चिट्ठाजगत www.hamarivani.com

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

विकृति को समझें !

                         चर्चा में रहने के लिए कुछ तो ऐसी चर्चा कर लेंगे कि लोग वाह वाह न करें गालियाँ ही दें। बदनाम हुआ तो क्या नाम होगा? ये तो एक अलग बात है लेकिन ये सबके पीछे इंसान की दिमागी हालत और उसकी स्थिति भी देखने के जरूरत पड़ती है। इस रास्ते पर चलने वाले कुछ तो मानसिक विकृति का शिकार ही कहे जायेंगे, लेकिन ऐसे लोगों को शह देने वाले वाह वाह जरूर करते हैं लेकिन पीछे आलोचना भी करते हैं। 
                        चर्चा में रहने के लिए अगर हम ऐसी हरकतें करें कि लोग खीज़ कर गालियाँ देने लगें तो उस विकृति के शिकार इंसान को एक सुकून मिलता है, भले ही उसकी बातों से किसी को कितना ही दुख हो? वास्तव में वह होता है जिसकी दूसरी प्रशंसा होती है लेकिन जो श्रेष्ठता ग्रंथि का शिकार होते हैं उनकी कोशिश होती है कि अपनी ही बातों से दूसरों को हीन साबित करने की कोशिश करें बगैर ये जाने कि इन बेसिर पैर की बातों का क्या असर होगा? लेकिन स्वयं को श्रेष्ठ समझने की भावना उनमें इतनी बलवती होती है कि वे उचित और अनुचित के अंतर को भूल जाते हैं। ये एक प्रकार के मानसिक विकार का असर होता है और इसको दूसरे शब्दों में मानसिक विकृति भी कह सकते हैं। 
                    ये आवश्यक नहीं है कि इसका रोगी इस बात को समझने वाला हो, कभी कभी वह बिलकुल अनभिज्ञ होता है। तब तो विदेश में जाकर बसने वाले कुछ भारतीय उसी देश के गुणगान करने लगते हैं और अपने देश की बेदखली। वहाँ सुविधाओं अलग है और वह देश बहुत पूरा है लेकिन वे भूल जाते हैं कि कैसे ही क्यों न हो? उस मिट्टी की महक और रगों में बहते हुए खून में मिट्टी, हवा और पानी का अंश है। यहाँ की भाषा तो जाहिलों की भाषा लगने लगती है, उनकी माँ और बाप इतने बड़े अंग्रेज थे कि बेटे को संबोधन अंग्रेजी में ही मॉम और डैड ही सिखाया गया होगा। ये भूल जाते हैं कि इस धरती पर जो धर्म ग्रन्थ रचे गए उन पर अंग्रेजी वाले भी शोध कर रहे हैं। यहाँ की भाषा सीखने रहे हैं और हिंदी में ग्रन्थ लिख रहे हैं। इससे अधिक शर्म की बात क्या हो सकती है कि अपने ही देश के जन्मे लोग अपनी ही भाषा का अपमान कर रहे हों और उसी भाषा में और जमीन पर जहाँ वे रहते हैं। 
                   ये भी एक मानसिक विकृति का ही परिणाम ये है कि हर ऐसे विकार वाले लोग अपने को समाज में भी अकेले ही पाते हैं और अपनी जाति को को यह कह कर दबाते हैं कि मेरे बराबर का इस समाज में कोई है ही नहीं, केवल तो मैं किसी लिफ्ट ही नहीं देता है। लेकिन वह ये भूल जाते हैं कि उनकी मनोविज्ञान को समझने वाले भी लोग इस समाज में हैं। ऐसे कोडिंग की कोई जरूरत नहीं है, न ही उन्हें इलाज की जरूरत होती है, हालांकि केवल वह काउंसलिंग ही क्यों न हो।
इसलिए अस्थिरता वालों से सावधान रहना और अपनी ऊर्जा उनकी बातों में हरगिज जाना न करें।

14 टिप्‍पणियां:

रचना ने कहा…

ok understood !!!!!!!!!!

Sunil Kumar ने कहा…

कुछ अलग सी पोस्ट सच्चाई से कही गयी बात अच्छी लगी

Satish Chandra Satyarthi ने कहा…

ऐसे लोग बहुत हैं..
पर मैं व्यक्तिगत रूप से कहूँ तो विदेश आने के बाद अपनी भाषा, संस्कृति और अपनी जड़ों के प्रति लगाव और प्यार बढ़ा ही है... कम होने का तो कोई सवाल ही नहीं..

Udan Tashtari ने कहा…

हम्म!

एस एम् मासूम ने कहा…

विकृत मानसिकता वाले से सावधान रहिए और अपनी ऊर्जा उनकी बातों में हरगिज जाया न करें |
.
रेखा जी आपकी बात में दम है लेकिन लोग जाने अनजाने में ऐसों का ही साथ देते नज़र आया करते हैं |

एस एम् मासूम ने कहा…

इसलिए विकृत मानसिकता वाले से सावधान रहिए और अपनी ऊर्जा उनकी बातों में हरगिज जाया न करें।
.
रेखा जी बहुत ही अच्छी बात बताई है लेकिन जाने या अनजाने में लोग ऐसे ही लोगों का साथ देते दिखाई देते हैं|

vandana gupta ने कहा…

एक विचारणीय आलेख

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

सत्य हैं ...

Ayaz ahmad ने कहा…

विकृति का विरोध अच्छी बात है लेकिन समस्या इससे हल नहीं होगी। थोड़ा गहरा उतरना होगा।

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

सतीश जी ,

जैसे अपने देश और भाषा के सभी लोग हमारे देश में विरोधी नहीं हें और कुछ इस मिट्टी में रहते हुए भी उसकी निंदा करने से नहीं चूकते हें ठीक वैसे भी विदेश में बसे सभी लोग ऐसे नहीं है. लेकिन कुछ प्रतिशत हें और मैं उनको व्यक्तिगत तौर पर जानती हूँ इसी लिए मैंने उसका जिक्र किया है.

एस एम् मासूम ने कहा…

रेखा जी जहां तक मैं समझता हूँ हिंदी भाषा का विरोधी कोई हिन्दुस्तानी नहीं हो सकता| लेकिन हिंदी भाषा को क्या हमने अपने जीवन में सही स्थान दिया है इस बारे में भी खुल के बोलना चाहिए|इसमें कोई बुराई नहीं है |

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

हम अपने देश, समाज और परिवार की सुविधाओं का उपयोग करके विदेश चले जाते हैं और वहां जाकर अपने देश को भला-बुरा कहने में ही गौरव का अनुभव करते हैं मानो यह बताना चाहते हों कि ऐसे गन्‍दे देश में हम कैसे रहते? पहले अंग्रेज लूट के ले गए देश को अब ये नये अंग्रेज लूटकर चले गए। एक बेचारा व्‍यक्ति अपनी कमायी का अधिकांश हिस्‍सा बेटे की पढाई में लगा देता है और बेटा बिना प्रतिदान के विदेश बस जाता है। यहां करोड़ों माता-पिता बेसहारा होकर जीवनयापन कर रहे हैं। इन सबसे देश को टेक्‍स वसूलना चाहिए।

Anjani Kumar ने कहा…

सच में सोचना तो बनता है....पूर्णतया सहमत हूं इस लेख से

गुड्डोदादी ने कहा…

नत नमण भारत भू |माट भूमि की मिटटी की सोंधी खुशबू नथुनों में हर समय समाई रहती है | विदेश में 42 वर्षों से हूँ शुरू में तो पैन्टालून जींस भी पहनी पर मन उचाट गया हो गया |सुख साधन तो हैं पर मन शांत नहीं