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मंगलवार, 13 जुलाई 2010

रिटायमेंट एक अहसास!

जीवन में आरम्भ से ही व्यक्ति किसी न किसी गतिविधि से जुड़ा रहता है. उसका जीवन सक्रिय रहता है उनसे जुड़े कार्यों में. बचपन से शिक्षा, युवा होने पर करियर फिर नौकरी, परिवार और उससे जुड़ी जिम्मेदारियों को पूरा करते करते वह रिटायर्मेंट की उम्र तक आ जाता है.
                     अगर हम सोचें तो ये रिटायर्मेंट क्या है? जीवन में आने वाला एक अहसास और इस अहसास को हर व्यक्ति पाने ढंग से स्वीकार करता है और करना भी चाहिए लेकिन ये जीवन या जीवन की सक्रियता का अंत तो बिल्कुल नहीं है. हाँ वर्षों से चली आ रही एक जीवन शैली में परिवर्तन का समय होता है और जीवन के इस पड़ाव पर इसका आना भी जरूरी है.
                       मेरे पड़ोसी रिटायर्मेंट के एक साल पहले से ही  - रोज उलटी गिनती दुहराने लगे
 अब इतने दिन रह  गए है.
बस अब इतने महीने रह हैं.
अब इसके बाद मैं क्या करूंगा?
अब दिन कैसे काटेंगे?
मैं तो फिर खाना और सोने के अलावा कुछ भी नहीं करने वाला आदि आदि .
                    और आखिर वह दिन भी आ गया. सुबह से ही बड़े मायूस दिख रहे थे. शाम को उनकी ऑफिस से विदाई हुई और घर आये. घर में भी अच्छा माहौल बनाया गया था. वह दिन तो गुजार गया लेकिन दूसरे दिन दिन  चढ़े तक सोते रहे और फिर धीरे धीरे अपने सुबह के काम निपटाए 'अब कौन कहीं जाना है?' , 'अब कौन सी जल्दी है?' बस इसी तरह के जुमले सुनने को मिलते रहे.
                  रिटायर्मेंट थक कर बिस्तर पड़े रहने का नाम नहीं है. न ही व्यक्ति की क्रियाशीलता की इतिश्री है. यह एक ऐसा अवसर है जब कि आप पर थोपे गए बंधनों से मुक्ति का समय है. जिसमें बांध कर आप जीवन के ३५- ४०  वर्ष गुजारे हैं. अब आपका अपनी इच्छा से समय गुजरने का समय आ गया है - ये सोच कर शेष जीवन एन्जॉय कीजिये. वक्त काटना नहीं पड़ता है अपितु पता नहीं चलता है कि कहाँ गुजार गया?
                   नौकरी करने वाले हर व्यक्ति को एक निश्चित उम्र पर रिटायर्मेंट तो मिलेगा ही, उसको आप किस दृष्टि से देखते हैं, यह आपके ऊपर निर्भर करता है. यदि आप इस उम्र तक सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं तब तो बहुत ही अच्छा है  आप भाग्यशाली हैं. यदि नहीं मुक्त हुए हैं तब भी ये अच्छा समय है जब कि आप अपना सम्पूर्ण समय बिना किसी तनाव के इस कार्य में लगा सकते हैं. वक्त को काटने और न काटने के लिए परेशान नहीं होना चाहिए. यदि आप नौकरी के चलते कहीं आने और जाने के लिए सायं नहीं निकल पाए हैं तो अब उस समय का सदुपयोग कीजिये. अपने रिश्तेदारों के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ बनाइये. अपने हमउम्र लोगों के साथ समय गुजरिये, दूसरे लोगों के सुख दुःख में शरीक होइए. इस नियमबद्ध जीवन को जो आप अब त़क जीते आ रहे हैं  दूसरे नियमों और कार्यों में समाहित कीजिये.
                   आप को अब वक्त मिला है कि आप अपनी पत्नी के साथ वक्त गुजरिये. विवाह से अब तक जीवन की भागदौड़ में जो साथ बिताने वाले पलों की कमी थी उसे अब पूरा कीजिये. उनके साथ शहर से बाहर दर्शनीय स्थलो तीर्थस्थलों और पहाड़ी स्थलों पर जाकर अपना समय बिताकर यादगार क्षणों को संजो सकते हैं. यह मत सोचिये कि अब आप थक चुके हैं या किसी काबिल नहीं रहे. इसका रिटायर्मेंट से कोई सम्बन्ध नहीं है. ये तो अपनी सोच होती है. साठ साल की  उम्र में भी अपने को युवा महसूस करते हुए लोगों को देखा जा सकता है. ये भी तो सोचिये कि  नौकरी के अतिरिक्त कार्य करने वाले लोग कभी रिटायर्मेंट की बात सोच ही नहीं पाते हैं और होते भी नहीं है  व्यापारी, वकील, डॉक्टर जब तक ये सक्रिय रहते हैं कभी आराम या थकने की बात सोचते ही नहीं है. क्या ये ६० वर्ष के नहीं होते हैं   होते हैं लेकिन उन्हें रिटायर्मेंट जैसा अहसास नहीं होता क्योंकि उनका कार्य सतत चलने वाला होता है और उम्र बढ़ने के साथ साथ ही उसमें परिपक्वता आती है और वे दूसरों का मार्गदर्शन करने में लग जाते हैं. उनके पास वक्त नहीं होता.
                    मेरे पड़ोसी की तरह नहीं कि बहुत नौकरी कर ली अब तो आराम और सिर्फ आराम ही करना है. इस सिद्धान्त पर चलने वाले खाना और सोना ही शेष जीवन का लक्ष्य बना कर रहने लगते हैं. एक अच्छे खासे सक्रिय शरीर को निष्क्रिय बनाने के लिए पर्याप्त है. इस अहसास को अपनी सोच से सकारात्मक स्वरूप प्रदान कीजिये यही जीवन कि अनिवार्यता है.

मंगलवार, 15 जून 2010

मंत्र शक्ति का यथार्थ!

                    विषय एकदम अलग - मेरे लेखन का सबसे अलग विषय किन्तु ये मेरी सोच ही नहीं बल्कि यथार्थ के साथ जुड़ी मेरी वह सोच है जिसको मैंने भोगा है और इस भोग से ये महसूस किया कि इससे औरों को कुछ दिया जा सकता  है या बाँटा  जा सकता है तो क्यों न अपने इस वृहद् परिवार में बाँट कर चलें. 


                  मैं आध्यात्म से जुड़ना और उससे जुड़े हुए अनुभवों को सांझा करने की बात कर रही हूँ. हिन्दू धर्म में दुर्गा सप्तशती सभी ने देखी या  पढ़ी होगी . उसमें कुछ श्लोक हैं जो कि कवच कहे जाते हैं. उन मन्त्रों से हम अपने शरीर को सुरक्षित करते हैं. ऐसे ही अगर हम सहज रूप से देखे तो रामचरित मानस है - जिसकी चौपाइयां अपने आप में एक मंत्र हैं और उन मन्त्रों को हम अनुभूत करें तो वे आज भी ये सिद्ध कर देती हैं कि ये विश्वास की शक्ति कभी भी हमें निराश नहीं करती है. ये ज्ञान या विवरण देने से पहले मैं बता दूं कि ये मुझे अपने आध्यात्मिक गुरु जो मेरे फूफा जी भी थे - श्री जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव से प्राप्त हुआ था. बचपन से ही जब भी वे उरई  जाते मुझे अपने पास बिठा कर छोटी छोटी बातें सिखाया करते थे. कुछ मंत्र , कुछ ऐसी बातें जो हमें किताबों में नहीं मिल सकती थी. यही चीजें हम दृढ बनाती हैं - संघर्ष करने की शक्ति देती हैं. 
                  रामचरित मानस सिर्फ एक काव्य ही नहीं है बल्कि एक शक्तिशाली धार्मिक ग्रन्थ है . इसकी चौपाइयां कितनी अर्थपूर्ण और शक्तिपूर्ण है ये मैं बता रही हूँ.
                     मामभि रक्षय रघुकुल नायक,  धृत वर  चाप रुचिर कर सायक . 

ये वह चौपाई है - जिससे हम किसी आकस्मिक दुर्घटना से अपने को सुरक्षित कर सकते हैं. मात्र एक पंक्ति है लेकिन कितनी सशक्त है ये मैंने अपने जीवन में एक बार नहीं बल्कि बार बार अनुभव किया और जिन्हें समझा उनको दिया भी है. 
             सिर्फ एक घटना का उल्लेख कर रही हूँ, अगर मैं इसके घेरे में न होती तो शायद ये लिखने के लिए सबके सामने भी नहीं होती. 
                    आज से करीब ५ साल पहले की घटना है , मेरी माँ को यहाँ ऑपरेशन के लिए लाया गया था और हम दोनों ( मैं और मेरे पति) रात १२ बजे सारी तैयारी करवाने के बाद घर आ रहे थे. स्कूटर ४०-५० की गति से चला रहे थे. स्कूटर चलाने में कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. अचानक इन्होने मुझसे कुछ कहा और मुझे सुनाई दिया - 'रेखा मामभि रक्षय का जप करो' और मैं इस का मन ही मन जप करने लगी. बस ५ मिनट ही बीते थे की हमारा स्कूटर एक मिट्टी के ढेर पर चढ़ गया और इन्होने जो ब्रेक लगाया तो हमारा स्कूटर उछल गया. बस आगे जो देखा तो हमारी साँसें थाम गयी. नीचे करीब दस फुट गहरे गड्ढे में काम हो रहा था और उसके बाहर कोई अवरोध या रोशनी नहीं थी. वे गड्ढे के अन्दर रोशनी रख कर काम कर रहे थे. हमें सामान्य होने में करीब दस मिनट लग गए. लेकिन मैंने ये अहसास किया की इस मंत्र की शक्ति को हम नमन कर सकते. इसको हम घर से बाहर निकलते समय पढ़ कर ही निकलते हैं.

मंगलवार, 8 जून 2010

भटकती युवा पीढ़ी : निदान क्या हो?

                                            
  अभी दो दिन पहले कि बात है, एक बारात आई  और किसी का घर बसा लेकिन किसी कि दुनियाँ उजाड़ गयी. बारात में आये हुए लड़कों ने पास के घर में छत  पर  सोयी अकेली दो लड़कियों में से एक के साथ बलात्कार किया और उसको मार दिया. उसकी गूंगी बहरी  बहन ही उसके साथ थी. शादी के शोर में उसने बहुत चीखने की  कोशिश की लेकिन विवश थी. अपने सामने सब देखा और फिर बयान नहीं कर सकी. जब घर वाले वापस आये तो देखा और पुलिस को सूचना दी. शादी के विडियो से उस गूंगी लड़की ने इस अपराध में लिप्त लड़कों को पहचाना.


                               ये कोई खास घटना नहीं है, ऐसी घटनाएँ अखबार के पेज पर रोज दो चार होती ही हैं लेकिन अगर इसको देखा जाय तो ये हमारी भटकती हुई युवा पीढ़ी कि एक बानगी है.
                                उस लड़की से कोई लेना देना नहीं था. गेस्ट हाउस के बगल में उसका घर था. न वे लड़की को जानते थे और न कोई दुश्मनी ही थी. फिर ऐसा क्यों हुआ? क्या सिर्फ क्षणिक आवेग था? अगर हाँ तो इसके लिए दोषी कौन है? अगर आवेग इतना तीव्र हो कि हत्या तक करवा देता है तो वह आवेग एक मानसिक बीमारी बन चुका है. हम कहते हैं कि युवा पीढ़ी भटक रही है, लेकिन क्यों भटक रही है और इसके लिए समाज की क्या सहभागिता होनी चाहिए इस पर हम कम ही विचार कर पाते हैं. हम ये कह कर छुट्टी पा लेते हैं पता नहीं माँ बाप ने कैसे संस्कार दिए हैं? अगर माँ बाप स्वयं इस प्रवृत्ति के नहीं हैं तो कोई भी माँ बाप अपने बेटे या बेटी को इस तरह के कार्यों में लिप्त नहीं देखना चाहता है. फिर ये इस दिशा में कैसे भटक जाते हैं? छेड़छाड़ तो आम बात है.
                              अगर हम इसके कारणों पर विचार करें तो क्या हमें को यहाँ नहीं लगता है कि इन अपराधी प्रवृत्तियों का बीज कहीं घर के किसी कोने में ही प्रस्फुटित होता है, हम जान नहीं पाते कि हमारा ही व्यवहार बच्चे को कहाँ ले जा रहा है? इन  बीजों की  प्रजातियाँ और पर्यावरण अलग अलग होते हैं और उसी तरह के अपराध पलते हैं. बच्चों कि सबसे नाजुक उम्र होती है १२ से १७ साल के बीच की. इस दौरान उनके मन में बहुत सारे प्रश्न उठते हैं और उन्हें इनके उत्तरों की खोज होती है . वे सबसे पहले उनका उत्तर आने घर में खोजते हैं और अगर समझदार माँ बाप हुए तो उनके प्रश्नों का उत्तर बहुत धैर्य से देते हैं और नहीं तो आम माँ बाप  -
-तुमको इन सबसे क्या मतलब,
-अपने काम से काम रखो,
-आइन्दा ऐसी बातों को जानने कि कोशिश मत करना,
-इन बातों के लिए तुम बहुत छोटे हो,
                  इसके बाद कर्तव्यों कि इतिश्री समझ कर वे अपने अपने कार्यों में लिप्त हो जाते हैं लेकिन बच्चे का  किशोर मन इन बातों के उत्तर खोजता है. नहीं मिलता है तो अपने साथियों से जानने कि कोशिश करता है और कभी कभी उनके अनुसार ही आचरण भी करने लगता है.
                    इस बात की माँ बाप को खबर भी नहीं होती कि वो कहाँ रहता है? उसके साथी कौन है? उसकी गतिविधियाँ क्या हैं?  जब किशोर उम्र के बच्चे इस तरह के काण्ड अंजाम देने लगते हैं तो कटघरे में कड़े माँ बाप और परिवार वाले खुद से ही प्रश्न करते हैं कि गलती कहाँ हुई? वे खुद का आकलन नहीं कर पाते हैं. अपनी ओर से बहुत अच्छी परवरिश की. अच्छी से अच्छी सुविधाएँ दी फिर भी?
                   इस जगह मैं कुछ अपने विचारों के अनुसार आपको कुछ बताना चाहूंगी कि माँ बाप कितने भी व्यस्त हो, अगर उन्हें अपने बच्चे के लिए एक अच्छा भविष्य का सपना देखना है तो  उसको उपेक्षित मत कीजिये. जैसे और काम होते हैं वैसे ही कुछ समय बच्चों के लिए भी दीजिये. उनपर अपनी इच्छाएं  लादिये  मत , उनके मन की भी सुनिए और फिर उस पर विचार करके ही निर्णय लीजिये.  अगर उसकी सोच गलत है तो उस कोमल मन को बड़े धैर्य से अपनी सही बात के लिए तैयार कीजिये.
बच्चे की  टीचर से बराबर मिलते रहिये.
उसके मित्र वर्ग कि भी खबर रखिये - ये सबसे अहम् मुद्दा होता है कि कई जगह पर चालाक लड़के सीधे बच्चे को बरगला कर गलत रास्ते पर ले जाते हैं और उसके पैसे से अपने शौक भी पूरे करते हैं और अगर बहुत अमीर घर के बच्चे हुए तो आपका बच्चा उनके सामने खुद को हीन न दिखने के लिए गलत रास्ते अपना सकता है. इस लिए मित्र वर्ग की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है. उसके दायरे को हमेशा अपने नजर के सामने रखिये.
बच्चे के किशोर होने पर कभी उनको बाइक उपहार में मत दीजिये. युवा मन की दौड़ बहुत तेज होती है और बाइक उसको और गति देती है. ये उनके पढ़ने लिखने कि उम्र होती है और इसके लिए अन्य साधनों को उपलब्ध करिए. सुविधाएँ दीजिये लेकिन उसकी सीमाओं को भी निश्चित कीजिये. कंप्यूटर लाइए लेकिन उसके लिए अन्य सुविधाएँ अपने सामने प्रयोग करने दीजिये. बस उनकी गतिविधियों पर एक नजर रखी जानी चाहिए. उनकी रुचियों के अनुरुप उनको साहित्य और अन्य साधन उपलब्ध करिए.
                            ये बातें लड़कियों और लड़कों दोनों पर ही लागू होती हैं. उनके भविष्य के प्रति आप ९० प्रति शत जिम्मेदार होते हैं, इनसे बचा नहीं जा सकता है. पैसे कमाइए लेकिन बच्चों कि कीमत पर कमाया हुआ आपका पैसा आपको खुद आपकी  नजर में अपराधी बना कर कटघरे में खड़ा कर सकता है. इस विषय पर मनोविश्लेषकों के बहुत महत्वपूर्ण साबित होती है . इससे अतिरिक्त आप सभी के सुझाव भी आमंत्रित है कि  क्या और किया जाय जो इन गतिविधियों में लिप्त होने वाली युवा पीढ़ी की गति को विराम दिया जा सके.

सोमवार, 17 मई 2010

निर्णय से पहले सोचें और विचार करें !

                


     कल की ही बात है मेरे एक बहुत ही आत्मीय मेरे पास आये, उनको ये लगता है कि  मैं जो भी सलाह दूँगी वह सही और तार्किक रूप से बतलाई गयी होगी. उनकी समस्या भी बेटी से ही जुड़ी थी. वे उसकी शादी के लिए लड़का देख रहे थे और कुछ जगह बात भी चला रहे  थे.  उससे पहले भी उनके पास बेटी के साथ पड़े हुए एक ठाकुर लड़के का प्रस्ताव उनको मिला था. जिसको उन्होंने मुझे बताया था लेकिन बात आई -गयी हो गयी. उनकी गतिविधियाँ तेज हो गयी कि लड़की पुणे से गुडगाँव आ गयी है और मुझे सुविधा भी रहेगी.  एक दो जगह उन्होंने लड़की को दिखाया और लोगों ने उसे पसंद कर लिया लेकिन उनमें से कुछ उसको नौकरी नहीं करने देना चाहते थे. लड़की ने बी टेक  किया तो नौकरी न करवाने के लिए ये भी तैयार नहीं थे. 
                    जब लड़की ने देखा की पापा की गतिविधि में तेजी आ रही है तो उसने अपने साथी से कहा कि  वह पापा से बात करे. एकदिन पहले ही उस लड़के ने फ़ोन करके प्रोपोजल सामने रखा.  मेरे आत्मीय जी बहुत गुस्सा हुए, इसने हिम्मत कैसे की? उससे पहले उसके पिता ने भी बात की थी जिसको इन्होने भाव नहीं दिया था. उन्होंने अपनी पत्नी से कहा की बेटी से बात करो कि  क्या चक्कर है? बेटी से बात की तो उसने कहा कि  हाँ लड़का ठीक है मेरे साथ पढता था और वहाँ भी मेरी बहुत हेल्प की थी.  ये सुनकर वो और गुस्सा हो गए. 
                  सुबह ही मेरे पास आये कि मैं क्या करूँ? वो कभी साथ पढता था इसका मतलब ये तो नहीं कि हम शादी ही कर दें. 
                  मैंने उनको समझाया  कि अगर हम आज के परिवेश के अनुसार अपने को न ढाल सके तो पीछे रह जायेंगे. फिर अब हमारी जिन्दगी कितनी है, १०, २० साल और हमने अपनी जिन्दगी अपने अनुसार जी ली. इन बच्चों के सामने अभी पूरा भविष्य पड़ा है और आज के माहौल के अनुसार सब कामकाजी हैं. जो शारीरिक क्षमता हमारे अन्दर थी वह इन बच्चों में नहीं है क्योंकि हमने बचपन में प्रकृति से लेकर आहार तक जो शुद्धता को ग्रहण किया है वो  इन बच्चों को नसीब नहीं है. हमने नौकरी के साथ संयुक्त परिवार में ११ लोगों के साथ गुजारा किया और घर और बाहर सब बराबर हिस्सेदारी थी और आज भी है . हम अपने बच्चों से न ऐसी उम्मीद करें और न करनी ही चाहिए.  उनकी सोच और हमारी सोच अब अलग है. उन्हें अब अपनी सोच से मिलता हुआ जीवन साथी चाहिए.  उनका जीवन अभी शुरू होने जा रहा है , अगर उनकी आपसी समझदारी अच्छी है तो बेहतर है कि हम उनकी ख़ुशी में खुश हों. अब ये जाति-पांति  की संकीर्ण मानसिकता से आगे बढ़ जाना चाहिए. अगर वे हमारी पसंद के साथ सामंजस्य न बिठा सके तो ये हमें भी अफसोस रहेगा कि हमने इसी की बात मान ली होती कम से कम खुश तो रहती. अपने निर्णय में वे सहन करने और सामंजस्य बिठाने का पूरा प्रयास करते हैं और सफल भी होते हैं. कभी इसके भी अपवाद हो जाते हैं लेकिन फिर हम अपने चुनाव के लिए भी तो जुआ ही खेलते हैं. नए घर और नए लोगों के बीच बेटी देते हैं. बाहरी स्वरूप आप देख सकते हैं उनकी सोच और बाकी बातें बहुत बाद में पता चलती हैं. 
                        मैंने उन्हें समझा तो दिया और वे समझ कर चले गए. लेकिन मेरी ये राय सबके लिए है कि सिर्फ जाति के लिए हम योग्य लड़के को नकार दें या लड़की को स्वीकार न करें तो ये हमारी सबसे बड़ी भूल होगी और फिर हम बच्चों कि नजर में अपना वो सम्मान खो देते हैं जिसकी हम अपेक्षा रखते हैं.  ये मेरी राय है, इससे किसी की  सहमति या असहमति के मुद्दे को लेकर किसी विवाद की  अपेक्षा नहीं रखती हूँ.

शनिवार, 15 मई 2010

दिशा बदलें और बदलें शिक्षा का प्रारूप !

             
 
वैसे तो ये रोज की बात है की दो चार हत्या , आत्महत्या के प्रकरण अखबार में न रहे हों. हम पढ़ कर उसको फ़ेंक देते हैं, यह सोचते भी नहीं है की क्या इससे जुड़े लोगों को इसके कारणों से बचा पाने की जानकारी थी. क्या ये हत्या या आत्महत्या का ख्याल टाला नहीं जा सकता था?  काश ऐसा हो सकता तो कितने ही घर बच जाते, पता नहीं इन लोगों से जुड़े कितने लोग असहाय और बेसहारा बन कर रह जाते हैं.
                           एक दिन का अख़बार लेकर बैठी ही थी तो तीसरे पेज पर सिर्फ और सिर्फ हत्या और आत्महत्याओं की खबरे थी.
  •  एक  परिवार में दादी, माँ और बेटी तीनों की हत्या.
  • दो प्रेमियों की अलग अलग आत्महत्या
  • बाप बेटे की सोते समय हत्या
  • परीक्षा में फेल होने के डर से किशोरी ने फाँसी लगाई.
  • पिता के डांटने पर बेटे ने जहर खा लिया.
  • पति से झगडे में पत्नी ने बच्चे सही आग लगाकर आत्महत्या.
                  ये घटनाएँ सिर्फ एक शहर की हैं. ये रोज ही हर शहर में घटित होती रहती हैं और जो इसके शिकार होते हैं - उनके लिए कहीं इकलौता बेटा होता है, कहीं होनहार बेटी और कहीं तो पूरा का पूरा परिवार ही समाप्त.

           ये सब चीजें व्यक्ति के मानसिक अस्थिरता को प्रदर्शित करती हैं. आज के परिवेश में सिवा मानसिक तनावों , कुंठा, अवसाद के कुछ भी नहीं मिल रहा है. आज के परिवेश में ये घटनाएँ घट रही हैं ऐसा नहीं है कि उनको टाला नहीं जा सकता है किन्तु टालें तो कैसे? अंतर्मुखी प्रवृति ने मनुष्य को अन्दर ही अन्दर घुटने के लिए छोड़ दिया है. उसको व्यक्त करने के लिए कोई साधन भी उन्होंने नहीं खोजा है या फिर उनके संज्ञान में नहीं है. 
             अगर हत्याओं के कारणों पर अपना ध्यान केन्द्रित करें तो ये पाते हैं की प्रतिशोध, प्रतिष्ठा, प्रतियोगिता और प्रणय ये ही कारण होते हैं. 
                            जहाँ ३ सदस्यों की हत्या की गयी वो घर का दूधवाला था. दूध देने आया तो पहले से ही तैयार होकर आया था और फिर एक एक करके सबको ख़त्म कर दिया. उसे घर के मुखिया ने किसी दिन उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे घर में सफाई करवा ली थी और तभी से वह बदले के मौके की तलाश में था. वह ख़त्म को मुखिया को ही करना चाहता था लेकिन फिर जो मिल गया.
       प्रेमिका के आत्महत्या की खबर मिलने पर उसे देखने गया और लौट कर खुद फाँसी लगा कर झूल गया. अवसाद को झेल ही नहीं पाया.
        परीक्षा में फेल होने की आशंका में ही आत्महत्या, पिता के डांटने पर फाँसी लगाना. ये दो ऐसी स्थितियां है कि हर वर्ष परीक्षाफल आने के समय पर इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है. कितने आशंकित रहते हैं माँ बाप ? खासतौर पर जब की बच्चे प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहे होते हैं. वर्ष भर के परिश्रम के बाद भी जो  असफल हो  जाते हैं या फिर इच्छित फल नहीं पाते हैं तो वे अवसाद में चले जाते हैं. इस समय उन्हें बहुत सावधानी से देखने और नजर रखने की जरूरत होती है. आज जब कि प्रतियोगिता का जमाना है और हर कोई अपनी पूरी क्षमता से उसमें जुटा हुआ है तो ये मानसिक स्थिति बन जाना अस्वाभाविक नहीं होती है. पर इन स्थितियों से उन्हें बाहर लाने की जरूरत होती है.
                      हम बड़े फख्र के साथ कहते हैं की आज कल के बच्चों की IQ बहुत अच्छी  है , उनमें संवेदनशीलता भी उतनी ही अच्छी होती है. इसमें दोष किसी का नहीं है ये तो जीवन शैली का एक अंग बन चुका है. वह उम्र जो बच्चों के खेलने कूदने की होती है. माँ के आँचल में छुपकर अठखेलियाँ करने की होती है, तब न उन्हें  ममता मिल पाती है और न ही स्वस्थ संरक्षण.  इस बात के लिए मैं माँ को दोषी नहीं ठहरा सकती क्योंकि वह खण्डों में बँटी वह चट्टान है जिसको हर कोई अपने अपने तरीके से उपयोग करना चाहता है. 
                उसका प्रयोग पति अपनी इच्छानुसार, सास ससुर अपनी, अगर वह कामकाजी है तो कार्यस्थल पर अपने कार्य स्वामी के इच्छानुसार चलने को मजबूर होती है. अगर घर में रहती है तो जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी हुई. निम्न मध्यम वर्ग के लिए स्थिति और भी गंभीर होती जा रही है. बच्चे अपनी माँ के पास कितने घंटे रह पाते हैं. कितना वो प्यार दे पाती है. 
                   बच्चों को उस उम्र में क्रच और डे केयर सेंटर में छोड़ दिया जाता है जब कि वे बोलना भी नहीं सीख पाते हैं. उनका कोमल मष्तिष्क उस आयु में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ग्रहण करने लगता है. वह पूर्णतया सकारात्मक नहीं होता है. जब ये कार्य एक व्यवसाय के रूप में किया जाता है तो बच्चों के लिए घर जैसा माहौल की उम्मीद नहीं की जा सकती है. जैसे जैसे वे बड़े होते हैं -वहाँ की आया ( जो प्रशिक्षित नहीं होती) जो संचालिका होती हैं वे भी बाल मनोविज्ञान से वाकिफ नहीं होती हैं.  सिर्फ और सिर्फ एक व्यवसाय के रूप में काम करती हैं. इनमें कुछ बच्चे अंतर्मुखी होते हैं और कुछ आक्रामक भी बन जाते हैं. उन्हें समझाने या फिर उनके मनोभावों के अनुरूप कोई भी व्यवहृत नहीं करता. ये बालमन की नींव होती है और जैसे भी उनके मन में बस गया वह अमिट हो जाता है. या फिर उसकी शिक्षा के साथ उनको बाल मनोविज्ञान के अनुसार शिक्षित किया जाय और उनके लिए प्रशिक्षित टीचर रखें . 
                   जहाँ से बच्चा स्कूल के वातावरण में प्रवेश कर जाता  है, वह अपनी टीचर को अपना आदर्श मान लेते हैं. माँ की बात से अधिक उन्हें टीचर की बात सही लगती है. मैंने कभी अपने एक आलेख में ये जिक्र किया था की लड़कियों के साथ हो रही छेड़खानी और अन्य असामाजिक व्यवहार से बचाने के लिए उन्हें बचपन से ही मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे अपनी सुरक्षा करने में स्वयं को सक्षम पायें. ठीक इसी तरह से बचपन से ही सभी स्कूलों में योग , ध्यान का भी समावेश होना चाहिए. जैसे आज बच्चों में बड़ी तेजी से परिपक्वता के लक्षण नजर आने लगे है तो ये स्वाभाविक है कि वे मानसिक तौर पर अपनी आयु से अधिक संवेदनशील और विचारशील हो रहे हैं. उनकी मनःस्थिति को समझाने की भी बहुत जरूरत महसूस होने लगी है.
                  
           अगर इनके पीछे होने वाले कारणों को देखने की कोशिश की जाय तो हमें यही पता चलता है की ये तनाव और कुंठाएं उसको परिजनों से भी मिलती हैं. हम बहुत समझदार होने का दवा करते हैं लेकिन फिर भी कभी हमारे ही बच्चे आपस में तुलना करने लगते हैं कि आप दूसरे को अधिक प्यार करती हैं और मुझे कम. ये भाई और बहन में तो बहुत ही अधिक पाया जाता है.तब हमें स्वयं खुद को भी तौलने की जरूरत होती है कहीं हम जाने अनजाने में ऐसा व्यवहार तो नहीं कर बैठते हैं कि बच्चों के मन में ये बात घर कर जाए. किशोरावस्था सबसे नाजुक होती है, वे त्वरित निर्णय लेकर उसको अनुप्रयोग कर डालते हैं. इस दृष्टि से कभी भी किसी भी परिप्रेक्ष्य में दो बच्चों की तुलना नहीं करनी चाहिए. सब में अपनी अपनी विशेषताएं होती हैं और सबकी अपनी अपनी बुद्धिमत्ता और ग्रहणशीलता  होती है.

                 इस तरह की घटनाक्रम किशोरावस्था या इससे आगे और पीछे की आयु वाले लोगों के द्वारा ही दोहराए जा रहे हैं. चाहे कुंठा , अवसाद या तनाव कोई भी स्थिति हो, यदि व्यक्ति किसी के साथ बाँट लेता है तो उसके मन का बोझ हल्का हो जाता है लेकिन यदि वह अपने तक ही सीमित रहता है तो उससे उबर नहीं पता है बल्कि उसी के बीच डूबता और तैरता रहता है. निराशा की स्थिति में उसे हर तरफ से निराशा हाथ लगती है और वे अपनी समस्या में किसी को शामिल भी करना पसंद नहीं करते हैं. यदि उन्हेंस्कूल स्तर से ही इस तरह की शिक्षा दी जाय तो वे आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण जैसी बातों से परिचित हो जायेंगे और फिर उनके भटकते हुए मन को योग और ध्यान के द्वारा केन्द्रित किया जा सकता है. जो दूसरों से नहीं ही बांटना चाहते हैं , उनके लिए ये बात समझाई जा सकती है कि  बहुत तनाव या अवसाद की स्थिति में डायरी लिखना भी एक बहुत अच्छा अभिव्यक्ति का साधन होता है और मन के गुबार या कुंठा को वह एक बार चाहे किसी से कहकर या फिर लिखकर व्यक्त कर देता है तो वो इस स्थिति से उबर आता है. अब ये स्थिति युवाओं के मामले में नहीं बल्कि बालपन से ही उभर कर सामने आ रही हैं. बच्चों के मनोविज्ञान से परिचित शिक्षिकाओं को ही इस कार्य के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए. अगर इस दिशा में सकारात्मक प्रयास किये जाएँ तो जल्दी ही हमें उसके परिणाम भी दिखने लगेंगे. 
                         इस समस्या के बारे में यदि और अच्छे तरीके आप लोग सुझा सकें तो और भी बेहतर होगा क्योंकि मनोविज्ञान और मनोचिकित्सक की आवश्यकता आज के समय में अधिक महसूस की जा रही है. 

शुक्रवार, 7 मई 2010

जनगणना और जाति सहित जनगणना !

                             देश में जनगणना का कार्य आरभ्य होने जा रहा है, हमारा गृह मंत्रालय इसके लिए प्रारूप तैयार कर चुका है. कल ये प्रश्न उठा कि इनमें जाति के उल्लेख के लिए कोई कॉलम नहीं है और गृह मंत्री इसके लिए तैयार भी नहीं है. लेकिन जाति के उल्लेख के बारे में सभी विपक्षी दल ही नहीं बल्कि सत्ता दल के  लोग भी एक मत हैं. हमारी व्यवस्था में इसको बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. 


क्योंकि प्रारूप तैयार हो चुका है और प्रिंट होकर तैयार भी हो चुके हैं. 

                              जनगणना कोई रोज होने वाली प्रक्रिया नहीं है और न ही किसी एक व्यक्ति के निर्णय से होने वाला काम है. गहन विचार के बाद ही प्रारूप तैयार होना चाहिए था और जब हमारे देश में जती के आधार पर कुछ क्षेत्रों में सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं तो फिर इसका संज्ञान तो बहुत जरूरी हो जाता है. हमारे देश में कितनी पिछड़ी जातियाँ है और उनकी संख्या कितनी है? इसी तरह से जनजातियों , अनुसूचित जातियों और इससे भी बढ़कर अल्पसंख्यक वर्ग की गणना कि जानकारी भी बहुत जरूरी है. 
                            हमारे संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग को विशिष्ट सुविधाएँ और आरक्षण प्रदान किया गया है और इतने वर्षों में ये अल्पसंख्यक कहलाने वाले वर्ग उस सीमा से आगे बढ़ चुके हैं लेकिन आरक्षण के अधिकारी बने हुए हैं क्यों कि उनको संविधान में  घोषित किया गया. इस अल्पसंख्यक वर्ग को भी पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है. वर्षों से चली आ रही परंपरा को अब ख़त्म करना भी आवश्यक हो चुका है. या फिर इस जाति व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया जाय और इसका उल्लेख कहीं भी नहीं होना चाहिए . अगर इसको जारी रखना है तो हमें ज्ञात होना चाहिए कि हम कितने हैं ? हमारा पूरे देश में क्या  प्रतिशत है ? और क्या प्रतिनिधित्व है.
                             वैसे इस जनगणना के साथ यदि वाकई जाति के स्थान पर राष्ट्रीयता को महत्व दिया जाय तो देश का कल्याण हो सकता है.  जो गणना हो वह भारतियों की हो,  कोई जाति  नहीं ,कोई वर्ग नहीं. हाँ अगर उत्थान की दृष्टि से देखना है तो हमें ये स्तर और वर्ग आर्थिक विकास की दृष्टि से बनाने चाहिए ताकि जो पिछड़े हैं या आर्थिक तौर से कमजोर हैं , उनको आरक्षण का लाभ मिल सके.  सिर्फ जाति के नाम पर आरक्षण लेने वालों में समृद्ध और समृद्ध होता जा रहा है और जो पिछड़े हैं वे वहीं के वही हैं उन तक लाभ पहुँच ही नहीं पाता है.

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मजदूर दिवस - !

                         आज मजदूर दिवस है - आज कोई मजदूर काम नहीं करेगा? 
  • लेकिन क्या और दिवसों की तरह से इन मजदूरों का भी कहीं सम्मान किया जाएगा? 
  • सरकार आज का वेतन इनको मुफ्त में बांटेगी? 
  • वे संस्थाएं जो मजदूर दिवस का ढिंढोरा पीटती रहती हैं, इनको एक दिन कहीं होटल में सही ढाबे में ही मुफ्त खाना खिलवायेंगी ? 
  • इनके इलाके में कोई ठेकेदार या पैसे वाला मुफ्त में मिठाई बांटेगा? 
  • आज इनके मनोरंजन के लिए कोई कार्यक्रम इनकी झुग्गी - झोपड़ियों के आस-पास किये जायेंगे? 
                         अरे ऐसा कुछ भी नहीं होगा. आज की बिचारों की दिहाड़ी ही मारी जायेगी. इससे तो अच्छा होता कि   आज के काम के बदले इनको दुगुनी मजदूरी दे दी जाती तो ये भी इस दिन की कुछ ख़ुशी मना लेते. हाँ बड़ी बड़ी सरकारी   फैक्टरी में भले ही इनके हितार्थ कुछ होता हो. लेकिन वे मजदूर जो बिहार , छत्तीसगढ़, झारखण्ड , असम से तक आ कर यहाँ भवन निर्माण में कम करते हैं, उनकी कोई यूनियन नहीं होती. यहाँ तक की औरत और आदमी के काम के घंटे तो बराबर होते हैं लेकिन उनकी मजदूरी में फर्क होता है. 
बड़ी बड़ी फैक्ट्री और मिलों  में तो उनको बोनस भी मिल जाता है लेकिन ये जो वाकई मजदूर है, इनके लिए न कोई भविष्य है और नहीं वर्तमान. जब तक इनके हाथ पैर चल रहे हैं, ये कमाते रहेंगे और फिर इसके बाद इनके बच्चों को भी यही करना होता है. 
                      हाँ इन मजदूरों के संदर्भ ये जरूर जिक्र करना चाहूंगी की आई आई टी में  निर्माण कार्य में काम करने वाले मजदूरों के बच्चों के लिए यहाँ के छात्र शिक्षित करने में खुद अपना समय देते हैं और उनके लिए जरूरी सामग्री की व्यवस्था भी करते हैं. अगर वे स्वयं यहाँ तक पहुंचे हैं तो उनमें मानवता के ये गुण शेष हैं. उनका यही प्रयास इस मजदूर दिवस के लिए सबसे सार्थक है. क्योंकि इन मजदूरों से उनका सिर्फ मानवता का रिश्ता है. वे उनके नौकर नहीं है, उनके लिए काम नहीं करते हैं फिर भी ये छात्र चाहते हैं की उनके बच्चे इतना पढ़ लें की पिता की तरह ईंट गारा ढो कर जीवनयापन न करें.