं हमारा सपना कभी हमारे जीवन के पवन उद्देश्यों से जुदा भी हो सकता है और ऐसी एक भावना से जुदा ये सपना है। आज की कड़ी में मैं  प्रतिभा सक्सेना जी के सपने को लेकर आई हूँ .

स्वप्नो का क्षऱण 

आज जिसे मध्य प्रदेश कहते हैं ,पहले यह क्षेत्र मध्य भारत कहलाता था .धरती की अंतराग्नि की फूत्कार से रचित रमणीय पठारी भूमि ! मालवा का क्षेत्र उसी का एक भाग है - भारत का हृदय स्थल ,सपनों के समान ही ऊबड़-खाबड़,जिसे सींचते रहे जीवनदायी पयस्विनियों के सरस प्रवाह !.उर्वर काली माटी , मां का  काजल-पुँछा स्नेहांचल हो जैसे . लोगों में प्रकृति के  प्रति विशेष लगाव यहाँ की,विशेषता है  ,प्रायः ही वन-भोजन के लिये वनों में पहुँच जाना ,वहीं का  ईंधन बटोर ,दालबाटी (चूरमा भी) बनाना और चारों ओर के सघन ढाक-वनों से प्राप्त पर्णों के दोने-पत्तल बना कर जीमना . पानी की कोई कमी नहीं . आये दिन
कोई आयोजन .कभी मंगलनाथ की यात्रा ,कभी शरद्-पूर्णिमा का मेला कभी घट्या की जातरा .वनों में सीताफल (शरीफ़ा) और घुँघचियों के ढेर .- बड़े होने तक यहीं रही-बढ़ी. शिक्षा-दीक्षा भी संदीपनि गुरु के आश्रम वाले उज्जैन नगर में .
अपने दायित्व पूरे होने तक फिर-फिर इस रमणीयता का आनन्द लूँ ,कुछ समय वहां के निवास कर नई ऊर्जा सँजो लूँ ,यही चाहा था.कोई बड़ी कामना नहीं - जीवन के उत्तर काल में ऐसे ही स्वच्छ-स्वस्थ जल-वायु वाले प्राकृतिक परिवेश में बहुत सीधा-सरल जीवन हो. पर समय के प्रवाह में परिवर्तन की गति बहुत तेज़ हो गई.जैसे सब-कुछ भागा जा रहा हो. आँखों के सपने भी कहाँ टिकें !
अब कुछ भी वैसा नहीं .जिन जंगलों में टेसू के फूल के अंगार डाल-डाल दहकाते थे ,काट डाले गये. नदियों की निर्मल जल-रागिनी ,भीषण प्रदूषण की भेंट चढ़ गई.अमरकंटक की वह दिव्य छटा श्री-हीन हो चुकी है .
वही हाल  उत्तरी  भारत का - सरिताओं केप्रवाह बाधित ,दूषित. श्रीनगर की डल झील दुर्गंध और कीचड़ से भरी ,नैनी झील पॉलिथीन के थैलों  से पटी ,सब कुछ सूखता जा रहा ..पर्वतों की रानी मसूरी पर हरियाली के वस्त्र नाम-मात्र को रह गये .शृंखलाबद्ध रूप से पूरे शीर्ष पर किरीट से सजे  हिमगिरि के  ,गंगा-यमुना-सिंधु से युक्त  संपूर्ण उत्तरी भूमि के बहुत गुण-गान पुरातन काल से गूँजते  हैं .पर आज देखतूी हूँ उस सब पर दूषण की घनी छायायें घिरी  है . कभी सोचा नहीं था जीवन-पद्धति इतनी बदल जायेगी .
गंगा-यमुना को नभ-पथ का  दिव्य जल-प्रदान करती  हिमानियाँ लगातार सिमट रही हैं, धरती पर आते ही उन्हें बाँधने का ,अवशोषित करने का ,क्रम शुरू हो जाता है. महाभारत काल की अनीतियाँ सह न पा सरस्वती विलुप्त हुईं  ,आज मानव नाम-धारियों की दुर्दान्त तृष्णा सभी सरिताओं में विष घोल रही है .
 बिना गंगा-यमुना के (सरस्वती तो औझल हैं ही ),शिप्रा -नर्मदा ,गोदावरी कावेरी के ,भारत ,भारत रह पायेगा क्या?वनों-पर्वतों का उजड़ता वैभव आगे जीवन पर क्या प्रभाव डालेगा,सोचना भी मुश्किल लगता है .
जो सपना बीस बरस तक देखती रही थी ,इधऱ पाँच दशाब्दियों से निरंतर उसका क्षरण देख रही हूँ , वह सब काल की रेत में मृगतृष्णा बन कर रह जायेगा क्या ?

14 टिप्‍पणियां:

  1. विकास की अन्धी दौड ने प्राकृतिक सौन्दर्य और भोलेपन का गलाघोंट दिया है.
    प्रतिभा जी की कसक मे हम लोगो की कसक निहित है

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  2. उफ़ झकझोर दिया आपने ..क्या से क्या बना दिया हमने धरती को.

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  3. अपने आसपास के बदलते परिदृश्य पर टिप्पणी करता यह सपना साझा सपना है...

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  4. हम सभी इसी कसक से आहत हैं कंक्रीट के जंगलों ने वो मधुरता वो सरसता लुप्त कर दी है।

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  5. दुआ है कि वे सपने फिर से लहलहाने लगें

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  6. प्रतिभा जी ....आप ऐसा सपना देख रही है जो आज के वक्त में कभी पूरा होगा ....इस बात की उम्मीद नहीं हैं ...

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  7. कितना प्यारा सा सपना ... लेकिन आज प्रकृति का रूप ही हम लोगों ने बदल दिया है ...

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  8. हम अपनी मेहनत और लगन जागरूकता से यह स्वप्न पूरा कर सकते हैं बहुत सार्थक पोस्ट मंगल कामनाएं

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  9. सार्थक लेख सपनो का
    शुभ कामनाएं

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  10. पवनजी, अरुण जी,वंदना जी,रश्मिजी,मुकेशजी,अंजु जी ,मनोज जी ,संगीता जी ,राजेश कुमारी जी एवं गुड्डो दादी जी,
    अपने सपने में आप सबकी साझेदारी मन को पुलकित कर गई.और रेखा जी को पूरा श्रेय कि इतने सपनों का एल्बम ही खोल दिया!

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  11. बहुत सार्थक पोस्ट मंगल कामनाएं...!!!

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  12. प्रतिभा दी ! अपने पर्यावरण के प्रति आपका प्रेम एवँ प्रदूषण के प्रेत का दुर्दांत आतंक आपकी लेखन में पूरी तरह मुखर है ! मालव भूमि से मुझे भी बहुत प्यार है ! उज्जैन की जो कायापलट हुई है और होती जा रही है उसे देख मैं भी व्यथित हूँ ! बढ़ती जनसंख्या का दबाव हमें अपनी प्राकृतिक संपदा से वंचित करता जा रहा है ! उज्जैन ही क्या अब हर छोटा सा नगर महानगर और प्यारा सा गाँव बड़ा शहर बनने की राह पर है तो यह तो होगा ही ! सार्थक चिंतन के साथ बहुत ही सशक्त पोस्ट ! आपको बहुत-बहुत बधाई !

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