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सोमवार, 22 अप्रैल 2024

इस दुनिया से परे !

          इस दुनिया से परे !


                      इस संसार में जीवन के बाद मृत्यु और पुनर्जन्म , मोक्ष या फिर आत्मा का अपने कर्मों के अनुसार भूत या प्रेत योनि में जाने के सत्ु को भी झुठलाया नहीं जा सकता है।  इस विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन इस बारे में जिसके भी अनुभव हैं, वे सब अलग अलग ही हैं।  इस दिशा में विज्ञानं मौन है - कई मत है कि ऐसा कुछ भी नहीं होता है लेकिन सब कुछ होता है।  ये जो कुछ भी लिखने की भूमिका रच रही हूँ , ये मेरे अपने जीवन से ही जुड़े कुछ वाकये है और इसमें संशय की कोई भी गुंजाइश नहीं है। सब कुछ होता है और सब कुछ इस धरती पर ही होता है। 

 

                                                मेरी मामी !

 

                            मेरी माँ तीन भाइयों के बीच इकलौती बहन थी और एक मामा उनसे छोटे थे और दो बड़े। नाना -नानी के निधन से पहले सिर्फ माँ की शादी हो पायी थी फिर वृहत परिवार की राजनीति और ईर्ष्या के चलते किसी बड़े ने मामाओं की शादी के लिए पहल नहीं की। माँ ही ज्यादातर वहाँ रहती थी और हम लोग दादी के साथ यहॉँ। बताती चलूँ कि वहां पर एक बहुत बड़ा सा आँगन था और उसमें ही सभी मामा लोगों के घर के मुख्य दरवाजे खुलते थे।  अंदर पूरे बड़े बड़े घर थे। पूरे वृहत परिवार एक ही परिसर में जिसे बखरी के नाम से बुलाते थे। सारे चचेरे मामा एकसाथ रहते थे।  

                       वहीं एक मामाजी की साली थी और मामीजी ने अपनी छोटी बहन की सबसे छोटे मामा के लिए शादी का प्रस्ताव रखा। माँ और बाकी दोनों बड़े मामाजी राजी हो गए, घर में कोई महिला तो आ जायेगी और रोटियाँ मिलने लगेंगी।  मामी की उम्र यही कोई 15 - 16 साल की रही होगी।  बस दो या तीन साल रहीं होगीं।  एक दिन शाम को नीचे चूल्हा जला कर ढिबरी जला पर चूल्हे के ऊपर बने आले में रखने लगी और उन्होंने नायलॉन की साड़ी पहन रखी थी , उसमें नीचे से आग लग गयी और धू धू करके जलने लगी, वह बाहर की तरफ भागी घर में सिर्फ मँझले वाले मामाजी थे और उन्होंने अपने हाथ से बुझाने की कोशिश शुरू कर दी और साड़ी नायलॉन की थी  तो उनके हाथों में चिपक गयी और वे बुरी तरह से घायल हो गए।  मामीजी फिर भी कुछ कम जली थी लेकिन गॉंव की बात थी तो सेप्टिक हो गया और फिर उनको बचाया नहीं जा सका।  किस्मत ने  घर के चूल्हे को फिर बुझा दिया। 

                      कई महीने के सदमे के बाद बड़े मामाजी के लिए रिश्ता आया, जैसे कि अंधे को आँख मिल गयी हो, सब शादी के लिए राजी हो गए। मामीजी की उम्र भी अधिक न थी , इसलिए माँ कुछ समय उनके साथ रहती और कुछ समय हम लोगों के पास। माँ के रहने पर मामाजी अपनी नौकरी पर जाते तो हमेशा की तरह शाम को वापस नहीं आते एक दो दिन वहीं रुक जाते।  एक दिन माँ और मामी घर में सो रहीं थी और अचानक उन दोनों की नींद खुल गयी तो चौके से तालियों की आवाज सुनाई दी , हाथ की चूड़ियां भी खनक रही थी। जब तक कुछ समझ पाती वही चीज फिर से दुहराई गयी।  अब माँ को यकीन हो गया कि आगरा वाली मामीजी की आत् घर में है और वह कुछ चाहती है। 

                        दूसरे दिन जब मामाजी घर आये तो माँ ने उनसे रात वाली बात बताई और कहा कि आगरा वाली घर में है।  मामाजी ने उसको हँसीं में उड़ाने के उद्देश्य से कहा - 'अरे कुछ गलतफहमी हो गयी होगी , पीछे गुड़ बना रहे लोग हँस रहे होंगे।' 

                          लेकिन माँ ने जिद पकड़ ली कि किसी को बुला कर पता कर लिया जाय। वहाँ  गाँव में ये कोई बड़ी बात नहीं थी, आखिर से साबित हो गया कि आगरा वाली घर में है और उनकी कुछ अपेक्षाएं है। कुछ दिनों बाद बड़ी मामी की छोटी बहन की शादी का प्रस्ताव छोटे मामा के लिए आया और उनकी दूसरी शादी हो गयी। सब कुछ अच्छे से निबट गया।  जब माँ के वापस आने का दिन आया तो एक दिन पहले छोटी मामी के ऊपर उनकी सौत आ गयीं यानि कि उनकी आत्मा उनके माध्यम से बोल रही थी। 

      "जीजी मुझे अपनी जिज्जी से मिलना है। आप कह देंगीं तो ये हमें ले जाएंगे, नहीं तो मैं नहीं जा पाऊँगी। "

                  माँ ने छोटे मामाजी से मामीजी को ले जाने को बोला कि वह प्रकाशी (नयी वाली छोटी मम्मी) के साथ ही जाएगी। फिर मामाजी उनको लेकर गए और वे वहाँ से लौटी तो बहुत खुश थी।  बाद में उनके कहने के अनुसार ही एक आले में उनके नाम सेजी एक प्रतीकात्मक पत्थर रख कर बिठा दिया गया। वे घर में घूमती रहती और सबको अहसास  होता रहता लेकिन किसी के अहित करने या होने की कोई बात नहीं थी। 

                 छोटी मम्मीजी को पहली बेटी हुई और थोड़ी बड़ी हो गयी तो फिर वे उसे ही अपनी बात कहने का माध्यम बनाने लगी। जब घर में कोई भी मांगलिक काम होता तो उन्हें उनके ले पर जाकर निमन्त्रण दिया जाता था। 

                   फिर घर में पहली शादी मेरी होने वाली थी, माँ मामाजी के पास "भात" माँगने गयी तो आगरा वाली मामीजी को लड्डू रख कर निमंत्रित किया - "आगरा वाली चलो रेखा की शादी है और वहां चलकर सारा काम देखना है। " 

                ननिहाल से सारे मामाजी और मामियाँ मेरी शादी में आयीं। मेरी वर्तमान छोटी मामीजी काम के मामले में बहुत ही आलसी थी और हमेशा ही बचा करती थी लेकिन मेरी शादी में उन्होंने बड़ी ही जिम्मेदारी से काम किया। सब पूरी तरह से आश्वस्त थे कि ये काम वे आगरा वाली के प्रभाव में ही कर रही हैं।  

                 मेरी शादी के ठीक ग्यारह महीने के बाद मेरे बड़े भाई साहब की शादी हुई और माँ जब "भात" माँगने गयीं तो मैं नहीं जानती क्या हुआ ? माँ शायद आगरा वाली मामी को विशेषरूप से कहना भूल गयी। वह आयीं तो लेकिन वर्तमान मामी मुँह ही फुलाये रहीं।  कुछ समझ न आया तो एक दिन माँ बोली कि प्रकाशी तुम्हें क्या हो गया है किसी भी काम में आगे आती ही नहीं हो ? वह बिफर ही पड़ीं - 'हमें न्योता दिया था , जो हम नाचें गायें। ' माँ तो सुन कर सन्न रह गयीं और उन्हें याद आया कि इस बार वह आगरा वाली मामीजी को अलग से न्योता देना भूल गयीं थी। माँ ने उनसे माफी माँगी तब जाकर वे सामान्य हुईं।  

                     इसके बाद की सारी शादियों में माँ उनको बुलाना नहीं भूली। अब वह घर नहीं रहा। बखरी ख़त्म हो गयी। सारे मामा लोग शहर निकल गए और घर में ताले पड़े हैं। उसे घर को तो छोटी मामीजी ने बेच भी दिया और ग्वालियर रहने चली गयीं।  बड़ी मामीजी अभी हैं और बखरी से बाहर घर बनवा कर रहने लगी हैं। आगरा वाली मामी कहाँ हैं नहीं जानती ? लेकिन वे रहीं और बराबर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहीं। 

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