हम ये तो सदियों से सुनते चले आ रहे हें कि पति और पत्नी गाड़ी के दो पहिये होते हें और जब दोनों मेंसामंजस्य होगा तो जीवन रुपी सफर में ये गाड़ी सुखपूर्वक दौड़ती रहेगी। हमारी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार पति काकाम कमाना और पत्नी का काम घर और बच्चों कि देखभाल करना होता है। इसे एक सामान्य पारिवारिक स्वरूप के रूपमें स्वीकार किया जाता है, लेकिन अगर इससे इतर कुछ भी होता है तो फिर स्थिति गड़बड़ाने लगती है। पत्नी कमाती हैऔर दोनों काम देखती है, वह बहुत अच्छा है लेकिन अगर पत्नी कमाती है और पति घर के कामों को देखने लगता है तोये स्वरूप न हमारे पुरुष समाज को स्वीकार होता है और न ही स्त्री समाज को, आखिर क्यों? जब दोनों पहिये हें तो इसमेंभी तो आर्थिक स्रोत कहीं से भी चल रहा हो चलना चाहिए किसी घर्म ग्रन्थ या आचार संहिता में ये नहीं लिखा है कि पत्नीकमा कर घर का खर्च नहीं चल सकती है। मैं अपने एक बहुत करीबी रिश्तेदार के बारे में ऐसा ही कुछ सुनती आ रही थीऔर इत्तेफाक से मुझे वहाँ जाने का और दो दिन रुकने का मौका मिल गया। तब मैंने विश्लेषण किया और पाया कि येसामंजस्य कितनी अच्छा और समझदारी भरा है कि घर भी चल रहा है और काम भी।
जब मैं सुबह उठी तो मिनी किचेन में चाय बना रही थी और निखिल सो कर उठा था और चाय का इंतजारकर रहा था । निखिल बैंक में काम कारता था जब उसकी शादी हुई थी और मिनी गृहणी थी। लेकिन कुछ वक़्त ने पलटाखाया और निखिल बैंक में किसी केस में फँस गया , उसकी नौकरी चली गयी और उसका केस आज भी हाई कोर्ट में चलरहा है। नौकरी जाने के बाद सिर्फ पिता को छोड़ कर सबने किनारा कर लिया। सोचा जा सकता है कि घर की स्थिति कैसी चल रही होगी। घर से बाहर निकलने पर लोगों के कटाक्ष सहने पड़ते थे और उसका जो सामाजिक दायरा था वह भीधीरे धीरे ख़त्म होने लगा था। क्योंकि उसके बराबर खड़े होने के लायक अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा था।
घर पिता के नाम था सो रहने कि कोई समस्या नहीं थी लेकिन रिटार्यड पिता की पेंशन के बल पर कब तकखर्च चलाया जा सकता था? बुजुर्ग भी कभी कभी कुछ न कुछ कह ही देते हें और जब हम समर्थ होते हें तो वह बुरा नहींलगता लेकिन जब हम उनके आश्रित हों तो हमें आत्मग्लानि लगने लगती है। यही हुआ मिनी के साथ और उसने कुछनिर्णय ले डाला। उसने ससुर के विरोध के बावजूद भी ब्यूटीशियन का कोर्स किया और घर के एक कमरे में अपनाब्यूटीपार्लर खोल लिया। कुछ उधार लिया और कुछ मायके से सहायता लेकर शुरू कर दिया काम। इज्जत की दो रोटी कासवाल था। उसके मधुर व्यवहार और काम से उसका काम अच्छा चल निकला।
निखिल ने चाय पीने के बाद अपने काम शुरू किया , पहले पौधों में पानी देना, फिर एक रात पहले भीगे हुएपार्लर के कुछ नेपकिन को धो कर डालना उसने वाशिंग मशीन कपड़े धोने के लिए लगा दी, उसने सारे कपड़े धो कर डालदिए । पार्लर खुलने के समय तक मिनी ने नाश्ता निपटा दिया और वह पार्लर में चली गयी। बाकी काम नौकरानी नेआकर कर दिए । बीच बीच में आकर वह खाने के लिए तैयारी कर जाती। दोपहर के खाने तक वह आती और गरमगरम रोटियां सेंक कर ससुर जी को खिलाती और बच्चों और निखिल के साथ खुद खा लेती। इस बीच निखिल सलादवगैरह काट कर तैयार कर देता है या फिर उसके अपने किसी काम से निकलना हुआ तो निकल जाता है।
घर में सब कुछ इतनी शांत पूर्ण ढंग से हो रहा था कि मुझे लगा कि गाड़ी के दो पहिये ऐसे ही होते हें। क्याफर्क पड़ता है कि आर्थिक स्रोत कहाँ से निकल रहे हें? अगर जीवन में कुछ असामान्य परिस्थितियां भी आ जाती हें तोइन दोनों पहियों को डगमगाना नहीं चाहिए। उनमें संतुलन कायम रहना चाहिए। ये एक समझदारी भरा कदम है किकोई भी काम कोई भी करे परिवार रुपी गाड़ी की गति नहीं रुकनी चाहिए। दोनों में से किसी में भी हीन ग्रंथि का प्रादुर्भावनहीं होना चाहिए। इतना अच्छा सामंजस्य मैंने अपने जीवन में इन परिस्थितियों में किसी में भी नहीं देखी।
ये तो आज की पीढ़ी की बात है मैंने ऐसा सामंजस्य अपने जीवन के प्रारंभिक दौर में भी देखा था। मेरी शादीहुई थी और वहीं सामने वाले घरों में विश्वविद्यालय की एक लिपिक रहती थीं। उनके पति डॉक्टर थे लेकिन कुछ वक्त कीमार कहें या फिर भाग्य उनकी प्रैक्टिस कहीं भी नहीं चली जबकि वे लखनऊ मेडिकल कॉलेज से बी डी एस थे। बीना जीसुबह नौकरी पर चली जाती और वे घर में रहते बच्चों के स्कूल से आने के बाद उनको खाना देना और खुद बीना जी जबलंच में आती तो उनके साथ ही खाते थे। उनके आने तक वह घर के कपड़े धोना और बाकी काम करते थे. जब वे बालकनीमें कपड़े फैलाते तो और घरों की महिलाओं को मैंने सुना था कि डॉक्टर साहब तो बीना जी के चाकरी में ही लगे रहते हें.तब की सोच कुछ और ही थी लेकिन उनको किसी के कहने या कटाक्ष से कोई फर्क नहीं पड़ता था. शाम को उनके आनेतक चाय पर इन्तजार करते और फिर दोनों साथ ही चाय पीते। कहीं कोई लड़ाई या मन मुटाव मुझे सुनाई नहीं दिया। एक शांत पूर्ण जीवन उन दोनों का रहा।
ये समझदारी और आपसी सामंजस्य हमारी अपनी बनायीं हुई होती थी। ये घर की सुख और शांति का आधारहोती है। कमाने के लिए चाहे दोनों कमायें या फिर एक उसे सकारात्मक तरीके से अगर देखें तो ये जीवन एक समर नहींहै बल्कि एक सफर है जो एक दूसरे का हाथ थाम कर गुजर जाता है। ऐसे नहीं कहा जाता है कि दाम्पत्य जीवन में पतिऔर पत्नी दोनों ही दो पहिये होते हें।
रविवार, 18 सितंबर 2011
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14 टिप्पणियां:
ये जीवन एक समर नहीं है बल्कि एक सफर है जो एक दूसरे का हाथ थाम कर गुजर जाता है। ऐसे नहीं कहा जाता है कि दाम्पत्य जीवन में पतिऔर पत्नी दोनों ही दो पहिये होते
सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति है आपकी.
सफर तो मिलजुल कर हँसी खुशी ही
तय करना चाहिये न.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा ,रेखा जी.
आपके लेख कुछ न कुछ सबक सिखला ही जाते हैं...काश यह सन्देश सब तक पहुँचे...
सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति| धन्यवाद|
समाज का नजरिया धीरे-धीरे बदल रहा है, अब नयी पीढी तो सारे ही काम मिलजुलकर कर रही है। अच्छा सकारात्मक लेख।
धीरे -धीरे ही सही परिस्थितियों में बदलाव तो आ रहा है ...
समझदारी और आपसी सामंजस्य - बस यही तो चाहिये...लोगों का क्या है...उन्हें तो बस मौका चाहिये कुछ न कुछ बोलने का.
सकारात्मक सोच इंगित करता आलेख.अच्छा लगता है ऐसे उधाहरण देखकर.वरना लोग तो न खुद खुश रहते हैं न दूसरों को रहने दे सकते हैं.
shikha tumne sahi kaha, bahar kyon jaayen usake pita hi gahe bagahe usako tana dete rahate hain ki apani bibi kee kamai kha raha hai. usake dard aur tanav ko koi samajh sakata hai to vah svayam khud phir bhi bahut sanyat rahkar apani aayi musibat ka samana kar raha hai.
परम्पराए गलत हो या सही कही दूर तक घर किये बैठी रहती है मगर गलत परम्पराए किन्ही अर्थों में जायज नहीं सिर्फ पत्नी कमाए और पति बैठा रहे इसे आज भी समाज स्वीकार नहीं करता भले ही पति कितना भी सहयोगी हो उसे अपने ही जीने नहीं देते.
kahi na kahi humare samaj ne dayre bana diye hai ke ghar ka kaam kaaj sirf mahilaye hi karengi isliye aisi paristhitiyo se gujrne walo ko logo ke kataksh sun ne padte hai par ab samaj badal raha h
सामंजस्य सकारात्मक सोंच का ही परिणाम होता है जहाँ किसी भी प्रकार का अहं नहीं होता अच्छा आलेख आभार
:)
rekha di, kitna samjhate ho aap:)
आपके लेख कुछ न कुछ सबक सिखला ही जाते हैं.सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति|
आग कहते हैं, औरत को,
भट्टी में बच्चा पका लो,
चाहे तो रोटियाँ पकवा लो,
चाहे तो अपने को जला लो,
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