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गुरुवार, 7 जून 2012

उठ जाग मुसाफिर !

               
                      क्या पढ़े लिखे और इस विकासशील भारत में जनता  अपने अधिकारों और कर्तव्यों से इतना अधिक विमुख है कि सरकार के किसी भी कदम का न तो  विरोध  कर सकते हैं और न ही उनसे कोई सवाल करने का अधिकार रखते हैं। वे  सरकार चुनते समय अपने विवेक को ताक  में रख कर बटन दबा कर चले आते हैं। लेकिन मैं यह क्यों भूल रही हूँ कि बटन दबाने के बाद जो चुने जाते हैं उनके ही रास्ते  और इरादे बदल जाते हैं। वे पांच साल के बादशाह बन जाते हैं और वह भी निरंकुश बादशाह फिर ठगा सा जनमत कुछ कर ही नहीं सकता है। 
                   पिछले दिनों आई रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में 15 वीं विधान सभा के पूरे 5 वर्ष के  89 दिवस सत्र  चले .  जब कि  एक वर्ष में 365 दिन में  अगर 30 दिन भी कार्य होता तो 5 साल में 150 कार्य दिवस होते लेकिन वह भी नहीं हो सका। जो 89 दिवस सदन में कार्य  हुआ  और 403 विधायकों में से सिर्फ 5 ऐसे थे जो की पूरे 89 दिन उपस्थित थे और इनके समेंत 20 विधायक ऐसे थे जो 88 दिन उपस्थित थे। इसमें से 1 को को छोड़ कर  शेष  सभी सत्तापक्ष  के विधायक थे। शेष कहाँ रहते हैं और क्या करते रहे इसके बारे में न सदन ने कभी जानने की कोशिश की और नहीं उन लोगों ने इस बारे में सूचित करने की कोई जरूरत समझी। उनके  वेतन भत्ते में कभी कोई  नहीं की जाती है क्योंकि प्रदेश का अस्तित्व  उनसे ही   है, नहीं तो प्रदेश अनाथ हो जाएगा। ये सिर्फ एक प्रदेश की स्थिति  है  इस बारे में हमें संसद और शेष सभी राज्यों के विधान सभाओं  की स्थिति के बारे में जानकारी उपलब्ध करायी जाए . लोक में जागरूकता जब तक नहीं आएगी तब तक अपना अर्थ सार्थक नहीं कर  पायेंगे .
                    प्रजातंत्र में सरकार में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ही हम अपने प्रतिनिधि को चुनते हैं लेकिन वही प्रतिनिधि अपने दल के कठपुतली बन जाएँ तो ठगे तो हम जाते हैं। चुने हुए प्रतिनिधि तो अपनी जुगाड़ में कहीं और घूमते फिरते हैं सदन की कार्यवाही या उसमें अपनी उपस्थिति से उनको कोई भी मतलब नहीं होता है और नहीं सदन के अध्यक्ष इस विषय में कोई कदम उठता है . सरकारी कार्यालयों और बच्चों के स्कूल में उपस्थिति की तरह से हमारे विधायकों और सांसदों की उपस्थिति का भीएक रिकार्ड होना चाहिए और उसको सार्वजनिक किया जाना चाहिए। उन्हें चुनने वालों को पूरा अधिकार है कि  वे अपने प्रतिनिधि की कार्य प्रणाली से पूरी तरह से वाकिफ रहें। ताकि भविष्य में उनसे इस बारे में दुबारा आने पर सवाल तो किया ही जा सके। अन्धानुकरण अधिक दिन नहीं चल सकता है। वर्षों से विधायक और सांसदों के पद पर काबिज लोगो को अब जनमत क्यों नकार रहा है? सिर्फ इस लिए कि  उन्होंने अपने क्षेत्र के लिए कुछ किया ही नहीं . कुछ माननीय अपनी नीयत सिर्फ इस इरादे से स्पष्ट कर देते हैं कि वे सिर्फ अपने और अपने क्षेत्र के विकास में में रूचि रखते हैं। 
                  अब हमें जागरूक होने की जरूरत है , पांच साल सिर्फ इसलिए हम चुप नहीं बैठ सकते हैं कि  हम उन्हें झेलने के लिए मजबूर है नहीं हमें उनकी गतिविधियों पर निगाह रहने का पूरा पूरा अधिकार होता है। अपनी बात उनके द्वारा संसद में उठाये जाने की बात को लेकर बात करने तक। वे ही हमारा माध्यम हैं और उन्हें अपने  क्षेत्र से जुड़े मामले को उठाना ही होगा। बस एक दूसरे का हाथ थाम  का शक्ति को बढ़ाना होगा और आवाज को बुलंद करना होगा फिर कल हम सुधार  की आशा कर सकते हैं. हम कोई राजनैतिक दल के सदस्य नहीं है लेकिन हम उस विधा से जुड़े हैं कि हम एक दूसरे तक अपनी बात को  पहुँचा तो सकते हैं और सोचने के लिए मजबूर भी कर सकते हैं। 
  

शुक्रवार, 1 जून 2012

विचार करें !

   अगर घर में बेटियाँ हें तो उनके विवाह के लिए आज नहीं कल सोचना है और ये कोई एक या दो दिन का सम्बन्ध नहीं है . इस जीवन भर के रिश्ते की बुनियाद भी मजबूत होनी चाहिए. आज कल लगभग सभी लड़कियाँ आत्मनिर्भर होकर जीने को अधिक महत्ता प्रदान करती हें और होना भी चाहिए क्योंकि आज की बदलती सोच ने अब पति और पत्नी दोनों को समान रूप से काम और जिम्मेदारियों  को उठाने की राह दिखाई है. इस परिवार और विवाह संस्था को स्थायित्व देने के लिए सबसे महत्वपूर्ण आधार है - हमारी प्रगतिशील और परिपक्व सोच. इसके लिए हम पूरी तरह से जिम्मेदार हें क्योंकि आज भी ८० प्रतिशत विवाह माता पिता द्वारा ही किये जाते हैं . आज भी हर माँ बाप का ये सपना होता है कि जिस लड़के के साथ हम अपनी बेटी का रिश्ता करने जा रहे हैं उसका घर और परिवार हमसे अच्छे स्तर का हो. वह सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण से ही तुलना करता है और आज भी मध्यम वर्ग का पिता कुछ न कुछ कर्जदार होकर बेटी के हाथ पीले कर रहा है.
                  उस घर में जाकर बेटी को कितना सामंजस्य स्थापित करके रहना पड़ता है इसके विषय में कम ही पता चल पाता है. क्योंकि दूर के ढोल सुहाने होते हैं और कुछ लोगों के तो दोहरे चेहरे होते हैं. इन चेहरे पर चढ़े नकाब के लिए शिक्षा दीक्षा भी कोई भूमिका अदा नहीं करती है क्योंकि संस्कार भी कुछ होते हैं और मैं नहीं समझ पाती हूँ कि ये मनुष्य किस मिट्टी के बने होते हैं? जो शादी के पहले कुछ और बोलते हैं और शादी होने के बाद कुछ और बोलने लगते हैं. 
                     मैं बहुत लम्बे चौड़े दायरे की बात नहीं कर रही हूँ . बस अपने इर्द गिर्द बसने वाले कुछ परिवारों की बात कर रही हूँ. कुछ उन बेटियों की बात कर रही हूँ जो मुझसे बहुत करीब से जुड़ी हें. सभी उच्च शिक्षित और सभ्य सुसंस्कृत परिवारों में विवाह के बाद पहुंची हैं. पिछले दिनों मैंने अपनी बेटी से बात करनी चाही तो उसका फ़ोन व्यस्त आ रहा था. जब वह फ्री हुई तो उसने मुझे मिलाया. मैंने उससे पूछा कि कहाँ व्यस्त थी? इस समय तो हमारे बात करने का समय होता है तो बोली - 'मम्मी हमारा "आओ सखी चुगली करें" क्लब बना है उसमें हम सब यानि जिनकी अभी या कुछ दिन पहले शादी हुई है अपनी अपनी ससुराल में बैठ कर अपनी समस्याएं शेयर करके हैं और मैं उन सबको कंसोल करती हूँ और रास्ते बताती हूँ कि कैसे इन हालातों से निबटा जाय? (वैसे बताती चलूँ कि मेरी दोनों ही बेटियों में काउंसिलिंग करने का गुण मेरी ही तरह से आया है.) वैसे वह अपनी और सहेलियों की बातें मुझसे बराबर शेयर करती हैं और तभी निष्कर्ष के तौर पर ये लेख लिखने की बात दिमाग में आई.
                              उसकी एक सहेली सरकारी अस्पताल में डॉक्टर है और उसकी शादी फरवरी में हुई है. वैसे तो वह दिल्ली में ही रहती है लेकिन एक डॉक्टर से हम शादी करने से पहले ये सोच कर चलते हैं कि उसका क्या दायरा है? उससे हम कितनी पुरातन पंथी परम्पराओं को निभाने के लिए मजबूर कर सकते हैं. लेकिन हमारी सोच अपने बेटे या बेटी के उच्च शिक्षित होने से बदल नहीं जाते हैं लेकिन फिर भी समय और हालात के साथ हमें सामंजस्य स्थापित करना चाहिए. हम बाहर से दिखाने के लिए बहू को बेटी की तरह रखने की हामी तो भर लेते हैं लेकिन बाद में जो माँ का चोला उतार कर सास का रूप धारण करते हैं तो बहू भी आसमान से उतर कर जमीन पर खड़ी होती है और विस्फारित नेत्रों से देखती रह जाती है. उस बच्ची की डॉक्टर ननद है और घर में जब वह चाय लेकर जाती है तो वह कहती है -' जरा सिर ढक कर जाना पापा जी को चाय देने जा रही हो.'  जब कि हकीकत ये है तो उसको साड़ी पहनना शादी के चार दिन पहले सिखाया गया था. सच ये है कि वह अभी ठीक से दोनों हाथ से काम करते हुए सिर पर पल्ला संभाल नहीं पाती है. ये बात मुझे भी कुछ खली कि एक डॉक्टर और दूसरी डॉक्टर से इस तरह की बात कर रही है. क्या हम अपने को सिर्फ उदारवादी दिखाने का नाटक करते हैं? कल वह मेरे पास आई थी और बोली कि गाँव में कोई पूजा है तो वहाँ जा रहे हैं और वहाँ पर तो सास जी ने कहा है कि मुँह ढक कर रहना होगा. अगर कहा है तो रहना ही होगा. इतनी  गर्मी  और फिर भरी  साड़ी भी पहननी  होगी क्योंकि  नई  बहू पहली  बार  गाँव जा रही है उस पर मुँह ढक कर रहना. सोच कर ही डर  लगा  रहा है.
                          सास के दो चेहरे ओ अक्सर ही देखने को मिल जाते हैं. मेरे साथ एक लड़की वनस्थली से एम टेक करते समय आई आई टी में प्रोजेक्ट करने आई थी. वह कानपुर की रहने वाली थी इसलिए प्रोजेक्ट में उसको जॉब मिल गयी और वह एम टेक पूरा करने के बाद मेरे ही प्रोजेक्ट में जॉब भी करने लगी. वह पापा के ट्रान्सफर वाले जॉब के कारण शुरू से ही हॉस्टल में पढ़ी थी. इत्तेफाक से वह मंगली थी और उसके लिए उसके पापा मंगली वर ही खोज रहे थे. उनको एक ठीक ठाक एम बी ए लड़का मिल गया. जब शादी तय हुई तो वह बाहर जॉब कर रहा था. उनकी सास का शुरू में जो व्यवहार था उससे यही लगता था कि उनके घर में बेटी नहीं है इसलिए वह बहू के रूप में बेटी मिल रही है .बेटी बहुत खुश रहेगी. बाकी कुछ जानने और समझने की जरूरत ही नहीं समझी गयी. लोकल शादी हुई थी इसलिए नौकरी छोड़ने की बात उसने सोची भी नहीं थी . शुरू शुरू में सास लंच बना कर देती और फिर कुछ दिन बाद उसके लिए खाना बना कर जाना. उसका घर इतना दूर था कि उसकी अगर ऑफिस की बस छूट  गई तो उसको ३ घंटे आने में लगते थे और इसलिए ऑफिस में देर तो वहाँ उसको उत्तर देना होता था. रोज रोज वह घर का रोना नहीं रो सकती थी. घर में उसको सास मुँह ढक कर रहने के लिए मजबूर करती. अगर उसको सबके साथ टीवी भी देखना हो तो मुँह ढका होना चाहिए. फिर सोने से पहले सास के पैर भी दबाने पड़ते . वह रात १२ बजे सोने जाती और सुबह ४ बजे उठ जाती. ऑफिस में सारे दिन कंप्यूटर पर काम करना होता . उसके मम्मी पापा अगर छुट्टी के समय बस स्टॉप पर आकर मिल लेते . इसी समय वह गर्भवती हुई , तब तो उसके लिए काम और घर मुश्किल होने लगा. शुरू के दिन की परेशानियाँ और घर के माहौल  से वह टूटने लगी थी. आखिर उसके मम्मी पापा अपने घर ले आये लेकिन उसके पति को माँ उससे मिलने केलिए नहीं आने देती.  उसका पति भी ऑफिस में लंच टाइम में आकर मिलता. उसको बेटा हुआ तो दादी का मन डोला और उसको घर ले गयी. फिर शुरू हुआ बच्चे को रखने के लिए समस्या. आया वह रख नहीं सकती थी, खुद वह देखेंगी नहीं. फिर दबाब बढ़ा कि नौकरी छोड़ दो. उसने नौकरी छोड़ दी और एक वह लड़की जिसके माँ बाप ने एम टेक तक शिक्षा दिलवाई उसके ससुराल वालों की सोच के लिए वह सिर्फ एक गृहणी बना दी गयी. रोज रोज की किच किच परेशान होकर उसके पति ने बाहर दूसरी कंपनी ज्वाइन कर ली और पत्नी और बेटे को लेकर चला गया. तब जाकर उस लड़की को सुकून मिला.
                              ये दो किस्से सिर्फ इसलिए कि लड़कियों  के माँ बाप अपनी ओर से सुयोग्य वर और अच्छा घर देखते हैं लेकिन इसके साथ ही उस घर के लोगों की सोच और विचारों को जानने का भी प्रयास करें तो बेटी के सुखद भविष्य के लिए अधिक उचित होगा. घर का स्तर , ऊपर दिखने वाला व्यवहार और उनके आतंरिक स्वरूप के विषय में जल्दी पता नहीं चल पता है. इसलिए शादी तय करने के बाद इतना समय अवश्य लें कि उनके बारे में अच्छी तरह से पता लगा लें. वह आपके अपने स्रोत होंगे जिन्हें प्रयोग करके आप पता लगायें. बेटी की शादी एक या दो दिन की बात नहीं होती है और हमारे दिए संस्कारों के कारण वह ऐसे लोगों के बीच कितना तनाव झेलती है इसको मैंने उस लड़की से जाना है. .
                              अपनी बेटी के भावी जीवन के बारे में हमें सोचना है तो हमेशा ये देखना चाहिए कि उस परिवार में वैचारिक परिपक्वता होनी चाहिए. आर्थिक स्तर भी समान होना चाहिए बल्कि यह एक महत्वपूर्ण आधार है क्योंकि बहुत बड़े घर में बेटी देना चाहे वह कामकाजी हो या फिर घरेलु उसके सुख और आत्मसम्मान के लिए ये जरूरी है कि समकक्ष आर्थिक स्तर का परिवार हो. अगर आपने बड़े घर की बेटी ले ली तो वह आपके घर में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पायेगी . फिर या तो वह आपको बात बात पर अपने घर का बखान करके नीचा दिखाएगी या फिर वह अपने घर जैसे माहौल की अपेक्षा करेगी. ये आवश्यक नहीं है कि जिसे आप उचित समझें उसे आपकी  बेटी भी समझे इस लिए उसके सामने हर बात स्पष्ट रूप से बता देनी चाहिए. जीवन उसको गुजारना है इसलिए वह आगे आने वाले स्थितियों से निपटने केलिए मानसिक रूप से तैयार रहेगी.
                              ये सारी बाएँ सिर्फ बेटी की शादी के लिए ही लागू नहीं होती बल्कि बेटे की शादी के लिए भी लागू होती है. लड़की भी हमेशा अपने बराबरी के परिवार और सभ्य सुसंस्कृत परिवार की लेनी चाहिए. हम आजकल नेट के माध्यम से रिश्ते अधिक खोजते हैं और फिर उसमें दी हुई जानकारियाँ कितनी सच और कितनी गलत होती हैं , ये बात तो तभी पता चलती है जब कि हकीकत से दो चार होना पड़ता है. इसलिए रिश्ते से पहले अपनी सारी इन्द्रियां सजग रख कर ही निर्णय लेने चाहिए. परिवार की सुख और शांति के लिए सिर्फ एक पक्ष नहीं बल्कि दोनों पक्षों की भलाई होती है.