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गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

देश के दुश्मन!

कभी पाकिस्तान बना था तो वहां पर जो हैवानियत का तांडव हुआ था , कमोबेश उसी से गुजर रहा है देश। किस लिए?
वे भाषा और राज्य के आधार पर देश के टुकड़े करना चाहते हैं। दूसरे हमारी युवा पीढी किस तरह से उसकी प्रतिक्रिया दे रही है। क्या एक पागल हो तो सारा युवा वर्ग ही पागल हो जायेगा। हमें अपनी सोच को बदलना होगा - हमारी सोच होनी चाहिए एकता के लिए। हम भारतीय है और सम्पूर्ण देश में हमारा अधिकार है, कौन कहाँ रहता है, इसका कोई भी अर्थ नहीं है।
कितना तरस आता है उनकी सोच पर कि वे इसी भारत भूमि के पुत्र हैं जिसमें 'वसुधैव कुटुम्बकम' कि अवधारणा को जन्म दिया है। अपने ही घर में हम विराने होने लगे हैं। यह देश के सपूत नहीं हैं कपूत हैं जो कि उसके टुकड़े करके अपना स्वामित्व जमाना चाहते हैं। न यह धरती और न ही आकाश किसी कि जागीर नहीं है। इसको क्या कहा जाय आम आदमी कि सोच या फिर राजनीति के तवे पर स्वार्थ कि सिकती हुई रोटियां, जो बहुत तकलीफ दे रही हैं। कितने तनाव से गुजर रहे हैं वे लोग, जो दीपावली पर अपने घर आने का रास्ता देख रहे थे। ट्रेन जला रहे हैं, रद्द कर दी गयीं हैं। वे माँ-बाप जो अपने बच्चों कि राह देख रहे हैं । किसी के ऊपर इसका फर्क नहीं पड़ रहा है। कभी सोचा है कि जिनके बच्चे नहीं आ पाए उनकी दीवाली कैसी होगी? पटाखों कि गूँज क्या उनके दिल को चीर कर नहीं रख देंगे। दिए वे भी जलाएंगे लेकिन उनकी रौशनी क्या उनके दिल को रोशन कर पाएगी या उन्हें वो खुशी दे पाएगी जो उन्हें बच्चों के साथ मिलती।
सवाल इस बात का है कि ऐसे देश को तोड़ने की साजिश रचने वालों को देशद्रोही करार देना चाहिए। उनकी सजा क़ानून तय करे, वे सिर्फ देश के ही नहीं मानवता के भी अपराधी हैं। जन और धन कि जो हानि हो रही है उसकी भरपाई कौन करेगा। क्या और ऐसे तत्व इसका फायदा नहीं उठाएंगे । कौन सा ऐसा राज्य है जिसके निवासी पूरे भारत में न रह रहे हो, अपना नौकरी के लिए, पढ़ाई के लिए या फिर व्यवसाय के लिए। फिर ऐसी क्षुद्र मानसिकता क्यों? क्या हल हो सकता है इसका? क्या परिणाम हो सकते हैं इसके? यह सोच कर कि कर कोई रहा है और इसका खामियाजा कोई और भुगत रहा है, वे निर्दोष है जिन्हें उस राज्य के नाम पर प्रताडित किया जा रहा है. यहाँ नैतिकता भी शर्मसार हो रही है. उनके उन्माद से क्या महिलायें और क्या लड़कियाँ कोई भी नहीं बच रहीं है. यह सिर्फ आज कि समस्या नहीं है - बार बार उठी है और इसी तरह से उठती रहेगी. इसके लिए सोचना होगा और एक स्वस्थ मानसिकता को विक्सित करना होगा. उसके लिए नेताओं कि जरूरत नहीं है सिर्फ मानव कि आवश्यकता है और कम से कम इसको कम करने के लिए मानवतावादियों को तो आगे आना चाहिए.