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शनिवार, 26 दिसंबर 2009

संबोधन - कितने अपने और कितने पराये!

समाज में परिवार , मित्र और औपचारिक परिचय सबमें एक तारतम्य होता है और इसके लिए ही सामाजिक संबंधों का अपना महत्व है। हमारी संस्कृति में पुरातन काल से ही और गांवों में आज भी धर्म जाति से परे एक सम्बन्ध बना होता है । अगर जमादारिन है तो उसको भी चाची के संबोधन से पुकारा जाता है । वृद्ध हैं तो दादा या बाबा के संबोधन से। पिता के समकक्ष तो चाचा ही बुलाते हैं । गाँव में निकल गए तो जो मिला उससे ही दुआ सलाम और हाल चाल लेते हुए एक अपनत्व जो इन संबोधनों में होता है , इस शहरी सभ्यता में उसकी तो अब इतिश्री हो चुकी है।

इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं, पश्चिमी संस्कृति के अन्धानुकरण ने हमें बहुत अधिक औपचारिक बना दिया है। मेरे पति के पुराने मित्रों के बच्चों में आज भी मैंने एक बात महसूस की है कि वे कभी भी हम लोगों से आंटी या अंकल जैसे संबोधन से नहीं बुलाते हैं। चाहे जितने बड़े हो चुके हैं। अपने देश के परिवेश से बहुत दूर हैं लेकिन जब भी मिलेंगे। चाची और चाचा ही कहेंगे। कितना अपनत्व महसूस करते हैं और हम सभी इस बात पर गर्व भी करते हैं की कम से कम हमने अपने बच्चों तक तो इस संस्कार को जीवित रखा है।
आज आधुनिकता कि दौड़ में तो पिता के सगे भाई को भी अंकल कहने का जो फैशन बन चुका है, शायद चाचा कहने में खुद को पिछड़ा हुआ महसूस करते होंगे। पर इन संबोधनों का एक भावात्मक सम्बन्ध होता है, ऐसा मेरा मानना है शेष लोगों का या जो इसको अपने जीवन में शामिल कर चुके हैं उनका क्या सोचना है? यह तो वही जान सकते हैं। परिवार और रक्त संबंधों में तो मेरे ख्याल से इन संबोधनों को शामिल नहीं करना चाहिए। उन्हें अपनत्व के दायरे से दूर करने वाले संबोधन और दूर कर देते हैं।
शायद अंग्रेजी को अपनी जिन्दगी में प्राथमिकता देने का भी परिणाम हो सकता है। पर अंग्रेजी संस्कृति के समान ही अब सब आपस में उस अपनत्व को खोते भी जा रहे हैं। उससे बड़ा तो ये है कि आने वाले समय में आज कि नवल पौध तो अधिकतर इकलौती ही संतान होती है और फिर उनके बच्चों के लिए चाचा , बुआ जैसे रिश्तों के लिए कोई जगह ही नहीं है। सब अकेले और जो दूर के हुए वे अंकल हो गए । सब कुछ अकेले ही जीना और सहना होगा। अपने द्वारा बनाये संसार में हम और हमारे आने वाले बच्चे अकेले ही अकेले रहेंगे।
जो हालात चल रहे हैं, उनमें बच्चे माँ से अधिक अपनी आया के करीब होते हैं, इन परिस्थितियों में संस्कार भी कहाँ से सीख रहे हैं? अपने बुजुर्गों के साथ रहना शायद उनको रास नहीं आता है और फिर संस्कार देने के समय न माँ के पास होता है और न पिता के पास। इन रिश्तों के संसार की गरिमा कौन समझे और समझाये।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

विकलांग दिवस - एक संदेश!


आज अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस है!

एक ऐसा वर्ग , जो सामान्य से इतर है किंतु वे बेचारे नहीं है - इसके लिए इतिहास लिख रहे हैं। यह समाज आज भी उनको सम्मान नहीं दे पाता है, जिसके वे हक़दार हैं। एक अहसास रखते हैं उनके लिए कि वे विकलांग हैं, पर वे वास्तव में बेचारे नहीं हैं।

सम्पूर्ण विश्व में इनकी संख्या ६५० मिलियन है आंकी गई है और प्रत्यके देश में इनकी संख्या १५ से २० प्रतिशत तक है। इतने सारे लोग अक्षम कहे जाते हैं , वह बात और है कि इनकी विकलांगता का स्वरूप अलग अलग हो सकता है। एक महत्वपूर्ण बात यह है की जो विकलांग पैदा होते हैं - उनकी बाल्यावस्था और किशोरावस्था में उनके साथ किया गया व्यवहार और मनोवैज्ञानिक संबल उनको भविष्य के लिए तैयार करता है। इस काल में उनके सामने सम्पूर्ण जीवन होता है और वे भविष्य के प्रति आशंकित होते हैं। उनकी इन आशंकाओं के जन्मदाता हम ही होते हैं। उनके घर, परिवार और परिवेश में यदि सकारात्मक सोच हो तो वे फिर अपने को सक्षम बना सकते हैं। इसमें सबसे बड़ी भूमिका माता-पिता और भाई बहनों की होती है।

कानपुर की दो बहनें श्रुति और गोरे अपने आप में एक मिशाल हैं, जो विकलांग होने के बाद भी सिर्फ राज्य स्तर पर ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी पुरस्कृत की गई हैं। उन्हें गायन का शौक है और वे अपने इस शौक से ही अपना ही नहीं बल्कि सभी विकलांगों के लिए एक उदाहरण बन कर खड़ी हैं।
इस तरह से सभी विकलांगों में सक्षम होने के जज्बे को भरने की जरूरत है। भीख माँगते हुए विकलांगों की तस्वीर यदि मन को द्रवित कर जाती है तो अपने हाथों से साइकिल चलाकर १५ किमी तक की दूरी तय करके नौकरी के लिए जाती हुए नित्या पर गर्व किया जा सकता है। बस वह ये सहन नहीं कर पाती कि लोग उसको 'बेचारी' की संज्ञा से नवाजें।

ये 'बेचारा' शब्द इन लोगों के लिए एक मायूसी का माहौल पैदा कर सकता है। उनका हाथ पकड़ कर खड़ा नहीं कर सकते तो उनको धक्का भी मत दीजिये। वे आपसे सहानुभूति नहीं बल्कि हौसला अफजाई की उम्मीद रखते हैं। सक्षम तो वे हैं ही- अपनी अक्षमताओ को चुनौती मानकर लड़ने के लिए भी तैयार है। आप बस उनके लिए स्तम्भ बन जाइए।

मैंने १९८४ में किशोर विकलांगों के आत्मविश्वास का अध्ययन किया था। सिर्फ ५ प्रतिशत लोग ऐसे थे , जिनमें आत्मविश्वास नहीं था , वह भी अपने घर , परिवार और परिवेश में मिली उपेक्षा और असहयोगपूर्ण रवैये के कारण।
बाकी अपने कार्य को करने के लिए पूर्ण प्रयास कर रहे थे। उन्हें भी 'बेचारा' शब्द बिल्कुल भी पसंद नहीं था। उनके अनुसार यह शब्द उनके कानों में पड़कर हताशा देने वाला बन जाता है। वे किसी से सहायता नहीं चाहते किंतु हिम्मत बढ़ाने के लिए ताकत चाहते हैं , कर तो वे ही सब लेंगे लेकिन हम उन्हें बस साहस की ओर ले जा सकते हैं। अपने काम उनको स्वयं करने दीजिये। उनकी वैशाखी मत बनिए। अपने पैरों पर खड़े होकर डगमगायेंगे और गिरेंगे भी किंतु कल वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। वे दौड़ेंगे और मंजिल तक पहुँच जायेंगे।
अपने आत्मविश्वास से ही वे महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए हैं। ऐसा नहीं सरकार भी उन्हें अवसर प्रदान करती है किंतु उन अवसरों तक पहुँचने के लिए मनोवैज्ञानिक संबल तो हम और आप ही दे सकते हैं।
आज का संकल्प है की जो विकलांग है, उन्हें हाथ बढ़ाकर खड़ा करें और चलने की प्रेरणा दें वे हम से कम न रहें । वे सम्पूर्णता से जिए।