शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (20)

                                कहाँ से चले थे और कहाँ पहुँच ?गए  ? सपने समेटे और फिर एक एक करके सबको प्रस्तुत किया . सपने देखना बुरा नहीं होता और फिर अगर वे अधूरे रह भी जाते हैं तो फिर उनकी कोई नयी राह निकल कर सामने आ जाती है। विकल्प पाकर भी हम बहुत खुश रह लेते हैं। हमारे वे देखे हुए सपने सिर्फ अपने स्वार्थ से जुड़े नहीं होते हैं बल्कि उनमें होता है कुछ औरों के लिए भी - और यही हमारी संवेदनशीलता का मापदंड . सिर्फ अपने लिए , अपने स्वार्थ के लिए या फिर अपने सुख के लिए सपने देखे तो क्या ? सपने तो वे ही सार्थक हैं जो हमारे मानव होने के अर्थ को पूरा न कर सकें तो फिर कुछ अंश तक तो हमारे इस मनुष्यत्व को पूर्ण करने के लिए। 

                           आज अपने सपने के साथ है फुरसतिया जी - इतनी देर से इसलिए की ये नाम से ही फुरसतिया है लेकिन फुरसत इन्हें कम ही मिलती है।   तो आज हमारे सामने हैं -- अनूप शुकला जी।



                 हमको जब से अधूरे सपने को बयान करने के लिए कहा गया तब से हम खोज रहे हैं कि  कोई सपना दिख जाए तो पकड़ कर उसको बयान  कर दें . लेकिन अभी तक कोई सपना मिला नहीं . परेशान  हैं, लगता है कि हम सपना देखने वालों की जमात के है नहीं। ऐसा कोई सपना याद नहीं आता , जिसके पूरे न होने की कसक मन में हो।  इस लिए इस आयोजन से हमारी रिपोर्ट निल मानी जाय .

                      वैसे जब सपनों की बात चलती है तो मुझे रमानाथ अवस्थी की ये पंक्तियाँ याद  आती हैं  --

                    रात कहने लगी सो जाओ, देखो कोई सपना
                     जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना .

         इस परिभाषा के  हिसाब से हमने  सपने कभी नहीं देखे जो हमको रुलाते और तड़पाते  हों . हम भरपूर नींद लेने वाले रहे हमेशा . अपनी क्षमता के हिसाब से हमें वह सब कुछ मिला जिसके हम हकदार हो सकते  थे। समाज हमारे प्रति बहुत मेहरबान रहा .
             बचपन से आज तक कई  चीजें समय समय पर आकर्षित करती रहीं . वे या तो मिल गयीं या फिर समय के साथ उनको पाने का आकर्षण समाप्त हो गया। हम वैसे भी बड़े सपने देखने वाली पार्टी के आदमी नहीं है। अल्पसंतोषी है , शायद अपनी औकात जानते हैं इसलिए कसकन से बचने के लिए बड़ा सपना देखते ही नहीं है। ऐसी सवारी को लिफ्ट ही नहीं देते जो आगे चल कर कष्ट का कारण बने .
             व्यक्तिगत जीवन में -  नौकरी बजाते हुए अपने घर परिवार, इष्ट मित्रों  से संतुष्ट होने के चलते आराम से जिए जा रहे हैं . कोई ऐसी इच्छा नहीं जिसके पूरा करने के लिए मन में बेचैनी हो। कोई सपन कसकन नहीं . लेकिन कुछ  इच्छाएं जिन्हें  पूरा करने का मन करता है।

             जब से पढना लिखना सीखा तब से यही इच्छा रही कि दुनियां भर का उत्कृष्ट लेखन पढ़ सकूं। मुझे लगता है कि  ये इच्छा हमेशा बनी रहेगी . लेकिन इसमें उतनी कसकन नहीं है , यह सिर्फ एक इच्छा है, जो कभी पूरी भी नहीं हो सकेगी , बस इतना है कि  इसको आंशिक रूप से पूरा कर पाएंगे .

             दूसरा अपन का देश - दुनियां देखने का मन है। देश भी अभी पूरा घूमा नहीं है . दुनियां की अभी शुरू ही नहीं की। लगता है ये इच्छा अधूरी ही रह जायेगी . लेकिन मन में एक बात यह भी है कि किसी दिन अचानक निकल पड़ेंगे और घूम डालेंगे दुनियां। पर ऐसा होता नहीं है जी।

             कभी कभी लगता है की हमें दुनियां ने बहुत कुछ दिया . जितना मिला है और जितनी क्षमताएं हैं उस हिसाब से महसूस होता है कि उसको वापस करने में कोताही बरती जा रही है .  तमाम किस्तें बकाया है . कहीं से कोई नोटिस न आये तो इसका मतलब ये तो नहीं कि उधार चुक गया . यहाँ भी कसकन वाला भाव नहीं है। लगता है कि  हम अकेले डिफाल्टर थोड़े ही हैं। उधार  भी चुक जाएगा , कौन कहीं भागे जा रहे हैं?

               महीने भर से आपको अपना सपना बयां करने का काम उधर बाकी  था। रोज सोचते  थे कि  आज करेंगे कल करेंगे। आपके तकादे से सपन - उधार कसकने भी लगा था। लेकिन आज ये कसकन भी ख़त्म हो गयी।


                             







5 टिप्‍पणियां:

  1. बड़े ही हास्य में आपने अपने सपनों को इच्छा का नाम दे कर ...सब कुछ तो लिख डाला ...बचा क्या????

    ईश्वर करे आपकी हर इच्छा पूर्ण हो ...:))))

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  2. इच्छायें ही सपनों का दूसरा नाम हैं।

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  3. bahut khoob ... रात कहने लगी सो जाओ, देखो कोई सपना
    जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना .
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    dua hain k aapke sapne pure ho aap sari duniya ghoome or ham aapke lafzo ki nazar se duniya dekhe .......

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  4. ये तो गज़ब हो गया शुक्ल जी.... :) दीदी की ज़ोरदार डांट पड़ी, लिखने में देरी के लिए, और जब हमने लिख दिया, की हमारे तो कोई सपने हैं ही नहीं, तो फिर डांट पड़ गयी :( आपको भी डांट पड़ी क्या? :) :) :)

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