चिट्ठाजगत www.hamarivani.com

मंगलवार, 9 मई 2023

अवसाद के दो दिन !

अवसाद के दो दिन !


                           जीवन में बहुत सारे अवसादग्रस्त लोगों की काउंसलिंग की, या कहूँ ये गुण तो मैं बचपन से विरासत में लेकर पैदा हुई थी।  अपने स्कूल की एक मित्र जो अपने घर से बहुत परेशान रहती थी और स्कूल में आकर शेयर करके रो देती थी।  उसको किस तरह से मैं समझाती थी मुझे याद है। ये सिर्फ एक इंसान नहीं थी बल्कि ऐसे कितनी सहेलियां , हमउम्र रिश्तेदार , चचेरे भाई बहन सबको उनके अनुरूप सबकी काउंसलिंग करती रही। ये तो रही बचपन और युवावस्था की बात और फिर तो बन ही काउंसलर गयी। बहुत घर बचाये और जीवन को भी सही दिशा देने की कोशिश की। कितने लेख लिखे इस पर और विभिन्न हालातों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए कभी इस तरह सोचा ही नहीं था और मैं ही इसमें फँस गयी।  ये भी वक्त वक्त की बात होती है।

                           ऐसे में जीवन के इस पड़ाव पर आकर मैंने भी दो दिन अवसाद में गुजारे , सोचती हूँ कि हर इंसान मेरी तरह सकारात्मक नहीं होता है और इसके दूसरे शब्दों में कहें तो मेरे बच्चे मुझे अति आत्मविश्वास से भरा मानते हैं।  होता है मेरे अपने बच्चों को भी कभी समझाने की जरूरत पड़ती है और किया भी। बताती चलूँ मेरी दोनों बेटियां भी बहुत बड़ी काउंसलर हैं।  मेरी घर वाले तो बिना मुझसे पूछे ही लोगों को मेरे पास भेज देते थे कि ये समझा देगी।  यही एक कारण है कि मेरे दायरे में बच्चे जवान और बूढ़े सभी शामिल हैं। एक आत्मीयता न सबसे मेरी बनी रहती है, बल्कि हमारे रिश्ते हमेशा के लिए जुड़े रहते हैं। 

                           ये अवसाद जब मैंने दो दिन झेला तो लगा कि कैसे लोग महीनों और सालों अवसाद में जीते रहते हैं, कभी आत्महत्या कर लेते हैं और कभी घर छोड़ कर चल देते हैं या फिर अंतर्मुखी होकर अपने में ही जीने लगते हैं।  अपनी कहानी पर आऊं तो वो दिन 19 दिसंबर 2022  मुझे बहुत तेज चक्कर आया कि मैं एकदम बिस्तर पर ही गिर गयी और फिर ये सिलसिला या कहूँ कि चक्कर की तेजी मैं कुछ कमी जरूर आयी लेकिन अभी भी दीवार पकड़ कर चलने की जरूरत पड़ रही थी। लंच और डिनर ऑनलाइन आ रहा था , जब कि मैंने अपने जीवन में ये दिन नहीं देखा था। बाकी काम तो सब हो ही रहे थे। इसी बीच मैं दिल्ली के लिए निकल गयी कि बेटियों और नातियों के बीच अधिक बेहतर महसूस करती दवाएं तो चलने ही लगी थीं। ये चक्कर सर्वाइकल का था ये जान कर मैं अपनी होमियोपैथी की दवा अपने पास रखती थी लेना शुरू कर दिया था जैसा कि हमेशा होता था कि कुछ ही दिनों में मुझे एकदम से आराम हो जाता था लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ।  तब सोचा गया कि वर्टिगो के कारण है, इसके लिए वहीं पर डॉक्टर को दिखाया और उसने भी वर्टिगो की पुष्टि कर दी और उसके अनुसार दवाएं दे दीं।  सब कुछ चाहते हुए भी मैं ठीक नहीं हो रही थी और अपनी जगह और अपने परिचित डॉक्टर को दिखाना है तो वापस कानपूर आ गयी।  

                           यहाँ फिर ईएनटी को दिखाया उसने भी वर्टिगो ही बताया एक हफ़्ते के इलाज के बाद कुछ तो आराम हुआ लेकिन मुझे सख्त पाबन्दी में रखा गया।  ऊपर, नीचे नहीं देखना है , झुकना नहीं , स्क्रीन टाइम जीरो कर दिया गया।  कोई टीवी , मोबाइल या लैपटॉप प्रयोग नहीं करना है।  एक तरफ से झुकने पर चक्कर अभी भी आ रहे थे।  दवाओ की प्रोटेन्सी और संख्या बढ़ती जा रही थी। आराम न  मिलने पर एक घंटे के एक टेस्ट से भी गुजरना पड़ा। इसी के साथ गले में भी प्रॉब्लम शुरू हो गयी।  डॉक्टर ने पूछा कि कि आपकी ये आवाज कब से बदल गयी है।  

                             अब शुरू हुआ मेरे अवसाद में जाने का क्रम शुरू हुआ। ढेर सारे सवाल मुझे अवसाद में ले जाने के लिए पर्याप्त थे - 

               1 . चक्कर का मतलब कि सब कुछ ब्रेन से सम्बंधित है और पूरे जीवन में मुझे सिर  में बहुत बार चोट लगीं , कभी उस और ध्यान नहीं दिया लेकिन अब सारी चोटें याद आने लगी थी।  कहीं ब्रेन ट्यूमर तो नहीं , फिर तो पता नहीं ऑपरेशन के बाद क्या हो? घंटों सोचती रहती इसके आलावा और कोई काम भी नहीं था।  फ़ोन पर बात करने का भी मन नहीं करता था। ।  

               2  .  लिख नहीं सकती थी तो कुछ लेखन के लिए सकारात्मक सोचना संभव नहीं था और सोचती भी तो लिखती कैसे ? सोचना संभव ही नहीं था।

              3 . मेरे कई किताबों की सामग्री मेरे ब्लॉग पर संचित है और मैं उनको मूर्त रूप लेने की इच्छुक हूँ, लेकिन लगने लगा था कि सब कुछ अधूरा रह जाएगा क्योंकि मैं अब आगे कुछ भी नहीं कर पाऊँगी। मेरे पास पता नहीं कितना समय है या फिर सब कुछ ख़त्म। 

             4 . मैं सिर्फ आँखें बंद करके पड़ी रहती थी , बच्चों से बात होती रहती थी और सब अपने अपने ढंग से समझाते रहते थे , इस समय मुझे जितना सहयोग और सकारात्मक सांत्वना पतिदेव से मिली तो अभी लड़ने की जिजीविषा बनी हुई थी। 

                             सिर्फ दो दिन थे वो और फिर डॉक्टर का सकारात्मक आश्वासन और उनका दवाओं की प्रोटेन्सी लगातार बढ़ाते रहने से और उनके द्वारा बताई गयी एक्सरसाइज से वर्टिगो पर नियंत्रण होने लगा था और मेरे वो भयावह दो दिन ख़त्म हो चुके थे।  इस अवसाद के दिन को लिखने का उद्देश्य यही है कि सब कुछ इति समझ कर भी हताश नहीं होना है।

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

अभिव्यक्ति : एक चिकित्सा विधि !

                  लेखन : एक चिकित्सा विधि !

                            लेखन एक ऐसी विधा है , जो औषधि है - मन मष्तिष्क को शांत करने वाली एक प्रणाली है।  मन और मष्तिष्क को तनाव से मुक्त करने का एक कारगर साधन भी है। कुछ लोग इसको हँसी में उड़ा देते हैं कि लिखना कोई दाल भात नहीं कि चढ़ाया और पका कर रख दिया।  बिलकुल सच है लेकिन कौन कहता है कि आप साहित्य की रचना कीजिये।  ये एक सवाल है कि हर कोई कहानी , कविता , आलेख लिखने की क्षमता नहीं रखता है , लेकिन कौन कहता है कि आप साहित्य रचिये - आप बस एक कलम और कॉपी लेकर बैठ जाइये बस थोड़ा सा स्वयं को संयत करने की जरूरत होती है।  लिखना शुरू कीजिये जो भी मन में आये।

                          तनाव , अवसाद कभी भी किसी भी उम्र में हो सकता है और इसका निदान भी हमको उसी के अनुरूप खोजना पड़ता है।  पुरुष, स्त्री , युवा या किशोर कोई भी हो सिर्फ एक कागज और कलम से अपने को तनाव और  अवसाद से मुक्त हो सकते हो।  कितनी परिस्थितियाँ ऐसी आती हैं कि बीमार को लेकर काउंसलर के पास जाना पड़ता है और वह फिर काउंसलिंग करके उनके लिए निदान खोजते हैं।  सबसे पहले ऐसे लोगों से उनकी बात को उगलवानां थोड़ा सा टेढ़ा काम होता है। जो लोग अंतर्मुखी होते हैं वे ही अधिकतर इन सब चीजों के शिकार होते हैं क्योंकि वे अपने सुख दुःख तनाव और अवसाद खुद ही अकेले झेला करते हैं।  दूसरों के साथ अपनी बात शेयर न करने की आदत ही उनको मानसिक समस्यायों से घेर देती हैं।  यही लोग आत्महत्या तक के प्रयास करने लगते हैं।  कभी सफल हो जाते हैं तो हम असफल हो जाते हैं और कभी हम सफल होकर उन्हें बचा लेते हैं.
                           सरिता के पति का निधन अचानक हो गया , सिर्फ पति पत्नी थे लेकिन संयुक्त परिवार के साये में थे।  सरिता के मायके में भी कोई न था।  बस वही दोनों का अपना काम था मिल कर करते थे।  उसको समझने के लिए किसी के पास कोई शब्द न थे और उसके पास कोई दूसरा द्वार भी नहीं था कि वह जाकर कुछ दिन रह आती।  घर वालों की तीव्र नजरें उस पर हमेशा लगी रहती थी क्योंकि उसके दुःख की दशा से वह वाकिफ थे।  एक दिन रात में छत से नीचे कूदने की हालत में उसको बचाया गया। वह सदमें से निकल ही नहीं पा रही थी या कहें कि उसको कोई रास्ता नहीं दिख रहा था।  मिलने वाले आते और वापस उसके और पति के जीवन के बारे में बातें उकेर कर चले जाते।  वह फिर अवसाद में घर जाती।
                        एक दिन उसकी ननद उसको काउंसलर के पास लेकर गयी और उसने पूरी जानकारी लेने के बाद उसको सलाह ही नहीं दी बल्कि अपनी तरफ से एक डायरी दी और एक कलम भी भेंट किया। उससे कहा कि वह इस में रोज कुछ न कुछ लिखा करेगी।
"मैं क्या लिखूंगी ?"
"कुछ भी। "
"मतलब मुझे तो कुछ भी नहीं आता कि लिखूं ?"
"कुछ शौक हैं तुम्हारे ? मेरा मतलब कहानी , कविता या लेख लिखना। "
"नहीं। "
"अच्छा तुम जब भी फुरसत मिले तो इसको खोल कर बैठ जाना और जो भी मन आये लिखना।  कुछ वो बातें जो तुम किसी से कहना चाहती हो।  अपनी पति की तस्वीर रखा कर जैसे तुम उनसे बातें करती थी उसी तरह की बातें इस डायरी में लिखना।  दिन भर की अपनी दिनचर्या लिखना।  किसने क्या कहा ? कौन घर में आया , उसकी क्या बात आपको अच्छी लगी या फिर बुरी लगी।  आपके मन में उठा रहे विचार कुछ भी।  इसको कोई भी नहीं देखेगा और पंद्रह दिन बाद आप मेरे पास आएँगी तो ये डायरी लेकर आएँगी।  हर  दिन के बाद आप लिखती जाएंगी कि आप का मन अब कैसा अनुभव करता है ? हर रोज की अपनी फीलिंग आप लिख लेंगी. "
"फिर आप क्या करेंगी उसका ?"
"मैं उससे ही आपको फिर आगे लिखना बताऊँगी और देखूँगी कि आपका अवसाद कितना कम हुआ है ?"
                        उसने सरिता की ननद को भी ये निर्देश दिया कि जब वह अकेली बैठी हो तो उसको लिखने के लिए प्रोत्साहित करे।        
                   पंद्रह दिन बाद जब सरिता आयी तो उसने बीस पेज लिखे थे।  उसमें उसने अपने दिल को खोल कर रख दिया था।  उसको अभी पति के साथ मिल कर क्या क्या करना था ? अगर वह अभी रहता तो उसकी जिंदगी के दिन कैसे गुजर रहे होते ? अभी उसके रामेश्वरम जाने के वादे को पूरा करना भी अधूरा ही छोड़ कर चले  गए।
                    वह सब लिखने के बाद वह अवसाद से काफी मुक्त दिख रही थी।  उसकी ननद से जब पूछा गया तो उसने भी यही कहा कि  अब पहले से बेहतर है।

  किशोरावस्था की समस्या :-

               बच्चों के जीवन का एक ऐसा दौर होता है कि वे एक असमंजस की स्थिति से गुजर रहे होते हैं।  वह अपने माँ बाप से भी कभी शेयर करना पसंद नहीं करते हैं।  अपने को बहुत परिपक्व समझने लगते हैं और कभी कभी इस उम्र में उनको माता पिता के निर्देश या फिर कुछ भी समझना गलत लगते लगता है और वे उसके ठीक विपरीत व्यवहार करने लगते हैं।  इस समय यदि उनके पास अभिव्यक्ति का कोई साधन होता है तो वे अपनी बातों को उसमें लिख कर , चित्रों को बना कर , या दूसरे रचनात्मक कार्य करके अपने को व्यस्त रखते हैं तो उन्हें अपने भविष्य के प्रति एक दिशा दिखलाई देने लगती है।  इसी समय उनकी संगति सही और गलत बनाने का समय होता है और वे अगर इस दिशा में मुड़ जाते हैं तो अपनी चर्या को लिपिबद्ध करके रखने में रूचि लेने लगते हैं तो वह बहुत सारी बातेंं जो कभी कभी अनजाने में माता पिता नहीं समझ पाते हैं या फिर  व्यस्ततम जीवन में उन्हें समय नहीं दे पाते हैं तो वे अपना समय अन्य कार्यों में लगाने की बजाय इसमें लगा देते हैं।   कई बार किशोर या किशोरी अपने अंतर्मन के द्वंद्व को अपने अभिभावकों से नहीं कह पाते हैं और अंदर अंदर घुट घुट कर गलत निर्णय ले बैठते हैं।
                            इसके लिए अभिभावकों को अपने बच्चों के स्वभाव को जो बचपन से ही जानते हैं।  उनकी किशोरवस्था में प्रवेश करने से पूर्व ही उन्हें लिखने या अभिव्यक्ति का कोई रास्ता दिखा देना चाहिए।  ऐसा नहीं बच्चे  अपनी रूचि के अनुसार उसमें अधिक ध्यान देते हैं।

     अभिभावकों को सिर्फ किशोरों के लिए ही नहीं बल्कि पति -पत्नी को एक दूसरे के प्रति परेशानी , अवसाद या तनाव को गम्भीरता से लेना चाहिए । आत्महत्या की ओर ऐसे ही मुड़ जाता है । सब समझें तो ऐसी घटनाओं में कमी आ सकती है ।

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019

पेरेंटिंग : कब तक और कैसी हो?

          माता-पिता बनने के साथ ही मनुष्य में अपने बच्चे के लिए दिशा निर्देश देने के भाव उभरने लगते है बल्कि ये भी कह सकते हें कि इससे पहले भी माँ के गर्भवती होने से ही अपने आने वाले अंश को लेकर माता-पिता उत्साहित होते हें, उसके लिंग से लेकर नामकरण और भविष्य निर्धारण इसके लिए मूल बिंदु होते हें  हर माँ बाप का अपना सपना होता है कि उसका बच्चा उससे अधिक प्रगति करे, उसका जीवन स्तर उनसे बेहतर हो और इसके लिए वे रात-दिन मेहनत से लेकर अपने शौक त्यागने तक के लिए तैयार होते हें

        सवाल इस बात का है कि बचपन से किशोर होने तक - जो हम उन्हें सिखाते और दिखाते हें (इसमें हमारा अपना व्यवहार, सामाजिक सरोकार , हमारे संस्कार जाते हें) उन सब को वह ग्रहण करते हें लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि जो हम उन्हें दिखाते हें वह उनकी नजर में उचित ही होहम भी कहीं गलत हो सकते हैं लेकिन हमें अपने विवेक का हमेशा प्रयोग करना चाहिए और अगर हम विवेकपूर्ण व्यवहार करते हैं तो ये सारी बातें हम पर लागू होती ही नहीं है।  अपनी दृष्टि से हम अपने विचारों , संस्कारों और परिवेश के अनुसार ही व्यवहार करते हें और स्वयं हम कभी कभी अपने को  सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च समझाने के झूठे अहंकार में डूबकर किसी की सलाह मनाते हें और ही अपने समकक्ष किसी को पाते हें अपने को विश्लेषित करना भी हमें पसंद नहीं होता है

        यहाँ बात मैं पेरेंटिंग की कर रही थी, जब तक हमारे बच्चे हम पर आश्रित होते हें, हम उन्हें अपनी इच्छानुसार चलाते रहते हें और फिर भविष्य में भी ऐसा ही चाहते हें किन्तु बुद्धि और विवेक सबमें अपना अपना होता है, अगर हम उन्हें अपनी इच्छानुसार चलना चाहते हें तो यह सर्वथा गलत है लेकिन इस मामले में पुरुष की तुलना में स्त्रियाँ अधिक दखलंदाजी करती हुई पाई जाती हें

        पिछले दिनों मेरी एक आत्मीय की बेटी की सगाई हुई घर पर उसकी माँ ने उसके सास के बारे में कोई कमेन्ट किया तो वह तुरंत बोली 'मेरी सास के बारे में कुछ मत कहिये' माँ को यह सुनकर बुरा लगा और तुरंत ही बोली - 'अब बड़ी सास वाली हो गयी मैंने इतने दिनों तक पाला पोसा और पढ़ाया लिखाया उसका कुछ नहीं '

'हाँ, मैं अपनी सास के साथ वह सब नहीं करूँ-गी जो अपने दादी के साथ किया आपने तो अपने आगे किसी को कुछ समझा ही नहीं '

मैं वहाँ थी - मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगा क्योंकि उनके विषय में मुझसे अधिक कोई नहीं जानता है

दखल दें :-

           इस विषय में पिता समस्या कम ही पैदा करते हें क्योंकि अधिकाँश पिता इस मुद्दों से दूर ही रहते हें वे बच्चों के करियर को लेकर भले ही दखल दें लेकिन माएँ कभी कभी बहुत अधिक जुड़ाव रखते हुए बेटियों के ससुराल में भी प्रवेश कर जाती हें खुद इस तरह की बातें करते हुए देखा और सुना है --

- 'तुम्हारी सास ऑफिस जाते समय लंच बना कर देती है या नहीं'

-'तुम ही क्यों करती हो? परिवार तो सास का है, जितना बन जाए करो और समय से ऑफिस निकलो'

-'नौकरी छोड़ने की सोचना भी नहीं, मैंने इतना पैसा घर में बैठ कर चूल्हा चौका करने के लिए खर्च नहीं किया है'

-मेरी बेटी को ससुराल वालों ने नौकरानी बनाकर रखा है, सुबह से शाम तक अकेली खटती रहती है'

         ये सही पेरेंटिंग नहीं है, अगर इस तरह की दखलंदाजी की तो आप अपनी बेटी का हित नहीं बल्कि अहित कर रही हें अगर नए घर में जाकर बेटी कुछ अधिक व्यस्त रहती है तो उसे ऐसी बातें कह कर गलत भाव भरे नए घर में जाकर कुछ कुछ सामंजस्य करना ही पड़ता है, उसको अपने को इस वातावरण में ढलने का प्रयास करने दीजिये ससुराल वालों पर आक्षेप करें उसके सुख और शांति की कामना करें।आप भी किसी की बेटी को अपने घर में लाएंगी और फिर क्या आप इन सब बातों को दूसरी माँ से सुनना पसंद करेंगी।  शायद नहीं और यही कुछ चीजें होती हैं , जो कि परिवार को तोड़ने का काम भी करता है।  

गलत दिशा दिखाएँ:-

        अपने बच्चों के सुखी और शांतिपूर्ण जीवन देने के स्थान पर कहीं आप और व्यवधान डालने वाली पेरेंटिंग तो नहीं कर रही हें आप दिन में दो चार बार बेटी के ससुराल में फ़ोन करके उसकी गतिविधियाँ जानने की इच्छुक तो नहीं रहती हें खबर देने तक तो ठीक है लेकिन उस पर अपने कमेन्ट और सलाह तो नहीं दे रही हें 
-'अरे उनके बच्चे हैं तो ब्रेकफास्ट क्यों बनाती है? जल्दी तैयार होकर ऑफिस निकाल जाया कर, भले वहाँ थोड़ी देर जल्दी पहुँच जाए'

-'क्या सबका नाश्ता उनके कमरे में पहुंचाना , ये क्या बात हुई? एक जगह लगा सब अपना अपना नाश्ता खुद ले सकते हें '

-'अभी तेरी सास कोई बूढी तो है नहीं, सबको नाश्ता तो तैयार करके दे ही सकती है '

        ये कुछ सलाहें हें, जो माँँएँ अपनी बेटियों को दिया करती है, मैं मानती हूँ कि इसके पीछे छिपा उनका बेटी के प्रति प्यार ही होता है किन्तु वे यह क्यों भूल जाती कि अब उनकी बेटी दूसरे परिवार से जुड़ चुकी है और ऐसी सलाहें उसको भ्रमित कर सकती है वे चाहते हुए भी सही ढंग से काम नहीं कर पाती हैं। ये सलाहें बेटी के घर में और मन में दरार डालने का काम कर सकती हें इस समय इस तरह की पेरेंटिंग की जरूरत नहीं होती है बल्कि उसको सही दिशा निर्देश देने की जरूरत होती है कि वह अपने परिवार के सदस्योंं के बीच अपनत्व स्थापित कर अपना बना सके नए परिवार में कुछ परेशानियाँ अवश्य हो सकती हें लेकिन धीरे धीरे वे उसको अपने अनुरुप ढाल कर जीना सीख जाती हें शादी के बाद वह एक बेटी के लिबास से निकाल कर एक बहू, भाभी, पत्नी के लिबास को भी धारण करती है और उससे जुड़े सभी लोगों की कुछ अपेक्षाएं होती हें उसके अनुरुप खुद को ढलने दीजिये


दोहरे मापदंड अपनाएं:-


पेरेंटिंग सिर्फ बेटी के लिए ही नहीं होती बल्कि बहू के लिए भी होती है आप अपनी पेरेंटिंग से इज्ज़त भी पा सकती हें और गलत होने पर सम्मान खो भी सकती हें अधिकांश परिवारों में देखा है कि बहू और बेटी के लिए अलग अलग नियम लागू होते हें मेरी समझ नहीं आता कि ऐसा क्यों किया जाता है? मेरी ही छोटी बहन की शादी जिस परिवार में हुई , मुझे कुछ ऐसा ही देखने को मिला उसकी सास ने बताया कि हमारे यहाँ शादी के बाद की विदा (चौथी) महीने बाद होती है लेकिन चौथी की रस्म के लिए आने वाला समान एक हफ्ते के अन्दर ही भेज दिया जाता है हमने वैसे ही किया क्योंकि बेटी देकर हम उनके नियम और क़ानून से बंधे होते हें कुछ साल बाद जब उनकी बेटी की शादी हुई तो चौथी की विदा चौथे दिन ही हो कर गयी क्यूंकि बेटी की विदा तो चौथे दिन ही हो जाती है
इस तरह का व्यवहार  बहू के मन में मलिनता लाने वाला होगा है, अपने व्यवहार और मापदंडों में दोनों रिश्तों के लिए संतुलन बनाये रखें दोनों का जीवन आप से ही जुड़ा हुआ है उनके प्रति आपकी पेरेंटिंग में फर्क आपके सम्मान के लिए विपरीत भाव लगा सकता है बहू का मौन आज नहीं तो कल मुखरित होकर आपके सामने ही आने लगेगा और शायद तब आपको बुरा लगेगा


आपको सलाह :-

**अगर आप इस दृष्टि से विषय से सम्बद्ध होती हें और पेरेंटिंग के इस ढंग को अपना रही हें तो फिर आपके लिए कुछ सलाह जरूर देना चाहूंगी 

**अपनी बेटी और बेटे के लिए पेरेंटिंग आपका अधिकार है लेकिन तभी तक - जब तक वह सही दिशा देने वाला हो 

**बेटी अपने घर चली गयी तो आप उसका रिमोट अपने हाथ में मत रखिये अगर दे सकती हें तो उसे धैर्य और सहनशीलता के लिए निर्देशित कीजिये

**रिश्तों की गरिमा और उनसे जुड़े दायित्वों को सीखिए उसके घर की सुख शांति के लिए कामना कीजिये 

**उसके पारिवारिक जीवन को सुखपूर्ण बनाने की दिशा में ले जाने की सलाह दें  

               इसलिए  हम कितने ही प्रगतिशील हो, आधुनिक हो, जीवन मूल्यों की जो महत्ता है वह कभी भी कम नहीं होती सामाजिक संस्थाओं - विवाह, परिवार और व्यवहार में आने वाले मापदंडों के महत्व को हम नकार नहीं सकते पेरेंटिंग इन्हीं में से एक है और जब तक सृष्टि रहेगी, माता- पिता और बच्चों  का रिश्ता रहेेेेगा ,तब तक पेरेंटिंग भी रहेगी  लेकिन उसे सदैव सकारात्मक दिशा की ओर ले जायें। बच्चों का सुखी भविष्य ही आपके सुख का आधार है ।