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शुक्रवार, 19 मार्च 2010



इस विषय की  सार्थकता  क्या है? इस प्रश्न का सामना करने के लिए मैं पूरी तरह से तैयार हूँ.
अभिभावक  इस देश के भविष्य को दिशा निर्देश देने वाले हैं और कई ऐसे निर्णय होते हैं कि उसमें उनकी भूमिका बहुत ही जरूरी होती है. मेरी मुलाकात अपनी बेटी की सहेली से होती है, उसकी शादी एक दक्षिण भारतीय परिवार में हुई. वह दोनों तो अंग्रेजी में बात कर लेते हैं लेकिन उसके सास ससुर तो तमिल ही जानते हैं लेकिन चूँकि तमिल संस्कृत के बहुत ही करीब है इस लिए वह समझ लेती है. और तमिल भी धीरे धीरे सीख रही है.
उसकी एक बेटी है, एकदम छोटी मात्र ३ महीने की. अब उसके पति चाहते हैं कि वह पहला शब्द जो बोले वह तमिल में हो, शची अपनी बेटी से हिंदी में ही बतियाती है और पिता तमिल में. कोई विरोधाभास नहीं है, फिर भी दिल से वह भी चाहती है कि उसकी बेटी तमिल में ही पहला शब्द बोले. वह बाबा और दादी जैसे शब्द तमिल में उसके सामने बोलती है, जिससे कि वह जब भी बोले ऐसे ही बोले. लेकिन वह हिंदी तो उसको अच्छे से सिखाना चाहती है.
ये प्रश्न शची का नहीं है, ये प्रश्न अपनी राष्ट्र भाषा का भी है और अपनी पहचान का भी. आज कल बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाने को प्राथमिकता प्रदान की जाती है. माता और पिता भी बड़े गर्व के साथ बताते हैं कि उस स्कूल में डाला है, फीस जरूर ज्यादा है लेकिन इंग्लिश बढ़िया बोल लेता है. हिंदी विषय में कुछ कमजोर है.
कई मांएं भी ये बात बड़े गर्व के साथ बताती हैं कि हिंदी में अच्छे से नहीं बोल पता क्योंकि अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहा है न. बच्चों के भविष्य के लिए उच्च शिक्षा और सही शिक्षा दिलाना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन उसको अपने राष्ट्र की पहचान देने वाली भाषा का ज्ञान तो होना ही चाहिए. कभी कभी तो ये ज्ञान होते हुए भी कुछ लोग हिंदी का स्वरूप विकृत बना कर बोलते हैं.
  • हमको हिंदी नहीं आता है.
  • हमने वहाँ जाना है.
  • वहाँ का सड़क बहुत टूटा है.
  • यहाँ सूरज बहुत देर से निकलती है.
भाषा का ज्ञान तो कम से कम हिंदी भाषी को होना ही चाहिए. व्याकरण का ज्ञाता न ही हो फिर भी प्राथमिक व्याकरण भी आना आवश्यक है.
इसमें माँ कि भूमिका सबसे अहम् होती है. अगर बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता है तो आप घर में उससे हिंदी में बात कीजिये और उसकी गलतियों को सुधारिए. उसको अपनी जमीन से जुड़े रहने दीजिये. ये बहुत आम बात है कि हम टीवी पर अंग्रेजी सिखाने वाली बहुत किताबों ऑडियो विडियो के विज्ञापन देखा करते हैं और शहर में भी इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के बड़े बड़े बैनर लगे देखते हैं. अपने बच्चों को भेजते भी हैं. लेकिन कभी हमने हिंदी स्पीकिंग कोर्स का कोई भी विज्ञापन देखा है? या फिर कभी सोचा है कि अगर हमारा बच्चा स्कूल के वातावरण में अच्छी हिंदी नहीं सीख रहा है तो उसको हम घर में नहीं तो किसी कोचिंग में ऐसा करवा सकते हैं. नहीं ऐसा तो सोचा ही नहीं जा सकता है क्योंकि हिंदी तो बोलने वाले बड़ी ही हेय दृष्टि से देखे जाते हैं. अंग्रेजी बोलने वालों का तो स्तर ही अलग होता है.
कितने हमारे ब्लॉग से जुड़े जन ऐसे ही हैं, हम हिंदी कि उन्नति और समृद्धि की बात करते हैं और अपने बच्चों से ये उम्मीद करते हैं कि वे इंग्लिश ही बोलें. ये दोहरे प्रतिमानों के क्या अर्थ हो सकते हैं? जिस भाषा पर हमारा अधिकार है, वह भाषा हमारे परिवार में फलनी फूलनी चाहिए. मैं ये नहीं कहती कि आप दूसरी भाषा पर अधिकार नहीं रख सकते हैं. पर अपनी भाषा को भूलिए नहीं. ऐसी भाषा तो आनी ही चाहिए कि हम गर्व से कह सकें कि हम हिन्दीभाषी है और हमारा उस पर पूरा अधिकार है. यही बात अपने परिवेश से जुड़ी होती है.
इस सिलसिले में एक पुरानी बात याद आ रही है, १९९४ के समय में एक इंजीनियर IIT में Ph D करने के लिए कर्नाटक से आया था . उसको हिंदी बिलकुल भी नहीं आती थी, हमारे सहयोग से ही उसका काम होना था. जब तक उसने अपना काम पूरा किया वह बहुत अच्छी हिंदी बोलने लगा था क्योंकि हम उससे इंग्लिश के माध्यम से बात करते और कहते कि हिंदी भी सीख लो. हमने तो कन्नड़ नहीं सीखी लेकिन उसको हिंदी जरूर सिखा दी. फिर हम ये काम अपने घर में तो आसानी से कर सकते हैं. ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती लेकिन आत्मज्ञान यानि कि अपनी भाषा और संस्कृति के बिना इनसान कि पहचान अधूरी होती है. जो एक माँ और बहन सिखा सकती है वह पिता और भाई नहीं सिखा सकते हैं. अपनी भाषा से सबका अच्छा परिचय हो इस कामना के साथ हिंदी को प्रणाम करती हूँ.

सोमवार, 15 मार्च 2010

दायित्व बनाम क़ानून!

                            समाज में  संस्कार, संस्थाएं और उनसे बनी हमारी संस्कृति में बिखराव झलकने लगा है. इसको हम ज़माने का तकाजा या पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं लेकिन क्या हम खुद इस उत्तर से खुद को संतुष्ट कर पाते हैं? 
                       परिवार रुपी वृक्ष कि जड़ें है हमारे बुजुर्ग और यदि इन्हीं को उपेक्षित कर हम पत्तों और शाखों की वृद्धि की आशा करे तो ये तो बेमानी हैं  . पानी हम पेड़ कि जड़ में ही तो डालते हैं तभी तो फूल, पत्तों और फलों से लदे रहते  हैं. समाज का वर्तमान स्वरूप जिस परिवार की परिकल्पना को सिद्ध  कर रहा है, वहा हमारी संस्कृति के अनुरूप नहीं है. 
                         ये समस्या आज नहीं खड़ी नहीं हुई है,  आज से करीब ३५  साल पहले भी ऐसी ही एक घटना ने विचलित किया था , उसको लिख कर अपने आस पास चर्चा का विषय बना दिया था कि  उससे जुड़े लोग मुझे तलाशने लगे थे. जब पता चला तो उलाहना मेरे भाई साहब को मिला, "तुम्हारी बहन ने यह अच्छा नहीं किया?" लड़कियाँ उस समय अधिक बाहर नहीं निकलती थी. 
उस समय मेरे भाई साहब ने यही कहा था, "वह जो भी लिखती है? इसको मैं मना नहीं कर सकता, वो लिखने के लिए स्वतन्त्र है और अगर कहीं कुछ लग रहा है तो जाकर मानहानि का केस कर सकते हो."  
                             मैं एक बहुत छोटी जगह से हूँ, जहाँ सब एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं. वैसी  घटना तब एक या दो ही घटित होती थी और आज ये चलन हो चुका है. आज परिवार में बुजुर्गों को पर्याप्त सम्मान और स्थान मिला रहे ये बहुत बड़ी बात है.  इस विषय में एक घटना उल्लेखनीय है कि ऐसे ही सुपुत्रों ने अपने अपाहिज पिता को मरणासन्न  अवस्था में  सड़क पर फ़ेंक दिया और सड़क से किसी भले मानुष ने उन्हें एक किनारे बने फुटपाथ पर खिसका दिया और दो दिन वहीं पड़े पड़े उन्होंने प्राण त्याग दिए. पुलिस ने लावारिस में उनका संस्कार कर दिया.
                           समय की मांग और जरूरत के अनुसार इस दिशा में स्वयंसेवी संस्थाएं, समाज कल्याण मंत्रालय वरिष्ठ नागरिकों के लिए आश्रय का प्रयास कर रही है. इसके लिए क़ानून भी बनाये जा रहे हैं कि अपने अभिभावकों के प्रति उनकी संतान के दायित्व निश्चित होंगे और उनको उन्हें पूरा करना पड़ेगा. ये तो निश्चित है कि वर्तमान  शक्ति - सामर्थ्य सदैव नहीं रहेगी , आज वो जिस स्थिति और उम्र से गुजर रहे हैं कल निश्चित ही हमको भी उसी में आना है.  पर हमको कल नहीं सिर्फ और सिर्फ आज दिखलाई देता है. 
                    संसद में पारित होकर विधेयक एक क़ानून बन जाएगा किन्तु क़ानून बनना और उसको लागू करवाना दोनों ही जमीन आसमान की दूरी पर हैं. क़ानून बनाना अधिक सरल है, पर ऐसे क़ानून लागू नहीं करवाए जा सके हैं. 
कर्त्तव्य, दायित्व और सम्मान के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता है.  क़ानून बनाकर भी नहीं. जुरमाना और जेल की सजा के बाद इस वरिष्ठ नागरिको के लिए  अपना घर ही पराया हो जाएगा, भले ही उसको पराया पहले से ही बना रखा हो. एक जुर्म की सजा सिर्फ एक बार ही दी जा सकती है. सजा पाकर दोषी अधिक उद्दंड भी हो सकता है. 
                                वरिष्ठ नागरिकों या अभिभावकों की इस उपेक्षा के ९० प्रतिशत मामले सामने आ रहे हैं. इसके पीछे सबसे अधिक है युवा वर्ग का पाश्चात्य संस्कृति के प्रति आकर्षण. इसके साथ ही अभिभावकों की अपने बच्चों पर आर्थिक निर्भरता या फिर पेंशनयाफ्ता अभिभावक जिनसे बच्चे ये अपेक्षा करते हैं कि वे अपनी पूरी पेंशन उनको सौंप दें. आज मिथ्याडम्बर और महत्वाकांक्षाओं कि ऊँची उड़ान से प्रेरित अधिक से अधिक अर्जन की लालसा ने युवा पीढ़ी को जरूरत से अधिक व्यस्त और तनावपूर्ण बना दिया है, जिससे वे घर पहुंचकर अपने कमरे में कैद होकर टी वी  या फिर म्यूजिक सिस्टम के साथ अपना समय बिताना चाहते हैं. अनुशासन और बंदिशें उन्हें पसंद नहीं.
                              इस उपेक्षा में दोषी मात्र युवा पीढ़ी ही नहीं है. दोनों पक्षों का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष के तौर पर यही सामने आया कि दबाव में कराया गया कार्य सौहार्दता तो नहीं ला सकता है.  हमेशा बच्चे ही गलत हों, ऐसा भी सामने नहीं आया है. कहीं कहीं बदमिजाज और जिद्दी बुजुर्ग भी देखे है.  सारे दिन काम से लौटा बेटा या बहू से जरूरत से अधिक अपेक्षा करना भी गलत है. उनको भी समय चाहिए . लेकिन अपने समय में तानाशाही करने वाले पुरुष या स्त्री अपनी उपेक्षा को  सहन नहीं कर पाते लिहाजा एक तनाव पूर्ण वातावरण पैदा कर देते हैं. 

                          तनाव किसी कि भी तरफ से हो, पीड़ित तो शेष सदस्य ही रहते हैं. इसके लिए सामाजिक दृष्टिकोण से सोचा जाय तो सबसे अधिक कारगर साधन कुछ हो सकता है तो वो "काउंसिलिंग " ही है. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तब भी. बहुत से तनावों का निदान इससे खोजा गया है और खोजा जा सकता है.  इसके लिए स्वयंसेवी संस्थाएं, एनजीओ या फिर सरकार कि ओर से परामर्श केंद्र कि स्थापना की जा सकती है. इस समस्या का निदान मानवीय प्रयासों से अधिक आसानी से खोजा जा सकता है. यह भी सच है कि ये काउंसिलिंग यदि घर से बाहर वाला व्यक्ति करता है तो अधिक समझ आता है क्योंकि पीड़ित इस बात को समझता है कि ये मेरा हितैषी है. 
                     यदि युवा पीढ़ी है तो उसको समझाया जा सकता है कि उनके कामकाजी होने के नाते बच्चों को जो अपनत्व दादा दादी से प्राप्त होता है वह - न आया से और नहीं किसी क्रेच में डालने से प्राप्त होगा. संस्कार या तो माता-पिता देते हैं या फिर घर के बड़े बुजुर्ग. बाकी किसी को बच्चों कि मानसिक स्थिति या फिर विकास से कोई मतलब नहीं होता बल्कि उनके लिए ये एक पेशा होता है और वे उसके प्रति न्याय कि चिंता नहीं करते हैं. अतः घर के बुजुर्ग सिर्फ बोझ नहीं बल्कि एक आया या क्रेच से अधिक प्यार देने वाले और संस्कार देने वाले सिद्ध होते हैं. ये सोच उनको काउंसिलिंग से ही प्राप्त कराइ जा सकती है. 
                     इसके ठीक विपरीत यही काउंसिलिंग बुजुर्गों के साथ भी अपने जा सकती है. उन्हें पहले समझ बुझा कर समझने कि कोशिश करनी चाहिए . यदि वे नहीं समझते हैं तो उन्हें अस्थायी  तौर पर 'ओल्ड एज होम' में रखा जा सकता है. घर की सुख -सुविधा और अपनों के दूर रखकर ही उनको इसके महत्व को समझाया जा सकता है और इस दिशा में किया गया सही प्रयास 'काउंसिलिंग ' ही है. अपने घर , अपनत्व और बच्चोंके द्वारा की गयी देखभाल का अहसास होना ही उनको सही दिशा में सोचने के लिए विवश कर सकता है. माँ - बाप के आश्रित होने की दशा  में बच्चों को भी समझाया जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन कि सारी पूँजी अपने बच्चों को काबिल बनने में खर्च कर दी है और उसी के बदौलत आप सम्पन्न हैं.फिर उनका दायित्व कौन उठाएगा? ये सब बातें न तो क़ानून और न न्यायाधीश ही समझा सकता है बल्कि इसको सामजिक मूल्यों के संरक्षण के प्रश्न से जुड़े मानकर मनोवैज्ञानिक तरीके  से ही सुलझाया  जा सकता है. इसके परिणाम बहुत ही बेहतर हो सकते हैं. बस इस दिशा में पहल करने कि आवश्यकता है. मानसिक बदलाव संभव है और परिवार संस्था को पुराने स्वरूप में सरंक्षित किया जा सकता है. हमारी परिवार संस्था पाश्चात्य देशों में आदर्श मानी जाती है और हम खुद भटक रहे हैं. इस भटकाव से बचना और बचाना ही भारतीयता को संरक्षण देना है.

                  

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

तरवा चाट चमचा भये - चमचा बन भये ...............

           ये नेतन कि जातउ  न बड़ी खुशामद चाहत है, नेतन कि तारीफ के पुल बांधत रहौ धीरे धीरे गाँव से निकर के शहर और शहर  से निकर के दिल्ली पहुंचई जैहौ. जा में तनकौ शक या शुबहा नहीं.
                               एसइं  हमाए  गाँव के प्रधान जी के लड़का आवारा और निठल्ले हते, बिचरऊ  बड़े परेशान रहें. बाप की इज्जत मिट्टी में मिलाय रहे है. प्रधान जी के चम्चन ने प्रधान जी को जा सलाह दइ  - प्रधानजी काय को फिकर करत हो, इनका न तरवा चाटे कि आदत डार देओ. 
 "जासे का होई."
"समझत नईं हो, आज नेताजी के चम्चन के तरवा चाट है तो उ आपन संगे ले जैहै - काय के लाने अरे अपनी छवि बनान के लाने."
"हमें कछु समझ नहीं आत , तुमाई  जा गणित." 
" अरे शुरू तो करो, हमाए बाप जई कहत रहे कि तरवा चाटे सिंहांसन मिले. कछु दिन तरवा चाट  लेओ , कल जरूरै हाथ पकड़ बगल  में बिठैहै और बाके बाद साथ साथ ले जैहै. कछु दिनन में पक्के चमचा बन गए सोई पार्टी के काम देंन  लगहें  - बस सफेद कुरता पजामा बनवाय लेव और बन गए पक्के नेता."
"फिर का होय"
"लेओ अभऊ न समझे - अरे प्रधान जी दस सालन में तुमाव लड़का जीपन में घूमन लगहै और पचास चमचा बउके  हो जैहैं . फिर चुनाव लड़हैं   अपने ही घर से सो वाको को  हरा सकत है." 
"बात कछु कछु समझ में आत है." प्रधान जी कुछ समझने लगे थे.
"आत नहीं, अब आयई जाय - जामे भविष्य बन जैहै . एक की जगह चार ट्रेक्टर हौहे और चारऊ तरफ तुम्हरेई खेत . बेटा नेता भओ तो काहे को डर. लएँ बन्दूक हमऊ ऊके साथ घूमत रैहैं. "
"औ सुनो जो जा महिला विधेयक आ गयो तो भौजी बनही प्रधान और बहुरिया बनहै  पार्टी की मंत्री. पाँचों अँगुरी घी में और सिर कढ़ाई  में. "
"ऐ ननकउ  तुम्हाएं तो बड़ी अक्ल है, हम तो तुम्हें बुद्धूई  समझत ते. "
" प्रधान जी, सब तुमाई संगत कौ असर है, नईं तो ढोर चराउत रहे. अरे पाथर पीट पीट के सिल बन जात सो हमउ बन गए.' 

"ये बताव की ये ससुरऊ कर पैहैं की हमें सब्ज बाग़इ दिखात हौ. "
"पक्की बात कहत है -'इ नेता की जात चाहे जूता खाय या लात ' आपन घर का कौनौ कोना खाली न रहन देत. अरे बाग़ - बगीचा और वा फार्म हॉउस  तो बन है शहर में , दुई चार माकन होंहिं और एक दो तो दिल्ली मेंउ  हौहें. "
"अरे टिकट को दैहे इ  निठल्लन को ."
"बस तरवा चाटवो सीख लें , दो चार साल में टिकट न मिल जाय तो मूंछ मुड़ा दैहैं. "
"तौ देखो ये तरवा चाटवो तुमई सिखाव हमाई न सुन हैं."
"अरे चच्चा काय के लाने हैं हम, सब सिखा दैहैं औ भौजाईउ को टरेनिंग  दे लैहैं. "
"चल ननकउ  अब हमाई फिकर ख़त्म भाई - ये हमर खोटे सिक्का खरे बना देव."
 "अच्छा प्रधान जी, अब चलत हैं - लड़कन से बात कर लैहैं. "
"अरे सुन ननकउ , ये और बताय जाव कि  जब सबरे मतलब तुमाई भउजी प्रधान भईं  और बहुरिया मंत्री , लड़का बन गए चमचा तो हम का करहैं  . "
"लेओ - अब का बचौ , हम दोउ जने इतें चौपाल पे हुक्का गुड़गुड़ेंहैं औ हम तमाखू बने हैं औ तुम  खइयो . सब को दै दई जिम्मेवारी  और हम दोउ भए आजाद." 
                 हम दोउअन  को तो देश तभी आजाद हौहै, जब हमारी सरकार बन जैहै.  कबहूँ हम गाँव में , कबहूँ शहर में और कबहूँ दिल्ली में घूमहैं .

बुधवार, 10 मार्च 2010

महिला आरक्षण विधेयक!



                              महिला दिवस पर महिला आरक्षण विधेयक का , जो पिछले १४ वर्षों से लंबित पड़ा हुआ है, वही हश्र हुआ जो इतने वर्षों से हो रहा था. इतिहास फिर दुहराया गया. आखिर क्यों? आधी दुनियाँ कहलाने वाली महिला क्या ३३% पाने की भी हक़दार नहीं है. कल जब राज्य सभा में इसको पारित किया गया तो किन हालातों में यह सभी को पता है और इससे बौखलाए सहयोगी दलों के प्रमुख अब सरकार के प्रति अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, बस उनको कुछ बिकाऊ सांसदों की तलाश है. ये सत्ताधारी आधी दुनियाँ के ऊपर अपनी सत्ता कायम रखने में कोई भी खतरा मोल नहीं लेना चाहते हैं. वे ५० प्रतिशत न सही ३३ प्रतिशत की हिस्सेदारी देने में भी हंगामा मचा रहे हैं.


                सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और जदयू के लालू प्रसाद  यादव सबसे प्रमुख विरोधियों में से हैं, क्या कभी ये सोचा है कि ऐसा क्यों है? मुलायम सिंह सिर्फ अपनी और अपनी ही सत्ता चाहते हैं. पार्टी के प्रमुख पदों पर उनके परिवार के लोग हैं. ये भाई भतीजावाद के पोषक पहले भाई , बेटा और फिर बहू . अगर महिला नेत्री नहीं चाहिए तो बहू क्यों ? क्योंकि वह तो अपने हाथ की कठपुतली है, उसकी अपनी सोच पर ससुर का ठप्पा ही चलेगा न. उससे कोई खतरा नहीं था.
               लालू प्रसाद यादव भी इसके प्रमुख विरोधी हैं, फिर क्यों राबड़ी देवी को बिहार की मुख्यमंत्री की कमान रातोंरात सौपी गयी थी क्योंकि ये उनके हाथ की कठपुतली वैसे ही नाचेगी जैसा वे नचाएंगे. राजनीति की क ख ग से अनभिज्ञ राज्य का शासन चला सकती हैं और ३३ प्रतिशत आरक्षण अगर मिल गया तो राजनीति में शिक्षित महिलायें आएँगी और इस समाज में समाज सेवा के लिए समर्पित इतनी महिलायें हैं की उन्हें संसद में आराम से पहुंचा दिया जाएगा. वे किसी दल की मुहर की मुहताज नहीं हैं. यहाँ यादव द्वय  के वर्चस्व का प्रश्न है. कोई बड़ी बात नहीं है की इस आरक्षण के बाद कोई नया महिला समर्थक दल गठित हो जाए और फिर संसद में ३३ के स्थान पर ५० प्रतिशत पर कब्ज़ा न कर लें. 
                     अगर यह भय नहीं है तो विधेयक की प्रतियाँ फाड़कर संसद की जो अवमानना की है, वह निंदनीय कृत्य है. एक ऐसा कृत्य जिसे विश्व भर में देखा जा रहा है, वैसे तो हमारी संसद में शर्मसार करने वाले कृत्य होते ही रहते हैं. शर्मिंदा वे नहीं बल्कि हम होते हैं जो संसद से बाहर दुर्गति को होता हुआ देखते हैं.  उन सबको भय इस बात का है कि ये तथाकथित नेता जिनके बल पर चुनाव जीतते हैं वे महलाएं ही हैं. गाँव की कितनी आबादी शिक्षित है? उनकी गरीबी और अज्ञानता का फायदा उठा रहे हैं. उनके सिर्फ चुनाव चिह्न दिखा दिया जाता है और साथ ही दे दिए जाते हैं कुछ रुपये - धोती - अनाज. उनको ये नहीं मालूम की इस मशीन के इस बटन को दबाने का अर्थ क्या है? इस बटन को दबाने का अर्थ - यदि महिलायें भी उतर आयीं तो ये निश्चित है की वे इन सब को अच्छे तरह से समझा कर उन्हें मतदान का अर्थ समझ देंगी और फिर इन अशिक्षित महिलाओं के पूर्ण नहीं तो आधे मत अवश्य ही ले जायेंगी और इस दावेदारी को किसी भी पार्टी की छवि रोक नहीं पाएगी.
                             दो दिन पूर्व मुलायम सिंह यादव ने कहा था की यदि ये विधेयक पास हो गया तो इस आरक्षण का परिणाम ये होगा कि सरकारी अफसरों की पत्नियाँ सरकार चलाएंगी. इस बात का क्या अर्थ है? अभी आधे से अधिक प्रबुद्ध वर्ग चुनावों के प्रति उदासीन रहता है किन्तु अगर संसद में कुछ प्रतिशत को छोड़ दिया जाय तो शेष सिर्फ पार्टी के मोहरे बने बैठे रहते हैं. सिर्फ संसद का कोरम पूरा करने के लिए - वे देश और देश की समस्याओं के बारे में क्या प्रश्न उठाएंगे. 
                 सरकारी अफसरों के लिए इसलिए बोला क्योंकि ये आई ए एस और पी सी एस या  अन्य प्रशाशनिक अधिकारी बनने तक ज्ञान के सागर में गोते लगाकर निकलते हैं और फिर इन तथाकथित नेताओं के समक्ष "जी सर" - जी सर" कहते हुए हाथ बंधे खड़े होते हैं. कभी कभी तो इनके दुर्व्यवहार  के शिकार भी होते हैं. इस पीड़ा को उनकी पत्नियाँ भी सहती हैं और पत्नियाँ अंगूठा छाप तो नहीं ही होती हैं. अगर वे सामने आ जाती हैं तो समीकरण बिगड़ जायेंगे. 
                    अब इन्तजार है की ये महिला  विरोधी नेता आज संसद में कौन सा नया बखेड़ा खड़ा करते हैं ? शेष इस बखेड़े के बाद ...................