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गुरुवार, 29 नवंबर 2012

अधूरे सपनों की कसक : एक विश्लेषण और उपलब्धि !

                              अधूरे सपनों की कसक को लेकर चली थी कि सबके आधे अधूरे सपनों से दो चार होंगे और फिर सोचेंगे कि  इन सपनों के सजने और टूटने में क्या था? किसने अधिक इस सफर में अपने सपनों के  साथ समझौता किया और कौन उसके लिए जिम्मेदार रहा? उसका नारी होना या फिर सामाजिक सीमाओं की परिधि। 

                            सबसे पहले तो अपने उन सभी साथियों को धन्यवाद कहूँगी जिन्होंने ने मेरे इस अनुरोध को मान दिया और सहयोग किया अपने सपनों की कसक को बांटने में। फिर इस बात को लेकर एक कसक मन में रह गयी कि सपनों की कसक को बांटने का आश्वासन देकर कुछ साथी मुझे लालीपॉप दिखाते रहे और फिर छुप कर खुद ही खा गए और हम रोज इन्तजार करते रहे कि  वो हमें आज मिलेगी , कल मिलेगी लेकिन वो तो आज तक मिली ही नहीं . दिवाली के बाद बहुत दिनों तक इन्तजार करते रहे कि शायद त्यौहार के बाद समय मिले तो मिल जाए लेकिन मेरा इन्तजार तो व्यर्थ ही गया।
                         मेरे इस सफर में  सबसे अधिक साथ दिया आधी आबादी ने - शायद हम सब की पीड़ा कहीं न कहीं एक जैसी ही रही थी लेकिन शेष आधी आबादी ने सहयोग तो दिया लेकिन बहुत कम फिर भी मैं अपने सभी साथियों का हार्दिक धन्यवाद करती हूँ जिन्होंने ने मेरे अनुरोध का मान रखा और उन्हें भी जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि ऐसा  कुछ उनके जीवन में हुआ ही नहीं।
                       इस सफर से कुछ तो उपलब्धि हुई ही है , हम कहते हैं कि  नारी आज सशक्त हो रही है और सक्षम भी लेकिन कितनी?  इसको इसी बात से देखा जा सकता है कि उच्च शिक्षित होने के बाद भी हमारी पीढी हो या फिर आज की युवा पीढी -- आधी आबादी ने अपने सपनों को एक परिवार से दूसरे परिवार में आने पर बलिदान कर दिया और अपनी जिम्मेदारियों को उठाते हुए अपने सपनों को दूसरी तरफ रुख कर के अपनी संतुष्टि के रास्ते  को खोज लिया। वही अपने पहले परिवार के साथ भी निश्चित सीमाओं के कारन अपने सपनों को वहीँ अधूरा छोड़ दिया और उसे आज भी अपने मन में पलते हुए अफसोस को अपने आने वाली पीढी में पूरा होने की आशा कर रही है।
                      सपनों के साकार होने में कल भी और आज भी आधी आबादी के साथ कभी न्याय नहीं हो सका है। हाँ इतना जरूर है कि  हम जो अपने अधूरे सपनों की कसक लिए कभी सोचते हैं तो फिर अपने बच्चों के सपनों को कभी न टूटने देने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। लेकिन फिर भी अपनी बेटी की शादी के बाद नहीं जानते कि  उसके इस बार भी  देखे गए सपने और हमारे द्वारा दी गयी दिशा को वहां कितना समर्थन मिलेगा? वह अपनी पढाई और शिक्षा के उद्देश्य को कितने प्रतिशत पूरा कर पायेगी  ? ऐसे कितने केस मेरे सामने है कि  लड़कियाँ मात्र औपचारक शिक्षा नहीं नहीं बल्कि एम टेक , एम सी ए और एम बी ए  जैसी शिक्षा पाने के बाद भी दूसरे घर में जाने के बाद अपने माता पिता की खून और पसीने की कमाई  से पढाई करने के बाद भी वे सिर्फ गृहणी बन कर रह गयीं . उनके सपने वहीँ के वहीँ रह गए और उनके साथ सजे उनके माता पिता के सपने भी .
लेकिन इसको माता पिता भी अपने अधूरे सपने की कसक के साथ इस कसक को भी सह लेते हैं। ऐसा शेष आधी दुनियां के साथ नहीं होता है। वह अपने सपनों को भी हक से पूरा कर लेता है और अगर न भी हो सके तो फिर भी उसके लिए कोई बंधन नहीं होता है कि उसकी सीमायें इतने भी ही सीमित हैं . एक नहीं ऐसे कितने ही मामले हो सकते हैं। हम एक बुद्धिजीवी वर्ग के सामने थे और फिर उनके सपनों की रह को नापा था लेकिन शायद कुछ ही प्रतिशत ऐसे लोगों के उत्तर मिले कि  मेरा कोई भी सपना अधूरा नहीं रहा बल्कि मेरे हर सपने को अपना मक़ाम मिला . बस यही तो सोच रही थी और सोच रही हूँ की काश ऐसे गर्व से पूरे संसार में सभी कह सकें की मेरा कोई भी सपना अधूरा न रहा . वह अधूरापन जो की उसके लिए मजबूरी न बने 

8 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

न्यौछावर सपने किये, अपने में संतुष्ट ।

मातु-पिता पति प्रति सजग, पुत्र-पुत्रियाँ पुष्ट ।

पुत्र-पुत्रियाँ पुष्ट, वही सपने बन जाते ।

खुद से होना रुष्ट, यही तो रहे भुलाते ।

सब रिश्तों में श्रेष्ठ, बराबर बैठा ईश्वर ।

परम-पूज्य है मातु, किया सर्वस्व निछावर ।।

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

रेखा दी ......शायद ही कोई इंसान ऐसा हो जो ये कहें की मेरा कोई सपना अधूरा नहीं रहा ...हम मानुष बने ही लालसा की मिट्टी से हैं जो कभी खुद में खुद को भरा हुआ महसूस नहीं कर सकते ...एक सपना पूरा हुआ तो दूसरे की इच्छा उसी वक्त जाग जाती है ...किसी और की नहीं ...मैं अपनी ये बात जरुर कहूँगी की आपकी इस श्रृंखला में मुझे बहुत आनंद आया ...बहुत कुछ पढ़ने को और सिखने को मिला ...ये जाना कि कोई भी व्यक्ति अपने आप में संतुष्ट नहीं है ...और जिस ने खुद को संतुष्ट बताया भी है तो वो अपने दर्द को अपने भीतर छिपा गया है ...वो आम लोगों से ऊपर उठ मानव बन गया है ......आभार

इसकी अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा ....

vandana gupta ने कहा…

रेखा जी आपकी ये श्रंखला बहुत बढिया थी और एक दूसरे से रु-ब-रु होने का मौका मिला और जब दूसरे के सपने देखे तो अपने सपनों के खोने का गम कम हो गया …………॥हां ये आपने सही कहा कि काश ऐसा हो हर कोई कह सके जो बहुत मुश्किल जान पडता है क्योंकि सपनों के संसार की कुंडियों पर ताले नही लगे होते ……एक के जाने के बाद दूसरा दस्तक देने आ ही जायेगा :)

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

आपका यह प्रयास जैसा आपने कहा एक अच्छे उद्देश्य हेतु था फिर भी अपेक्षित संख्या मे लोगों ने विचार नहीं भेजे ,वैसे तो न भेजने वालों के उद्देश्य वे ही जानते होंगे। परंतु जिन लोगों ने भेजे उनमे से किसी का दुरुपयोग करने वाले लोग भी भेजने वालों मे शामिल रहे हैं। सार्वजनिक हो गई सूचना मे से चुन कर यदि कोई दुष्ट प्रवृति वाला कोई दुरुपयोग करता है तो उसका कुछ दायित्व तो इस शृंखला पर भी होगा ही।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

आपकी यह सीरिज देखी थी लेकिन अपना योगदान नहीं कर सकी थी। आपका प्रयत्‍न ब्‍लागरस के लिए एक-दूसरे को जानने का माध्‍यम बना, बहुत अच्‍छा प्रयास।

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

विजय बली जी , जहाँ तक हम सब के अपने अनुभवों के दुरूपयोग की बात है तो फिर आप ये क्यों भूल जाते हैं की दुरूपयोग तो हर जगह हर चीज के होने की संभावना बनी रहती है। इसा तरह से विकृत मानसिकता के प्रतीक जनों पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है जब कि इसके लिए काफी प्रावधान है . अपने निजी अनुभवों में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसको अपराध की श्रेणी में रखा जा सके और उसके खुलासा होने से उसका दुरूपयोग होना संभव हो . अपने ऐसा क्यों सोचा? मैं नहीं जानती लेकिन मैं इस तरह के संस्मरण पहले भी लेकर प्रस्तुत करती रही हूँ और शायद भविष्य में भी करती रहूंगी सच को कहने और सुनाने के साहस का दूसरा नाम ही निर्भीक अभिव्यक्ति है।
इसके चर्चा मंच और लिख लिक्खाड़ में शामिल हो जाने के बाद तो इस विषय में बहुत से लोगों ने और पढ़ लिया होगा।
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Satish Saxena ने कहा…

आपका विश्लेषण पसंद आया ! सादर

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

रेखा दीदी, इस विश्लेषण के बाद ये तय करना आसान हुआ कि इस आधी आबादी ने इतने बदलाव के बाद भी अपनी परम्परा नहीं छोड़ी,जो पीडी दर पीढ़ी पाई संस्कार में | कहीं से भी किसी का विरोध मुखर होकर नहीं आया | सभी ने अपने सपनों के बिखरने से अपनी पराजय को, क्रोध को अपनी काबिलियत होने पर भी , सपने धरे रह जाने की बात को विष की तरह चुपचाप पी कर शिव होने का परिचय दिया | और बात सही है यदि सबके सपने पूरे जो जाएँ तो अतृप्त कौन रहेगा ? लगातार संघर्ष के लिए अतृप्ति भी जरुरी है, क्योंकि जीवन में सबकुछ पा लेना कामयाबी नहीं |