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गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

विपरीत प्रभाव !

कन्या के जन्म से लेकर उसके जीवन के निर्धारण तक का अधिकार पुरुष वर्ग अपने हाथ में लिए रहा हैतब अधिक अच्छा था जब वह अधिक उन्नत जीवन नहीं जी रहा थावह कृषि और व्यापार में लगा था लेकिन आम घरों में अगर लड़कियाँ अधिक हें तो लड़के की आशा में प्रयास बंद नहीं करते थे लेकिन लड़कियों की हत्या नहीं करते थेमन मलिन भले कर लें लेकिन उनका जीवन नहीं हरते थे
हम जैसे जैसे सुशिक्षित और सम्पन्न होते जा रहे हें हमारी मानसिकता क्या क्रूरता की ओर नहीं जा रही है? या फिर ये कहें कि पहले इस तरह की घटनाएँ प्रकाश में नहीं आती थीं और आज मीडिया के सशक्त होने के साथ ही घटनाएँ सामने आने लगी हेंकल पलक एक अत्याचार का शिकार होकर जीवन लीला समाप्त कर चल दी और आज आफरीन सिर्फ तीन माह की बच्ची अपने पिता के अमानुषिक व्यवहार का शिकार हो कर दुनियाँ से कूच कर गयी किस लिए क्योंकि उसके पिता को बेटी नहीं बेटा चाहिए था और बेटी होने पर उसने उस नन्ही सी जान को सिगरेट से जलाया , उसके सिर को दीवार से पटक कर उसके मष्तिष्क को क्षत विशत कर दिया और वह कोमा में चली गयीएक हफ्ते के अन्दर वह जिन्दगी की जंग हार कर और अपनी माँ की गोद सूनी करके चली गयी
पुरुष जाति में बच्चियों के प्रति पाशविकता की भावना क्यों घर करने लगी है ? अगर वह पिता है तो उसको बच्ची चाहिए ही नहीं तो या तो उसको जन्म से पहले ही मार दो और अगर नहीं मारी तो पैदा होने पर मार देंइन सबसे ऊपर उठ कर वे लोग हें जो बच्चियों को अबोध बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बना रहे हें और फिर उनकी हत्या कर भाग जाते हेंये काम तो आदिम युग में भी नहीं किया जाता थाआज हम अपनी प्रगति और सक्षमता का ढिंढोरा पीट रहे हें और अपने को २१वी सदी का प्रगतिशील व्यक्ति मानते हें लेकिन हमारी सोच तो जितने हम ऊँचे पहुँचने का दावा करते हें उससे कई गुना नीचे जा रही हैइसके कारणों की ओर कभी मनोवैज्ञानिक तौर पर अगर विश्लेषण किया गया है तो यही पाते हें कि व्यक्ति सारी प्रगति और उपलब्धियों के बाद भी उसकी आकांक्षाएं इतनी बढ़ चुकी हें कि वह उनको पूरा कर पाने के कारण कुंठित हो रहा है और वह कुंठाएं कहाँ और कैसे निकलती हें ? इसके बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है
अपने से अधिक बलशाली या फिर बराबरी के व्यक्ति से अगर वह उलझने की कोशिश करेगा तो शायद वह अपनी कुंठा निकल पाए इसलिए वह अपना शिकार अबोध और किशोर वय की ओर जाति हुई बच्चियों पर मौका पाकर निकालने की कोशिश करता हैजब एक तरह की घटना सामने आती है तो फिर उस तरह की छिपी हुई कई घटनाएँ सामने आना शुरू हो जाती हेंये जरूरी ही नहीं है कि वे कुंठित ही हों , वे दकियानूसी भी हो सकते हेंकितने स्थानों पर बेटे की चाह में बेटियों की बलि दे दी जाती है बगैर ये जाने कि क्या इसका कोई औचित्य है?
हम बेटी बचाओ अभियान चला रहे हें क्योंकि अगर बेटी होंगी तो ये सृष्टि आगे कैसे चलेगी? क्या हम बेटियाँ इसी लिए बचाने की गुहार लगा रहे हें कि कल कोई वहशी उन बच्चियों से दुराचार कर उनकी हत्या कर दे? हम बेटियों का जीवन सुरक्षित कैसे करें? वे कोई कागज की गुडिया तो नहीं हें कि हम उन्हें डिबिया में बंद कर छिपा लेंउनके जीवन के लिए उनकी शिक्षा और प्रगति भी जरूरी है तो फिर कौन सा ऐसा कदम हो कि वे सुरक्षित रहेंक्या पैदा होते ही उनको पुरुषों के साए से दूर रखा जाय? क्या उनके साथ माँ को साए की तरह से हमेशा साथ रहना होगा ? क्या फिर से हम अतीत में जाकर पर्दा प्रथा को अपना लें? लड़कियों को शिक्षा के नाम पर सिर्फ गीता और रामायण पढ़ने भर की शिक्षा लेकर उन्हें परिवार को बढ़ाने भर के लिए जीवित रखें?
इतने सारे सवाल है और इनके उत्तर आज भी हमारे पास नहीं है क्योंकि अब हम नेट युग में जी रहे हें , आभासी दुनियाँ में जी रहे हें और बगैर मिले और देखे भी अपनी दुनियाँ को विस्तृत कर रहे हें फिर अतीत में जाने की बात बेमानी है लेकिन ये भी सत्य है कि हमें अब लड़कियों के जीवन और अस्मिता की रक्षा के लिए भी कुछ सोचना होगाउनके प्रति हो रहे दुराव और दुराचार के खिलाफ उठाये जा रहे कदमों के विपरीत प्रभाव पर अंकुश लगा होगा

5 टिप्‍पणियां:

Anita kumar ने कहा…

शुरुवात परिवार के हर सदस्य और समाज की सोच बदलने से करनी होगी। लड़कियाँ न किसी की मलकियत हैं, न बोझ,न ही खानदान की ईज्जत का सलीब उनके कंधे पर रखा है। जब हर परिवार में माता पिता के एकाधिकार होगें तभी ये दशा बदलेगी। लेकिन सदियों पुरानी सोच बदलना इतना आसान न होगा

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

ईश्वर की इच्छा के विपरीत जा कर हम जो ये खिलवाड़ कर रहे हैं ....उसका नतीजा भी हम सबको भुगतना पड़ेगा ......सार्थक लेख

Udan Tashtari ने कहा…

सार्थक विचारणीय आलेख.

vandana gupta ने कहा…

ना जाने कब सोच बदलेगी।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

पूर्व में हमारे समाज में लड़कों को संस्‍कारित करने का रिवाज था लेकिन आज लड़कों में दम्‍भ भरने की परम्‍परा बनती जा रही हे। जब तक हम पुरूष को संस्‍कारित नहीं करेंगे तब तक ऐसी घटनाएं रूक नहीं सकती।