मैंने अपने जीवन में ऐसा कोई काम शायद जानबूझ कर नहीं किया कि लोग मुझ पर अंगुली उठा सकें लेकिन
लाभ हानि जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ
तुलसीदास जी की इन पंक्तियों को तो मैं भूल ही गयी थी. मेरी एक टिप्पणी पर हमारे ब्लोगर भाई परम आर्य जी ने ऐसी टिप्पणी की कि मैंने मानव जाति की बात कैसे कर सकती हूँ जब कि मैंने स्वयं अपने नाम के आगे अपनी जाति लगा रखी है. ये आदर्शवाद का ढोंग है.'
उनकी टिप्पणी ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया और फिर इसके लिए उठे प्रश्न से दो चार तो होना ही पड़ेगा.
क्या नाम के साथ लगी हुई जाति का प्रतीक इंसान की मानवता पर प्रश्न चिह्न लगा देता है? उसको मानवोचित गुणों से वंचित कर देता है या फिर उसकी सोच को जाति के दायरे से बाहर नहीं निकलने देता है. ऐसा कुछ भी नहीं है, ये जाति मेरे नाम के साथ मेरे पापा ने लगाई थी क्योंकि जब बच्चा स्कूल जाता है तो उसके माता पिता नाम देते हैं. मेरे पिता भी अपने नाम के साथ भी यही लगाते थे. किन्तु वे एक ऐसे इंसान थे जो इस दायरे से बाहर थे. हर जाति , धर्म और वर्ग में उनकी अपनी पैठ थी. उनके मित्र और अन्तरंग और सहयोगी थे. नाम कुछ भी हो मानवीय मूल्यों कि परिभाषा नहीं बदलती है या इसमें जाति या धर्म कहीं भी आड़े नहीं आता है.
फिर भी आर्य जी का ये आरोप कि जाति लगाकर इंसान मानव जाति और मानव धर्म कि बात नहीं कर सकता एकदम निराधार है. महात्मा गाँधी के साथ उनकी जाति का नाम जुड़ा था और वे क्या थे? उनका व्यक्तित्व क्या था? क्या गाँधी लगने से उनके आदर्शों और मूल्यों की कीमत कम हो गयी. सम्पूर्ण विश्व जिसके दिखाए मार्ग पर चलने की वकालत कर रहा है. अहिंसा का मार्ग ढोंग है, अगर नहीं तो इस आक्षेप का कोई अर्थ नहीं है. इतिहास उठाकर देखें तो यही ज्ञात होगा कि इंसान की सोच और कार्य के आगे नाम और उपनाम नगण्य है. इसका कुछ भी लेना या देना नहीं है.
रहा नाम के साथ जाति नाम लगाने का तो इसके लिए हमारी सोच ही इसको ख़त्म कर सकती है लेकिन ऐसी सोच और विचार तो हों. इस प्रसंग में मुझे अजय ब्रह्मात्मज का एक निबंध याद आ रहा है जो कि इसी विषय पर लिखा गया था और वह ५० हजार रुपये से पुरस्कृत भी किया गया था. उसमें उन्होंने लिखा था कि उनके पिता ने अपने बच्चों के नाम के आगे जाति लगने के स्थान पर अपने बेटों के नाम के आगे माँ का नाम और उसके साथ आत्मज जोड़ कर लगाया. इस तरह से ब्रह्मा + आत्मज = ब्रह्मात्मज लगाया और अपनी बेटी के नाम के साथ अपना नाम देव + आत्मजा = देवात्मजा लगाया. इस दृष्टिकोण के रखने वाले पिता को मेरा नमन है. इस सोच को रखने वाले पिता इस समय कम से कम ८० वर्ष के होंगे और इस सोच को उन्होंने आज से करीब ५५-६० वर्ष पहले मूर्त रूप दिया था.
बुधवार, 17 नवंबर 2010
रविवार, 14 नवंबर 2010
आज बाल दिवस है.
(chitra googal ke sabhar )
आज बाल दिवस है, देश के बच्चों के लिए जो भी किया जाय कम है क्योंकि असली बाल वह है , जो अपने अनिश्चित भविष्य से जूझ रहा है. अगर वह स्कूल भी जा रहा है तो उसको चिंता इस बात की हर अभी घर में जाकर इतना कम कर लूँगा तो इतने पैसे मिलेंगे. उनकी शिक्षा भविष्य का दर्पण नहीं है बल्कि बस स्कूल में बैठ दिया गया है तो बैठे हैं .
अगर माँ बाप भीख मांग रहे हैं तो बच्चे भी मांग रहे हैं. क्या ये बाल दिवस का अर्थ जानते हैं या कभी ये कोशिश की गयी कि in भीख माँगने वाले बच्चों के लिए सरकार कुछ करेगी. जो कूड़ा बीन रहे हैं तो इसलिए क्योंकि उनके घर को चलने के लिए उनके पैसे की जरूरत है. कहीं बाप का साया नहीं है, कहीं बाप है तो शराबी जुआरी है, माँ बीमार है, छोटे. छोटे भाई बहन भूख से बिलख रहे हैं. कभी उनकी मजबूरी को जाने बिना हम कैसे कह सकते हैं कि माँ बाप बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते हैं. अगर सरकार उनके पेट भरने की व्यवस्था करे तो वे पढ़ें लेकिन ये तो कभी हो नहीं सकता है. फिर इन बाल दिवस से अनभिज्ञ बच्चों का बचपन क्या इसी तरह चलता रहेगा?
आज अखबार में पढ़ा कि ऐसे ही कुछ बच्चे कहीं स्कूल में पढ़ रहे हैं क्योंकि सरकार ने मुफ्त शिक्षा की सुविधा जो दी है लेकिन शिक्षक बैठे गप्प मार रहे हैं.पढ़ाने में और इस लक्ष्य से जुड़े लोगों को रूचि तो सिर्फ सरकारी नौकरी और उससे मिलने वाली सुविधाओं में है. इन बच्चों का भविष्य तो कुछ होने वाला ही नहीं है तभी तो उनको नहीं मालूम है कि बाल दिवस किसका जन्म दिन है और क्यों मनाया जाता है. जहाँ सरकार जागरूक करने का प्रयत्न भी कर रही है वहाँ घर वाले खामोश है और किसी तरह से बच्चे स्कूल तक आ गए तो उनके पढ़ाने वाले उनको बैठा कर समय गुजार रहे हैं.
पिछले दिनों की बात है. केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद को किसी भिखारी की बच्चियां रास्ते में मिली थी और फिर उन्होंने उन बच्चियों को शिक्षा के लिए गोद लेने की सोची और उनका घर पता लगाते हुए वे भिखारी बस्ती में भी गए . उन्होंने उसकी माँ से कहा कि अपनी बेटियों को मेरे साथ भेज दो मैं उनकी पढ़ाई लिखाई का पूरा खर्चा उठाऊँगा और वे पढ़ लिख जायेंगी तुम्हारी तरह से भीख नहीं मांगेंगी . उन्होंने बहुत प्रयास किया लेकिन उसकी माँ तैयार ही नहीं हुई क्योंकि उसका एक ही जवाब था कि मैं इसी में गुजरा कर लूंगी लेकिन अपनी बेटियों को कहीं नहीं भेजूंगी . इस जगह मंत्री जी चूक गए उन्हें लड़कियों को दिल्ली ले जाकर पढ़ाने के स्थान पर उनको वहीं पढ़ाने का प्रस्ताव रखना चाहिए था . शायद वह भिखारिन मान जाती तो दो बच्चियां अपनी माँ की तरह से जिन्दगी गुजारने से बच जाती.
(chitra googal ke sabhar )
ऐसे बचपन को इस विभीषिका से बचाने के लिए या फिर ऐसे माँ बाप के बच्चों को स्कूल ले जाने के लिए सबसे पहले उनके माँ बाप को इस बात को समझाना चाहिए कि उनके बच्चे पढ़ लिख कर क्या बन सकते हैं? कैसे वे उनकी इस दरिद्र जिन्दगी से बाहर निकल कर कल उनका सहारा बन सकते हैं. सर्वशिक्षा तभी सार्थक हो सकती है जब कि इसके लिए उनके अभिभावक भी तैयार हों . नहीं तो कागजों में चल रहे स्कूल और योजनायें - सिर्फ दस्तावेजों की शोभा बनती rahengin और इन घोषणाओं से कुछ भी होने वाला नहीं है. अगर इसे सार्थक बनाना है और बाल दिवस को ही इस काम की पहल के लिए चुन लीजिये . सबसे पहले बच्चों के माँ बाप को इस बात के प्रोत्साहित कीजिये कि वे अपने बच्चे को पढ़े लिखे और इज्जत और मेहनत से कमाते हुए देखें . अगर इस दिशा में सफल हो गए तो फिर ये सड़कों पर घूमता हुआ बचपन कुछ प्रतिशत तक तो सँभल ही जाएगा और इस देश का बाल दिवस तभी सार्थक समझना चाहिए .
आज बाल दिवस है, देश के बच्चों के लिए जो भी किया जाय कम है क्योंकि असली बाल वह है , जो अपने अनिश्चित भविष्य से जूझ रहा है. अगर वह स्कूल भी जा रहा है तो उसको चिंता इस बात की हर अभी घर में जाकर इतना कम कर लूँगा तो इतने पैसे मिलेंगे. उनकी शिक्षा भविष्य का दर्पण नहीं है बल्कि बस स्कूल में बैठ दिया गया है तो बैठे हैं .
अगर माँ बाप भीख मांग रहे हैं तो बच्चे भी मांग रहे हैं. क्या ये बाल दिवस का अर्थ जानते हैं या कभी ये कोशिश की गयी कि in भीख माँगने वाले बच्चों के लिए सरकार कुछ करेगी. जो कूड़ा बीन रहे हैं तो इसलिए क्योंकि उनके घर को चलने के लिए उनके पैसे की जरूरत है. कहीं बाप का साया नहीं है, कहीं बाप है तो शराबी जुआरी है, माँ बीमार है, छोटे. छोटे भाई बहन भूख से बिलख रहे हैं. कभी उनकी मजबूरी को जाने बिना हम कैसे कह सकते हैं कि माँ बाप बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते हैं. अगर सरकार उनके पेट भरने की व्यवस्था करे तो वे पढ़ें लेकिन ये तो कभी हो नहीं सकता है. फिर इन बाल दिवस से अनभिज्ञ बच्चों का बचपन क्या इसी तरह चलता रहेगा?
आज अखबार में पढ़ा कि ऐसे ही कुछ बच्चे कहीं स्कूल में पढ़ रहे हैं क्योंकि सरकार ने मुफ्त शिक्षा की सुविधा जो दी है लेकिन शिक्षक बैठे गप्प मार रहे हैं.पढ़ाने में और इस लक्ष्य से जुड़े लोगों को रूचि तो सिर्फ सरकारी नौकरी और उससे मिलने वाली सुविधाओं में है. इन बच्चों का भविष्य तो कुछ होने वाला ही नहीं है तभी तो उनको नहीं मालूम है कि बाल दिवस किसका जन्म दिन है और क्यों मनाया जाता है. जहाँ सरकार जागरूक करने का प्रयत्न भी कर रही है वहाँ घर वाले खामोश है और किसी तरह से बच्चे स्कूल तक आ गए तो उनके पढ़ाने वाले उनको बैठा कर समय गुजार रहे हैं.
पिछले दिनों की बात है. केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद को किसी भिखारी की बच्चियां रास्ते में मिली थी और फिर उन्होंने उन बच्चियों को शिक्षा के लिए गोद लेने की सोची और उनका घर पता लगाते हुए वे भिखारी बस्ती में भी गए . उन्होंने उसकी माँ से कहा कि अपनी बेटियों को मेरे साथ भेज दो मैं उनकी पढ़ाई लिखाई का पूरा खर्चा उठाऊँगा और वे पढ़ लिख जायेंगी तुम्हारी तरह से भीख नहीं मांगेंगी . उन्होंने बहुत प्रयास किया लेकिन उसकी माँ तैयार ही नहीं हुई क्योंकि उसका एक ही जवाब था कि मैं इसी में गुजरा कर लूंगी लेकिन अपनी बेटियों को कहीं नहीं भेजूंगी . इस जगह मंत्री जी चूक गए उन्हें लड़कियों को दिल्ली ले जाकर पढ़ाने के स्थान पर उनको वहीं पढ़ाने का प्रस्ताव रखना चाहिए था . शायद वह भिखारिन मान जाती तो दो बच्चियां अपनी माँ की तरह से जिन्दगी गुजारने से बच जाती.
(chitra googal ke sabhar )
ऐसे बचपन को इस विभीषिका से बचाने के लिए या फिर ऐसे माँ बाप के बच्चों को स्कूल ले जाने के लिए सबसे पहले उनके माँ बाप को इस बात को समझाना चाहिए कि उनके बच्चे पढ़ लिख कर क्या बन सकते हैं? कैसे वे उनकी इस दरिद्र जिन्दगी से बाहर निकल कर कल उनका सहारा बन सकते हैं. सर्वशिक्षा तभी सार्थक हो सकती है जब कि इसके लिए उनके अभिभावक भी तैयार हों . नहीं तो कागजों में चल रहे स्कूल और योजनायें - सिर्फ दस्तावेजों की शोभा बनती rahengin और इन घोषणाओं से कुछ भी होने वाला नहीं है. अगर इसे सार्थक बनाना है और बाल दिवस को ही इस काम की पहल के लिए चुन लीजिये . सबसे पहले बच्चों के माँ बाप को इस बात के प्रोत्साहित कीजिये कि वे अपने बच्चे को पढ़े लिखे और इज्जत और मेहनत से कमाते हुए देखें . अगर इस दिशा में सफल हो गए तो फिर ये सड़कों पर घूमता हुआ बचपन कुछ प्रतिशत तक तो सँभल ही जाएगा और इस देश का बाल दिवस तभी सार्थक समझना चाहिए .
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
कुछ नहीं रखा है?
"मैं बी ए कर रहा हूँ, आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग से सम्बन्ध रखता हूँ. सब लोग कह रहे हैं की 'यहाँ (भारत में) कुछ नहीं रखा है, बाहर निकल जाओ बहुत बहुत पैसा है.' आप बतलाइये मैं क्या करूँ?"
ये पत्र था एक लड़के का, जो करियर काउंसलर को लिखा गया था. ऐसे ही कितने युवा है, जो गुमराह किये जाते हैं. जिनकी शिक्षा का अभी आधार भी नहीं बना होता है. जिन्हें व्यावसायिक शिक्षा का ज्ञान तक नहीं होता है और उन्हें सिर्फ ढेर से पैसे की चाह होती है या फिर उनको ऐसे ही लोग सब्ज बाग़ दिखा कर दिग्भ्रमित कर देते हैं. इसमें इस युवा का भी दोष नहीं है क्योंकि सीमित साधन वाले माता पिता अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए बहुत क़तर ब्यौत करके खर्च पूरा करते हैं और बच्चे इस बात से अनभिज्ञ नहीं होते हैं. इस बात से उनको बहुत कष्ट होता है (सब को नहीं ) और वे जल्दी से जल्दी पैरों पर खड़े होकर बहुत सा पैसा कामना चाहते हैं. इसमें बुरा कुछ भी नहीं है किन्तु उसके लिए सही शिक्षा और सही मार्गदर्शन भी जरूरी है.
'यहाँ कुछ नहीं रखा है." कहने वाले वे लोग होते हैं जो ऐसे युवाओं को विदेश का लालच देकर वहाँ बंधुआ मजदूर बनवा कर खुद कमीशन हड़प जाते हैं. उनके दिमाग में इस तरह की बात डालना उनके भविष्य को गर्त में डालना है. पैसा कमाने का शार्ट कट या तो अपराध की दुनियाँ में कदम रखवा सकता है या फिर ऐसे ही लोगों के जाल में फँस कर अपने को बेच देने के बराबर होता है. अब तो हर क्षेत्र में आप चाहे कला, वाणिज्य या फिर विज्ञान स्नातक हों - करियर की इतनी शाखाये खुल रही हैं कि उसमें से चुनाव आपकी रूचि पर निर्भर करता है. इस दिशा की ओर ले जाने वाले संस्थान अपने देश में भी हैं, जो आपको नौकरी के साथ तकनीकी या विशिष्ट शिक्षा के अवसर प्रदान कर रहे हैं. आप काम करते हुए भी अपने करियर को अपने रूचि के अनुसार संवार सकते हैं.. इग्नू जैसे संस्थान है जो विश्व स्तर पर अपनी शिक्षा के लिए मान्य है.
वह तो अच्छा हुआ की उसने करियर काउंसलर से सलाह ले ली और उसे सही दिशा निर्देश प्राप्त हो गया अन्यथा ये युवा आसमां में उड़ने का सपना लिए अपने पर तक कटवा बैठते हैं कि एक बार उड़ने के बाद फिर पैरों पर चलने के काबिल भी नहीं रहते . इस विषय में मेरे अन्य ब्लॉग पर दी गयी पोस्ट इसका सत्य एवं ज्वलंत प्रमाण है.
ये पत्र था एक लड़के का, जो करियर काउंसलर को लिखा गया था. ऐसे ही कितने युवा है, जो गुमराह किये जाते हैं. जिनकी शिक्षा का अभी आधार भी नहीं बना होता है. जिन्हें व्यावसायिक शिक्षा का ज्ञान तक नहीं होता है और उन्हें सिर्फ ढेर से पैसे की चाह होती है या फिर उनको ऐसे ही लोग सब्ज बाग़ दिखा कर दिग्भ्रमित कर देते हैं. इसमें इस युवा का भी दोष नहीं है क्योंकि सीमित साधन वाले माता पिता अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए बहुत क़तर ब्यौत करके खर्च पूरा करते हैं और बच्चे इस बात से अनभिज्ञ नहीं होते हैं. इस बात से उनको बहुत कष्ट होता है (सब को नहीं ) और वे जल्दी से जल्दी पैरों पर खड़े होकर बहुत सा पैसा कामना चाहते हैं. इसमें बुरा कुछ भी नहीं है किन्तु उसके लिए सही शिक्षा और सही मार्गदर्शन भी जरूरी है.
'यहाँ कुछ नहीं रखा है." कहने वाले वे लोग होते हैं जो ऐसे युवाओं को विदेश का लालच देकर वहाँ बंधुआ मजदूर बनवा कर खुद कमीशन हड़प जाते हैं. उनके दिमाग में इस तरह की बात डालना उनके भविष्य को गर्त में डालना है. पैसा कमाने का शार्ट कट या तो अपराध की दुनियाँ में कदम रखवा सकता है या फिर ऐसे ही लोगों के जाल में फँस कर अपने को बेच देने के बराबर होता है. अब तो हर क्षेत्र में आप चाहे कला, वाणिज्य या फिर विज्ञान स्नातक हों - करियर की इतनी शाखाये खुल रही हैं कि उसमें से चुनाव आपकी रूचि पर निर्भर करता है. इस दिशा की ओर ले जाने वाले संस्थान अपने देश में भी हैं, जो आपको नौकरी के साथ तकनीकी या विशिष्ट शिक्षा के अवसर प्रदान कर रहे हैं. आप काम करते हुए भी अपने करियर को अपने रूचि के अनुसार संवार सकते हैं.. इग्नू जैसे संस्थान है जो विश्व स्तर पर अपनी शिक्षा के लिए मान्य है.
वह तो अच्छा हुआ की उसने करियर काउंसलर से सलाह ले ली और उसे सही दिशा निर्देश प्राप्त हो गया अन्यथा ये युवा आसमां में उड़ने का सपना लिए अपने पर तक कटवा बैठते हैं कि एक बार उड़ने के बाद फिर पैरों पर चलने के काबिल भी नहीं रहते . इस विषय में मेरे अन्य ब्लॉग पर दी गयी पोस्ट इसका सत्य एवं ज्वलंत प्रमाण है.
विदेश में नौकरी : एक खूबसूरत धोखा !
बुधवार, 27 अक्टूबर 2010
चार काँधे!
मैंने अपने जीवन में आदमी के बहुत सारे रूप देखे हैं. हर स्तर पर रिश्तों में, मित्रता में, कार्यक्षेत्र में और परिवार में भी. हर इंसान की अपनी अलग सोच और अलग ही व्यवहार होता है. कुछ सोचते हैं कि हमें किसी से कोई काम नहीं पड़ने वाला है. मेरे पास इतना पैसा है, इतनी इज्जत है मैं किसी का मुहताज नहीं. ये जीवन में उसकी सबसे बड़ी भूल होती है.
जीवन एक स्थिति वह आती है जब इंसान को सिर्फ इंसान के चार कंधों की जरूरत ही होती है. कोई पैसा कोई इज्जत उसके पार्थिव को उठा कर नहीं रख सकता है.
मैंने बचपन में अपनी दादी से एक कहानी सुनी थी. एक सरपंच अपने गाँव में बहुत ही पैसे वाला और रुतबे वाला था. उसको किसी से क्या जरूरत ? लेकिन गाँव का सरपंच था तो किसी के यहाँ भी कोई अच्छा या बुरा मौका होता सरपंच के घर सूचना जरूर आती और सरपंच अपने घमंड में उसके घर अपने नौकरों से अपने जूते भेज देते. ये क्रम तब तक चलता रहा जब तक वह इस स्थति से न गुजरे . सरपंच के घर में उनकी माँ का निधन हुआ तो पूरे गाँव में डुगडुगी पिटवा दी गयी कि सरपंच जी कि माँ का स्वर्गवास हो गया है तो सबको उनके यहाँ पहुँचना है. गाँव वाले उनके व्यवहार से पहले से ही क्षुब्ध थे. उन लोगों ने एक आदमी को पूरा गाँव वालों के जूते लेकर सरपंच के घर भेज दिया. अब सरपंच की माँ को कन्धा देने के लिए चार लोग भी नहीं थे. अपने ही नौकरों की सहायता से उन्होंने अपनी माँ के पार्थिव शरीर को श्मशान पहुँचाया और अपनी गलती के लिए सभी से क्षमा मांगी ताकि खुद उनकी अंतिम क्रिया में कुछ लोग तो हों.
उस समय. हम लोग समझते थे कि ये दादी ऐसी ही कहानी बना कर सुना देती हैं कहीं ऐसा होता है
लेकिन हाँ ऐसा होता है -- आज भी लोग इस कदर मानवता और आत्मीयता से दूर हैं कि चार काँधे के मुहताज हैं.
मेरे एक परिचित या कहूं कि वे मेरे बॉस है. बहुत ही सीमित रहने वाले. उनका अपने विभाग से भी अन्य लोगों से कम ही मिलना जुलना. किसी के यहाँ शादी ब्याह में आना जाना भी कम. हाँ वे अपने काम के प्रति पूर्णतया समर्पित बल्कि मैं कहूँगी कि ऐसा समर्पण अपने जीवन में मैंने नहीं देखा है. जो इंसान साठ साल से ऊपर होकर और किसी घातक बीमारी से ग्रसित हो और आज भी १८ -२० घंटे कार्य करने कि क्षमता रखता हो तो हम उसके सामने ये नहीं कह सकते कि अब बस. जब भी बाहर मीटिंग होती है तो हमारी मीटिंग १२ घंटे से कम नहीं होती है. वही ब्रेकफास्ट , वही लंच और वही से डिनर लेकर आप वापस आते हैं. मैं उनके इस समर्पण को सलाम करती हूँ. लेकिन एक इंसान के रूप में शायद वह विफल रहे. अपने परिवार को भी समय देने में वे नगण्य हैं.
पिछले दिनों ऑफिस से आने के बाद मुझे फ़ोन मिला कि सर के पिताजी का निधन हो गया. वे उस समय यहीं पर थे. शाम ७ बजे निधन हुआ था. उन्होंने अपने बहनों और भाइयों को खबर की रात में घर में वे , उनकी पत्नी, एक घरेलु नौकर और उसकी पत्नी थी. उनके आस पास वालों तक को खबर न दी. इतना जरूर की आई आई टी में विभाग से मेल भेज दी गयी कि ऐसा हुआ है और उनको १२ बजे भैरों घाट के लिए बस प्रस्थान करेगी. सुबह मैं अपने पतिदेव के साथ उनके घर पहुंचे तो तब तक उनके पास वाले भाई आ चुके थे और बाकी का इन्तजार कर रहे थे. पता चला कि अभी देर है. मेरे पतिदेव तो वापस हो लिए और मैं रुक गयी. वहाँ पर मेरे साथ कम करने वाले लोग, विभाग के ऑफिस से कुछ लोग भर थे. भैरों घाट जाने के लिए एक गाड़ी शव को ले जाने के लिए और एक बड़ी बस लोगों के लिए भेजी गयी थी.
शव को कन्धा देने के लिए चार मजबूत कंधे न थे क्योंकि ३ बेटे उनके ६० से ऊपर थे और एक पोता था. देने को उनके बेटों ने कन्धा तो दिया लेकिन उठाने में समर्थ न थे सो जो वहाँ लोग उपस्थित थे उन लोगों ने कन्धा देकर शव को गाड़ी में रखा. पूरे विभाग से एक भो प्रो. न था. उनके कोई पड़ोसी न थे. जब बस आकर खड़े हो गयी तो पड़ोसियों के कान खड़े हुए कि क्या बात है? सारी महिलाएं बाहर आ गयी . वे आपस में बातें करने लगी कि हम को तो पता ही नहीं लगा. अरे हम इतने पास हैं. उनकी बड़ी बस पूरी खाली थी उसमें सिर्फ उनके चार के घर वाले और ३-४ लोग कुल ऑफिस और प्रोजेक्ट के साथ गए थे. तब लगा कि आदमी का पैसे का या अपने ज्ञान का या अपनी पद का अहंकार उसे इस स्थान पर कितना नीचा दिखा देता है कि चार मजबूत कंधे न जुटा सके कि शव को कम से कम चौराहे तक तो कंधे तक ले जाया जा सकता.
जीवन में एक यही स्थिति ऐसी होती है , जहाँ इंसान को इंसान की जरूरत होती है. इस जगह न अहंकार रहता है और न पद का रुतबा और न ही दौलत का घमंड. इस लिए अगर मानव बन कर आये हैं तो हमें मानव ही बने रहना चाहिए. उससे ऊपर उठ कर आप कुछ नहीं बन सकते हैं.
जीवन एक स्थिति वह आती है जब इंसान को सिर्फ इंसान के चार कंधों की जरूरत ही होती है. कोई पैसा कोई इज्जत उसके पार्थिव को उठा कर नहीं रख सकता है.
मैंने बचपन में अपनी दादी से एक कहानी सुनी थी. एक सरपंच अपने गाँव में बहुत ही पैसे वाला और रुतबे वाला था. उसको किसी से क्या जरूरत ? लेकिन गाँव का सरपंच था तो किसी के यहाँ भी कोई अच्छा या बुरा मौका होता सरपंच के घर सूचना जरूर आती और सरपंच अपने घमंड में उसके घर अपने नौकरों से अपने जूते भेज देते. ये क्रम तब तक चलता रहा जब तक वह इस स्थति से न गुजरे . सरपंच के घर में उनकी माँ का निधन हुआ तो पूरे गाँव में डुगडुगी पिटवा दी गयी कि सरपंच जी कि माँ का स्वर्गवास हो गया है तो सबको उनके यहाँ पहुँचना है. गाँव वाले उनके व्यवहार से पहले से ही क्षुब्ध थे. उन लोगों ने एक आदमी को पूरा गाँव वालों के जूते लेकर सरपंच के घर भेज दिया. अब सरपंच की माँ को कन्धा देने के लिए चार लोग भी नहीं थे. अपने ही नौकरों की सहायता से उन्होंने अपनी माँ के पार्थिव शरीर को श्मशान पहुँचाया और अपनी गलती के लिए सभी से क्षमा मांगी ताकि खुद उनकी अंतिम क्रिया में कुछ लोग तो हों.
उस समय. हम लोग समझते थे कि ये दादी ऐसी ही कहानी बना कर सुना देती हैं कहीं ऐसा होता है
लेकिन हाँ ऐसा होता है -- आज भी लोग इस कदर मानवता और आत्मीयता से दूर हैं कि चार काँधे के मुहताज हैं.
मेरे एक परिचित या कहूं कि वे मेरे बॉस है. बहुत ही सीमित रहने वाले. उनका अपने विभाग से भी अन्य लोगों से कम ही मिलना जुलना. किसी के यहाँ शादी ब्याह में आना जाना भी कम. हाँ वे अपने काम के प्रति पूर्णतया समर्पित बल्कि मैं कहूँगी कि ऐसा समर्पण अपने जीवन में मैंने नहीं देखा है. जो इंसान साठ साल से ऊपर होकर और किसी घातक बीमारी से ग्रसित हो और आज भी १८ -२० घंटे कार्य करने कि क्षमता रखता हो तो हम उसके सामने ये नहीं कह सकते कि अब बस. जब भी बाहर मीटिंग होती है तो हमारी मीटिंग १२ घंटे से कम नहीं होती है. वही ब्रेकफास्ट , वही लंच और वही से डिनर लेकर आप वापस आते हैं. मैं उनके इस समर्पण को सलाम करती हूँ. लेकिन एक इंसान के रूप में शायद वह विफल रहे. अपने परिवार को भी समय देने में वे नगण्य हैं.
पिछले दिनों ऑफिस से आने के बाद मुझे फ़ोन मिला कि सर के पिताजी का निधन हो गया. वे उस समय यहीं पर थे. शाम ७ बजे निधन हुआ था. उन्होंने अपने बहनों और भाइयों को खबर की रात में घर में वे , उनकी पत्नी, एक घरेलु नौकर और उसकी पत्नी थी. उनके आस पास वालों तक को खबर न दी. इतना जरूर की आई आई टी में विभाग से मेल भेज दी गयी कि ऐसा हुआ है और उनको १२ बजे भैरों घाट के लिए बस प्रस्थान करेगी. सुबह मैं अपने पतिदेव के साथ उनके घर पहुंचे तो तब तक उनके पास वाले भाई आ चुके थे और बाकी का इन्तजार कर रहे थे. पता चला कि अभी देर है. मेरे पतिदेव तो वापस हो लिए और मैं रुक गयी. वहाँ पर मेरे साथ कम करने वाले लोग, विभाग के ऑफिस से कुछ लोग भर थे. भैरों घाट जाने के लिए एक गाड़ी शव को ले जाने के लिए और एक बड़ी बस लोगों के लिए भेजी गयी थी.
शव को कन्धा देने के लिए चार मजबूत कंधे न थे क्योंकि ३ बेटे उनके ६० से ऊपर थे और एक पोता था. देने को उनके बेटों ने कन्धा तो दिया लेकिन उठाने में समर्थ न थे सो जो वहाँ लोग उपस्थित थे उन लोगों ने कन्धा देकर शव को गाड़ी में रखा. पूरे विभाग से एक भो प्रो. न था. उनके कोई पड़ोसी न थे. जब बस आकर खड़े हो गयी तो पड़ोसियों के कान खड़े हुए कि क्या बात है? सारी महिलाएं बाहर आ गयी . वे आपस में बातें करने लगी कि हम को तो पता ही नहीं लगा. अरे हम इतने पास हैं. उनकी बड़ी बस पूरी खाली थी उसमें सिर्फ उनके चार के घर वाले और ३-४ लोग कुल ऑफिस और प्रोजेक्ट के साथ गए थे. तब लगा कि आदमी का पैसे का या अपने ज्ञान का या अपनी पद का अहंकार उसे इस स्थान पर कितना नीचा दिखा देता है कि चार मजबूत कंधे न जुटा सके कि शव को कम से कम चौराहे तक तो कंधे तक ले जाया जा सकता.
जीवन में एक यही स्थिति ऐसी होती है , जहाँ इंसान को इंसान की जरूरत होती है. इस जगह न अहंकार रहता है और न पद का रुतबा और न ही दौलत का घमंड. इस लिए अगर मानव बन कर आये हैं तो हमें मानव ही बने रहना चाहिए. उससे ऊपर उठ कर आप कुछ नहीं बन सकते हैं.
शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
करवा चौथ : एक सार्थक परिवर्तन !
करवा चौथ का सम्बन्ध हमेशा पति और पत्नी के रिश्ते को मजबूत बनने वाला होता है. इसमें एक दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पण के भाव को देखा जा सकता है. ये तो सदियों से चली आने वाली परंपरा है और कालांतर में इसमें सुधार भी होने लगा है और आज की पीढ़ी के तार्किक विचारों से कहीं सहमत भी होना पड़ता है क्योंकि उनके तर्क हमेशा निरर्थक तो नहीं होते हैं.
हमारी पड़ोसन उम्र के साथ साथ डायबिटीज और अन्य रोगों से ग्रस्त हैं , जिसके चलते उनको लम्बे समय तक खाली पेट रहना घातक हो सकता है. वह तो सदैव से बगैर पानी पिए ही इस व्रत को करती रहीं हैं. इस बार उनकी बहू ने बिना पानी डाले सिर्फ दूध की चाय उनको दी कि अब आपका पानी का संकल्प तो ख़त्म नहीं होता इसको आप पी लीजिये. फल भी ले सकती हैं. उनके इस तर्क को कि पति की दीर्घायु के लिए होता है और मैं नहीं चाहती कि ये खंडित हो. उनकी बहू का तर्क था कि आप देखिये मेरे माँ ने जीवन भर बिना पानी के व्रत रखा और मेरे पापा नहीं रहे बतलाइए इसमें कहाँ से ये बात सिद्ध होती है. अपनी निष्ठां को मत तोडिये लेकिन उसके लिए पूर्वाग्रह भी मत पालिए. सब कुछ वैसा ही चलता है कुछ नहीं बदलता है. कोई पति तो अपनी पत्नी के लिए व्रत नहीं रखता है तब भी पतिनियाँ उनसे अधिक जीती हुई मिलती हैं.
इस दिशा में नई पीढ़ी के विचार बहुत सार्थक परिवर्तन वाले मिलने लगे हैं. दोनों कामकाजी हैं तो फिर दोनों ही आपस में मिलकर तैयारी कर लेते हैं और पत्नी का पूरा पूरा ख्याल भी रखते हैं. पहले तो पत्नी दिन भर व्रत रखी और फिर ढेरों पकवान बनने में लगी रहती थी और चाँद निकलने तक तैयार ही नहीं हो पाती थी और फिर बस किसी तरह से तैयार होकर पूजा कर ली. फिर व्रत तोड़ कर सबको खाना भी खिलाना होता था. अब अगर अकेले होते हैं तो पति पत्नी कहीं भी बाहर जाकर खाना खा लेते हैं और अगर घर में भी हैं तो पति पूरा सहयोग खाने में भी करता है और तैयारी में भी. बल्कि अब तो ये कहिये की पत्नी के साथ पति ने भी व्रत रखना शुरू कर दिया है और उनकी दलील भी अच्छी है की अगर ये मेरे लिए भूखा रहकर व्रत कर सकती है तो क्या हम एक दिन भूखे नहीं रह सकते हैं. इससे पत्नी को भी मनोबल मिलता है और उनमें एक दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव भी बढ़ता है. आज की युवा पीढ़ी में ५० प्रतिशत युवा इसके समर्थक मिलते हैं.
पहले तो ये होता था की शादी के बाद ही करवा चौथ का व्रत किया जाता था किन्तु मुझे एक घटना याद है कि मेरे साथ एक इंजीनियर काम करता था और उसका अफेयर मेरे घर के पास रहने वाली लड़की से था. शादी के लिए संघर्ष चल रहा था क्योंकि वे दोनों ही अलग अलग जाति के थे. लड़की ने करवा चौथ का व्रत रखा लेकिन अपने घर में तो नहीं बताया , उसने लड़की को शाम को मेरे घर आने के लिए बोल दिया और खुद भी आ गया. मेरे साथ उसने करवा चौथ की पूजा की और फिर व्रत तोड़ कर अपने घर चली गयी. ईश्वर की कृपा हुई और उनकी शादी हो गयी और अब दोनों बहुत ही सुखपूर्वक रह रहे हैं. ये तो भाव है, जिससे जुड़ चुका है उसके लिए ही मंगल कामना के लिए व्रत किया जा सकता है.
अगर हम पुरुषों को नारी उत्पीड़न के लिए दोषी ठहराते हैं तो वे इतने निर्मल ह्रदय भी हैं कि वे अपनी पत्नी के लिए खुद भी त्याग करने में पीछे नहीं रहते हैं. मैं इस आज की पीढ़ी को सलाम करती हूँ जो कि एक दूसरे के लिए इतना सोचती है और इस दिशा में यह बहुत अच्छी सोच है. उनको पुरुष के अहंकार से दूर भी कर रही है. वह अब पत्नी को बराबरी का दर्जा देकर उसके हर कष्ट में खुद भी कष्ट उठाने के लिए तैयार रहता है. उम्मीद की जा सकती है कि आने वाली ये युवा पीढ़ी सदियों पुराने पूर्वाग्रह से मुक्त होकर एक खुशहाल जीवन व्यतीत करेगी. मेरी यही कामना है कि पाती पत्नी इसी तरह से एक दूसरे के प्रति भाव रखते हुए एक दूसरे का सम्मान करें. करवाचौथ का ये बदलता हुआ स्वरूप एक अच्छा सन्देश देता है.
मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
20 Oct. 1991 !
हाँ यही दिन तो था जब कि मेरे धर्मपिता (ससुर ) ने मेरा साथ छोड़ दिया था. मेरी शादी के सख्त विरोधी होने के बाद भी शायद मेरे व्यवहार कहूं या उनके और लोगों में इंसान पहचानने का हुनर कहूं वे मेरे हर जगह पर साथ खड़े थे. मेरे संघर्ष के दिनों में उस धैर्य और सांत्वना का हाथ मेरे सिर पर रखे रहे कि जंग तो हमने ही लड़ी थी लेकिन सिर पर छत होने का अहसास सदैव देते रहे.
वह हमारे संघर्ष के वर्ष था जब कि मेरे पति ने अपनी कंपनी से अपने उसूलों के चलते इस्तीफा दे दिया था और मैं उस समय एम एड करके निकली ही थी. पति के एक मित्र को अपने स्कूल के लिए प्रिंसिपल की जरूरत थी और वे मुझे अपने स्कूल में ले गए लेकिन हमारे रहने की जगह ऐसी थी कि स्कूल की बस सुबह तो आकर ले जाती लेकिन दोपहर में बच्चों को देर न हो इसलिए वह मुझे करीब दो किलोमीटर दूर छोड़ देती थी. जहाँ से मुझे अपनी बड़ी बेटी जो ४ साल की थी को लेकर पैदल ही आना पड़ता था. उस समय मैं दूसरी बेटी को भी जन्म देने की प्रक्रिया में चल रही थी.
संयुक्त परिवार में मेरी स्थिति या संघर्ष को कोई स्थान नहीं दिया जाता था . स्कूल से लौटकर घर की जिम्मेदारियों में कमी नहीं इजाफा ही था क्योंकि घर की छोटी बहू तो अधिक काम करने के लिए होती है. मैंने जिन्दगी में कभी हार नहीं मनी चाहे जितना भी संघर्ष क्यों न किया हो?
मेरे ससुर को मेरी स्थिति से पूरी सहानुभूति थी और वे जब मेरे स्कूल से लौटने का समय होता था तो छाता लेकर जहाँ मैं बस से उतरती थी वहाँ खड़े मिलते थे और फिर मेरी बेटी को गोद में उठा कर पैदल मेरे साथ चलकर घर लाते थे. ये क्रम उन्होंने मेरे सातवें महीने से लेकर पूरे समय तक जारी रखा. अप्रैल और मई के गर्मी में भी वो कभी आलस नहीं करते थे. रास्ते भर मुझे समझाते हुए आते थे कि बेटा तुमने इतनी पढ़ाई की है तो जल्दी ही कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी और फिर ये भी जल्दी ही कोई दूसरी कंपनी में लग जाएगा. उनकी उतनी सांत्वना मुझे एक संबल बनाकर सहारा देती रही.
मैं लड़ती रही . उस समय उनकी आयु ७१ वर्ष की थी जब वे मुझे लेने जाया करते थे और एक बच्ची को गोद में उठा कर चलते थे.
शायद उनके आशीर्वाद से ही मुझे ६ महीने बाद आई आई टी में नौकरी मिल गयी थी और पति भी फिर से नई कंपनी में जॉब करने लगे. लेकिन वे ५ महीने इंसां को परखने के लिए बहुत होते हैं. मेरा रोम रोम उनका ऋणी है और फिर हम दोनों ने उनके अंतिम समय में जो कुछ कर सकते थे किया . उसका बखान करके मैं अपनी बड़ाई नहीं करना चाहती हूँ. लेकिन उनके जो आखिरी शब्द थे वो थे - "बेटा मुझे या नहीं पता था कि तुम मेरी इतनी सेवा करोगी. मेरी आत्मा तुमसे बहुत खुश है."
मैं उनकी इस सेवा कर पाने के लिए अपने आई आई टी के सहयोगियों और बॉस दोनों की ही तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ क्योंकि मैं घर में रात में उनके दर्द के कारण उनके पास रहती थी और सो नहीं पाती थी. ऑफिस में मेज पर सिर रख कर सो जाया करती थी. कभी बॉस भी आ गए तो उन्होंने ने ये नहीं कहा कि काम कब करोगी? वैसे उस समय का जो वातावरण था वो एक परिवार की तरह था. कोई बॉस नहीं था सब एक दूसरे के सुख दुःख में शामिल होते थे. मेरे उस बड़े दुःख में सब शामिल रहे. अब सब मेरे साथ नहीं है लेकिन जो जहाँ भी है अब भी हम संपर्क में हैं .
वह हमारे संघर्ष के वर्ष था जब कि मेरे पति ने अपनी कंपनी से अपने उसूलों के चलते इस्तीफा दे दिया था और मैं उस समय एम एड करके निकली ही थी. पति के एक मित्र को अपने स्कूल के लिए प्रिंसिपल की जरूरत थी और वे मुझे अपने स्कूल में ले गए लेकिन हमारे रहने की जगह ऐसी थी कि स्कूल की बस सुबह तो आकर ले जाती लेकिन दोपहर में बच्चों को देर न हो इसलिए वह मुझे करीब दो किलोमीटर दूर छोड़ देती थी. जहाँ से मुझे अपनी बड़ी बेटी जो ४ साल की थी को लेकर पैदल ही आना पड़ता था. उस समय मैं दूसरी बेटी को भी जन्म देने की प्रक्रिया में चल रही थी.
संयुक्त परिवार में मेरी स्थिति या संघर्ष को कोई स्थान नहीं दिया जाता था . स्कूल से लौटकर घर की जिम्मेदारियों में कमी नहीं इजाफा ही था क्योंकि घर की छोटी बहू तो अधिक काम करने के लिए होती है. मैंने जिन्दगी में कभी हार नहीं मनी चाहे जितना भी संघर्ष क्यों न किया हो?
मेरे ससुर को मेरी स्थिति से पूरी सहानुभूति थी और वे जब मेरे स्कूल से लौटने का समय होता था तो छाता लेकर जहाँ मैं बस से उतरती थी वहाँ खड़े मिलते थे और फिर मेरी बेटी को गोद में उठा कर पैदल मेरे साथ चलकर घर लाते थे. ये क्रम उन्होंने मेरे सातवें महीने से लेकर पूरे समय तक जारी रखा. अप्रैल और मई के गर्मी में भी वो कभी आलस नहीं करते थे. रास्ते भर मुझे समझाते हुए आते थे कि बेटा तुमने इतनी पढ़ाई की है तो जल्दी ही कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी और फिर ये भी जल्दी ही कोई दूसरी कंपनी में लग जाएगा. उनकी उतनी सांत्वना मुझे एक संबल बनाकर सहारा देती रही.
मैं लड़ती रही . उस समय उनकी आयु ७१ वर्ष की थी जब वे मुझे लेने जाया करते थे और एक बच्ची को गोद में उठा कर चलते थे.
शायद उनके आशीर्वाद से ही मुझे ६ महीने बाद आई आई टी में नौकरी मिल गयी थी और पति भी फिर से नई कंपनी में जॉब करने लगे. लेकिन वे ५ महीने इंसां को परखने के लिए बहुत होते हैं. मेरा रोम रोम उनका ऋणी है और फिर हम दोनों ने उनके अंतिम समय में जो कुछ कर सकते थे किया . उसका बखान करके मैं अपनी बड़ाई नहीं करना चाहती हूँ. लेकिन उनके जो आखिरी शब्द थे वो थे - "बेटा मुझे या नहीं पता था कि तुम मेरी इतनी सेवा करोगी. मेरी आत्मा तुमसे बहुत खुश है."
मैं उनकी इस सेवा कर पाने के लिए अपने आई आई टी के सहयोगियों और बॉस दोनों की ही तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ क्योंकि मैं घर में रात में उनके दर्द के कारण उनके पास रहती थी और सो नहीं पाती थी. ऑफिस में मेज पर सिर रख कर सो जाया करती थी. कभी बॉस भी आ गए तो उन्होंने ने ये नहीं कहा कि काम कब करोगी? वैसे उस समय का जो वातावरण था वो एक परिवार की तरह था. कोई बॉस नहीं था सब एक दूसरे के सुख दुःख में शामिल होते थे. मेरे उस बड़े दुःख में सब शामिल रहे. अब सब मेरे साथ नहीं है लेकिन जो जहाँ भी है अब भी हम संपर्क में हैं .
सोमवार, 4 अक्टूबर 2010
सोच का आधार : शिक्षा या संस्कार !
इस लेख को लिखने के बारे में हमारे ब्लॉग से प्रेरणा मिली. इससे सम्बंधित कई बातें पढ़ी और फिर बार बार सिर उठाने लगीं. यूँ ही ब्लॉग पर पढ़ने के लिए खोज रही थी कि नजर पढ़ी ऐसे पोस्ट पर कि जिसमें टिप्पणियों की संख्या बहुत ज्यादा थी. सोचा जरूर कोई अच्छा विषय होगा और पढ़ा तो कुछ ख़ास नहीं लेकिन जब टिप्पणियां पढ़ी तो पता चला कि ये एक विवाद है और उस विवाद में धत तेरे की मची हुई थी. आरोप प्रत्यारोपों की श्रंखला चली थी . कुछ शब्दों में कहूं तो तू ऐसा, तू ऐसी ....... मेरी विचारधारा तो यही है कि अगर कोई ब्लॉग लिखने वाला है तो जरूर ही प्रबुद्ध तो होगा. भाषा संयम, संस्कारित और शिक्षित भी होगा . लेकिन उसमें मिले विचारों ने मेरी सोच को ध्वस्त कर दिया और मैं सिर थाम कर सोचने लगी कि हमारी सोच कहाँ से अधिक प्रभावित होती है?
हमारी सोच का आधार क्या है --संस्कार, शिक्षा या संगति?
संस्कार जो हमें आँखें खोलते ही देखकर, सुनकर या माता पिता प्रदत्त होते हैं. इनमें से कुछ व्यक्ति ग्रहण कर लेता है और कुछ छोड़ भी देता है क्योंकि कभी कभी बहुत सज्जन माँ बाप के बच्चे बहुत ही निकृष्ट सोच के निकल जाते हैं. माता पिता का हमेशा यही प्रयास रहता है की वह अपने बच्चे को अच्छे संस्कार दे. इसके बाद वह पाठशाला की दहलीज चढ़ता है और वह भी उसके लिए उसकी सोच और आचरण के लिए मंदिर के समान होता है. इस पर पैर रखने के पहले वह बहुत कुछ सीख चुका होता है. अपने बड़ों से संवाद में प्रयुक्त शब्दों का चयन, सम्मान और अपमान जनक भाषा का प्रयोग या फिर अपशब्दों का प्रयोग. इसमें बच्चों की बचपन की संगति भी बहुत काम आती है.
अगर माँ बाप व्यस्त हैं और बच्चा आया या नौकरानी के साथ रहता है, उसके बच्चों के साथ खेलता है तो संस्कार वही पाता है और कभी नहीं भी पाता है. लेकिन अबोध मष्तिष्क पर ये छाप अंकित जरूर हो जाती है. अच्छे उच्च पदस्थ अधिकारियों, नेताओं और महिलाओं तक को गालियाँ बकते हुए सुना है. वे गालियाँ उनकी शिक्षा में समाहित नहीं होती हैं. पुस्तकों में भी नहीं लिखी होती हैं. यदि शिक्षक से सुनी हैं तो वे उसके जीवन में स्थान ले सकती हैं. तब उच्च शिक्षा और पद शर्मिंदा है. अक्सर डॉक्टरों तक को मरीजों से बहुत ही बुरी तरह से बात करते हुए सुना है.
--अगर पैसे नहीं थे तो यहाँ क्यों आये? क्या धर्मशाला समझ रखी है?
--पहले पैसे जमा करो तब मरीज को हाथ लगायेंगे.
--इतने ही पैसे हैं तो किसी और डॉक्टर के पास जाओ.
जब कि डॉक्टर को मरीजों के प्रति सहानुभूति पूर्ण रवैया और मानव सेवा की शपथ दिलाई जाती है. हमारी सोच हमारे संस्कारों से अधिक प्रभावित होती है. मैंने कई अच्छे संस्थानों में छात्रों को गन्दी गन्दी गालियाँ बकते हुए सुना है. भले ही वे आपस में दे रहे हों या मजाक में बात कर रहे हों लेकिन उनकी मेधा और शिक्षा इसमें कहीं भी शामिल नहीं होती है.
हम अपने संभाषण में , आरोपों और प्रत्यारोपों में जो अपशब्द प्रयोग करते हैं, वे हमें ही लज्जित करते हैं - हम दूसरों की दृष्टि में गिर जाते हैं. जिसने भी पढ़ा और सुना वो आपके प्रति अच्छी धारणा तो नहीं ही बनाएगा. वह बात और है कि हम अपने को बहुत दबंग या मुंहफट साबित कर रहे हों लेकिन ये सम्मानीय व्यक्तित्व को धूमिल कर देता है. हमारे पास इनके प्रयोग की सफाई भी होती है लेकिन कहीं हम अपना सम्मान खो चुके होते हैं. हमारी प्रबुद्धता कलंकित हो चुकी होती है. इसमें स्त्री या पुरुष का भेद नहीं है. जो बात गलत है वह सब पर लागू होती है. ऐसा नहीं है कि हम पुरुष है तो वह क्षम्य है और स्त्री हैं तो जघन्य अपराध. अपनी सोच और अभिव्यक्ति पर संयम ही आपको सम्मानित स्थान देता है और सम्मान किसी बाजार से खरीदा नहीं जाता बल्कि हमारे विचार और अभिव्यक्ति ही इसके लिए जिम्मेदार होते हैं. इस लिए भाषा का संयम सबसे पहल कदम है जो आपको प्रबुद्ध ही नहीं बल्कि एक जिम्मेदार और संस्कारित मानव की श्रेणी में रखता है.
हमारी सोच का आधार क्या है --संस्कार, शिक्षा या संगति?
संस्कार जो हमें आँखें खोलते ही देखकर, सुनकर या माता पिता प्रदत्त होते हैं. इनमें से कुछ व्यक्ति ग्रहण कर लेता है और कुछ छोड़ भी देता है क्योंकि कभी कभी बहुत सज्जन माँ बाप के बच्चे बहुत ही निकृष्ट सोच के निकल जाते हैं. माता पिता का हमेशा यही प्रयास रहता है की वह अपने बच्चे को अच्छे संस्कार दे. इसके बाद वह पाठशाला की दहलीज चढ़ता है और वह भी उसके लिए उसकी सोच और आचरण के लिए मंदिर के समान होता है. इस पर पैर रखने के पहले वह बहुत कुछ सीख चुका होता है. अपने बड़ों से संवाद में प्रयुक्त शब्दों का चयन, सम्मान और अपमान जनक भाषा का प्रयोग या फिर अपशब्दों का प्रयोग. इसमें बच्चों की बचपन की संगति भी बहुत काम आती है.
अगर माँ बाप व्यस्त हैं और बच्चा आया या नौकरानी के साथ रहता है, उसके बच्चों के साथ खेलता है तो संस्कार वही पाता है और कभी नहीं भी पाता है. लेकिन अबोध मष्तिष्क पर ये छाप अंकित जरूर हो जाती है. अच्छे उच्च पदस्थ अधिकारियों, नेताओं और महिलाओं तक को गालियाँ बकते हुए सुना है. वे गालियाँ उनकी शिक्षा में समाहित नहीं होती हैं. पुस्तकों में भी नहीं लिखी होती हैं. यदि शिक्षक से सुनी हैं तो वे उसके जीवन में स्थान ले सकती हैं. तब उच्च शिक्षा और पद शर्मिंदा है. अक्सर डॉक्टरों तक को मरीजों से बहुत ही बुरी तरह से बात करते हुए सुना है.
--अगर पैसे नहीं थे तो यहाँ क्यों आये? क्या धर्मशाला समझ रखी है?
--पहले पैसे जमा करो तब मरीज को हाथ लगायेंगे.
--इतने ही पैसे हैं तो किसी और डॉक्टर के पास जाओ.
जब कि डॉक्टर को मरीजों के प्रति सहानुभूति पूर्ण रवैया और मानव सेवा की शपथ दिलाई जाती है. हमारी सोच हमारे संस्कारों से अधिक प्रभावित होती है. मैंने कई अच्छे संस्थानों में छात्रों को गन्दी गन्दी गालियाँ बकते हुए सुना है. भले ही वे आपस में दे रहे हों या मजाक में बात कर रहे हों लेकिन उनकी मेधा और शिक्षा इसमें कहीं भी शामिल नहीं होती है.
हम अपने संभाषण में , आरोपों और प्रत्यारोपों में जो अपशब्द प्रयोग करते हैं, वे हमें ही लज्जित करते हैं - हम दूसरों की दृष्टि में गिर जाते हैं. जिसने भी पढ़ा और सुना वो आपके प्रति अच्छी धारणा तो नहीं ही बनाएगा. वह बात और है कि हम अपने को बहुत दबंग या मुंहफट साबित कर रहे हों लेकिन ये सम्मानीय व्यक्तित्व को धूमिल कर देता है. हमारे पास इनके प्रयोग की सफाई भी होती है लेकिन कहीं हम अपना सम्मान खो चुके होते हैं. हमारी प्रबुद्धता कलंकित हो चुकी होती है. इसमें स्त्री या पुरुष का भेद नहीं है. जो बात गलत है वह सब पर लागू होती है. ऐसा नहीं है कि हम पुरुष है तो वह क्षम्य है और स्त्री हैं तो जघन्य अपराध. अपनी सोच और अभिव्यक्ति पर संयम ही आपको सम्मानित स्थान देता है और सम्मान किसी बाजार से खरीदा नहीं जाता बल्कि हमारे विचार और अभिव्यक्ति ही इसके लिए जिम्मेदार होते हैं. इस लिए भाषा का संयम सबसे पहल कदम है जो आपको प्रबुद्ध ही नहीं बल्कि एक जिम्मेदार और संस्कारित मानव की श्रेणी में रखता है.
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