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मंगलवार, 9 मई 2023

अवसाद के दो दिन !

अवसाद के दो दिन !


                           जीवन में बहुत सारे अवसादग्रस्त लोगों की काउंसलिंग की, या कहूँ ये गुण तो मैं बचपन से विरासत में लेकर पैदा हुई थी।  अपने स्कूल की एक मित्र जो अपने घर से बहुत परेशान रहती थी और स्कूल में आकर शेयर करके रो देती थी।  उसको किस तरह से मैं समझाती थी मुझे याद है। ये सिर्फ एक इंसान नहीं थी बल्कि ऐसे कितनी सहेलियां , हमउम्र रिश्तेदार , चचेरे भाई बहन सबको उनके अनुरूप सबकी काउंसलिंग करती रही। ये तो रही बचपन और युवावस्था की बात और फिर तो बन ही काउंसलर गयी। बहुत घर बचाये और जीवन को भी सही दिशा देने की कोशिश की। कितने लेख लिखे इस पर और विभिन्न हालातों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए कभी इस तरह सोचा ही नहीं था और मैं ही इसमें फँस गयी।  ये भी वक्त वक्त की बात होती है।

                           ऐसे में जीवन के इस पड़ाव पर आकर मैंने भी दो दिन अवसाद में गुजारे , सोचती हूँ कि हर इंसान मेरी तरह सकारात्मक नहीं होता है और इसके दूसरे शब्दों में कहें तो मेरे बच्चे मुझे अति आत्मविश्वास से भरा मानते हैं।  होता है मेरे अपने बच्चों को भी कभी समझाने की जरूरत पड़ती है और किया भी। बताती चलूँ मेरी दोनों बेटियां भी बहुत बड़ी काउंसलर हैं।  मेरी घर वाले तो बिना मुझसे पूछे ही लोगों को मेरे पास भेज देते थे कि ये समझा देगी।  यही एक कारण है कि मेरे दायरे में बच्चे जवान और बूढ़े सभी शामिल हैं। एक आत्मीयता न सबसे मेरी बनी रहती है, बल्कि हमारे रिश्ते हमेशा के लिए जुड़े रहते हैं। 

                           ये अवसाद जब मैंने दो दिन झेला तो लगा कि कैसे लोग महीनों और सालों अवसाद में जीते रहते हैं, कभी आत्महत्या कर लेते हैं और कभी घर छोड़ कर चल देते हैं या फिर अंतर्मुखी होकर अपने में ही जीने लगते हैं।  अपनी कहानी पर आऊं तो वो दिन 19 दिसंबर 2022  मुझे बहुत तेज चक्कर आया कि मैं एकदम बिस्तर पर ही गिर गयी और फिर ये सिलसिला या कहूँ कि चक्कर की तेजी मैं कुछ कमी जरूर आयी लेकिन अभी भी दीवार पकड़ कर चलने की जरूरत पड़ रही थी। लंच और डिनर ऑनलाइन आ रहा था , जब कि मैंने अपने जीवन में ये दिन नहीं देखा था। बाकी काम तो सब हो ही रहे थे। इसी बीच मैं दिल्ली के लिए निकल गयी कि बेटियों और नातियों के बीच अधिक बेहतर महसूस करती दवाएं तो चलने ही लगी थीं। ये चक्कर सर्वाइकल का था ये जान कर मैं अपनी होमियोपैथी की दवा अपने पास रखती थी लेना शुरू कर दिया था जैसा कि हमेशा होता था कि कुछ ही दिनों में मुझे एकदम से आराम हो जाता था लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।  तब सोचा गया कि वर्टिगो के कारण है, इसके लिए वहीं पर डॉक्टर को दिखाया और उसने भी वर्टिगो की पुष्टि कर दी और उसके अनुसार दवाएं दे दीं।  सब कुछ चाहते हुए भी मैं ठीक नहीं हो रही थी और अपनी जगह और अपने परिचित डॉक्टर को दिखाना है तो वापस कानपूर आ गयी।  

                           यहाँ फिर ईएनटी को दिखाया उसने भी वर्टिगो ही बताया एक हफ़्ते के इलाज के बाद कुछ तो आराम हुआ लेकिन मुझे सख्त पाबन्दी में रखा गया।  ऊपर, नीचे नहीं देखना है , झुकना नहीं , स्क्रीन टाइम जीरो कर दिया गया।  कोई टीवी , मोबाइल या लैपटॉप प्रयोग नहीं करना है।  एक तरफ से झुकने पर चक्कर अभी भी आ रहे थे।  दवाओ की प्रोटेन्सी और संख्या बढ़ती जा रही थी। आराम न  मिलने पर एक घंटे के एक टेस्ट से भी गुजरना पड़ा। इसी के साथ गले में भी प्रॉब्लम शुरू हो गयी।  डॉक्टर ने पूछा कि कि आपकी ये आवाज कब से बदल गयी है।  

                             अब शुरू हुआ मेरे अवसाद में जाने का क्रम शुरू हुआ। ढेर सारे सवाल मुझे अवसाद में ले जाने के लिए पर्याप्त थे - 

               1 . चक्कर का मतलब कि सब कुछ ब्रेन से सम्बंधित है और पूरे जीवन में मुझे सिर  में बहुत बार चोट लगीं , कभी उस और ध्यान नहीं दिया लेकिन अब सारी चोटें याद आने लगी थी।  कहीं ब्रेन ट्यूमर तो नहीं , फिर तो पता नहीं ऑपरेशन के बाद क्या हो? घंटों सोचती रहती इसके आलावा और कोई काम भी नहीं था।  फ़ोन पर बात करने का भी मन नहीं करता था। ।  

               2  .  लिख नहीं सकती थी तो कुछ लेखन के लिए सकारात्मक सोचना संभव नहीं था और सोचती भी तो लिखती कैसे ? सोचना संभव ही नहीं था।

              3 . मेरे कई किताबों की सामग्री मेरे ब्लॉग पर संचित है और मैं उनको मूर्त रूप लेने की इच्छुक हूँ, लेकिन लगने लगा था कि सब कुछ अधूरा रह जाएगा क्योंकि मैं अब आगे कुछ भी नहीं कर पाऊँगी। मेरे पास पता नहीं कितना समय है या फिर सब कुछ ख़त्म। 

             4 . मैं सिर्फ आँखें बंद करके पड़ी रहती थी , बच्चों से बात होती रहती थी और सब अपने अपने ढंग से समझाते रहते थे , इस समय मुझे जितना सहयोग और सकारात्मक सांत्वना पतिदेव से मिली तो अभी लड़ने की जिजीविषा बनी हुई थी। 

                             सिर्फ दो दिन थे वो और फिर डॉक्टर का सकारात्मक आश्वासन और उनका दवाओं की प्रोटेन्सी लगातार बढ़ाते रहने से और उनके द्वारा बताई गयी एक्सरसाइज से वर्टिगो पर नियंत्रण होने लगा था और मेरे वो भयावह दो दिन ख़त्म हो चुके थे।  इस अवसाद के दिन को लिखने का उद्देश्य यही है कि सब कुछ इति समझ कर भी हताश नहीं होना है।