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मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

संस्कार कैसे देते हें?

जीवन मूल्यों में हो रहे परिवर्तन  ने हमारी संस्कृति को विकृत  रूप  में प्रस्तुत  करना  शुरू  कर  दिया है. एक  मिसाल बनकर विश्व में अपना  परचम फैलाने वाली भारतीय संस्कृति के आधार परिवार, पारिवारिक प्रेम और रिश्तों की गरिमा को अब लज्जित होने के लिए हम ही उसको इस हद तक पहुंचा रहे  है. आज हम खुद  ही अपने  पारिवारिक  मूल्यों की दुहाई  देने  में कतराने  लगे  हैं क्यों ? क्योंकि  हम अपने नैतिक  और पारिवारिक मूल्यों को खोते  चले  जा  रहे हैं ( संचित भी है, इस बात  से  इनकार  नहीं है लेकिन  अब खोने  का  पलड़ा  भारी है. ) 
                       ऐसा नहीं है पहले भी ऐसा होता था लेकिन उसका प्रतिशत इतना कम  था कि संयुक्त परिवार में वह नगण्य के बराबर होता था और ऐसे उदाहरण सामने आ नहीं पाते थे. . वैसे इसके लिए उत्तरदायी हम ही हुआ करते हें.
                             संस्कार कोई गिफ्ट आइटम नहीं है कि जिसे हम अपनी आने वाली पीढ़ी को गिफ्ट पैक बना कर देते हें - उन्हें बहुत कुछ समझाने की जरूरत नहीं होती है , वे आज बहुत समझदार है और उसके अनुसार ही आचरण करते हें. आज की नई पीढ़ी और वह पीढ़ी जो अभी अपने पैरों पर चलने के लिए तैयार हो रही है वह वही ग्रहण कर रही है जो हम उसको दिखा रहे हें.
                             हमारी अपनी सोच, व्यवहार और आचरण ही  उनके लिए संस्कार बन जाते हें . इस विषय में वह लघुकथा सबसे अच्छा उदाहरण है कि 'दादा के निधन के बाद पिता ने उनके खाने वाले बर्तन उठा कर फ़ेंक दिए और उनका बेटा जाकर उन्हें वापस उठा लाया. पिता के ये पूछने पर  कि इन फेंके हुए बर्तनों को वह क्यों उठा लाया? तो बेटे ने उत्तर दिया कि कल जब आप बूढ़े हो जायेंगे तो ये ही बर्तन आपके काम आयेंगे. '
                             आज संयुक्त परिवार टूटते टूटते बिखर गए  हैं.  कहीं अगर माता पिता को साथ रखा तो तिरस्कृत करके रखा या फिर उन्हें वृद्धाश्रम भेज दिया. बच्चों ने वही देखा और वही ग्रहण किया. जो हमने उनको दिखाया  वही उन्होंने  संस्कार समझ  कर अपना  लिया . 
  बाद में हम सिर धुन कर रोते हैं  कि पता नहीं आज कल के बच्चों को क्या हो गया है? माँ - बाप की बात सुनते ही नहीं है, आप जब बड़े हो गए तब अपने सुनना बंद किया था और आप के बच्चों ने बचपन से ही क्यों? क्योंकि अब वे प्रगति पर हें और उनकी बुद्धि पिछली पीढ़ी से कहीं अधिक तेज है. ज्यादातर लोगों की ये सोच होती है कि हम जो कर रहे हें वह सही है लेकिन अगर वही बच्चों के द्वारा किया जाता है तो हमें कितना बुरा लगता . इसी लिए आचार्य श्री राम शर्मा की एक उक्ति है - जो व्यवहार आपको अपने लिए पसंद नहीं है तो वह आप दूसरों के साथ   भी न करें. लेकिन ऐसा होता कहाँ है? हम खुद सम्मान और सर आँखों पर बिठाये जाने की अपेक्षा रखते हें और माँ - बाप को अपने मित्रों से मिलाने में भी शर्म महसूस करते हें . क्यों? इसलिए कि हमारे पिता कभी क्लर्क होते थे और माँ एक गृहणी थी. उनको   बाहर के  आचार व्यवहार से परिचय ही नहीं होता है. वह तो अपना पूरा जीवन आपको पढ़ाने और लिखाने   में लगी रही. पिता ने अपनी आय को आपकी पढ़ाई में लगा दिया और खुद अपने लिए नई साइकिल भी नहीं खरीद सके, कभी मिल गया तो ऑफिस के बाद पार्ट टाइम जॉब भी कर लिया ताकि पढ़ाई के साथ साथ आपकी अच्छी खिलाई पिलाई भी कर सकें. इसे हमने उनके फर्ज मान हाशिये में रख दिया और खुद के अच्छी पढ़ाई के बाद जब नौकरी मिली तो उनको अपने बराबर बिठाने में शर्म महसूस करने लगे. हमारे जीवनसाथी ने भी यही समझा कि पति की कमाई पर तो उसका ही हक है , माँ बाप को कोई आशा भी नहीं करनी चाहिए ।
 
                               यही जो कुछ हम दिखा रहे हें वह हमारे बच्चे ग्रहण कर रहे हें . यही संस्कार बन रहे हें उन्हें कुछ भी सीखना नहीं पड़ता है . पहले नानी दादी उन्हें अपने साथ लिटा कर श्रवण कुमार और लक्ष्मण जैसे पुत्र और भाई की कहानी सुनाया करती थी. और बाल मन पर वह गहराई से बैठ जाया करती थी. आज क्या आपके पास टीवी देखने या फिर अपने मित्र मंडली के साथ गपशप करने अलावा भी कुछ है . बच्चे भी साथ साथ टीवी से चिपके  रहना  चाहते  हें. उन्हें कब सिखाया  जाए  और क्या सिखाया  जाए ?अब इसके लिए तो हमें ही सोचना होगा की बच्चों को गलत संस्कार न मिल पायें और वे मानवता और नैतिक मूल्यों के मूल्य को समझें लेकिन ये होगा तभी जब हम उन्हें समझा पायें. चलिए कोशिश करते हैं.

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

विपरीत प्रभाव !

कन्या के जन्म से लेकर उसके जीवन के निर्धारण तक का अधिकार पुरुष वर्ग अपने हाथ में लिए रहा हैतब अधिक अच्छा था जब वह अधिक उन्नत जीवन नहीं जी रहा थावह कृषि और व्यापार में लगा था लेकिन आम घरों में अगर लड़कियाँ अधिक हें तो लड़के की आशा में प्रयास बंद नहीं करते थे लेकिन लड़कियों की हत्या नहीं करते थेमन मलिन भले कर लें लेकिन उनका जीवन नहीं हरते थे
हम जैसे जैसे सुशिक्षित और सम्पन्न होते जा रहे हें हमारी मानसिकता क्या क्रूरता की ओर नहीं जा रही है? या फिर ये कहें कि पहले इस तरह की घटनाएँ प्रकाश में नहीं आती थीं और आज मीडिया के सशक्त होने के साथ ही घटनाएँ सामने आने लगी हेंकल पलक एक अत्याचार का शिकार होकर जीवन लीला समाप्त कर चल दी और आज आफरीन सिर्फ तीन माह की बच्ची अपने पिता के अमानुषिक व्यवहार का शिकार हो कर दुनियाँ से कूच कर गयी किस लिए क्योंकि उसके पिता को बेटी नहीं बेटा चाहिए था और बेटी होने पर उसने उस नन्ही सी जान को सिगरेट से जलाया , उसके सिर को दीवार से पटक कर उसके मष्तिष्क को क्षत विशत कर दिया और वह कोमा में चली गयीएक हफ्ते के अन्दर वह जिन्दगी की जंग हार कर और अपनी माँ की गोद सूनी करके चली गयी
पुरुष जाति में बच्चियों के प्रति पाशविकता की भावना क्यों घर करने लगी है ? अगर वह पिता है तो उसको बच्ची चाहिए ही नहीं तो या तो उसको जन्म से पहले ही मार दो और अगर नहीं मारी तो पैदा होने पर मार देंइन सबसे ऊपर उठ कर वे लोग हें जो बच्चियों को अबोध बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बना रहे हें और फिर उनकी हत्या कर भाग जाते हेंये काम तो आदिम युग में भी नहीं किया जाता थाआज हम अपनी प्रगति और सक्षमता का ढिंढोरा पीट रहे हें और अपने को २१वी सदी का प्रगतिशील व्यक्ति मानते हें लेकिन हमारी सोच तो जितने हम ऊँचे पहुँचने का दावा करते हें उससे कई गुना नीचे जा रही हैइसके कारणों की ओर कभी मनोवैज्ञानिक तौर पर अगर विश्लेषण किया गया है तो यही पाते हें कि व्यक्ति सारी प्रगति और उपलब्धियों के बाद भी उसकी आकांक्षाएं इतनी बढ़ चुकी हें कि वह उनको पूरा कर पाने के कारण कुंठित हो रहा है और वह कुंठाएं कहाँ और कैसे निकलती हें ? इसके बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है
अपने से अधिक बलशाली या फिर बराबरी के व्यक्ति से अगर वह उलझने की कोशिश करेगा तो शायद वह अपनी कुंठा निकल पाए इसलिए वह अपना शिकार अबोध और किशोर वय की ओर जाति हुई बच्चियों पर मौका पाकर निकालने की कोशिश करता हैजब एक तरह की घटना सामने आती है तो फिर उस तरह की छिपी हुई कई घटनाएँ सामने आना शुरू हो जाती हेंये जरूरी ही नहीं है कि वे कुंठित ही हों , वे दकियानूसी भी हो सकते हेंकितने स्थानों पर बेटे की चाह में बेटियों की बलि दे दी जाती है बगैर ये जाने कि क्या इसका कोई औचित्य है?
हम बेटी बचाओ अभियान चला रहे हें क्योंकि अगर बेटी होंगी तो ये सृष्टि आगे कैसे चलेगी? क्या हम बेटियाँ इसी लिए बचाने की गुहार लगा रहे हें कि कल कोई वहशी उन बच्चियों से दुराचार कर उनकी हत्या कर दे? हम बेटियों का जीवन सुरक्षित कैसे करें? वे कोई कागज की गुडिया तो नहीं हें कि हम उन्हें डिबिया में बंद कर छिपा लेंउनके जीवन के लिए उनकी शिक्षा और प्रगति भी जरूरी है तो फिर कौन सा ऐसा कदम हो कि वे सुरक्षित रहेंक्या पैदा होते ही उनको पुरुषों के साए से दूर रखा जाय? क्या उनके साथ माँ को साए की तरह से हमेशा साथ रहना होगा ? क्या फिर से हम अतीत में जाकर पर्दा प्रथा को अपना लें? लड़कियों को शिक्षा के नाम पर सिर्फ गीता और रामायण पढ़ने भर की शिक्षा लेकर उन्हें परिवार को बढ़ाने भर के लिए जीवित रखें?
इतने सारे सवाल है और इनके उत्तर आज भी हमारे पास नहीं है क्योंकि अब हम नेट युग में जी रहे हें , आभासी दुनियाँ में जी रहे हें और बगैर मिले और देखे भी अपनी दुनियाँ को विस्तृत कर रहे हें फिर अतीत में जाने की बात बेमानी है लेकिन ये भी सत्य है कि हमें अब लड़कियों के जीवन और अस्मिता की रक्षा के लिए भी कुछ सोचना होगाउनके प्रति हो रहे दुराव और दुराचार के खिलाफ उठाये जा रहे कदमों के विपरीत प्रभाव पर अंकुश लगा होगा