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शनिवार, 11 सितंबर 2010

अवसाद, कुण्ठा और तनाव : जीवन के खतरनाक मोड़ !

अवसाद (Depression ) , कुण्ठा (Frustration ),  और तनाव (Tension )  : जीवन के खतरनाक मोड़ होते है , इन मोड़ों पर कभी कभी ये भी देखने को मिलता है  --


*सैनिक ने आत्मा हत्या कर ली
*साथियों पर अंधाधुंध  गोलियां चलाईं  और खुद को गोली मार ली.
*अफसरों के व्यवहार से क्षुब्ध होकर आत्महत्या.
*पत्नी के झगड़कर मायके जाने या वापास न आने पर फाँसी लगा ली.
*परीक्षा में फेल होने के डर से परिणाम से पहले आत्महत्या.


                               जीवन एक सुगम, सरल रास्ता नहीं है , इस पर चलने वाले कितने मानसिक व्याधियों से गुजरते हैं - कभी काबू पा लेते हैं और कभी हार जाते हैं . इन मानसिक स्थितियों का धन - दौलत और ऐश्वर्य से कुछ भी लेना देना नहीं है. 
बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लोग अपने इस हाल में घर वाले , मित्र  आदि को अपना हमराज बना लेते हैं और ये सामने वाले की समझदारी होती है कि वे उसको इससे उबारने में कैसे सहायता करते हैं? अक्सर उबर भी जाते हैं.
                           इसके विपरीत  एक पक्ष अंतर्मुखी लोगों का होता है , ये इन स्थितियों में अधिक खतरनाक निर्णय ले बैठते हैं. ये सिर्फ अपने में जीते हैं, उनकी मानसिक स्थिति सिर्फ उनकी संपत्ति है और इससे वे ही निपट सकते हैं ऐसी सोच उनको और सीमित कर देती है. ऐसे लोगों का व्यवहार , बातचीत और दायरा एकदम अलग होता है. 
                           जीवन के खतरनाक मोड़ कुछ लोगों को मौत के द्वार तक ले जाते हैं . इसका स्वरूप आत्महत्या, दूसरों की हत्या कर आत्महत्या या अंधाधुंध शराब पीकर वाहन चलाना दूसरों को क्षति पहुँचाना या खुद को ही पहुँचाना. इस स्थिति में सड़क पर चलते हुए या कहीं भी जाते हुए आगे पीछे के होर्न या अन्य संकेतक कुछ भी नहीं समझ आते हैं और फिर दुर्घटना. 
            इन स्थितियों से यथासंभव बचने का प्रयास करना चाहिए लेकिन मनोवेगों पर भी व्यक्ति का पूर्ण नियंत्रण नहीं होता है. यदि स्वविवेक से कार्य किया जा सके तो अच्छा है अन्यथा मनोचिकित्सक के पास  जाकर इसके लिए रास्ते मिल सकते हैं. कोई भी अनियंत्रित स्थिति पागलपन  की  हद तक जा सकती है. इससे पूर्व कि स्थिति पागलपन या जीवन की समाप्ति के निर्णय तक पहुँच जाये , घर वालों को सतर्क होना चाहिए. अंतर्मुखी व्यक्ति को  हमेशा इस बात के लिए उत्साहित करना चाहिए कि वह डायरी लिखने की आदत डाल ले और भी तरीके से वह अपनी आतंरिक मनोभावों को अभिव्यक्त कर सकता है. कविता कहानी के रूप में या फिर चाहे वह उसको लिख कर फाड़ ही दे लेकिन ये निश्चित है कि वह कुछ हद तक अपनी मानसिक स्थिति से मुक्ति नहीं तो उससे उत्पन्न गलत विचारों से निज़ात  अवश्य ही पा सकता है. दिमाग में उमड़ते घुमड़ते तनाव, कुंठा या अवसाद जब शब्दों में लिख कर निकल जाते हैं तो इंसां बहुत हल्का हो जाता है और वे रास्ते जो उसको सिर्फ और सिर्फ स्वयं को क्षति पहुँचने के लिए खुले मिलते हैं , वे बंद हो जाते हैं.
                            एक जागरुक मानव होने के नाते इस पर एक बार विचार कीजिये और कोशिश कीजिये कि ऐसे कुछ लोग अगर आपके संपर्क में हों तो उन्हें एक नई दिशा दीजिये. सिर्फ और सिर्फ लेखन कितने को बचा सकता है. चलिए इस दिशा में प्रयास करें.

13 टिप्‍पणियां:

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

आप सही कह रही हैं, लेखन से आपके मन की धुंध धुल जाती है। ब्‍लागिंग के भी कई फायदे मुझे दिखायी दे रहे हैं। यहाँ टिप्‍पणियों के माध्‍यम से इतने सारे विचार आते हैं कि हमें पता चलता है कि दुनिया में लोग किस-किस प्रकार से सोचते हैं। संवादहीनता तो किसी भी समस्‍या का हल नहीं है। अच्‍छा आलेख।

ashish ने कहा…

तनाव ,कुंठा और अवसाद , सभी परिस्थति जन्य अवधारणा है . हर मानव मन कभी ना कभी इन विषादो से गुजरता है. जरुरत है इन से लड़कर , अपने आत्मबल को संतुष्ट रखने की .अच्छीपरिचर्चा.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अच्छा लेख ..अजीत गुप्ता जी कि बात से पूरी तरह से सहमत ..

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत अच्छा प्रेरण देता आलेख है। अगर हम एक आदमी को भी सही दिशा दिखा सकें और उसकी सोच को सकारात्मक कर सकें तो बहुत बडी बात है। धन्यवाद ।

राज भाटिय़ा ने कहा…

आप ने बहुत अच्छी बात कही, बाकी मै अजीत जी की बात से सहमत हुं, दो साल पहले हमारे एक मित्र यहां इंजिनियर की पोस्ट से रिटायर हुये ओर हम से मिलने आने वाले थे दो दिन बाद, कि अचानक दुसरे मित्र का फ़ोन आया कि वो आठवीं मजिल से कुद गये, सुन कर विशवास नही हुआ, हंसमुख थे, बच्चे थे, अपना मकान था, लेकिन उन के मित्र ने बताया की वो अपसाद ओर तनाव मै बहुत ज्यादा थे ओर दिल की बात किसी को नही बताते थे,

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।

देसिल बयना – 3"जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!", राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

बहुत ही ज्ञानवर्धक और शिक्षाप्रद.... आलेख...

Udan Tashtari ने कहा…

बिल्कुल सही कहा...प्रेरक!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

हां अपनी पीड़ा या सुख को अभिव्यक्त करने के लिये लेखन से बढकर और कौन सा माध्यम हो सकता है? जो कला की अन्य विधाओं से जुड़े है वे भी अपना अवसाद अपनी विधा के माध्यम से ही निकालते हैं. सुन्दर पोस्ट.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

तनाव मानसिक स्थिति को अवसाद की और ले जाता है जो अक्सर सोचने समझने की ताक़त कुंठित कर देता है .... मिलना जुलना, शेयर करना, सकारात्मक सोच रखना और दूसरों को अवसाद से बाहर निकलना बहुत ज़रूरी है .... बहुत अच्छी बात रक्खी है आपने ...

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

Di ka likha ek aur achchha aur padhne yogya lekh!! ajeet mam ke baato se main bhi sahmat hoon!!

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

Di ka likha ek aur achchha aur padhne yogya lekh!! ajeet mam ke baato se main bhi sahmat hoon!!

neelima garg ने कहा…

very true...