गुरुवार, 29 नवंबर 2012

अधूरे सपनों की कसक : एक विश्लेषण और उपलब्धि !

                              अधूरे सपनों की कसक को लेकर चली थी कि सबके आधे अधूरे सपनों से दो चार होंगे और फिर सोचेंगे कि  इन सपनों के सजने और टूटने में क्या था? किसने अधिक इस सफर में अपने सपनों के  साथ समझौता किया और कौन उसके लिए जिम्मेदार रहा? उसका नारी होना या फिर सामाजिक सीमाओं की परिधि। 

                            सबसे पहले तो अपने उन सभी साथियों को धन्यवाद कहूँगी जिन्होंने ने मेरे इस अनुरोध को मान दिया और सहयोग किया अपने सपनों की कसक को बांटने में। फिर इस बात को लेकर एक कसक मन में रह गयी कि सपनों की कसक को बांटने का आश्वासन देकर कुछ साथी मुझे लालीपॉप दिखाते रहे और फिर छुप कर खुद ही खा गए और हम रोज इन्तजार करते रहे कि  वो हमें आज मिलेगी , कल मिलेगी लेकिन वो तो आज तक मिली ही नहीं . दिवाली के बाद बहुत दिनों तक इन्तजार करते रहे कि शायद त्यौहार के बाद समय मिले तो मिल जाए लेकिन मेरा इन्तजार तो व्यर्थ ही गया।
                         मेरे इस सफर में  सबसे अधिक साथ दिया आधी आबादी ने - शायद हम सब की पीड़ा कहीं न कहीं एक जैसी ही रही थी लेकिन शेष आधी आबादी ने सहयोग तो दिया लेकिन बहुत कम फिर भी मैं अपने सभी साथियों का हार्दिक धन्यवाद करती हूँ जिन्होंने ने मेरे अनुरोध का मान रखा और उन्हें भी जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि ऐसा  कुछ उनके जीवन में हुआ ही नहीं।
                       इस सफर से कुछ तो उपलब्धि हुई ही है , हम कहते हैं कि  नारी आज सशक्त हो रही है और सक्षम भी लेकिन कितनी?  इसको इसी बात से देखा जा सकता है कि उच्च शिक्षित होने के बाद भी हमारी पीढी हो या फिर आज की युवा पीढी -- आधी आबादी ने अपने सपनों को एक परिवार से दूसरे परिवार में आने पर बलिदान कर दिया और अपनी जिम्मेदारियों को उठाते हुए अपने सपनों को दूसरी तरफ रुख कर के अपनी संतुष्टि के रास्ते  को खोज लिया। वही अपने पहले परिवार के साथ भी निश्चित सीमाओं के कारन अपने सपनों को वहीँ अधूरा छोड़ दिया और उसे आज भी अपने मन में पलते हुए अफसोस को अपने आने वाली पीढी में पूरा होने की आशा कर रही है।
                      सपनों के साकार होने में कल भी और आज भी आधी आबादी के साथ कभी न्याय नहीं हो सका है। हाँ इतना जरूर है कि  हम जो अपने अधूरे सपनों की कसक लिए कभी सोचते हैं तो फिर अपने बच्चों के सपनों को कभी न टूटने देने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। लेकिन फिर भी अपनी बेटी की शादी के बाद नहीं जानते कि  उसके इस बार भी  देखे गए सपने और हमारे द्वारा दी गयी दिशा को वहां कितना समर्थन मिलेगा? वह अपनी पढाई और शिक्षा के उद्देश्य को कितने प्रतिशत पूरा कर पायेगी  ? ऐसे कितने केस मेरे सामने है कि  लड़कियाँ मात्र औपचारक शिक्षा नहीं नहीं बल्कि एम टेक , एम सी ए और एम बी ए  जैसी शिक्षा पाने के बाद भी दूसरे घर में जाने के बाद अपने माता पिता की खून और पसीने की कमाई  से पढाई करने के बाद भी वे सिर्फ गृहणी बन कर रह गयीं . उनके सपने वहीँ के वहीँ रह गए और उनके साथ सजे उनके माता पिता के सपने भी .
लेकिन इसको माता पिता भी अपने अधूरे सपने की कसक के साथ इस कसक को भी सह लेते हैं। ऐसा शेष आधी दुनियां के साथ नहीं होता है। वह अपने सपनों को भी हक से पूरा कर लेता है और अगर न भी हो सके तो फिर भी उसके लिए कोई बंधन नहीं होता है कि उसकी सीमायें इतने भी ही सीमित हैं . एक नहीं ऐसे कितने ही मामले हो सकते हैं। हम एक बुद्धिजीवी वर्ग के सामने थे और फिर उनके सपनों की रह को नापा था लेकिन शायद कुछ ही प्रतिशत ऐसे लोगों के उत्तर मिले कि  मेरा कोई भी सपना अधूरा नहीं रहा बल्कि मेरे हर सपने को अपना मक़ाम मिला . बस यही तो सोच रही थी और सोच रही हूँ की काश ऐसे गर्व से पूरे संसार में सभी कह सकें की मेरा कोई भी सपना अधूरा न रहा . वह अधूरापन जो की उसके लिए मजबूरी न बने 

शनिवार, 3 नवंबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (26) !

                 
सपने तो सपने हैं चाहे छोटे हों या बड़े , हर मन में बसते हैं . उम्र के साथ ये भी बढ़ाते जाते हैं। कभी हमने बच्चों से पूछा होता की क्या चाहते हैं ? तो वे अपने सपनों को आकार  देते हुए कुछ न कुछ जरूर बता देते - जैसे किसी को उड़ने वाला जहाज चाहिए , किसी को बार्बी की गुडिया चाहिए और अपने परिवार की स्थिति के अनुसार ही उनके सपने होते हैं। हम बड़े अपने हिसाब से सपने देखते हैं। अगर सपने नहीं देखेंगे तो फिर कुछ पाने के लिए प्रयास कैसे करेंगे ? बस यही तो एक रास्ता है मंजिल तक जाने का , ये जरूर नहीं की बुने हुए सपने के अनुसार ही मंजिल मिले और फिर वही कसक देने वाले बन जाते हैं। 

                           आज अपने सपनों को लेकर आये हैं  -- यशवंत माथुर 






जीवन के प्रारम्भ से जीवन के अंत तक एक काम जो हम निरंतर करते हैं वो है सपने देखना। कुछ पूरे हो जाते हैं और कुछ अधूरे रह जाते हैं। जो पूरे हो जाते हैं उनके पूरा होने की उपलब्धि और जो अधूरे रह जाते हैं उनके पूरा न होने की कसक रह रह कर जीवन के मोड़ों पर अपना एहसास कराती ही रहती है। सपने देखने की इस स्वाभाविक मानव प्रवृत्ति से मैं भी अछूता नहीं हूँ ;शायद कुछ अटपटा लगे सुनकर लेकिन सच कहूँ तो अक्सर दिन में खुली आँखों में भी सपने देखता हूँ।

जीवन का दूसरा दशक समाप्ति से कुछ ही दिन की दूरी पर है और ज़्यादा बड़े सपने कभी देखे नहीं। लोग इस उम्र मे आई. ए . एस ,पी सी एस बनने के सपने देखते हैं मैंने अभी तक ऐसी की कोई परीक्षा ही नहीं दी। आगरा में बड़ी रिटेल कंपनी मे काउंटर सेल्स की नौकरी से कैरियर शुरू करने के बाद कस्टमर सर्विस पर बैठे साथियों की कार्य शैली ने बहुत आकर्षित किया था । ग्राहकों से मिलना और पब्लिक एड्रेस सिस्टम से स्टोर मे चल रहे ओफर्स का प्रभावशाली बखान ऐसा लगता था जैसे रेडियो पर कोई बोल रहा हो।एक तरह से मैंने लक्ष्य बना लिया था कि एक दिन कस्टमर सर्विस डेस्क पर मैं भी बैठूँगा। आगरा से मेरठ ट्रांसफर हुआ शुरू मे कुछ दिन सेल्स मे रहने के बाद एक दिन आखिरकार किस्मत ने साथ  दिया और अचानक ही 'ओफिशियल पॉलिटिक्स'  के तहत कस्टमर सर्विस की कुर्सी  जो मिली  सो वहाँ से कानपुर आने तक और नौकरी छोडने तक मेरे साथ बनी रही । क्यों और कैसे माइक पर मेरा लाइव परफ़ोर्मेंस ,प्रेजेंटेशन और वॉयस मोड्यूलेशन बॉस लोगों के साथ ही आने वाले कस्टमर्स को भी अच्छा लगने  लगा,मैं कह नहीं सकता।  कानपुर में इसी कस्टमर सर्विस पर बैठे बैठे न जाने किस घड़ी में कुछ कस्टमर्स मुझे एफ एम रेडियो के लिये ट्राई करने को उकसाने लगे। लगभग हर दिन ही कोई न कोई मेरी आवाज़ के बारे में प्रशंसा के शब्द कस्टमर फीडबैक बुक में लिख कर या कह कर जाने लगा और इसके चलते मैं भी आर जे बनने के हसीन सपने मे खोने लगा। प्रशंसा के यह शब्द यहाँ क्लिक कर के फेस बुक पर आप भी देख सकते हैं। कुछ कारणों से कानपुर में ही रिज़ाइन करना पड़ा लेकिन यह सपना साथ रहा और तब तक रहा जब तक अपनी आवाज़ रिकॉर्ड कर के कई जगह भेज नहीं दी। 'बड़े लोगों' ने छोटे की ईमेल का रिप्लाई तक करने की ज़रूरत नहीं समझी और 2-4 मेल के बाद लगा कि शायद लोगों ने फर्जी ही उकसा दिया था।
बहरहाल कुछ सपने,सपने ही रह जाने के लिये होते हैं और आर जे या कहें कि रेडियो अनाउंसर बनने का सपना एक ऐसे मीठे सपने की तरह है जिसे अब मैं खुद भी सपना ही बने रहने देना चाहता हूँ।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (25) !

                    सपने की बात करे  तो फिर सपने अपने अपने  और अलग अलग शब्दों में व्यक्त किये जाते हैं    क्योंकि ये वह चीज है जो निजी होते हैं वह बात और ही की यही सपना किसी और आँखों में पलता हुआ मिल जाय तो उससे कितना  महसूस होता है। कभी कई लोगों के सपनों में झाँका तो लगा की अरे ये ही तो मैंने भी देखा था और दूसरे में भी अपना ही अक्श दिखाई दे जाता है। 

                                  आज अपने सपनों के साथ है -- वाणी शर्मा जी 






कभी किसी नवजात शिशु को देखा है ...गहरी  नींद में भी अंगडाई लेते कितनी बार अधमुंदी पलकों   में ही मुस्कुराता   है , कभी  जोर से हँसता भी है , तो कभी मुंह बिसरा कर रोना भी ... कहते हैं नवजात के  सपने में बेमाता बात करती है बच्चे से , उसके साथ खेलती है , डरती है , गुदगुदाती है . हर आँख में सपना उस बचपन से ही पलने लगता है , जो बड़े होते खुली आँखों के सपने में बदलता है उस सपने को पूरे  करने में हर जीवन की जद्दोजहद होती है . 
जीवन सिर्फ एक सपने पर नहीं रखता , एक पूरा हुआ तो दूसरा , एक पूरा नहीं हुआ तो दूसरा सपना , समय के साथ सपने नए रुख लेते हैं ,नयी मंजिलों की राह पर बढ़ते हैं . उम्र के इस मोड़ पर अब याद भी नहीं की बहुत छुटपन से क्या सपने देखे थे नुशासनप्रिय नाना जी के सानिद्य में कल्याण पत्रिका पढने का शौक जगा , या मजबूरी समझे क्योंकि उनके पास और कोई पत्रिका होती नहीं थी . पत्रिका ने बचपन को आध्यात्मिकता के रंग में रंगा तो सोचा की  सन्यासियों जैसा ही जीवन बेहतर होता है . बचपन की ही सखी  ब्रह्मकुमारी बनने  की प्रक्रिया या प्रशिक्षण  से गुजर रही थी , तिसपर ब्रह्मकुमारियों की सफ़ेद झक पोशाक और मीठी वाणी प्रभावित करती रही . मुजफ्फरपुर प्रवास में एक दिन  ब्रह्मकुमारी आश्रम में रहना पड़ा ,  शांत वातावरण , दीदी और दादी का ममत्व और अपनापन बहुत भाया .सबको भाई बहन मानना और कहने तक तो ठीक था मगर जब जाना कि मनोरंजन के लिए  रेडियो पर फ़िल्मी गाने सुनना , फिल्मे देखना , धर्म से इतर अन्य साहित्य पढने की इज़ाज़त नहीं है , उन्हें सिर्फ धार्मिक पुस्तक पढने या प्रवचन  सुनने होते हैं , उनका ही प्रचार करना होता है , तो ऐसे किसी संन्यास का भूत एक झटके से सर से उतर गया .  
अगला सपना था इंजिनीअरिंग की पढ़ाई करने का , सपना ही रह गया , यही कहना ठीक होगा कि  शायद हमारी योग्यता ही नहीं थी . अविवाहित रहकर समाजसेवी बनना , अनाथ बच्चों , विशेषकर लड़कियों को घर जैसा स्नेह और माहौल उपलब्ध करने के साथ उनकी उचित शिक्षा का प्रबंध करना भी तरुणावस्था में देखा गया एक सपना था .  विवाह हुआ , अपने बच्चे हुए तो आर्थिक निर्भरता या  बच्चों की परवरिश दोनों में से एक को चुनते हुए  शिक्षा पूर्ण कर व्याख्याता बनने का  सपना अपने   घर और दो बच्चों से बढ़कर उनके सपने तक ही सीमित  हो गया . अब तक एकमात्र सपना जो पूर्ण हुआ,  वह था बच्चों की अच्छी परवरिश और उनमे सदगुणों का विकास . 
इस तरह समय के साथ सपने बदलते रहे . बच्चे थोड़े बड़े हुए , कुछ अपने बारे में सोचना शुरू किया, अपने नाम से  जाने जाने का सपना  जगा  तो ब्लॉग पर लिखना प्रारम्भ हुआ , पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ छपने से एक कवियत्री  या  ब्लॉग लेखिका के रूप में यह सपना भी पूरा हुआ . 
आज का  अपना अगला सपना यही है कि अपने  बच्चों की अच्छी शिक्षा , आत्मनिर्भरता और सुरक्षित भविष्य के लक्ष्य के बीच   भी अनाथ या अल्प आय वर्ग की लड़कियों की उच्च  शिक्षा में अपना योगदान , समाज में उपेक्षित वृद्ध /वृद्धों के लिए कुछ  किया जा सके . किस तरह पूरा होता है , समय कहेगा !

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (24)


                              कुछ लोग अपनी शख्सियत को सबसे अलग प्रस्तुत करने में माहिर होते हैं और वही अंदाज उनकी अपनी विशेषता होती है। सपने सभी ने देखे और अपने अपने सपनों के स्वरूप को शब्दों में ही ढाल कर भेजा लेकिन समीर जी ने उसे सबसे अलग कविता रूप देकर प्रस्तुत किया क्योंकि सपने तो सपने हैं और ये सबसे अलग हैं। 



                                    तो फिर अपने सपनों के साथ आये हैं -- समीर लाल 'समीर' 


अधूरे सपने- अधूरी चाहतें!!

मेरे कमरे की खिड़की से दिखता
वो ऊँचा पहाड़
बचपन गुजरा सोचते कि
पहाड़ के उस पार होगा
कैसा एक नया संसार...
होंगे जाने कैसे लोग...
क्या तुमसे होंगे?
क्या मुझसे होंगे?
आज इतने बरसों बाद
पहाड़ के इस पार बैठा
सोचता हूँ उस पार को
जिस पार गुज़रा था मेरा बचपन...
कुछ धुँधले चेहरों की स्मृति लिए
याद करने की कोशिश में कि
कैसे थे वो लोग...
क्या तुमसे थे?
क्या मुझसे थे?
तो फिर आज नया ख्याल उग आता है
जहन में मेरे
दूर
क्षितिज को छूते आसमान को देख...
कि आसमान के उस पार
जहाँ जाना है हमें एक रोज
कैसा होगा वो नया संसार...
होंगे जाने कैसे वहाँ के लोग...
क्या तुमसे होंगे?
क्या मुझसे होंगे?
पहुँच जाऊँगा जब वहाँ...
कौन जाने बता पाऊँगा तब यहाँ..
कुछ ऐसे ही या कि
चलती जायेगी वो तिल्समि
यूँ ही अनन्त तक
अनन्त को चाह लिए!!
बच रहेंगे अधूरे सपने इस जिन्दगी के
जाने कब तक...जाने कहाँ तक...
तभी अपनी एक गज़ल में
एक शेर कहा था मैने

“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”

बुधवार, 31 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (23)

             ये शास्त्री जी का सपना  जो पूरा हुआ उनके द्वारा देखा गया और हम कर रहे हैं अधूरे सपनों की बात , लेकिन शास्त्री जी के भेजे इस पूर्णसपने को हम उतना ही सम्मान  देना चाहते हैं जितना  अपने विषय से जुड़े  संस्मरण को दिया है। इस लिए आप सबसे विषय से इतर जाने के लिए  क्षमा चाहते हुए उनके अनुभव को प्रकाशित  कर रही हूँ . अपने से बड़ों से जो बात सुनकर पता चलता  है और उसके  अन्दर कुछ  बात  होती है। इसमें भी एक सन्देश है -  साहित्यकार  के साहित्य को पढ़कर ही उसके विषय में और उससे मिलने का हमारा मंतव्य पूर्ण  हो सकता हैं .

                             ये सपना बता रहे हैं - रूपचन्द्र  शास्त्री " मयंक " जी

सपने तो व्यक्ति जीवनभर देखता है, कभी खुली आँखों से तो कभी बन्द आँखों से। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मुझे हमेशा यही सपने आते थे कि मुझे किसी साहित्यकार का सानिध्य मिले।
बात उन दिनों की है जब मैं विद्यार्थी था। आर्थिक अभाव तो था लेकिन फिर भी घूमने का बहुत शौक था। मैं मार्गव्यय बचा कर रखता था और बचे हुए पैसों से पुस्तकें जरूर खरीद लेता था।
मुझे शौक चर्राया कि काशीविश्वनाथ के दर्शन किये जायें और मैं बनारस की यात्रा पर निकल गया। बनारस जाकर मैंने काशी विश्वनाथ के दर्शन किये। उन दिनों मैंने नाटककार लक्ष्मीनारायण मिश्र जी के कई नाटक पढ़े थे। मन पर उनका बहुत प्रभाव था। इसलिए मौका था उनसे मिलने का। अतः मैं उनसे मिलने के लिए उनके घर पहुँच गया। साहित्यकार बहुत ही उदारमना होते हैं। वे मुझसे बहुत ही प्रेम से मिले। मिश्र जी के पास उस समय डॉ.सभापति मित्र भी बैठे थे। काफी देर तक बातें होतीं रही। फिर उन्होंने पूछा कि क्या सुनोगे? मैंने तपाक से कहा कि पंडित जी रसराज सुनाइए! बस फिर क्या था पंडित जी माथे पर हाथ रखा और एक से बढ़कर एक प्रकृति का श्रृंगार सुनाया।

पंडित जी से विदा लेते हुए मैंने उनसे कहा- “पंडित जी! मैं साहित्यकारों का सान्निध्य चाहता हूँ।“

पंढित जी ने बहुत ही विनम्रता से कहा-“आप उनका साहित्य पढ़िए और उनसे मिलने पर उन्हे यह बताइए कि उनके अमुक साहित्य से मुझे यह सीख मिली।“

मैंने पंडित जी की बात गाँठ बाँध ली और बहुत से साहित्यकारों से मिला लेकिन जो बात मैंने बाबा नागार्जुन के साहित्य में देखी वो आज तक किसी के वांगमय में नहीं दिखाई दी।

अब उनसे मिलने की इच्छा मन में थी या यह कहें कि मेरा खुली आँखों का सपना था यह।

मेरा यह सपना पूरा हुआ सन् 1989 में। जब साक्षात् बाबा नागार्जुन ने मुझे दर्शन ही नहीं दिये अपितु उनकी सेवा और सान्निध्य का मौका भी मुझे भरपूर मिला और इसके निमित्त बने वाचस्पति जी, जो उस समय राजकीय महाविद्यालय, खटीमा में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे।

मैं बाबा का एक संस्मरण इस आलेख में साझा कर रहा हूँ!
(गोष्ठी में बाबा को सम्मानित करते हुए
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री व जसराम रजनीश)
हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठित कवि बाबा नागार्जुन की अनेकों स्मृतियाँ आज भी मेरे मन में के कोने में दबी हुई हैं। मैं उन खुशकिस्मत लोगों में से हूँ, जिसे बाबा का भरपूर सानिध्य और प्यार मिला। बाबा के ही कारण मेरा परिचय सुप्रसिद्ध कवर-डिजाइनर और चित्रकार श्री हरिपाल त्यागी और साहित्यकार रामकुमार कृषक से हुआ। दरअसल ये दोनों लोग सादतपुर, दिल्ली मे ही रहते हैं। बाबा भी अपने पुत्र के साथ इसी मुहल्ले में रहते थे।
बाबा के खटीमा प्रवास के दौरान खटीमा और सपीपवर्ती क्षेत्र मझोला, टनकपुर आदि स्थानों पर उनके सम्मान में 1989-90 में कई गोष्ठियाँ आयोजित की गयी थी। बाबा के बड़े ही क्रान्तिकारी विचारों के थे और यही उनके स्वभाव में भी सदैव परिलक्षित होता था। किसी भी अवसर पर सही बात को कहने से वे चूकते नही थे।
एक बार की बात है। वाचस्पति शर्मा के निवास पर बाबा से मिलने कई स्थानीय साहित्यकार आये हुए थे। जब 5-7 लोग इकट्ठे हो गये तो कवि गोष्ठी जैसा माहौल बन गया। बाबा के कहने पर सबने अपनी एक-एक रचना सुनाई। बाबा ने बड़ी तन्मयता के साथ सबको सुना।

उन दिनों लोक निर्माण विभाग, खटीमा में तिवारी जी करके एक जे।ई. साहब थे। जो बनारस के रहने वाले थे। सौभाग्य से उनके पिता जी उनके पास आये हुए थे, जो किसी इण्टर कालेज से प्रधानाचार्य के पद से अवकाश-प्राप्त थे। उनका स्वर बहुत अच्छा था। अतः उन्होंने ने भी बाबा को सस्वर अपनी एक कविता सुनाई।

जब बाबा नागार्जुन ने बड़े ध्यान से उनकी कविता सुनी तो तिवारी जी ने पूछ ही लिया- ‘‘बाबा आपको मेरी कविता कैसी लगी।

’’ बाबा ने कहा-‘‘तिवारी जी अब इस रचना को बिना गाये फिर पढ़कर सुनाओ।’’

तिवारी जी ने अपनी रचना पढ़ी। अब बाबा कहाँ चूकने वाले थे। बस डाँटना शुरू कर दिया और कहा- ‘‘तिवारी जी आपकी रचना को स्वर्ग में बैठे आपके अम्माँ-बाबू ठीक करने के लिए आयेंगे क्या? खड़ी बोली की कविता में पूर्वांचल-भोजपुरी के शब्दों की क्या जरूरत है।’’

इसके आद बाबा ने विस्तार से व्याख्या करके अपनी सुप्रसिद्ध रचना-‘‘अमल-धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है।’’ को सुनाया। उस दिन के बाद तिवारी जी इतने शर्मिन्दा हुए कि बाबा को मिलने के लिए ही नही आये।
यह था मेरी खुली आँखों का सपना!
....शेष कभी फिर!

मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (22) !

                          हमारे सपनों के आकर और स्वरूप अलग अलग होता है , संगीता जी उन सब में सबसे अलग दिशा में जाकर अपने सपने देख रही हैं क्योंकि अब तक के सरे लोगों से अलग एक दिशा में उनके कदम बढ़ रहे हैं। उनके सपनों के साथ जुड़ कर हम सभी उनके इसा सपने को साकार होने की कामना करती हूँ  .
                            आज अपने सपने के साथ है -- संगीता पुरी जी।








भाग्यशाली   होते हैं वे लोग जिनके सपने पूरे हो जाते हैं , कुछ तो इतने भाग्‍यशाली होते हैं कि सपनों से अधिक मिल जाता है उन्‍हें। पर यथार्थ में देखा जाए तो 99 प्रतिशत लोगों के सपने लाख कोशिशों के बावजूद दम तोड लेते हैं। जीवन में समझौता करना उनकी मजबूरी होती है, एक रास्‍ते के बंद होते ही दूसरे रास्‍ते की तलाश में जुट जाते हैं। दुनिया की भीड में भले ही वो हंसते खिलखिलाते नजर आ जाएं पर अंदर एक कसक सी बनी रहती है , जीवन के किसी भी मोड पर किसी और के द्वारा भी वो सपनों को पूरा होते देखना चाहते हैं। मैने ब्‍लॉगर परिचय में लिखा है आसमान को छूने के सपने है मेरे , हो भी क्‍यों नहीं , मेरे पास एक ऐसा ज्ञान है जो दुनियाभर में किसी के पास नहीं, वो है किसी के जन्‍म समय के आधार पर उसके संपूर्ण जीवन में समय समय पर आने वाली परिस्थितयों को सटीक ढंग से जान पाना। इससे लाखों परेशान लोगों को उचित सलाह दी जा सकती है। पर अपने देश में प्रतिभा की इतनी कद्र भी नहीं कि बिना सपने देखे ही हमें सबकुछ मिल जाए, इसलिए सपने ही तो देखने होंगे।
होश संभालते ही मैने अपने पापाजी को ज्‍योतिष के ग्रंथों में डूबा पाया , बी एस सी के एस्‍ट्रोनोमी पेपर के ग्रह नक्षत्रों के बाद ज्‍योतिष जैसे विषय को विज्ञान से जोडते हुए , अपने लेखों से भारत भर के विद्वानों के मध्‍य अलग पहचान बनाने में दूसरों का सटीक भविष्‍य बतला देना हमें रोचक लगता। थोडी बडी होने पर ही ज्‍योतिष को सीखने की मेरी भी इच्‍छा हो गयी , पर चूंकि ज्‍योतिष को समाज मे मान्‍यता प्राप्‍त नहीं थी , पापाजी नहीं चाहते थे कि उनकी अगली पीढी भी ज्‍योतिष में आए। पर उनके नौकरी छोडकर गांव में वापस आ जाने के कारण हमें पढाई लिखाई के लिए उचित वातावरण नहीं मिल पा रहा था। गणित और विज्ञान मेरे लिए रोचक विषय थे , पर गांव में पढाई की सुविधा न होने से मजबूरी में अर्थशास्‍त्र की पढाई करनी पडी। मन में प्राध्‍यापिका बनने का सपना देखती रही , पर विवाह के बाद का वातावरण उसके अनुकूल भी नहीं था। मन मारकर घर गृहस्‍थी में ही रमना पडा।

पर तबतक पापाजी ज्‍योतिष के क्षेत्र में काफी आगे निकल चुके थे , उनका रिसर्च इस हद तक पूरा हो गया था कि किसी की जन्‍म तिथि और जन्‍म समय मात्र की जानकारी से उसके पूरे जीवन के उतार चढाव का ग्राफ खींच लेते थे , उसके विभिन्‍न संदर्भों का सुख दुख प्रतिशत में निकाल लेते थे और समय समय पर अन्‍य प्रकार की समययुक्‍त भविष्‍यवाणी भी सटीक तौर पर करने में समर्थ थे। उनके द्वारा अध्‍ययन मनन के साथ ही साथ लेखन का काम भी जारी था , जिससे समाज को एक दिशा दी जा सकती थी। ज्‍योतिष के नाम पर अंधविश्‍वास और भ्रांतियों का खात्‍मा कर इसके वैज्ञानिक स्वरूप को स्‍थापित किया जा सकता था पर न तो पत्र पत्रिकाएं , न प्रकाशक , न अखबार या चैनल उनके लेखों या पुस्‍तकों को छापने या उन्‍हें स्‍थापित करने के लिए तैयार थे। समाज में अंधविश्‍वास फैलाने पर उनको करोडों मिलते हैं , मेरे ज्ञान का प्रचार प्रसार करने पर उन्‍हें क्‍या मिलता ?
पर इस मजबूत आधार को लेकर ज्‍योतिष का पूर्ण विकास किया जा सकता था , इसलिए  मैने अपना जीवन भी इसी को समर्पित करने का निश्‍चय किया। इस तरह अपने जीवन का 25 वर्ष से अधिक मैं भी इसपर समर्पित कर चुकी , जिसके बाद महसूस हो रहा है कि ग्रहों का प्रभाव हमपर पडता है और इस ज्ञान के बिना समाज अंधेरे में ही जी रहा है। जिस तरह सूर्य की चाल के हिसाब से बने घडी और कैलेण्‍डर से हम अपने समय को व्‍यवस्थित कर पाते हैं , उसी प्रकार सभी ग्रहों की चाल को समझकर जीवनभर के समय को विभिन्‍न कार्यक्रमों के मध्‍य समायोजित किया जा सकता है। मेरा सपना एक एक व्‍यक्ति को इस रहस्‍य से परिचित कराने का है कि हमारे जीवन में समय समय पर आने वाले उतार चढाव का रहस्‍य आसमान में विचरण कर रहे ग्रह हैं और उनकी चाल हैं और उन्‍हें देखकर हम अपने भविष्‍य का पूर्वानुमान लगा सकते हैं। ‘गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष’ और पापाजी को विश्‍वभर में पहचान दिलाने और जनसामान्‍य में फैले ज्‍योतिषीय और धार्मिक भ्रांतियों को दूर करने के उद्देश्‍य से मैं पुस्‍तकों के लेखन और सॉफ्टवेयर निर्माण से संबंधित कार्यों में जुटी हुई हूं , कभी मंजिल बिल्‍कुल निकट दिखाई देती है तन मन में आशा का संचार होता है लेकिन कभी कई प्रकार की बाधाएं भी उपस्थित हो जाती है , मन भयभीत हो जाता है , सोंचकर कि ऐसा न हो कि मेरा सपना साकार न हो।

सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (21)

             सपने कुछ अपने कुछ औरों के लिए भी होते हैं कभी हम खुद के लिए कुछ देखते हैं लेकिन कभी हमारे सपने देखते तो हम हैं लेकिन वो होते औरों के लिए हैं। एक परमार्थ का सपना - एक सुन्दर सोच का प्रतीक , हो सकता है कि ये आज न पूरा हुआ हो कल पूरा हो जाए . ये कसक ही तो है जिस सपने को पूरा करने का समय अभी ख़त्म नहीं हुआ है उसको अभी देखते रहना है क्योंकि देखने से ही आगे बढ़ने की प्रेरणा शेष रहती है और क्या पता कि उसकी चाहत में इतनी शिद्दत हो कि वह पूरा होकर किसी और के सपनों को साकार करने में सफल हो जाए। ऐसे ही परमार्थ के लिए सपने देखती हुई अपने सपने साझा कर रही हैं स्वप्न मंजूषा  शैल  "अदा " जी .







यूँ तो मेरे सपने, कामो-बेसी पूरे हो चुके हैं, गाने का बहुत शौक था, पूरा हो गया, टी .वी . में काम करने का शौक तो नहीं था लेकिन वो भी पूरा हुआ, हाँ,  रेडियो अनाउन्सर बनने का शौक था, धूम-धाम से वो भी पूरा हुआ, विदेश आने का मन था, पूरा हुआ, यहाँ कुछ बन जाने का सपना था, पूरा हुआ। दिल था बच्चे ढंग से पढाई कर लें, वो भी हो रहा है।

लेकिन अभी भी कुछ सपने ऐसे हैं जिन्हें पूरा नहीं कर पाने की कसक, महसूस कर जाती हूँ । वो शायद इसलिए कि कुछ सपने अपने इख्तियार से बहार होते हैं। पिछले ढाई महीने भारत में रह कर वापिस आई हूँ कनाडा, तब इन सपनों ने कई बार सिर उठाया है।

कहते हैं, बुढ़ापा अपने आप में एक बिमारी है, लेकिन कुछ वर्षों से इसे देख भी रही हूँ और महसूस भी कर रही हूँ। मेरी माँ की उम्र 78 वर्ष है, उसके हाथ-पाँव धीरे-धीरे साथ देना छोड़ रहे हैं लेकिन, उसके मन में सपनों का ताजमहल अभी भी, उतना ही धवल है जितना शायद उसके यौवन में रहा होगा।

मेरा पहला सपना है कि मैं अपने ईलाके के, अधिक से अधिक बुजुर्गों के सपनों को, पूरा करूँ, बल्कि यहाँ कनाडा, ओटावा में भी मैंने गवर्नमेंट को एक प्रोपोजल दिया है, जितने भी ओल्ड ऐज होम हैं, वहां जितने भी बुजुर्ग हैं, उनके जो भी सपने हैं, और जो उनको पूरा करने की इच्छा रखते हैं और अगर वो हमारे इख्तियार में हैं, तो हम उनको ज़रूर पूरा करने की कोशिश करें। जैसे किसी को गाने का शौक था और नहीं गा पाए तो हम उनकी रेकोर्डिंग करें, किन्हीं बुजुर्ग को अगर मौंटीनियरिंग का सपना था और वो नहीं कर पाए तो हम उसे पूरा करें। किसी को फिल्म में अभिनय करने की इच्छा थी, हम उसे भी पूरा करें। मतलब जो भी हम कर सकते हैं अपने बुजुर्गों के लिए हम ज़रूर करें। पिछले न जाने कितने वर्षों से इसमें लगी हुई हूँ, लेकिन अभी तक कुछ कर नहीं पायी हूँ, कभी अपने काम में उलझ जाती हूँ और कभी विदेशों के दौरे पर, लेकिन अब इस सपने को पूरा करने के लिए कुछ ठोस कदम उठा रही हूँ, शायद बहुत जल्द आप लोगों से कुछ साझा भी कर पाऊं।

एक आम आदमी की ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सपना होता है अपना घर। मेरा दूसरा सपना है, कम आय वाले परिवारों को, कम लागत के मकान बना कर दिलवाना ...सपना छोटा नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है, इसके लिए भी काम कर रही हूँ, शायद यह भी पूरा हो जाए।

और तीसरा सपना है राजनीति में जाना।
हो सकता है राजनीति का नाम सुनकर आप लोगों को लगे कि, लो एक और आ गयी देश को बेच खाने के लिए, लेकिन मेरा मकसद सिर्फ और सिर्फ स्वस्थ राजनीति से है, कहने वाले ये भी कहते हैं, राजनीति में अच्छे लोग ठहर ही नहीं सकते, शायद यह सच भी हो, लेकिन अपना काम है कोशिश करना, बिना कोशिश किये हुए किसी भी चीज़ को असंभव कह देना मुझे नहीं पसंद। हो सकता है बदलाव लाने में सफल न भी होऊं मैं, लेकिन बिना कोशिश किये हुए हार मानना मुझे नहीं मंज़ूर। तो मेरे कदम अब बढ़ेंगे राजनीति की ओर ।

बाकी तो जो होगा वो देखा ही जाएगा। तो ये थी मेरे सपनों की फेहरिस्त। जिनके पूरे नहीं होने की कसक ज़रूर उठती है, लेकिन उम्मीद और विश्वास क मरहम इस कसक से कहीं ज्यादा कारगर है। अभी मैंने अपनी जान नहीं लगाई है इन सपनों को पूरा करने में इसलिए, इनके पूरे होने की सम्भावना भी उस नन्ही सी कसक से बहुत बड़ी है। 
मुझे आपलोगों की शुभकामनायें चाहिए। क्यूंकि अगर वो मिल जाए तो फिर इस कसक की कसक तो हम निकाल ही देंगे।
हाँ नहीं तो ...!
धन्यवाद।


शनिवार, 27 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (20)

                                कहाँ से चले थे और कहाँ पहुँच ?गए  ? सपने समेटे और फिर एक एक करके सबको प्रस्तुत किया . सपने देखना बुरा नहीं होता और फिर अगर वे अधूरे रह भी जाते हैं तो फिर उनकी कोई नयी राह निकल कर सामने आ जाती है। विकल्प पाकर भी हम बहुत खुश रह लेते हैं। हमारे वे देखे हुए सपने सिर्फ अपने स्वार्थ से जुड़े नहीं होते हैं बल्कि उनमें होता है कुछ औरों के लिए भी - और यही हमारी संवेदनशीलता का मापदंड . सिर्फ अपने लिए , अपने स्वार्थ के लिए या फिर अपने सुख के लिए सपने देखे तो क्या ? सपने तो वे ही सार्थक हैं जो हमारे मानव होने के अर्थ को पूरा न कर सकें तो फिर कुछ अंश तक तो हमारे इस मनुष्यत्व को पूर्ण करने के लिए। 

                           आज अपने सपने के साथ है फुरसतिया जी - इतनी देर से इसलिए की ये नाम से ही फुरसतिया है लेकिन फुरसत इन्हें कम ही मिलती है।   तो आज हमारे सामने हैं -- अनूप शुकला जी।



                 हमको जब से अधूरे सपने को बयान करने के लिए कहा गया तब से हम खोज रहे हैं कि  कोई सपना दिख जाए तो पकड़ कर उसको बयान  कर दें . लेकिन अभी तक कोई सपना मिला नहीं . परेशान  हैं, लगता है कि हम सपना देखने वालों की जमात के है नहीं। ऐसा कोई सपना याद नहीं आता , जिसके पूरे न होने की कसक मन में हो।  इस लिए इस आयोजन से हमारी रिपोर्ट निल मानी जाय .

                      वैसे जब सपनों की बात चलती है तो मुझे रमानाथ अवस्थी की ये पंक्तियाँ याद  आती हैं  --

                    रात कहने लगी सो जाओ, देखो कोई सपना
                     जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना .

         इस परिभाषा के  हिसाब से हमने  सपने कभी नहीं देखे जो हमको रुलाते और तड़पाते  हों . हम भरपूर नींद लेने वाले रहे हमेशा . अपनी क्षमता के हिसाब से हमें वह सब कुछ मिला जिसके हम हकदार हो सकते  थे। समाज हमारे प्रति बहुत मेहरबान रहा .
             बचपन से आज तक कई  चीजें समय समय पर आकर्षित करती रहीं . वे या तो मिल गयीं या फिर समय के साथ उनको पाने का आकर्षण समाप्त हो गया। हम वैसे भी बड़े सपने देखने वाली पार्टी के आदमी नहीं है। अल्पसंतोषी है , शायद अपनी औकात जानते हैं इसलिए कसकन से बचने के लिए बड़ा सपना देखते ही नहीं है। ऐसी सवारी को लिफ्ट ही नहीं देते जो आगे चल कर कष्ट का कारण बने .
             व्यक्तिगत जीवन में -  नौकरी बजाते हुए अपने घर परिवार, इष्ट मित्रों  से संतुष्ट होने के चलते आराम से जिए जा रहे हैं . कोई ऐसी इच्छा नहीं जिसके पूरा करने के लिए मन में बेचैनी हो। कोई सपन कसकन नहीं . लेकिन कुछ  इच्छाएं जिन्हें  पूरा करने का मन करता है।

             जब से पढना लिखना सीखा तब से यही इच्छा रही कि दुनियां भर का उत्कृष्ट लेखन पढ़ सकूं। मुझे लगता है कि  ये इच्छा हमेशा बनी रहेगी . लेकिन इसमें उतनी कसकन नहीं है , यह सिर्फ एक इच्छा है, जो कभी पूरी भी नहीं हो सकेगी , बस इतना है कि  इसको आंशिक रूप से पूरा कर पाएंगे .

             दूसरा अपन का देश - दुनियां देखने का मन है। देश भी अभी पूरा घूमा नहीं है . दुनियां की अभी शुरू ही नहीं की। लगता है ये इच्छा अधूरी ही रह जायेगी . लेकिन मन में एक बात यह भी है कि किसी दिन अचानक निकल पड़ेंगे और घूम डालेंगे दुनियां। पर ऐसा होता नहीं है जी।

             कभी कभी लगता है की हमें दुनियां ने बहुत कुछ दिया . जितना मिला है और जितनी क्षमताएं हैं उस हिसाब से महसूस होता है कि उसको वापस करने में कोताही बरती जा रही है .  तमाम किस्तें बकाया है . कहीं से कोई नोटिस न आये तो इसका मतलब ये तो नहीं कि उधार चुक गया . यहाँ भी कसकन वाला भाव नहीं है। लगता है कि  हम अकेले डिफाल्टर थोड़े ही हैं। उधार  भी चुक जाएगा , कौन कहीं भागे जा रहे हैं?

               महीने भर से आपको अपना सपना बयां करने का काम उधर बाकी  था। रोज सोचते  थे कि  आज करेंगे कल करेंगे। आपके तकादे से सपन - उधार कसकने भी लगा था। लेकिन आज ये कसकन भी ख़त्म हो गयी।


                             







शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (19)

           सबके सपनों को प्रस्तुत करते करते आज अपने सपने को भी बांटने  का मन हो गया और फिर बस मैंने सोचा कि  अपना वह सपना भी सबके साथ बाँट लूं। बस  एक सपना देखा था और उसके बाद से आज के जीवन में तो जो है वह आज है - कल के बारे में  की जरूरत नहीं समझती क्योंकि न जाने कौन सा पल मौत की अमानत हो?  इस लिए जो करना है आज ही कर लें और करते रहें . चाहे किसी  को प्यार देने का काम हो, किसी को टूटने से बचाने का काम जो या फिर किसी के रोते हुए चेहरे  पर मुस्कान लाने  का काम . आज मैं खुद हूँ  आप लोगों के सामने .





       शायद ही कोई होगा जिसने बचपन से लेकर अब तक अपने भविष्य के प्रति कोई सपने न देखे हों या फिर कुछ बनने और करने  न  सोची  हो। मैं इससे अलग तो नहीं थी और इसी के चलते मैंने भी एक सपना   देखा था . चूंकि संवेदनशीलता तो मनुष्य में  होती है सो सबके  प्रति सहानुभूति और दया के भाव ने कुछ बनाने का सपना मन में  दिया था। 

                     ये सपना,  अपनी आँखों  से देखे कुछ औरतों के साथ हुए अन्याय से, पैदा हुआ था . मैं वकील बनकर औरतों के  लिए मुफ्त मुकद्दमा लड़ कर न्याय दिलाने का सपना लिए थी। मेरी तार्किक शक्ति , पढ़कर बटोर हुआ अनुभव  मेरे सपने के बड़े संबल थे। लेकिन मेरी सीमायें इस रास्ते में आकर उसके चूर चूर होने की कारण  बनी . मेरे पापा  मेरी पढाई के समर्थक थे और  मेरा वादा था कि  अगर मैं कभी  फेल  हुई तो पढाई छोड़  दूँगी लेकिन अपने सीमित साधनों से मैं जब दो विषय में एम ए कर चुकी तो पापा ने कहा कि  बी एड कर लूं, लेकिन मुझे  बी एड से चिढ  थी क्योंकि मैं सिर्फ और सिर्फ वकालत पढ़ कर वकील या फिर जज बनना चाहती थी। पापा ने कहा कि अगर उरई में एल एल बी आ जाएगी तो मैं  करवा दूंगा लेकिन  बाहर जाकर पढने के लिए न साधन थे और न ही  विचार . बस फिर शादी होकर कानपूर आ गयी . जिससे चिढती थी उसी  बी एड करने के लिए    में कहा गया क्योंकि मेरी जेठानी कई साल से फॉर्म  रही थी और मेरिट कम होने के कारण  नहीं हो पा  रहा था . इस बार मुझसे भी फॉर्म भरने के लिए कहा गया और मैंने सोचा  भर देते हैं  और मेरिट के हिसाब  से तुरंत एडमिशन भी मिल गया और उसके तुरंत बाद एम् एड में .   संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियों में भी मैंने अपनी इच्छा अपने पतिदेव से जाहिर की तो वह तैयार हो गए लेकिन तब ये था कि एल एल बी के क्लास शाम को  लगते थे। जो मेरे लिए संभव  न था क्योंकि संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियों में कर कुछ भी लू लेकिन अपने को अतिरिक्त परिश्रम के बाद ही संभव था।
                        वह सपना बिखरा तो उसके विकल्प  को मैं अपनाने के लिए खुद को तैयार करने में सफल  हो गयी और मैं काउंसलिंग के काम में लग गयी . ये मेरे लिए व्यवसाय  नहीं है  बल्कि मेरे मन को एक संतुष्टि देने वाला   काम है। अब इससे खुश हूँ लेकिन वह कसक  आज भी मन में कभी उठ  जाती है।

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (18)

                     सपने देखे जाते हैं और ये सपने कभी तो साकार होते हैं और कभी टूट कर बिखर जाते हैं। इन बिखरे हुए सपनों के टुकडे अपने अस्तित्व को यूँ ही नहीं जाने देते हैं और कभी कभी इन टुकड़ों से एक नयी उर्जा मिलाती है और फिर नए सिरे से अपने सपनों को आकर देने की प्रेरणा मिलाती है। हाँ हो सकता है की उसका स्वरूप कुछ बदला हुआ हो लेकिन इससे मिलने वाला जज्बा अद्भुत होता है। ऐसे जज्बे से अपने सफर पर आगे बढ़ने का नाम है अरुण चन्द्र राय !






मैं बचपन से ही दिन में सपने देखा करता था. कई सपने देखे और अधिकांश टूटे ही. अब किनकी किनकी कसक रखता. सो बस सपने देखने शुरू किये. जो टूट गए उन्हें पीछे छोड़ दिया और नए सपने को लेकर आगे चल दिया. अपने सपनो की यही कहानी है. जब रेखा जी ने बार बार  आग्रह किया तो वे सब टूटे सपने सामने आने लगे... लेकिन किसी कसक के साथ नहीं बल्कि नए सपने बनकर. 

मेरी पढाई एक स्कूल में नहीं हुई. टूट टूट कर हुई. पहली से तीसरी तक नौनिहाल में. चौथी से छटी तक अपने पैत्रिक गाँव में. छटी से आठवी तक फिर नौनिहाल में. आठवी के बाद धनबाद में. धनबाद में मजदूरों की बस्ती में रहा करता था. बढ़िया स्कूल तक नहीं थे तो पुस्तकालय कहाँ से होती. अखबार तीसरे दिन पहुचता था. पुस्तकालय पर केवल लेख पढ़ा था. लेख लिखता था. पुस्तकालय नहीं देखा था. मन हुआ कि एक पुस्तकालय शुरू किया जाय. अपनी पुरानी किताबों को लेकर एक पुस्तकालय शुरू किया जिसका नाम रखा था - स्टूडेंट्स लाइब्रेरी. अपने और दुसरे मोहल्ले में जाकर लोगों से किताबें मांग मांग पर लाया करता था. हमारी कालोनी के सड़क के दूसरी और आफिसर के घर थे. वह सड़क लक्षमण रेखा थी हमारे लिए. छोटी कालोनी के बच्चों के लिए. लेकिन मैं वो लक्ष्मण रेखा तोड़ के उस तरफ गया किताबें मांगने. १९८९ में यह सिलसिला शुरू हुआ था और १९९२ में हमारे पुस्तकालय में लगभग ५००० किताबें थी. 
उसी आफिसर के कालोनी में मुझे मिले थे मेरी कविताओं के पहले पाठक और गुरु भी. श्री एस पी साहू . वे भारत कोकिंग कोल लिमिटेड के मुख्यालय में हिंदी अधिकारी थे. उन्होंने मुझे कई और श्रोत दिए किताबों के और लगभग एक हज़ार किताबें उनके श्रोत से मिली थी. १९९६ में मेरा ग्रैजुएशन अंग्रेजी साहित्य में पूरा हुआ और मुझे एम् ए के लिए धनबाद छोड़ना था. मैंने अपने कुछ नजदीकी मित्रों को पुस्तकालय को संचालित करने का जिम्मा सौपा लेकिन वे निभा नहीं पाए. और धीरे धीरे पुस्तकालय बंद हो गया. 

धनबाद के एक लेबर कालोनी जो कि एक समय एशिया की सबसे बड़ी लेबर कालोनी थी, भूली में उस समय २०  हज़ार की आबादी वाले कालोनी में यह एक मात्र पुस्तकालय था और सैकड़ो छात्र इस से लाभान्वित हुए थे. कम से कम सौ छात्र इस पुस्तकालय का लाभ उठा एस एस सी की परीक्षाएं पास की हैं. बड़ी बात यह थी कि यह पुस्तकालय निःशुल्क था. इस पुस्तकालय का एक सदस्य छात्र चंद्रशेखर सिंह आज एम्स, दिल्ली में आँखों का डाक्टर है, एक छात्र धनञ्जय बी एच यु से बी टेक करने के बाद पी डब्लू डी, बिहार में सिविल इंजिनियर है. एक और छात्र इन दिनों एन च पी सी में फाइनांस एक्ज्यूकेटिव है. एक छात्र प्रेम, हल्दीराम रिटेल में बड़े पद पर है. कई बच्चे रेलवे में टी टी, स्टेशन मास्टर आदि हैं, कुछ एल डी सी, यु डी सी आदि हैं.  पढने का एक नया ज़ज्बा इस पुस्तकालय से शुरू हुआ था. 

अपनी कैरियर को प्राथमिकता देने के कारण मैं पुस्तकालय को आगे नहीं ले जा सका इसका मुझे अफ़सोस होने के साथ साथ, यही अफ़सोस आज उर्जा भी बन गया है. पुस्तकों के लगाव के कारण ही  ज्योतिपर्व प्रकाशन शुरू किया हूँ .  ख्याति प्राप्त कथाकार राजेंद्र यादव ने हमारे प्रकाशन के एक लोकार्पण कार्यक्रम में कहा कि हिंदी प्रकाशकों को नए पाठको तक पहुचना चाहिए, तो मेरा वह स्वप्न फिर से जीवित हो उठा है और मैं जनवरी २०१३ में अपने पैत्रिक गाँव रामपुर, मधुबनी, बिहार में एक पुस्तकालय शुरू कर रहा हूँ और ऐसे कम से कम सौ पुस्तकालय अपने जीवन में खोलने का सपना पाल रहा हूँ .

बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (17)

                   रवीन्द्र  जी का सपना हमारे विषय से थोडा सा इतर है क्योंकि इस समय ये सपना  उनके पिता का था और उन्होंने देखा था फिर किस रूप में पूरा हो रहा है? ये प्रसंग मुझे बहुत ही अच्छा लगा इस लिए इसको मैंने प्रस्तुत करने का फैसला लिया है . हमारे बुजुर्ग भी अपने सपनों को कैसे अपने बच्चों के बाद फिर पोते और पोतियों में खोजने लगते हैं। एक ख़ुशी जो उन्हें उर्वशी के निर्णय से मिली होगी .

                         आज का संस्मरण है रवीन्द्र प्रभात जी का 



पिता जी का वह सपना........

"अंजाने में -
फिर भी अंजान नहीं, दबे पाँव आहट
मन-मस्तिस्क को रौंदती आगे बढ़ी
घोर निद्रा,फिर अधजगे में
वह सपना
मन में उठे आवेग को
शायद सुलाने का प्रयत्न किया
उसकी ही याद में -
फिर एकबार तंद्रा भंग हुयी
और भूल गया, कि मैं कौन हूँ ?"

यह मेरे जीवन की पहली कविता है , जिसे कभी प्रकाशन के लिए नहीं भेजा । बस बालपन का एहसास समझकर  डायरी के पन्नों में सजा दिया था । बहुत बाद में जब मेरा पहला संग्रह हमसफर आया तो इस कविता को प्रसंगवश प्रस्तुत कर दिया । 

तरुणा अवस्था के ऐसे सपने जब युवा अवस्था में करवट लेने लगते हैं तो व्यक्ति कुछ बनने का सपना सँजोता है , क्योंकि सपने हमारी मानसिक स्थिति  का प्रतिविम्ब होते हैं । एक सैनिक हमेशा विजय के सपने देखना चाहता है और एक व्यापारी हमेशा मुनाफे का । लेकिन ना तो हमेशा विजय मिलती है और न हमेशा मुनाफा होता है । सपनों की दुनिया में उठते-बैठते व्यक्ति को परिस्थितियों का अंदेशा होता चला जाता है । सपने है तो दुनिया है दुनिया है तो सपने है  ।

बात उन दिनों की है जब मेरे पिताजी की पहली शादी हुयी थी और दो वर्ष के भीतर ही उनकी पहली  पत्नी चल बसी । काफी प्रयासों के बाद भी उन्होने अपनी कैंसर से पीड़ित पत्नी को नहीं बचा सके । मेरे पिता जी की पहली पत्नी से कोई संतान न था इसलिए परिवारवालों के काफी मान मनौवल के पाश्चात उन्होने दूसरी शादी करने का फैसला किया और उस समय कडवे-मीठे अनुभवों के आधार पर उन्होने यह संकल्प लिया कि मैं अपने किसी बच्चे को डाक्टर जरूर बनाऊँगा । मुझसे बड़ी मेरी बहन थी जिसे डाक्टर बनाने में कोई दिलचस्पी न थी और मुझे भी नहीं । पर वे इस विषय पर काफी सख्त थे कि मुझे डाक्टर बनना ही चाहिए । हाई स्कूल के बाद उन्होने जबर्दस्ती मुझे बायोलॉजी विषय के साथ इंटर में दाखिला दिलवाया और मैं एक महीने बाद ही अपना विषय परिवर्तित कर लिया था । इस बात को जानने के बाद मेरे पिता जी मुझसे काफी दिनों तक नाराज रहे । मगर उन्होने कभी भी किसी को भी एहसास नहीं कराया कि वे क्यों अपने बच्चे को डाक्टर के रूप में देखना चाहते हैं ।
समय के साथ परिस्थितियाँ बदलती गयी और मेरे सभी भाई-बहनों ने डाक्टर बनने से तौबा कर लिया था । फिर भी पिताजी ने कभी किसी के  ऊपर दबाब नहीं डाला कैरियर के चुनाव में ।  बात आई-गयी हो गयी मगर उनका यह अधूरा सपना मस्तिस्क में करबट लेता रहा पर कभी जाहीर न होने दिया उन्होने ।

मेरी शादी हुयी, बच्चे हुये । मेरे तीन बच्चों में सबसे छोटी बिटिया उर्वशी अपने दादा से भावनात्मक रूप से काफी जुड़ी रही बचपन में । खेल-खेल में ही उसने एक बार अपने दादा से कहा कि मैं बड़ी होकर डाक्टर बनूँगी । फिर क्या था उनकी आँखों में चमक बढ़ गयी और वे अपने अधूरे सपने को पूरा करने के लिए कोई कसर बाकी न रखा । पहले, दूसरे, तीसरे कलास या फिर आगे जब भी वह अच्छे अंकों से पास करती मेरे पिता जी उसे  यह बताना नहीं भूलते कि आखिर उसका उद्देश्य क्या है । वे हमेशा उसे डाक्टर बिटिया कहकर पुकारते और उसका हौसला बढ़ते रहे । एक दिन वह समय आ ही गया जब उसने इंटर की पढ़ाई पूरी की मगर सी पी एम टी की परीक्षा में वह इतना अंक नहीं ला सकी जिससे उसे सरकारी कालेज मिल सके । मैं प्राईवेट कालेज में डोनेशन देकर पढ़ाने के पक्ष में नहीं था ।

फिर एक दिन मेरी बिटिया ने मुझसे कहा कि पापा मैं विदेश चली जाती हूँ  इंडिया के प्राईवेट कालेज से कम खर्च आयेगा मगर मैं और मेरी श्री मातीजी उसे विदेश भेजने के पक्ष में नहीं था । फिर एक दिन यह बात मेरे पिताजी के कानों तक पहुँचने में बिटिया उर्वशी सफल हो गयी । यह सुनते ही उन्होने पूरे घर को सिर पे उठा लिया, क्यों नहीं जाएगी ? क्या दिक्कत है ? लड़कियां चंद पर जाने लगी है , यह तो मात्र 9 घंटे का सफर है ।  काफी नोंक झोंक के बाद जब मैंने उनसे पूछा कि आप क्यों उसे विदेश भेजने का मेरे ऊपर दबाब बना रहे हैं तो यह सुनकर उनकी आँखों से आँसू छलकने लगे और उन्होने कहा कि तुम नहीं समझोगे ...जमाना हो गया मुझे एक सपना देखे हुये ....कम से कम जीवन के आखरी समय में तो पूरा हो जाने दो ....!

काफी उकसाने पर भरे गले से जब उन्होने इस सपने की पूरी दास्तान सुनाई तो मैं उन्हें देखता ही रह गया । इतना भावुक हो गया कि फिर मना नहीं कर पाया  और उर्वशी को एम बी बी एस की पढ़ाई के लिए यूक्रेन भेजने का फैसला कर लिया । मेरे पिता जी काफी खुश हैं अपने सपने को पूरा होते देखकर और आश्वस्त भी हैं कि "उसकी पढ़ाई पूरी होने से पहले मैं नहीं मरने वाला ।" 

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (16)

               ये सपने  भी कितने सीमित होते हैं क्योंकि एक लड़की को अपने सपने को हम सब के साथ मिलकर ही देखने पड़ते  हैं और  सपनों को  पूरा करने  के लिए भी  समझौते करने पड़ते हैं . वह उस में भी खुश है  - फिर  भी उसे  न जाने क्यों अधूरे होने के दंश से गुजरना पड़ता है . क्या सिर्फ इस लिए की वह नारी के सपने हैं - हाँ यहाँ नारी के देखे सपने और पुरुषों के देखे सपने में अंतर होता है और उस अंतर से ही पता चलता है की अभी भी ये खाई दोनों के बीच पाई जाती है। 

                        आज अपने सपने के साथ है पल्लवी सक्सेना .





                          
               जैसा कि  सभी ने लिखा है कि  हर इंसान सपना देखता है . सपने के बिना जीवन संभव ही नहीं है। इसी तरह से मैंने भी कई सपने देखे और आज भी देखती हूँ . मगर आज सोचती हूँ तो ऐसा लगता है कि  शायद अब मेरी जिन्दगी में कोई ऐसा सपना रहा ही नहीं जिसके पूरे होने की कोई आस बची हो अर्थात जो सपने है वो यदि पूरे हो गये तो ठीक, न भी हुए तो अब उतना मलाल नहीं होता।  मेरी मम्मी बताती है कि  जब मैं बहुत छोटी थी तब तक एक  पुलिस अफसर से  बहुत प्रभावित थी जो कि  एक महिला थी जिनका नाम था आशा गोपाल ( वैसे मैं एक बात  बताती चलूं कि  आशा गोपाल का नाम मैंने भी बहुत पढ़ा था और तो और उस जगह के अपराधी उनसे थर थर कांपते थे। )  जो एस पी के पद पर थीं। मगर उन दिनों मुझे उनके पद से क्या वास्ता मुझे तो उनका पहनावा बहुत आकर्षित करता था , जिसे देखा कर मैं हमेशा यही कहा करती थी कि  मुझे इन जैसा ही बनना  है। फिर धीरे धीरे बड़े होने के साथ मैं उन्हें भूल गयी और आम बच्चों की तरह अपने स्कूल की अपनी अध्यापिकाओं को देख कर मन में अध्यापक बनने का सपना जन्म लेने लगा। 
                         फिर और बड़ी हुई तो नाट्य का चस्का लगा क्योंकि मेरी माँ  को शास्त्रीय नृत्य का बहुत शौक था , मगर मेरे पिता को पसंद न होने के कारण  उन्हें अपना यह शौक मारना  पड़ा था और वह अपना यह सपना  मेरे अन्दर तलाशना  चाहती थी। तो मैंने भरतनाट्यम सीखा। वैसे मेरी इच्छा कत्थक सीखने की ज्यादा थी किन्तु उन दिनों घर के आस पास उसकी क्लास नहीं मिली और घर से दूर जाने की अनुमति थी नहीं। इसी लिए मैंने भरतनाट्यम को चुना लेकिन वक्त को शायद यह भी मन्जूर  नहीं था इसी लिए एक वर्ष बहुत अधिक बीमार पड़ी जिससे मेरा यह कोर्स अधूरा रह गया . मगर मेरी नृत्य में रूचि कम नहीं हुई , जिसके चलते लोक संगीत और फिल्मी गीतों ने मुझे बहुत प्रभावित किया , इतना कि  लोक नृत्य सिखाने के लिए क्लास घर पर ही खुल गयीं और दुर्गा पूजा और गणेश उत्सव जैसे कार्यक्रमों  में हिस्सा लेने  के लिए मोहल्ले के बच्चे मेरे पास आने लगे फिर धीरे धीरे कॉलेज की लड़कियाँ भी और इंतना ही नहीं कुछ महिलायें भी।  तब मुझे ऐसा लगाने लगा कि  बस इसी को अपना मुकाम बनाना है। इन सब में मेरे आस पास वालों ने मुझे बहुत प्रोत्साहित  किया .
                       फिर मैंने  दिल्ली में न्यूज रीडिंग का डिप्लोमा भी किया . कई चैनलों के आफिस में चक्कर काटे लेकिन वहां भी नया होने के कारण  कोई काम नहीं बना क्योंकि हर क्षेत्र में लोगों को सबसे पहले अनुभवी लोगों की तलाश होती है। नए लोगों के साथ काम करने का साहस बहुत कम लोग कर पाते  हैं, सो वहां भी बात न बन सकी फिर वही ढाक  के तीन पात पर जिन्दगी का क्रम चलने लगा और आज भी चल रहा है। मगर अंत मैं इतना ही कह सकती हूँ नृत्य से मेरी आत्मा जुडी है और आज भी नृत्य सीखने और सिखाने के लिए उतनी ही उत्सुक हूँ, जितनी  अपने कालेज के दिनों में रहा करती थी क्योंकि छोटे छोटे बच्चों से मुझे हमेशा  बहुत लगाव रहा है, उनसे घिरे रहना मुझे हमेशा से पसंद रहा है खासतौर पर नृत्य को लेकर क्योंकि उनको नृत्य सिखाने का मेरा अपने आप में एक बहुत अद्भुत अनुभव रहा  है।

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों के कसक (15)

      आज  अगर सोचते हैं कि  कल हमने क्या सोचा था ? क्या चाहां था? और क्या कर पाए? सब के पीछे एक बात आकर खड़ी  हो जाती है कि  ये हकीकत है कि  लड़कियों को सपने देखने का हक तो होता है  उनके पूरा होने या पूरा करने में अपने घर  वालों की सहमति  की जरूरत होती है और वह सहमति  अगर उनके अनुसार अनुकूल लगती हैं तब तो हम पूरा कर पाते  हैं नहीं तो वह रास्ता अपनाना पड़ता है जो सुगम हो। वह सपने बस एक लड़की के बेचारगी का शिकार हो जाते हैं। इसमें दोष घर वालों का नहीं होता है बल्कि उस माहौल का होता है जिसमें वे रहते हैं  और एक सामाजिक प्राणी का तमगा लगाये बेबस दिखाई देते हैं। फिर नए माहौल में अनुकूल माहौल मिलेगा ही ये नहीं जानते लेकिन अगर मिल भी गया तो शर्तों के साथ - मुझे तो नहीं दिखलाई दिया की नए माहौल में अगर कोई लड़की अपनी इच्छानुसार अपने सपनों को बिना रोक टोक के पूरा कर पाई हो। लेकिन इससे भी कोई शिकायत नहीं करती है - वह उसमें भी खुश और दूसरों की ख़ुशी में अपने सपनों को दफन कर खुश रहती है। यही तो उसका वह रूप है जो नमनीय है। 
            
   
                      आज अपने सपनों के साथ आयीं है रजनी नय्यर मल्होत्रा 



अधूरे सपनों की कसक  ------------  दिल में कसक  उसी  बात की रह जाती है जो पूरी नहीं हो पाती ,या जिसे आपने अपने पलकों पर पाले और किसी कारणवश वो आपके पलकों से आंसुओं की तरह ढलक जाते हैं या ढलका दिए जाते हैं |बचपन से ही अपने नाम के आगे डॉ लगाने की इच्छा थी |  मैं क्लास 5 -6  सेही खेल-खेल में सदा डॉ बनती थी, और मेरे जन्मभूमि का  जहाँ गाँव   है एक सरकारी नर्स  मेरे पैतृक मकान में  भाड़े में रहती थी  उन्हें देख -  देख कर मरीजों को सुई लगाना हलकी बीमारी की दवाएं देना मैंने सीख लिया | और दसवीं आते -  आते मेरे अन्दर का डॉ. कब जाग गया पता ही नहीं चल पाया | जब मेरी ही लापरवाही से मेरी छोटी बहन को चोट लगी , और मैंने बिना किसी को बताये उसे कुछ दवाएं  लाकर दी और मम्मी पापा ने  जब किसी डॉ को बताया और सारी दवाएँ सही निकलीं  तब मेरा डॉ बनने का जूनून उड़ान भरने लगा ,पर होनी कुछ और थी , मुझे दसवीं के बाद उस जगह से दूर विज्ञान  के कॉलेज में
दाखिला के लिए पापा ने मना कर दिया | ये कह कर की  दूर नहीं जाना है पढने| जो है यहाँ उसी को पढो , और पापा ने मेरी पढ़ाई कला से करने को अपना फैसला सुना दिया | मैं  कुछ दिल तक कॉलेज नहीं गयी | खाना छोड़ा और रोती रही , पर धीरे -धीरे मुझे स्वीकार करना पड़ा उसी सच्चाई को |  


           एक दिन सरस्वती पूजा को मेरी  कुछ अपने पुराने दोस्तों से मुलाक़ात हुई , उनसे सुना वो सब बाहर पढ़ रहीं साइंस कॉलेज में , मैं रुयांसे होकर घर आई , अब पापा ने मेरा उन सबसे  मिलना बंद करवा दिया ये कह कर की वो लोग मेरा ब्रेन वाश कर रहीं | मैंने बेमन से आर्ट्स में 12  वी पूरी की फिर आगे अर्थशास्त्र से बी. ए .    करने का इरादा किया |मेरा विवाह पढ़ाई के दौरान ही मम्मी पापा ने तय कर दिया जबकि जानते थे बेटी मेरी मेधावी है मैंने बचपन से ही पढ़ाई या अन्य क्षेत्रों  में सदा पहले दर्जे की सफलता हासिल की ,जिसका मेरे माता पिता को सदा गर्व हुआ | पर इस बार मम्मी का जवाब था अब आगे नहीं पढ़ा सकती क्योंकि मैं  तीन बहनों में सबसे बड़ी थी , और उन्हें मेरी पढ़ाई और करियर से बड़ी जिम्मेवारी मेरी विवाह की थी , मेरे मेधावी होते हुए भी उन्होंने मेरे सपनों के विषय में एक बार भी नही सोंचा, और मैं  व्याह कर अपने ससुराल आ गयी |
           पर कहते हैं न , कोई भी चीज़ सिद्दत से चाहो तो  ऊपरवाला  साथ देता है | मैंने अपने पति से पहले ही दिन कहा  कि मेरी आगे पढ़ने की इच्छा है , क्या   वो मुझे आगे पढ़ाएंगे ? औरउन्होंने इस शर्त पर मुझे सहमती दी की मैं संयुक्त परिवार में हूँ सारी जिम्मेवारी निभाते हुए यदि कर सकती हूँ तभी , अन्यथा परिवार में किसी भी तरह की कमी या उतार चढाव  मेरा पढ़ाई का रास्ता बंद कर देगी |  मैं पारिवारिक जिम्मेवारी निभाते हुए धीरे- धीरे आर्ट्स से  बी.ए. किया, फिर बी. एड.    एम्. ए. की    और कंप्यूटर साइंस में बी.सी. ए. की   साइंस तो मिली पर डॉ नहीं बन पाई |  अब  बेटी को डॉ बनाने का सपना  पाले हूँ ,सभी जानते हैं घर में , और बेटी को भी कहा है , मेरे सपने तो  अधूरे  रह गए पर अब  इसे तुम्हे पूरी करनी  है | मम्मी - पापा का आज भी एक ही जवाब  है तुम्हें डॉ नहीं शायर बनना था , जब डॉ बन जाती तो शायर नहीं बन पाती | जब भी मिलती हूँ मम्मी पापा से बस एक यही मलाल रहता है , उन्होंने साथ दिया होता तो शायद आज मैं ........... .  मेरी शायरी उसी कमी को कह रही |  "जब उड़ने   की तमन्ना  थी ,
 आसमान     नहीं      मिला ,
 पंख   फैलाये        खड़े    थे ,
 आसमान    की    चाह    में,
 आज    आसमान    तो    है ,
 पर पंख    नहीं   क़तर  गए "    

रविवार, 21 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (14) !

                           सपने और वह एक लड़की के सपने हाँ ये तो सच है कि  सपने लड़की होने तक ही देखे जाते हैं,  उसके बाद तो वह किसी दूसरे रूप में आते ही अपने सपनों को अपने परिवार और घर संसार के आगे न्योछावर  कर देती है। शायद उसे ख़ुशी भी उसी में मिलती है।  वे सपने कभी उसने लड़की होने पर देखे थे , ऐसे बीच बीच में आकर उदास कर जाते हैं और बीच बीच में कभी  क्षण भर  के लिए लगता है कि काश !.............

                            आज अपने सपने से रूबरू करवा रही हैं --  नीलिमा शर्मा जी 



हसरते तो हसरते हैं हसरतो का क्या ?
सपने जीवन के आधार होते हैं | हर उम्र सपने देखती हैं |छोटा सा बच्चा सपना देखता है की मेरे पास ढेर सारे खिलौने हों ..... किशोर उम्र में ,समवयस से दोस्ती के सपने | जवानी में अच्छी जिन्दगी के सपने ........ प्रौढ़ उम्र में बच्चों की जिन्दगी के सपने | अंतिम पहर में ईश्वर प्राप्ति के सपने ........
... कुछ सपने ऐसे होते हैं जिनका यथार्थ  से कुछ लेना-देना नही होता ,बस मन खुली आँखों से सपने देखता है . सपने जरुर उस मन के होते हैं पर उसको हौसला दूसरो से मिलता हैं पूरा करने का ......
संयुक्त भरे पूरे परिवार में जन्मी मैं ७ भाई-बहनों में ५ वे नंबर पर रही | सब दूध जैसे गोर रंग के ,मैं सांवली सूरत लिए .... सब मजाक में कहते कि यह सावली क्यों हैं .उम्र ही ऐसी थी ,कि  हर बात दिल पर लग जाती थी | बस खुद को कमरे में बंद कर लेती थी और किताबें मेरी सबसे अच्छी दोस्त होते थे | कोई भी किताब मिल जाये .,सरिता , मनोरमा ... कादम्बिनी ...............उस दौर में मैं रानू के कुछ नोवेल्स भी पढ़े | हर साल अच्छे मार्क्स लाकर पास होना और अपने में खोये रहना ..... घर में मैं या तो चुप रहती या इस आक्रोश रहती कि मैं सब जैसे गोरी क्यों नही सुंदर क्यों नही frown ..माँ कहती ,हु मेरी इच्छा है कि , मेरा कोई बच्चा नौकरी करे सरकारी नौकरी लेकिन भाइयो को बिज़नस में रूचि थी तो मुझे लगता कि मै करूंगी नौकरी |
पापा को लगता कि यह बेटी मेरी बहुत मेधावी हैं यह P .C .S .पास करेगी ...... सपने देखने शुरू कर दिए मेरे मन ने .कई बार खुद को सरकारी जीप मे हिचकोले खाते देखा पर भूल गयी थी कि मैं एक लड़की हूँ ,उनके सपनो की कोई बिसात नही रहती ,जब कोई अच्छा लड़का मिल जाता हैं |बस पापा ने मेरे लिय वर खोजा और कहा कि अगर लड़की पढ़ना चाहे तो क्या आप पढ़ने  देंगे बहुत ही गरम जोशी से वादे किये गये |. दुल्हन बनकर मैं ससुराल आ गयी .... अगले दिन मेहमान चले गये और मैं घर भर में पिया संग अकेली ............. भीड़ में रहने की आदत थी मुझे और मैं बुक्का फाड़ कर रो पड़ी ...... एक महीने तक यह छुट्टी लेकर मेरे साथ

रहे .........फिर वापिस जॉब पर कोटद्वार चले गये .......अब मैं घर भर में बूढ़े सास -ससुर के साथ अकेली ............... न किसी ने कहा कि इसे साथ ले जाना है , न किसी ने कहा कि इसे साथ भेजना है ............. मैं मूक सी सब देखती रही वातावारण एक दम अलग , रहन सहन में बहुत फर्क .......... उस पर कही आना -जाना नही ............ मैं भीतर घुलने लगी | अचानक एक दिन हब्बी ने बी.एड का फार्म ला दिया मैंने भर दिया मेरिट में मेरा नाम आ गया ....... मैंने B.ed भी फर्स्ट इन फर्स्ट devison से देहरादून के सबसे अच्छे college से की | पर अंदर अंदर मुझे यही लगता कि मैं टीचर नही बन सकती ....कुछ दिन केंद्रीय विद्यालय में जॉब की फिर सरकारी जॉब मिल गयी ......... सप्ताह में एक बार घर आना संभव था . बच्चे मेड के हाथ का खाना खाने को तैयार नही थे सासु माँ तब तक स्वर्ग सिधार चुकी थी | समय का पहिया तेजी से घूम रहा था और मैं चक्करघिन्नी  से उसके साथ बहुत मीठे क्षण भी आये जो मुझे सुवासित किये रहे साथ साथ . पर ...... मन कसकता रहा कि मुझे सरकारी जीप में घूमना था ..मुझे कुछ ऐसा करना था कि मेरे नाम की तख्ती लगे कहीं पर | मुझे मेरे नाम से जाना जाये ,पहचाना जाये ....... और एक दिन मैं नौकरी छोड़ कर घर आ गयी ,कि मैं अब वापिस कलसी नही जाऊंगी | किसी ने एतराज नही किया | सबको घर पर एक औरत चाहिए थी
और साथ में बच्चों को माँ , बाबूजी को बहु |हब्बी तब भी डेल्ही में पोस्टेड थे ....उम्र फिसल रही थी धीरे धीरे और मैं अपने सपने से कोसो दूर बहुत दूर चली गयी थी ........... मुझे जरा भी अफ़सोस नही कि मैंने सरकारी नौकरी छोड़ दी एक अध्यापिका की ....... बस अफ़सोस यही है कि मैं अच्छी माँ बन जाने के , अच्छी वाइफ ,अच्छी बहु बन जाने के चक्कर में अपने लिये नही लड़ पाई अगर मैं पति के साथ रहती तो शायद मुझे वक़्त मिल जाता .................... पर घर के जिम्मेदारियों ने ऐसे बेड़ियाँ  डाली पैरों में कि मैं खुद को भूल ही गयी ........ अब जब भी मन कसकता है तो पति कहते हैं कि कोई बात नहीं ,अब तक सपने भी कभी अपने हुए ......... सो अपनों के लिये सपने देखा करो ,वही सच होते हैं .............

शनिवार, 20 अक्टूबर 2012

अधूरे सपनों की कसक (13) !

                         ये अपनी अपनी सोच है कि सपने  पूरे नहीं होते और अगर पूरे 
हो गए तो फिर सपना नहीं रहता वह तो यथार्थ बन जाता है।उसके स्वरूप 
के बयान से हमारी भावनाएं जुडी रहती हैं। मुझे ख़ुशी इस बात की है कि 
सतीश जी ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर कुछ तो  कर भेजा और हम सब को और   उनके कुछ गहन विचार जानने का मौका मिला 

                            आज अपने विचारों के साथ है -- सतीश सक्सेना जी .



परिचर्चाओं में, मैं भाग न लेने का प्रयत्न करता हूँ , मुझे लगता है, शायद ही कोई सच कहने का साहस कर पाता हो !सत्य कहने वाला या तो वेचारा होगा अथवा बहुत सारी अचंभित आँखों का आकर्षण ....

स्वप्न ....शायद किसी के पूरे नहीं होते और जिन स्वप्नों को पूरा बताया जाता है मेरे विचार से वे स्वप्न नहीं, मात्र इच्छाएं होती हैं, जो कभी अपने किये गए कर्मों अथवा कभी संयोग से पूरे होते पाए जाते हैं !

मानव जीवन में शायद इंसान सबसे अधिक मन से, भरपूर साथ देने वाले, जीवनसाथी का स्वप्न देखता है जो अक्सर सपना ही सिद्ध होता है ! पूरे जीवन, हम दुनिया के आगे, एक मधुर मुस्कान के साथ, उस सपने के साकार होने का, भ्रम दिलाते रहते हैं और मरते दम तक यह नहीं कह पाते कि  हम जीवन में अपने आपको कितना बड़ा धोखा देते रहे ! शायद हम में से किसी की यह हिम्मत नहीं कि हम अपना दुःख , अपने परिवार में भी बाँट सकें कि जिसके साथ बरसों से, मरने जीने की कसमें खायीं हैं उनके साथ जीवन मात्र एक दिखावा है वास्तविक प्यार कहीं दूर तक नहीं नज़र आता ! 

इसी तरह कभी बच्चों के कारण और कभी परिवार के बड़ों के सहारे हम लोग जीवन भर नाटक करते हुए, अपने दिन, पूरे करने में सफल हो जाते हैं ! किसी शायर की एक शेर याद आ गया सुनिए ...

अभी से क्यों छलक आये तुम्हारी आँख में आंसू ?
अभी छेड़ी  कहाँ है ? दास्तानें - ज़िन्दगी  हमने !

सो लोगों से आवाहन करें कि  सच सच बताएं कि जीवन के सपने , कितने पूरे , कितने अधूरे हैं ! सत्य में आकर्षण है मगर कहेंगे कितने ? 
मुझे संशय है :)
अधिकतर महिलायें अपने पतियों की तारीफें करेंगी और पति किसी और विषय पर अधूरा सपना सुनायेंगे ! 

स्वप्न पूरे न भी हों तब भी इंसान हँसते हँसते, दुनिया में अपने कार्य पूरे करे और निराश लोगों को हंसा कर, विदा ले, तब उसे मानव जीवन योग्य माना जाए !

खैर यह सब स्वप्नों की बाते हैं अब आपके अनुरोध के बारे में कुछ सुनाने का प्रयत्न करता हूँ !
गौर करें रेखा जी !    
आज की रात में , 
कुछ नया सा लगा 
थक गया था बहुत 
आंख बोझल सी थी 
स्वेद पोंछे,  किसी हाथ  ने,  प्यार  से  !
फिर भी लगता रहा कुछ,अधूरा अधूरा !

कुछ पता ही नहीं, 
कौन सी गोद थी ,
किसकी थपकी मिली 
और  कहाँ  सो गया !
एक अस्पष्ट चेहरा  दिखा    था,   मुझे    !
पर समझ  न  सका, सब  अधूरा अधूरा !


आज   सोया, 
हजारों बरस बाद मैं ,
जाने कब से सहारा,
मिला ही  नहीं  ,
रंग गीले अभी,  विघ्न  डालो नहीं ,
है अभी चित्र  मेरा, अधूरा अधूरा !

स्वप्न आते नहीं थे,
युगों से  मुझे   !
आज सोया हूँ मुझको 
जगाना नहीं  !
क्या पता ,आज  राधा मिले नींद में 
है अभी स्वप्न मेरा, अधूरा अधूरा  !

इक मुसाफिर थका  है ,
यहाँ   दोस्तों   !
जल मिला ही नहीं 
इस बियाबान में  !
क्या पता कोई भूले से, आकर मेरा  
कर दे पूरा सफ़र जो, अधूरा अधूरा !