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सोमवार, 22 अप्रैल 2024

इस दुनिया से परे !

          इस दुनिया से परे !


                      इस संसार में जीवन के बाद मृत्यु और पुनर्जन्म , मोक्ष या फिर आत्मा का अपने कर्मों के अनुसार भूत या प्रेत योनि में जाने के सत्ु को भी झुठलाया नहीं जा सकता है।  इस विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन इस बारे में जिसके भी अनुभव हैं, वे सब अलग अलग ही हैं।  इस दिशा में विज्ञानं मौन है - कई मत है कि ऐसा कुछ भी नहीं होता है लेकिन सब कुछ होता है।  ये जो कुछ भी लिखने की भूमिका रच रही हूँ , ये मेरे अपने जीवन से ही जुड़े कुछ वाकये है और इसमें संशय की कोई भी गुंजाइश नहीं है। सब कुछ होता है और सब कुछ इस धरती पर ही होता है। 

 

                                                मेरी मामी !

 

                            मेरी माँ तीन भाइयों के बीच इकलौती बहन थी और एक मामा उनसे छोटे थे और दो बड़े। नाना -नानी के निधन से पहले सिर्फ माँ की शादी हो पायी थी फिर वृहत परिवार की राजनीति और ईर्ष्या के चलते किसी बड़े ने मामाओं की शादी के लिए पहल नहीं की। माँ ही ज्यादातर वहाँ रहती थी और हम लोग दादी के साथ यहॉँ। बताती चलूँ कि वहां पर एक बहुत बड़ा सा आँगन था और उसमें ही सभी मामा लोगों के घर के मुख्य दरवाजे खुलते थे।  अंदर पूरे बड़े बड़े घर थे। पूरे वृहत परिवार एक ही परिसर में जिसे बखरी के नाम से बुलाते थे। सारे चचेरे मामा एकसाथ रहते थे।  

                       वहीं एक मामाजी की साली थी और मामीजी ने अपनी छोटी बहन की सबसे छोटे मामा के लिए शादी का प्रस्ताव रखा। माँ और बाकी दोनों बड़े मामाजी राजी हो गए, घर में कोई महिला तो आ जायेगी और रोटियाँ मिलने लगेंगी।  मामी की उम्र यही कोई 15 - 16 साल की रही होगी।  बस दो या तीन साल रहीं होगीं।  एक दिन शाम को नीचे चूल्हा जला कर ढिबरी जला पर चूल्हे के ऊपर बने आले में रखने लगी और उन्होंने नायलॉन की साड़ी पहन रखी थी , उसमें नीचे से आग लग गयी और धू धू करके जलने लगी, वह बाहर की तरफ भागी घर में सिर्फ मँझले वाले मामाजी थे और उन्होंने अपने हाथ से बुझाने की कोशिश शुरू कर दी और साड़ी नायलॉन की थी  तो उनके हाथों में चिपक गयी और वे बुरी तरह से घायल हो गए।  मामीजी फिर भी कुछ कम जली थी लेकिन गॉंव की बात थी तो सेप्टिक हो गया और फिर उनको बचाया नहीं जा सका।  किस्मत ने  घर के चूल्हे को फिर बुझा दिया। 

                      कई महीने के सदमे के बाद बड़े मामाजी के लिए रिश्ता आया, जैसे कि अंधे को आँख मिल गयी हो, सब शादी के लिए राजी हो गए। मामीजी की उम्र भी अधिक न थी , इसलिए माँ कुछ समय उनके साथ रहती और कुछ समय हम लोगों के पास। माँ के रहने पर मामाजी अपनी नौकरी पर जाते तो हमेशा की तरह शाम को वापस नहीं आते एक दो दिन वहीं रुक जाते।  एक दिन माँ और मामी घर में सो रहीं थी और अचानक उन दोनों की नींद खुल गयी तो चौके से तालियों की आवाज सुनाई दी , हाथ की चूड़ियां भी खनक रही थी। जब तक कुछ समझ पाती वही चीज फिर से दुहराई गयी।  अब माँ को यकीन हो गया कि आगरा वाली मामीजी की आत् घर में है और वह कुछ चाहती है। 

                        दूसरे दिन जब मामाजी घर आये तो माँ ने उनसे रात वाली बात बताई और कहा कि आगरा वाली घर में है।  मामाजी ने उसको हँसीं में उड़ाने के उद्देश्य से कहा - 'अरे कुछ गलतफहमी हो गयी होगी , पीछे गुड़ बना रहे लोग हँस रहे होंगे।' 

                          लेकिन माँ ने जिद पकड़ ली कि किसी को बुला कर पता कर लिया जाय। वहाँ  गाँव में ये कोई बड़ी बात नहीं थी, आखिर से साबित हो गया कि आगरा वाली घर में है और उनकी कुछ अपेक्षाएं है। कुछ दिनों बाद बड़ी मामी की छोटी बहन की शादी का प्रस्ताव छोटे मामा के लिए आया और उनकी दूसरी शादी हो गयी। सब कुछ अच्छे से निबट गया।  जब माँ के वापस आने का दिन आया तो एक दिन पहले छोटी मामी के ऊपर उनकी सौत आ गयीं यानि कि उनकी आत्मा उनके माध्यम से बोल रही थी। 

      "जीजी मुझे अपनी जिज्जी से मिलना है। आप कह देंगीं तो ये हमें ले जाएंगे, नहीं तो मैं नहीं जा पाऊँगी। "

                  माँ ने छोटे मामाजी से मामीजी को ले जाने को बोला कि वह प्रकाशी (नयी वाली छोटी मम्मी) के साथ ही जाएगी। फिर मामाजी उनको लेकर गए और वे वहाँ से लौटी तो बहुत खुश थी।  बाद में उनके कहने के अनुसार ही एक आले में उनके नाम सेजी एक प्रतीकात्मक पत्थर रख कर बिठा दिया गया। वे घर में घूमती रहती और सबको अहसास  होता रहता लेकिन किसी के अहित करने या होने की कोई बात नहीं थी। 

                 छोटी मम्मीजी को पहली बेटी हुई और थोड़ी बड़ी हो गयी तो फिर वे उसे ही अपनी बात कहने का माध्यम बनाने लगी। जब घर में कोई भी मांगलिक काम होता तो उन्हें उनके ले पर जाकर निमन्त्रण दिया जाता था। 

                   फिर घर में पहली शादी मेरी होने वाली थी, माँ मामाजी के पास "भात" माँगने गयी तो आगरा वाली मामीजी को लड्डू रख कर निमंत्रित किया - "आगरा वाली चलो रेखा की शादी है और वहां चलकर सारा काम देखना है। " 

                ननिहाल से सारे मामाजी और मामियाँ मेरी शादी में आयीं। मेरी वर्तमान छोटी मामीजी काम के मामले में बहुत ही आलसी थी और हमेशा ही बचा करती थी लेकिन मेरी शादी में उन्होंने बड़ी ही जिम्मेदारी से काम किया। सब पूरी तरह से आश्वस्त थे कि ये काम वे आगरा वाली के प्रभाव में ही कर रही हैं।  

                 मेरी शादी के ठीक ग्यारह महीने के बाद मेरे बड़े भाई साहब की शादी हुई और माँ जब "भात" माँगने गयीं तो मैं नहीं जानती क्या हुआ ? माँ शायद आगरा वाली मामी को विशेषरूप से कहना भूल गयी। वह आयीं तो लेकिन वर्तमान मामी मुँह ही फुलाये रहीं।  कुछ समझ न आया तो एक दिन माँ बोली कि प्रकाशी तुम्हें क्या हो गया है किसी भी काम में आगे आती ही नहीं हो ? वह बिफर ही पड़ीं - 'हमें न्योता दिया था , जो हम नाचें गायें। ' माँ तो सुन कर सन्न रह गयीं और उन्हें याद आया कि इस बार वह आगरा वाली मामीजी को अलग से न्योता देना भूल गयीं थी। माँ ने उनसे माफी माँगी तब जाकर वे सामान्य हुईं।  

                     इसके बाद की सारी शादियों में माँ उनको बुलाना नहीं भूली। अब वह घर नहीं रहा। बखरी ख़त्म हो गयी। सारे मामा लोग शहर निकल गए और घर में ताले पड़े हैं। उसे घर को तो छोटी मामीजी ने बेच भी दिया और ग्वालियर रहने चली गयीं।  बड़ी मामीजी अभी हैं और बखरी से बाहर घर बनवा कर रहने लगी हैं। आगरा वाली मामी कहाँ हैं नहीं जानती ? लेकिन वे रहीं और बराबर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहीं। 

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

सावधान ! सोशल मीडिया और ए आई !

                           सावधान !  एआई बन रहा है अपराध की डोर!


                         हर क्षेत्र में एआई (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) के द्वारा प्रगति कर रहे हमारे नए नए कदम - पीछे मुड़कर देखने को तैयार ही नहीं है। इसके जनक एक भारतीय अमेरिकी वैज्ञानिक थे।  क्या सोचा होगा उन्होंने ? कि हम इसको किस लिए विकसित कर रहे हैं? जो आज उसका उपयोग हो रहा है, वह बहुत ही उन्नत है और उसके रास्ते प्रगति की और जिस तेजी से बढ़ रहे है कि मानवीय मस्तिष्क भी इसके आगे नत है।  दिमाग को सोचने में कुछ समय तो लगता ही है लेकिन कृत्रिम बुद्धिमत्ता से हमें हल प्राप्त हो जाता है।  ऐसा नहीं है उसको ये बुद्धिमत्ता प्रदान मनुष्य ने ही की है लेकिन उसी इंसान ने इसको सार्थक उपयोग की जगह कुछ निरर्थक प्रयोग भी करने शुरू कर दिए है और इसके लिए हमें दूसरे पक्ष को अधिक सावधानी से देखने की जरूरत है। 

                            इससे पहले "हनीट्रैप" नाम के षड़यंत्र में लोगों को फंसाया जा रहा था और इसमें तो कितने लोगों ने घर बार बेच कर पैसे दिया और कुछ लोगों ने सब कुछ लुटाने के बाद पुलिस की शरण ली, लेकिन तब तक सब कुछ जा चुका होता है।  कितने लोगों ने तो इसके चलते आत्महत्या तक कर ली थी।     

                                     इधर कई दिनों से एक ही तरह का अपराध देखने को मिल रहा है , जिसे "डीपफेक" का नाम दिया गया है।  इसके पीछे जो दिमाग काम कर रहा है इसके लिए व्हाट्सएप को प्रयोग किया जा रहा है और इसके लिए ज्यादातर गृहिणी, व्यापारियों को शिकार बनाया जा रहा है क्योंकि इन लोगों को इसकी पेचीदगियों के विषय में अधिक जानकारी नहीं होती है। 

                                    कानपुर में ही पिछले दो दिनों में , एक सब्जी विक्रेता से एक लाख और एक आईआईटी छात्र की माँ से चालीस चार रुपये ठग लिए गए। 

                                       ये लोग अधिकतर जाल ऐसे फैलाते है कि पीड़ित को व्हाट्सएप कॉल करके कहेंगे कि  आपका बेटा  या कोई बहुत करीबी  दुष्कर्म या हत्या के मामले में पुलिस की हिरासत में है।  अगर उसको बचाना है तो इतना पैसा इस अकाउंट में ट्रांसफर कर दीजिये।  नहीं तो जिंदगी भर जेल में सड़ेगा और उसका जीवन बर्बाद हो जाएगा।  यहाँ तक कि वह एआई  का प्रयोग करके उसेी व्यक्ति की आवाज में आपसे व्हाट्सएप पर बात भी करवा देगें जिससे कि पैसे भेजने वाले को पूरा विश्वास हो जाए।  

                            इसके लिए साइबर क्राइम के तरफ से दिशा निर्देश है कि पैसा तुरंत ट्रांसफर न करें।  सम्बंधित व्यक्ति से बात करें और उनसे समय लेकर इसकी रिपोर्ट करें।  आईआईटी छात्र के बारे में यही हुआ।  मान ने बेटे की आवाज सुनकर विश्वास कर दिया और एक लाख की मांग पर चालीस हजार रुपये ट्रांसफर कर दिए और उइसके बाद भेटे को फ़ोन लगाया तो पता चला कि उसके साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।  

मंगलवार, 9 मई 2023

अवसाद के दो दिन !

अवसाद के दो दिन !


                           जीवन में बहुत सारे अवसादग्रस्त लोगों की काउंसलिंग की, या कहूँ ये गुण तो मैं बचपन से विरासत में लेकर पैदा हुई थी।  अपने स्कूल की एक मित्र जो अपने घर से बहुत परेशान रहती थी और स्कूल में आकर शेयर करके रो देती थी।  उसको किस तरह से मैं समझाती थी मुझे याद है। ये सिर्फ एक इंसान नहीं थी बल्कि ऐसे कितनी सहेलियां , हमउम्र रिश्तेदार , चचेरे भाई बहन सबको उनके अनुरूप सबकी काउंसलिंग करती रही। ये तो रही बचपन और युवावस्था की बात और फिर तो बन ही काउंसलर गयी। बहुत घर बचाये और जीवन को भी सही दिशा देने की कोशिश की। कितने लेख लिखे इस पर और विभिन्न हालातों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए कभी इस तरह सोचा ही नहीं था और मैं ही इसमें फँस गयी।  ये भी वक्त वक्त की बात होती है।

                           ऐसे में जीवन के इस पड़ाव पर आकर मैंने भी दो दिन अवसाद में गुजारे , सोचती हूँ कि हर इंसान मेरी तरह सकारात्मक नहीं होता है और इसके दूसरे शब्दों में कहें तो मेरे बच्चे मुझे अति आत्मविश्वास से भरा मानते हैं।  होता है मेरे अपने बच्चों को भी कभी समझाने की जरूरत पड़ती है और किया भी। बताती चलूँ मेरी दोनों बेटियां भी बहुत बड़ी काउंसलर हैं।  मेरी घर वाले तो बिना मुझसे पूछे ही लोगों को मेरे पास भेज देते थे कि ये समझा देगी।  यही एक कारण है कि मेरे दायरे में बच्चे जवान और बूढ़े सभी शामिल हैं। एक आत्मीयता न सबसे मेरी बनी रहती है, बल्कि हमारे रिश्ते हमेशा के लिए जुड़े रहते हैं। 

                           ये अवसाद जब मैंने दो दिन झेला तो लगा कि कैसे लोग महीनों और सालों अवसाद में जीते रहते हैं, कभी आत्महत्या कर लेते हैं और कभी घर छोड़ कर चल देते हैं या फिर अंतर्मुखी होकर अपने में ही जीने लगते हैं।  अपनी कहानी पर आऊं तो वो दिन 19 दिसंबर 2022  मुझे बहुत तेज चक्कर आया कि मैं एकदम बिस्तर पर ही गिर गयी और फिर ये सिलसिला या कहूँ कि चक्कर की तेजी मैं कुछ कमी जरूर आयी लेकिन अभी भी दीवार पकड़ कर चलने की जरूरत पड़ रही थी। लंच और डिनर ऑनलाइन आ रहा था , जब कि मैंने अपने जीवन में ये दिन नहीं देखा था। बाकी काम तो सब हो ही रहे थे। इसी बीच मैं दिल्ली के लिए निकल गयी कि बेटियों और नातियों के बीच अधिक बेहतर महसूस करती दवाएं तो चलने ही लगी थीं। ये चक्कर सर्वाइकल का था ये जान कर मैं अपनी होमियोपैथी की दवा अपने पास रखती थी लेना शुरू कर दिया था जैसा कि हमेशा होता था कि कुछ ही दिनों में मुझे एकदम से आराम हो जाता था लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।  तब सोचा गया कि वर्टिगो के कारण है, इसके लिए वहीं पर डॉक्टर को दिखाया और उसने भी वर्टिगो की पुष्टि कर दी और उसके अनुसार दवाएं दे दीं।  सब कुछ चाहते हुए भी मैं ठीक नहीं हो रही थी और अपनी जगह और अपने परिचित डॉक्टर को दिखाना है तो वापस कानपूर आ गयी।  

                           यहाँ फिर ईएनटी को दिखाया उसने भी वर्टिगो ही बताया एक हफ़्ते के इलाज के बाद कुछ तो आराम हुआ लेकिन मुझे सख्त पाबन्दी में रखा गया।  ऊपर, नीचे नहीं देखना है , झुकना नहीं , स्क्रीन टाइम जीरो कर दिया गया।  कोई टीवी , मोबाइल या लैपटॉप प्रयोग नहीं करना है।  एक तरफ से झुकने पर चक्कर अभी भी आ रहे थे।  दवाओ की प्रोटेन्सी और संख्या बढ़ती जा रही थी। आराम न  मिलने पर एक घंटे के एक टेस्ट से भी गुजरना पड़ा। इसी के साथ गले में भी प्रॉब्लम शुरू हो गयी।  डॉक्टर ने पूछा कि कि आपकी ये आवाज कब से बदल गयी है।  

                             अब शुरू हुआ मेरे अवसाद में जाने का क्रम शुरू हुआ। ढेर सारे सवाल मुझे अवसाद में ले जाने के लिए पर्याप्त थे - 

               1 . चक्कर का मतलब कि सब कुछ ब्रेन से सम्बंधित है और पूरे जीवन में मुझे सिर  में बहुत बार चोट लगीं , कभी उस और ध्यान नहीं दिया लेकिन अब सारी चोटें याद आने लगी थी।  कहीं ब्रेन ट्यूमर तो नहीं , फिर तो पता नहीं ऑपरेशन के बाद क्या हो? घंटों सोचती रहती इसके आलावा और कोई काम भी नहीं था।  फ़ोन पर बात करने का भी मन नहीं करता था। ।  

               2  .  लिख नहीं सकती थी तो कुछ लेखन के लिए सकारात्मक सोचना संभव नहीं था और सोचती भी तो लिखती कैसे ? सोचना संभव ही नहीं था।

              3 . मेरे कई किताबों की सामग्री मेरे ब्लॉग पर संचित है और मैं उनको मूर्त रूप लेने की इच्छुक हूँ, लेकिन लगने लगा था कि सब कुछ अधूरा रह जाएगा क्योंकि मैं अब आगे कुछ भी नहीं कर पाऊँगी। मेरे पास पता नहीं कितना समय है या फिर सब कुछ ख़त्म। 

             4 . मैं सिर्फ आँखें बंद करके पड़ी रहती थी , बच्चों से बात होती रहती थी और सब अपने अपने ढंग से समझाते रहते थे , इस समय मुझे जितना सहयोग और सकारात्मक सांत्वना पतिदेव से मिली तो अभी लड़ने की जिजीविषा बनी हुई थी। 

                             सिर्फ दो दिन थे वो और फिर डॉक्टर का सकारात्मक आश्वासन और उनका दवाओं की प्रोटेन्सी लगातार बढ़ाते रहने से और उनके द्वारा बताई गयी एक्सरसाइज से वर्टिगो पर नियंत्रण होने लगा था और मेरे वो भयावह दो दिन ख़त्म हो चुके थे।  इस अवसाद के दिन को लिखने का उद्देश्य यही है कि सब कुछ इति समझ कर भी हताश नहीं होना है।

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

अभिव्यक्ति : एक चिकित्सा विधि !

                  लेखन : एक चिकित्सा विधि !

                        लेखन एक ऐसी विधा है, जो औषधि है - मन मस्तिष्क को शांत करने वाली एक प्रणाली है। मन और मस्तिष्क को तनाव से मुक्त करने का एक उपाय भी है। कुछ लोग मजाक में उड़ते हुए लिखते हैं कि दाल भात नहीं कि चढ़ाया और पका कर रख दिया। बिल्कुल सच है लेकिन कौन कहता है कि आप साहित्य की रचना करते हैं। ये एक सवाल है कि हर किसी में कोई कहानी, कविता, पेपर पेपर लेने की क्षमता नहीं है, लेकिन कौन कहता है कि आप साहित्य रचिये - आप बस एक कला और कॉपी बैठ जाइये बस थोड़ा सा स्वयं को संयत करने की जरूरत है। पढ़ना शुरू हुआ जो भी मन में आये।

                      तनाव, अवसाद कभी-कभी किसी भी उम्र में हो सकता है और इसका निदान भी हम एक ही बिल्डिंग में कर सकते हैं। पुरुष, महिला, युवा या किशोर कोई भी हो सिर्फ एक कागज और कलम से अपने को तनाव और अवसाद से मुक्त हो सकता है। कठिन परिस्थितियाँ ऐसी आती हैं कि बीमार को लेकर काउंसलर के पास जाता है और वह फिर से उनके निदान के लिए खोज करता है। सबसे पहले इन लोगों से उनकी बात उगलवाना थोड़ा सा टेढ़ा काम होता है। जो लोग अंतर्मुखी होते हैं वे ही ज्यादातर इनमें सभी नीरसता का शिकार होते हैं क्योंकि वे अपने सुख दुख तनाव और अवसाद खुद ही अकेले झेलते हैं। डॉक्टरों के साथ अपनी बात शेयर न करने की आदत ही यहां दी गई मानसिक समस्याओं से जुड़ी है। यही लोग आत्महत्या तक के प्रयास को समाप्त कर रहे हैं। कभी सफल हो जाते हैं तो हम चले जाते हैं और कभी हम सफल हो जाते हैं उन्हें बचा लेते हैं।
                           सागर के पति का निधन अचानक हो गया, केवल पति-पत्नी थे लेकिन संयुक्त परिवार के साये में थे। सरिता के उद्यमों में भी कोई नहीं था। बस वे दोनों अपना काम मिल कर कर रहे थे। इसे समझने के लिए किसी के पास कोई शब्द नहीं था और उसके पास कोई दूसरा दरवाजा भी नहीं था कि वह विक्रेता कुछ दिन रह आती। घर वालों की पैनी नजरें उस पर हमेशा टिकी रहीं क्योंकि उसके दुख की हालत से वह वाक़िफ़ थे। एक दिन रात में छत से नीचे कूदने की स्थिति का सामना करना पड़ा। वह कारखाने से निकल ही नहीं पा रही थी या कहती थी कि कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। मिलने वाले और उनके और पति के जीवन के बारे में बातें उकेर कर चले जाएँ। वह फिर अवसाद में घर चली गई।
                        एक दिन उसके ननदससे काउंसलर के पास ले जाया गया और उसने पूरी जानकारी लेने के बाद सलाह ही नहीं दी बल्कि अपनी तरफ से एक डायरी दी और एक कलम भी दिया। उन्होंने कहा कि वह इस रोज कुछ न कुछ लिखते हैं।
"मैं क्या लिखता हूँ?"
"कुछ भी।"
"मतलब मुझे तो कुछ भी नहीं लिखा आता?"
"कुछ शौक़ीन हैं? मेरा मतलब कहानी, कविता या लेख लिखना है। "
"नहीं।"
"अच्छा तुम जब भी फुरसत मिले तो खोल कर बैठ जाना और जो भी पढ़ने का मन आया। कुछ वो बातें जो तुम किसी से कहते थे पसंद हो। तुम्हारे पति की तस्वीर जैसी तुम्हारी जैसी बातें करती हो वैसी ही बातें इस डायरी में राइटिंग। दिन भर की अपनी गलत राइटिंग। पूछा क्या कहा? कौन घर में आया, उसकी क्या बात आपको अच्छी लगी या फिर बुरी लगी। आपके मन में उठा रहे विचार कुछ भी। नामांकित कोई भी नहीं देखेगा और अगले दिन आप मेरे पास आओगी तो ये डायरी लेकर आओगी। हर दिन के बाद आप लिखती हैं कि आपका मन अब कैसा अनुभव करता है? हर रोज की फाइलिंग में आप लिख लेंगी। " "
फिर आपने उसकी रचना क्या की?"
"मैं उसे ही फिर आगे लिखूंगा और देखूंगा कि आपका अवसाद कितना कम हुआ है?"
                        उन्होंने सरिता की नंद को भी ये निर्देश दिया कि जब भी वह घर जाएं तो पद के लिए नामांकन करें।        
                   एक दिन बाद जब सागरतट आया तो वह बीस पन्ने लिखे थे। शामिल है उसने अपने दिल को खोल कर रख दिया था। अभी भी पति के साथ मिल कर क्या करना था? अगर वह अभी भी रहती है तो उसके जीवन के दिन कैसे गुजरात में रहते हैं? अभी भी उनके राम राम जाने के वादे को पूरा करना भी अधूरा ही छोड़ कर चले गए।
                    वह सब वीडियो के बाद अवसाद से काफी मुक्त दिख रही थी। उसकी ननद से जब पूछा गया तो उसने भी यही कहा कि अब पहले से बेहतर है।

            बच्चों
की जिंदगी का एक ऐसा दौर होता है कि वे एक असमंजस की स्थिति से गुजर रहे होते हैं। वह अपनी मां-बाप से भी कभी शेयर करना पसंद नहीं करतीं। अपने-अपने बहुत से सामान्य संकेत दिए गए हैं और कभी-कभी इस उम्र में माता-पिता के निर्देशों या फिर कुछ भी सामान गलत माना जाता है और उनके ठीक विपरीत व्यवहार किए जाते हैं। इस समय यदि उनके पास अभिव्यक्ति का कोई साधन होता है तो वे अपनी बातों को शामिल कर सकते हैं, रचना कर सकते हैं, या अन्य प्रेरक कार्य करके अपना सहयोग कर सकते हैं तो उन्हें अपने भविष्य के प्रति एक दिशा दिखाने की सलाह दी जाती है। इसी समय उनकी संगति सही और गलत बनाने का समय होता है और वे अगर इस दिशा में मुड़ जाते हैं तो चर्या को लिपिबद्ध करके रख कर वापस ले लिया जाता है तो वह बहुत सारी बातें जो कभी-कभी अपने माता-पिता को समझ में नहीं आती हैं या फिर जुड़ेतम जीवन में उन्हें समय नहीं दे दिया जाता है तो वे अपना समय अन्य कार्यों में लगाने के बजाय इसमें लगा देते हैं। कई बार किशोर या किशोरी अपने अंतर्मन के द्वंद्व को अपनी मंजिल से नहीं कह पाते हैं और अंदर घुघुघुती कर गलत निर्णय ले लेते हैं।
                            इसके लिए आप अपने बच्चों के स्वभाव को बचपन से ही जान सकते हैं। उनके किशोरवस्था में प्रवेश करने से पूर्व ही उन्हें पद या अभिव्यक्ति का कोई रास्ता नहीं दिखाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि बच्चे को अपनी दुकान के अनुसार अधिक ध्यान देना चाहिए।

     असहमति को सिर्फ आत्महत्या के लिए ही नहीं बल्कि पति-पत्नी को एक-दूसरे के प्रति परेशानी, अवसाद या तनाव को गंभीरता से लेना चाहिए। आत्महत्या की ओर ऐसा ही होता है। सब को तो ऐसी घटनाओं में कमी आ सकती है।

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2019

पेरेंटिंग : कब तक और कैसी हो?

          माता-पिता बनने के साथ ही मनुष्य में अपने बच्चे के लिए दिशा निर्देश देने के भाव उभरने लगते है बल्कि ये भी कह सकते हें कि इससे पहले भी माँ के गर्भवती होने से ही अपने आने वाले अंश को लेकर माता-पिता उत्साहित होते हें, उसके लिंग से लेकर नामकरण और भविष्य निर्धारण इसके लिए मूल बिंदु होते हें  हर माँ बाप का अपना सपना होता है कि उसका बच्चा उससे अधिक प्रगति करे, उसका जीवन स्तर उनसे बेहतर हो और इसके लिए वे रात-दिन मेहनत से लेकर अपने शौक त्यागने तक के लिए तैयार होते हें

        सवाल इस बात का है कि बचपन से किशोर होने तक - जो हम उन्हें सिखाते और दिखाते हें (इसमें हमारा अपना व्यवहार, सामाजिक सरोकार , हमारे संस्कार जाते हें) उन सब को वह ग्रहण करते हें लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि जो हम उन्हें दिखाते हें वह उनकी नजर में उचित ही होहम भी कहीं गलत हो सकते हैं लेकिन हमें अपने विवेक का हमेशा प्रयोग करना चाहिए और अगर हम विवेकपूर्ण व्यवहार करते हैं तो ये सारी बातें हम पर लागू होती ही नहीं है।  अपनी दृष्टि से हम अपने विचारों , संस्कारों और परिवेश के अनुसार ही व्यवहार करते हें और स्वयं हम कभी कभी अपने को  सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च समझाने के झूठे अहंकार में डूबकर किसी की सलाह मनाते हें और ही अपने समकक्ष किसी को पाते हें अपने को विश्लेषित करना भी हमें पसंद नहीं होता है

        यहाँ बात मैं पेरेंटिंग की कर रही थी, जब तक हमारे बच्चे हम पर आश्रित होते हें, हम उन्हें अपनी इच्छानुसार चलाते रहते हें और फिर भविष्य में भी ऐसा ही चाहते हें किन्तु बुद्धि और विवेक सबमें अपना अपना होता है, अगर हम उन्हें अपनी इच्छानुसार चलना चाहते हें तो यह सर्वथा गलत है लेकिन इस मामले में पुरुष की तुलना में स्त्रियाँ अधिक दखलंदाजी करती हुई पाई जाती हें

        पिछले दिनों मेरी एक आत्मीय की बेटी की सगाई हुई घर पर उसकी माँ ने उसके सास के बारे में कोई कमेन्ट किया तो वह तुरंत बोली 'मेरी सास के बारे में कुछ मत कहिये' माँ को यह सुनकर बुरा लगा और तुरंत ही बोली - 'अब बड़ी सास वाली हो गयी मैंने इतने दिनों तक पाला पोसा और पढ़ाया लिखाया उसका कुछ नहीं '

'हाँ, मैं अपनी सास के साथ वह सब नहीं करूँ-गी जो अपने दादी के साथ किया आपने तो अपने आगे किसी को कुछ समझा ही नहीं '

मैं वहाँ थी - मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगा क्योंकि उनके विषय में मुझसे अधिक कोई नहीं जानता है

दखल दें :-

           इस विषय में पिता समस्या कम ही पैदा करते हें क्योंकि अधिकाँश पिता इस मुद्दों से दूर ही रहते हें वे बच्चों के करियर को लेकर भले ही दखल दें लेकिन माएँ कभी कभी बहुत अधिक जुड़ाव रखते हुए बेटियों के ससुराल में भी प्रवेश कर जाती हें खुद इस तरह की बातें करते हुए देखा और सुना है --

- 'तुम्हारी सास ऑफिस जाते समय लंच बना कर देती है या नहीं'

-'तुम ही क्यों करती हो? परिवार तो सास का है, जितना बन जाए करो और समय से ऑफिस निकलो'

-'नौकरी छोड़ने की सोचना भी नहीं, मैंने इतना पैसा घर में बैठ कर चूल्हा चौका करने के लिए खर्च नहीं किया है'

-मेरी बेटी को ससुराल वालों ने नौकरानी बनाकर रखा है, सुबह से शाम तक अकेली खटती रहती है'

         ये सही पेरेंटिंग नहीं है, अगर इस तरह की दखलंदाजी की तो आप अपनी बेटी का हित नहीं बल्कि अहित कर रही हें अगर नए घर में जाकर बेटी कुछ अधिक व्यस्त रहती है तो उसे ऐसी बातें कह कर गलत भाव भरे नए घर में जाकर कुछ कुछ सामंजस्य करना ही पड़ता है, उसको अपने को इस वातावरण में ढलने का प्रयास करने दीजिये ससुराल वालों पर आक्षेप करें उसके सुख और शांति की कामना करें।आप भी किसी की बेटी को अपने घर में लाएंगी और फिर क्या आप इन सब बातों को दूसरी माँ से सुनना पसंद करेंगी।  शायद नहीं और यही कुछ चीजें होती हैं , जो कि परिवार को तोड़ने का काम भी करता है।  

गलत दिशा दिखाएँ:-

        अपने बच्चों के सुखी और शांतिपूर्ण जीवन देने के स्थान पर कहीं आप और व्यवधान डालने वाली पेरेंटिंग तो नहीं कर रही हें आप दिन में दो चार बार बेटी के ससुराल में फ़ोन करके उसकी गतिविधियाँ जानने की इच्छुक तो नहीं रहती हें खबर देने तक तो ठीक है लेकिन उस पर अपने कमेन्ट और सलाह तो नहीं दे रही हें 
-'अरे उनके बच्चे हैं तो ब्रेकफास्ट क्यों बनाती है? जल्दी तैयार होकर ऑफिस निकाल जाया कर, भले वहाँ थोड़ी देर जल्दी पहुँच जाए'

-'क्या सबका नाश्ता उनके कमरे में पहुंचाना , ये क्या बात हुई? एक जगह लगा सब अपना अपना नाश्ता खुद ले सकते हें '

-'अभी तेरी सास कोई बूढी तो है नहीं, सबको नाश्ता तो तैयार करके दे ही सकती है '

        ये कुछ सलाहें हें, जो माँँएँ अपनी बेटियों को दिया करती है, मैं मानती हूँ कि इसके पीछे छिपा उनका बेटी के प्रति प्यार ही होता है किन्तु वे यह क्यों भूल जाती कि अब उनकी बेटी दूसरे परिवार से जुड़ चुकी है और ऐसी सलाहें उसको भ्रमित कर सकती है वे चाहते हुए भी सही ढंग से काम नहीं कर पाती हैं। ये सलाहें बेटी के घर में और मन में दरार डालने का काम कर सकती हें इस समय इस तरह की पेरेंटिंग की जरूरत नहीं होती है बल्कि उसको सही दिशा निर्देश देने की जरूरत होती है कि वह अपने परिवार के सदस्योंं के बीच अपनत्व स्थापित कर अपना बना सके नए परिवार में कुछ परेशानियाँ अवश्य हो सकती हें लेकिन धीरे धीरे वे उसको अपने अनुरुप ढाल कर जीना सीख जाती हें शादी के बाद वह एक बेटी के लिबास से निकाल कर एक बहू, भाभी, पत्नी के लिबास को भी धारण करती है और उससे जुड़े सभी लोगों की कुछ अपेक्षाएं होती हें उसके अनुरुप खुद को ढलने दीजिये


दोहरे मापदंड अपनाएं:-


पेरेंटिंग सिर्फ बेटी के लिए ही नहीं होती बल्कि बहू के लिए भी होती है आप अपनी पेरेंटिंग से इज्ज़त भी पा सकती हें और गलत होने पर सम्मान खो भी सकती हें अधिकांश परिवारों में देखा है कि बहू और बेटी के लिए अलग अलग नियम लागू होते हें मेरी समझ नहीं आता कि ऐसा क्यों किया जाता है? मेरी ही छोटी बहन की शादी जिस परिवार में हुई , मुझे कुछ ऐसा ही देखने को मिला उसकी सास ने बताया कि हमारे यहाँ शादी के बाद की विदा (चौथी) महीने बाद होती है लेकिन चौथी की रस्म के लिए आने वाला समान एक हफ्ते के अन्दर ही भेज दिया जाता है हमने वैसे ही किया क्योंकि बेटी देकर हम उनके नियम और क़ानून से बंधे होते हें कुछ साल बाद जब उनकी बेटी की शादी हुई तो चौथी की विदा चौथे दिन ही हो कर गयी क्यूंकि बेटी की विदा तो चौथे दिन ही हो जाती है
इस तरह का व्यवहार  बहू के मन में मलिनता लाने वाला होगा है, अपने व्यवहार और मापदंडों में दोनों रिश्तों के लिए संतुलन बनाये रखें दोनों का जीवन आप से ही जुड़ा हुआ है उनके प्रति आपकी पेरेंटिंग में फर्क आपके सम्मान के लिए विपरीत भाव लगा सकता है बहू का मौन आज नहीं तो कल मुखरित होकर आपके सामने ही आने लगेगा और शायद तब आपको बुरा लगेगा


आपको सलाह :-

**अगर आप इस दृष्टि से विषय से सम्बद्ध होती हें और पेरेंटिंग के इस ढंग को अपना रही हें तो फिर आपके लिए कुछ सलाह जरूर देना चाहूंगी 

**अपनी बेटी और बेटे के लिए पेरेंटिंग आपका अधिकार है लेकिन तभी तक - जब तक वह सही दिशा देने वाला हो 

**बेटी अपने घर चली गयी तो आप उसका रिमोट अपने हाथ में मत रखिये अगर दे सकती हें तो उसे धैर्य और सहनशीलता के लिए निर्देशित कीजिये

**रिश्तों की गरिमा और उनसे जुड़े दायित्वों को सीखिए उसके घर की सुख शांति के लिए कामना कीजिये 

**उसके पारिवारिक जीवन को सुखपूर्ण बनाने की दिशा में ले जाने की सलाह दें  

               इसलिए  हम कितने ही प्रगतिशील हो, आधुनिक हो, जीवन मूल्यों की जो महत्ता है वह कभी भी कम नहीं होती सामाजिक संस्थाओं - विवाह, परिवार और व्यवहार में आने वाले मापदंडों के महत्व को हम नकार नहीं सकते पेरेंटिंग इन्हीं में से एक है और जब तक सृष्टि रहेगी, माता- पिता और बच्चों  का रिश्ता रहेेेेगा ,तब तक पेरेंटिंग भी रहेगी  लेकिन उसे सदैव सकारात्मक दिशा की ओर ले जायें। बच्चों का सुखी भविष्य ही आपके सुख का आधार है ।