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गुरुवार, 26 मई 2011

एक पहल ऐसी भी !

अक्सर अख़बार में देखने को मिलता है कि किसी गरीब या फिर बीमारी से तबाह हो चुके व्यक्ति कोआर्थिक सहायता की जरूरत हैमीडिया ने उसको सुर्ख़ियों में ला दिया तो फिर कुछ कुछ उसको सहायता मिलही जाती है और नहीं तो कितने दम तोड़ देते हैं , कितने घरों के चिराग बुझ जाते हैं और कितने घरों के चूल्हे मेंपानी पड़ जाता हैडॉक्टर जरूरत बता कर हट जाते हैं क्योंकि उनकी भी अपनी सीमायें होती हैंवे अपने प्रयाससे जितना कर सकते हैं कर देते हैं लेकिन जरूरी धन तो वे नहीं जुटा सकते हैंउस परिवार की हालात क्या होतीहै? ये तो कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है किन्तु सिर्फ पैसे के अभाव में हम किसी अपने को मरते हुए देखते रहें - इस विवशता का भान मनुष्य को खुद ही जीते जी मार देता है
अभी पिछले दिनों एक घटना हुई कि एक महिला खिलाडी रेल से गिर कर अपना पाँव गवां बैठीउसको पहले लखनऊ और फिर एम्स दिल्ली ले जाया गयाउसकी सहायता के लिए क्रिकेट खिलाडी युवराज हरभजन सिंह ने एक एक लाख रुपये दिएये उसके खिलाडी होने के नाते या फिर उसकी सहायता मानवता केनाते करने का भाव उपजा ये तो वही बता सकते हैं लेकिन मेरे मन में जरूर ये विचार उपजा और जो एक लेख केरूप में आप लोगों के विचारार्थ प्रस्तुत है
एक आम आदमी इससे अधिक भयावह स्थितियों से गुजरता है और किसी से सहायता नहींमिलती हैवह असहाय से अपने बेटे , बेटी , माता -पिता या पति को अपनी आँखों के समक्ष तिल तिल मरते हुएदेखता रहता है और कुछ भी नहीं कर पाता हैइतना सब लिखने का मेरा उद्देश्य मात्र एक विचार है जो कौंधा तोसोचा कि इसके बारे में सब से विचार करवाया जायक्या एक पहल ऐसी नहीं हो सकती है कि एक आपातकालीनकोष की स्थापना की जाय, जो इस तरह के लोगों के जीवन को बचाने में प्रयोग की जा सकेप्रश्न यह है कि वे लोगजो करोड़ों और लाखों रुपये कमा रहे हैं, उनके लिए कुछ हजार रुपये की राशि कुछ भी नहीं है और वे दे भी सकतेहैंमंदिरों में करोड़ों का दान देने वाले इसमें भी कुछ दान दे सकते हैंअगर हम यथार्थ की बात करें तो हर आस्थामें विश्वास रखने वाला ये जानता है कि ईश्वर या वह सर्वशक्तिमान यही कहता है कि मैं जीव में ही बसता हूँ औरजीव के प्रति दया मेरी सबसे अच्छी पूजा हैउसकी सेवा ही मेरी सेवा हैफिर मंदिरों में हम किस लिए इतना दानदेते हैं? अगर हम सिर्फ कुछ अंश ऐसे कोष में दान दे दें तो उससे कितने लोगों का जीवन बचाया जा सकता हैवेजो करोड़ों रुपये आयकर में दे सकते हैं वे इसमें भी दे सकते हैंएक विशाल कोष तैयार होगा जिससे कितने गरीबोंके घर के रोटी कमाने वाले और कितने असहायों के सहाय बच सकते हैं
प्रश्न यह है कि ऐसे कोष की पहल किस के अंतर्गत हो? ऐसे एक कोष कि स्थापना मानवाधिकारआयोग के अंतर्गत होनी चाहिएजिसमें धन जमा करने वालों को आयकर से मुक्त धन देने का प्राविधान हो, इससे लाभ प्राप्त करने के लिए एक डॉक्टर की टीम सिफारिश करेगी वह टीम कहीं की भी हो सकती हैअब प्रश्न येहै कि इसके लिए पात्रता कैसे निर्धारित कि जा सकती हैं क्योंकि यहाँ भी रसूख वाले येन केन प्रकारेण इससे धनराशि प्राप्त करने के लिए जीभ लपलपाने लगेंगेफर्जी प्रमाणपत्र और निर्धनता दिखाने वाले पैसे वालों की कमीनहीं हैइसके लिए मरीज कि स्थिति और उसके तीमारदारों कि स्थिति डॉक्टर से छिपी नहीं होती है और अगरडॉक्टर का पैनल इस पर विचार करते हुए अनुशंसा करे तो इसकी कार्यवाही आगे बढाई जाए , वही टीम मरीज केबारे में पूरा पूरा विवरण प्रस्तुत करके उसके लिए अनुमानित सहायता राशि के लिए लिख सकती है और फिरआयोग का डॉक्टर का पैनल इसकी आवश्यकता पर विचार करते हुए जारी करने कि सिफारिश करे
कितने जीवन इससे बच सकते हैं, जो करोड़ों कमा रहे हैं उनके लिए छोटी सी राशि देना कोई बड़ीबात नहीं है और इसके साथ ही खुद को जनसेवक कहलाने वाले हमारे विधायक और सांसद जो साल में सिर्फ कुछदिन अपनी ड्यूटी के लिए संसद या विधानसभा में आते हैं और शेष पूरे वर्ष का वेतन लेते हैं उनके वेतन सेअनिवार्यतः वर्ष में कुछ दिनों का वेतन इस कोष में जमा करवाने की सिफारिश भी की जानी चाहिएसच्चीजनसेवा इसी में हैतभी उनका जनसेवक कहलाने का कुछ अंश तक अर्थ जाना जा सकता हैमेरे विचार से येप्रस्ताव विचारणीय होना चाहिए

19 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

निश्चित ही ऐसे अनेकों कोश हैं और अनेकों की आवश्यक्ता है. जितना जिससे संभव हो पाये, अपने आप पहल कर शुरु कर देना चाहिये.

कोई आवश्यक नहीं कि समूह ही बनाया जाये.

आपको लगता है कि आप २०० रुपये प्रतिमाह इस मद में रखना चाहती हैं..उठाईये वो दो सौ रुपये और पहुँच जाईये जरुरत मंदो के पास..चाहे सरकारी चिकित्सालय में दवा का इन्तजार करते मरीज के पास, स्टेशन पर भूख से तड़पते परिवार के पास....एक नजर घुमाईये..सचमुच जरुरतमंदों की भीड़ है...मदद करिये अपनी क्षमता के अनुरुप और फिर देखिये कि आपसे प्रेरणा ले कितने लोग जुड़ जायेंगे आपके साथ.

और जो आशीष और मन की शांति मिलेगी वो बोनस!!

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

भारत में स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं नि:
शुल्‍क हैं। छोटे से छोटे गाँव में भी आज डाक्‍टर, नर्स हैं। कठिनाई तब आती है जब प्रत्‍येक व्‍यक्ति मंहगे निजी अस्‍पतालों में ही ईलाज कराना चाहता है। यह मैं मानती हूँ कि सरकारी अस्‍पताल में रोगियों की संख्‍या अधिक होने के कारण कुछ कठिनाई होती है, लेकिन चिकित्‍सा तो मिलती ही है। राहत कोष आदि भी सरकारी स्‍तर पर बने होते हैं और गैरसरकारी स्‍तर पर भी ढेर सारे हैं। जब समाचार-पत्रों में खबर छपती है जब इन्‍हीं राहत कोष से अधिकतर पैसा आता है। देश की बढ़ती जनसंख्‍या और गरीबी सभी को अच्‍छी स्‍वास्‍थ्‍य सेवा से वंचित करती है, इसके लिए व्‍यक्ति को स्‍वयं श्रम करके गरीबी से निजात पाना होगा।

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

समीर जी,
उस कार्य के लिए तो मैं पहले से ही समर्पित हूँ, अपनी सामर्थ्य के अनुसार दोनों ही लोग यह काम कर रहे हैं लेकिन ये जरूरत बहुत बड़े स्तर पर होती है जहाँ एक व्यक्ति के प्रयास से संभव नहीं है.जरूरी है कि ऐसे कुछ कोष हों जिससे जो इस काबिल नहिन् है उसको उससे सहायता मिल सके. जीवन बचाया जा सके.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

अजित जी,

मेरे पाती इसी क्षेत्र से जुड़े हुए हैं. सिर्फ कहने के लिए गाँव में पूरी चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हैं कौन डॉक्टर वहाँ कितने दिन जाता है ? इसके बारे में मुझे सब खबर रहती है. प्राइवेट कि तो बात ही अलग है. उसमें कुछ ऐसे सज्जन हैं जो अपने नर्सिंग होम में एक असाद्य और बिल्कुल ही दूसरों पर निभर लड़की को अपने खर्च पर नर्सिंग होम में इलाज के लिए रखे हुए हैं . उसका सारा खर्च नर्सिंग होम ही उठा रहा है. लेकिन फिर भी कितने हैं जो साधारण से चिकित्सा कि बात नहीं असाध्य रोगों के लिए सहायता के मुहताज होते हैं. सरकारी स्तर पर सारी दवाएं और उपकरण उपलब्ध नहीं होते.

राज भाटिय़ा ने कहा…

रेखा श्रीवास्तव, बहुत सुंदर बात कही आप ने, मैने भी कई लोगो को इन हालात मे देखा हे, मदद भी की हे, लेकिन मेरे ख्याल मे इन लोगो को नगद पैसो की जगह इन की जरुरत का समान ही हमे देना चाहिये, नगद पैसो से लाभ ओर मदद कम होती , ऎश ज्यादा. बिचोलिये खुब खाते हे, ओर मदद लेने वाला भी दर्द को भुल कर उन पैसो से अन्य काम करता हे, यानि किसी भुखे को रोटी का समान या रोटी खिला दो, नगद मत दो, फ़िर देखो आधे से ज्यादा तो भाग ही जायेगे

shikha varshney ने कहा…

रेखा जी यकीन मानिये आप जैसे बहुत से लोग हैं जो आपकी ही तरह सोचते हैं और मदद करना चाहते हैं.कई योजनाएं भी चल रही हैं.और कोष भी हैं. परन्तु समस्या यह है कि भ्रष्टाचार के चलते वह मदद जरुरत मंदों तक पहुँच ही नहीं पाती.और अपने धन को गलत हाथों में जाते देख लोग मदद करने से हट जाते हैं..

Jyoti Mishra ने कहा…

we should do everything possible in our hands to help someone who needs it.
time, money , knowledge u name it....
As a great philosopher says "Helping a needy is the most sacred work on this earth"

रेखा ने कहा…

भारत के हर कोने मै समाज सेवी संस्थाए हैं हमें उनसे जुड़ कर यथा शक्ति योगदान करना चाहिए . पिछड़े इलाको मै इन संस्थाओ को और सक्रिय करने की आवश्यकता है जो वृहद् और सुचारू रूप से जरुरतमंदों के कम आ सके .

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

इस मामले में राज भाटिया जी की बात मुझे व्यवहारिक लगी। व्यक्ति को अपनी सामर्थ के अनुसार मदद के लिए आगे आकर जरुरतमंद को उनकी जरूरत का सामान देना चाहिए। इससे बिचौलियों का बंदरबांट नहीं होगा। ऐसा प्रयोग मैंने किया है। कई बार अपने आस-पास के घरों से उपयोग में न आ रहे वस्त्रों को माँग कर इकठ्ठा किया और अभावग्रस्त क्षेत्र में जरूरत मंदों के बीच बांट दिया। उन्हें खुशी मिली और मुझे आत्मसंतोष। मेरा श्रम-सार्थक हुआ।
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
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Vivek Jain ने कहा…

बहुत सुंदर विचार प्रस्तुत करता है यह आलेख,
- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

Rakesh Kumar ने कहा…

सुन्दर सार्थक विचारणीय मुद्दा प्रस्तुत किया है आपने.
ऐसे सामूहिक फंड हो और उनका सदुपयोग हो सके तो बहुत ही अच्छा रहेगा.वैसे अपने अपने स्तर पर भी प्रयासरत रहना चाहिये.

मेरे ब्लॉग पर आपका इंतजार है.

BrijmohanShrivastava ने कहा…

बात सौ प्रतिशत सही पर मानेगा कौन ,एसी कोई शिफारिश करेगा उसकी भी न मानी जायेगी। समरथ को नहीं दोस गुसांईं।

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

लीगल सैल से मिले वकील की मैंने अपनी शिकायत उच्चस्तर के अधिकारीयों के पास भेज तो दी हैं. अब बस देखना हैं कि-वो खुद कितने बड़े ईमानदार है और अब मेरी शिकायत उनकी ईमानदारी पर ही एक प्रश्नचिन्ह है

मैंने दिल्ली पुलिस के कमिश्नर श्री बी.के. गुप्ता जी को एक पत्र कल ही लिखकर भेजा है कि-दोषी को सजा हो और निर्दोष शोषित न हो. दिल्ली पुलिस विभाग में फैली अव्यवस्था मैं सुधार करें

कदम-कदम पर भ्रष्टाचार ने अब मेरी जीने की इच्छा खत्म कर दी है.. माननीय राष्ट्रपति जी मुझे इच्छा मृत्यु प्रदान करके कृतार्थ करें मैंने जो भी कदम उठाया है. वो सब मज़बूरी मैं लिया गया निर्णय है. हो सकता कुछ लोगों को यह पसंद न आये लेकिन जिस पर बीत रही होती हैं उसको ही पता होता है कि किस पीड़ा से गुजर रहा है.

मेरी पत्नी और सुसराल वालों ने महिलाओं के हितों के लिए बनाये कानूनों का दुरपयोग करते हुए मेरे ऊपर फर्जी केस दर्ज करवा दिए..मैंने पत्नी की जो मानसिक यातनाएं भुगती हैं थोड़ी बहुत पूंजी अपने कार्यों के माध्यम जमा की थी.सभी कार्य बंद होने के, बिमारियों की दवाइयों में और केसों की भागदौड़ में खर्च होने के कारण आज स्थिति यह है कि-पत्रकार हूँ इसलिए भीख भी नहीं मांग सकता हूँ और अपना ज़मीर व ईमान बेच नहीं सकता हूँ.

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

मेरा बिना पानी पिए आज का उपवास है आप भी जाने क्यों मैंने यह व्रत किया है.

दिल्ली पुलिस का कोई खाकी वर्दी वाला मेरे मृतक शरीर को न छूने की कोशिश भी न करें. मैं नहीं मानता कि-तुम मेरे मृतक शरीर को छूने के भी लायक हो.आप भी उपरोक्त पत्र पढ़कर जाने की क्यों नहीं हैं पुलिस के अधिकारी मेरे मृतक शरीर को छूने के लायक?

मैं आपसे पत्र के माध्यम से वादा करता हूँ की अगर न्याय प्रक्रिया मेरा साथ देती है तब कम से कम 551लाख रूपये का राजस्व का सरकार को फायदा करवा सकता हूँ. मुझे किसी प्रकार का कोई ईनाम भी नहीं चाहिए.ऐसा ही एक पत्र दिल्ली के उच्च न्यायालय में लिखकर भेजा है. ज्यादा पढ़ने के लिए किल्क करके पढ़ें. मैं खाली हाथ आया और खाली हाथ लौट जाऊँगा.

मैंने अपनी पत्नी व उसके परिजनों के साथ ही दिल्ली पुलिस और न्याय व्यवस्था के अत्याचारों के विरोध में 20 मई 2011 से अन्न का त्याग किया हुआ है और 20 जून 2011 से केवल जल पीकर 28 जुलाई तक जैन धर्म की तपस्या करूँगा.जिसके कारण मोबाईल और लैंडलाइन फोन भी बंद रहेंगे. 23 जून से मौन व्रत भी शुरू होगा. आप दुआ करें कि-मेरी तपस्या पूरी हो

Anupam Karn ने कहा…

आपकी बात से बिलकुल इत्तिफाक रखता हूँ.
काम तो हो ही रहे हैं लकिन सवाल उनकी कार्यक्षमता का है सैकड़ों NGO है , सरकार भी हैं
लेकिन नतीजे वही|

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

हाँ अनुपम जी, अगर हमारे प्रयास जरा से भी निःस्वार्थ हों तो हमें जो प्रतिफल मिलता है उससे हमारी आत्मा को संतोष मिलता है. ये नगों भी आजकल कमाई का साधन बन चुके हैं. इसके नाम पर क्या क्या होता है? इससे सब नहीं तो कुछ जागरूक तो वाकिफ हैंही.

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

रमेश भाई,

हमारा क़ानून अंधा और बहरा ही नहीं पंगु भी है. अगर दिग्गजों ने रस्सी को सांप कह दिया तो हो गया. महिलाओं की सुरक्षा और उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाये गए कानूनों का दुरूपयोग हो रहा है, इसके कई साक्ष्य मेरे सामने मौजूद हैं. मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ की आप अपने संकल्प में सफल हों.

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

अच्छा विषय चुना आपने। सच में.. ये एक सार्थक पहल तो है ही, इससे आपकी संवेदनशीलता का भी अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। बहुत बढिया

शिखा कौशिक ने कहा…

sahmat hun aapse.swayam hi prayas kar ham is disha me sarthak pahal kar sakte hain .sarthak post Rekha ji .