कुछ खबरें कुछ सोचने पर मजबूर कर देती हैं और वही विषय एक विचारणीय विषय होता है.
आज सुबह अखबार में पढ़ा कि एक संगठन ऐसा भी है जिसे 'अखिल भारतीय स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकारी' कहा जाता है. इस संगठन ने मांग की है की उनको उत्तराधिकारी होने के नाते पेंशन दी जाए. वे जो देश के लिए अपना जीवन न्योछावर कर गए , उन्होंने कभी भी पेंशन की मांग नहीं की. ये सरकार की व्यवस्था थी की उनको सम्मान दिया गया और वे इसके सच्चे हक़दार थे. उससे बाद उनके बच्चों के लिए आरक्षण की व्यवस्था भी रही , जो आज भी है. यहाँ तक तो सब मान्य रहा लेकिन सिर्फ उत्तराधिकारी होने के नाते पेंशन की मांग कहाँ तक जायज है. अगर उत्तराधिकारी अक्षम है तो इसके लिए देश जिम्मेदार नहीं है. जैसे देश के अन्य नागरिक अपने जीवनयापन के लिए परिश्रम कर रहे हैं , नौकरी या व्यवसाय कर रहे है , वे भी करें. सिर्फ पिता और दादा के नाम पर अकर्मण्य बन पेंशन की मांग कहीं भी जायज नहीं है.
हमारी सरकार उनको ईमानदारी से पेंशन नहीं दे पा रही है, जो अपाहिज , अशक्त और निराश्रित हैं और जो उसके प्रयास हैं भी वे बीच में ही लोग खाए जा रहे हैं. असली हक़दार उससे वंचित ही है. सरकार वृद्धों के लिए जो प्रावधान कर रही है , उसको समर्थ उड़ा रहे हैं . पेंशन के हक़दार सिर्फ अशक्त और निराश्रित लोग ही होने चाहिए.
फिर और एक नए संगठन की नींव भी तो पड़नी बाकी है कि हमारे सांसद और विधायकों के आश्रितों के लिए भी पेंशन की व्यवस्था होनी चाहिए. ये हमारे विधायक कितने काबिल होते हैं , वे अपने जीवन काल में ही अपनी आगामी पीढ़ियों के लिए कमा कर रख जाते हैं. खुद सरकारी संपत्ति पर मुफ्त यात्रा और पेंशन का सुख उठाते ही रहते हैं. इनकी लम्बी चौड़ी सुविधायों और वेतन भत्ते से कई परिवारों का खर्चा चल सकता है , किन्तु वाह रे हमारी व्यवस्था हर पांच साल में एक नयी फौज तैयार हो जाती है जो हमारी जेब को काट कर अपने एशो - आराम का जीवन जीने के लिए बीमा करवा लेते हैं. भले ही विधान सभा और संसद में बोलने की हिम्मत न जुटा पाते हों लेकिन देश के सम्माननीय नागरिक होने का तमगा तो लग ही जाता है.
आज की पीढ़ी से अनुरोध है की अपने जीवन के लिए अपने पूर्वजों का सहारा न लेकर खुद कमा कर खाइए. ये पेंशन के रूप में मिली भीख एक सक्षम व्यक्ति के लिए शोभनीय नहीं है. एक मेहनतकश की कमाई का एक हिस्सा इस पेंशन के रूप में निकल जाता है. वह मेहनत करके भी आधे पेट सो रहा है और कुछ को बैठे बैठे खाने का जुगाड़ बन रहा है. आज के प्रबुद्ध जन भी इसके बारे में सोचे न कि अन्धानुकरण कर उनको समर्थन दें.
मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
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