ये शास्त्री जी का सपना जो पूरा हुआ उनके द्वारा देखा गया और हम कर रहे हैं अधूरे सपनों की बात , लेकिन शास्त्री जी के भेजे इस पूर्णसपने को हम उतना ही सम्मान देना चाहते हैं जितना अपने विषय से जुड़े संस्मरण को दिया है। इस लिए आप सबसे विषय से इतर जाने के लिए क्षमा चाहते हुए उनके अनुभव को प्रकाशित कर रही हूँ . अपने से बड़ों से जो बात सुनकर पता चलता है और उसके अन्दर कुछ बात होती है। इसमें भी एक सन्देश है - साहित्यकार के साहित्य को पढ़कर ही उसके विषय में और उससे मिलने का हमारा मंतव्य पूर्ण हो सकता हैं .
ये सपना बता रहे हैं - रूपचन्द्र शास्त्री " मयंक " जी
सपने तो व्यक्ति जीवनभर
देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी
होने के नाते मुझे हमेशा यही सपने आते थे कि मुझे किसी साहित्यकार का
सानिध्य मिले।
बात उन दिनों की है जब मैं विद्यार्थी था। आर्थिक अभाव तो
था लेकिन फिर भी घूमने का बहुत शौक था। मैं मार्गव्यय बचा कर रखता था और
बचे हुए पैसों से पुस्तकें जरूर खरीद लेता था।
मुझे शौक चर्राया
कि काशीविश्वनाथ के दर्शन किये जायें और मैं बनारस की यात्रा पर निकल गया।
बनारस जाकर मैंने काशी विश्वनाथ के दर्शन किये। उन दिनों मैंने नाटककार
लक्ष्मीनारायण मिश्र जी के कई नाटक पढ़े थे। मन पर उनका बहुत प्रभाव था।
इसलिए मौका था उनसे मिलने का। अतः मैं उनसे मिलने के लिए उनके घर पहुँच
गया। साहित्यकार बहुत ही उदारमना होते हैं। वे मुझसे बहुत ही प्रेम से
मिले। मिश्र जी के पास उस समय डॉ.सभापति मित्र भी बैठे थे। काफी देर तक
बातें होतीं रही। फिर उन्होंने पूछा कि क्या सुनोगे? मैंने तपाक से कहा कि
पंडित जी रसराज सुनाइए! बस फिर क्या था पंडित जी माथे पर हाथ रखा और एक से
बढ़कर एक प्रकृति का श्रृंगार सुनाया।
पंडित जी से विदा लेते हुए मैंने उनसे कहा- “पंडित जी! मैं साहित्यकारों का सान्निध्य चाहता हूँ।“
पंढित
जी ने बहुत ही विनम्रता से कहा-“आप उनका साहित्य पढ़िए और उनसे मिलने पर
उन्हे यह बताइए कि उनके अमुक साहित्य से मुझे यह सीख मिली।“
मैंने पंडित जी की बात गाँठ बाँध ली और बहुत से साहित्यकारों से मिला
लेकिन जो बात मैंने बाबा नागार्जुन के साहित्य में देखी वो आज तक किसी के
वांगमय में नहीं दिखाई दी।
अब उनसे मिलने की इच्छा मन में थी या यह कहें कि मेरा खुली आँखों का सपना था यह।
मेरा यह सपना पूरा हुआ सन् 1989 में। जब साक्षात् बाबा नागार्जुन ने
मुझे दर्शन ही नहीं दिये अपितु उनकी सेवा और सान्निध्य का मौका भी मुझे
भरपूर मिला और इसके निमित्त बने वाचस्पति जी, जो उस समय राजकीय
महाविद्यालय, खटीमा में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे।
मैं बाबा का एक संस्मरण इस आलेख में साझा कर रहा हूँ!
(गोष्ठी में बाबा को सम्मानित करते हुए
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री व जसराम रजनीश)
हिन्दी
के लब्ध प्रतिष्ठित कवि बाबा नागार्जुन की अनेकों स्मृतियाँ आज भी मेरे मन
में के कोने में दबी हुई हैं। मैं उन खुशकिस्मत लोगों में से हूँ, जिसे
बाबा का भरपूर सानिध्य और प्यार मिला। बाबा के ही कारण मेरा परिचय
सुप्रसिद्ध कवर-डिजाइनर और चित्रकार श्री हरिपाल त्यागी और साहित्यकार
रामकुमार कृषक से हुआ। दरअसल ये दोनों लोग सादतपुर, दिल्ली मे ही रहते हैं।
बाबा भी अपने पुत्र के साथ इसी मुहल्ले में रहते थे।
बाबा के खटीमा प्रवास के दौरान खटीमा और सपीपवर्ती क्षेत्र मझोला,
टनकपुर आदि स्थानों पर उनके सम्मान में 1989-90 में कई गोष्ठियाँ आयोजित की
गयी थी। बाबा के बड़े ही क्रान्तिकारी विचारों के थे और यही उनके स्वभाव
में भी सदैव परिलक्षित होता था। किसी भी अवसर पर सही बात को कहने से वे
चूकते नही थे।
एक बार की बात है। वाचस्पति शर्मा के निवास पर बाबा से मिलने कई
स्थानीय साहित्यकार आये हुए थे। जब 5-7 लोग इकट्ठे हो गये तो कवि गोष्ठी
जैसा माहौल बन गया। बाबा के कहने पर सबने अपनी एक-एक रचना सुनाई। बाबा ने
बड़ी तन्मयता के साथ सबको सुना।
उन दिनों लोक निर्माण विभाग, खटीमा में तिवारी जी करके
एक जे।ई. साहब थे। जो बनारस के रहने वाले थे। सौभाग्य से उनके पिता जी
उनके पास आये हुए थे, जो किसी इण्टर कालेज से प्रधानाचार्य के पद से
अवकाश-प्राप्त थे। उनका स्वर बहुत अच्छा था। अतः उन्होंने ने भी बाबा को
सस्वर अपनी एक कविता सुनाई।
जब बाबा नागार्जुन ने बड़े ध्यान से उनकी कविता सुनी तो तिवारी जी ने पूछ ही लिया- ‘‘बाबा आपको मेरी कविता कैसी लगी।
’’ बाबा ने कहा-‘‘तिवारी जी अब इस रचना को बिना गाये फिर पढ़कर सुनाओ।’’
तिवारी जी ने अपनी रचना पढ़ी। अब बाबा कहाँ चूकने वाले
थे। बस डाँटना शुरू कर दिया और कहा- ‘‘तिवारी जी आपकी रचना को स्वर्ग में
बैठे आपके अम्माँ-बाबू ठीक करने के लिए आयेंगे क्या? खड़ी बोली की कविता में
पूर्वांचल-भोजपुरी के शब्दों की क्या जरूरत है।’’
इसके आद बाबा ने विस्तार से व्याख्या करके अपनी
सुप्रसिद्ध रचना-‘‘अमल-धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है।’’ को
सुनाया। उस दिन के बाद तिवारी जी इतने शर्मिन्दा हुए कि बाबा को मिलने के
लिए ही नही आये।
यह था मेरी खुली आँखों का सपना!
....शेष कभी फिर!