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मंगलवार, 20 अगस्त 2013

सफल आई ए एस बनने के गुर !

                           हमारे देश में प्रतिभाशाली युवा अपनी मेधा को अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए लगा देते हैं . वह मंजिल भी इतनी आसन नहीं होती है . रात दिन के कठिन परिश्रम करके वह आई ए एस/पी सी एस बनने का सपना पूरा कर पाते हैं लेकिन फिर भी उनकी मेहनत कितनी सफल हुई ?  इसके लिए बहुत सारी कसौटियों पर उन्हें  खरा उतरना होता है और वह भी लोगों के पद , सम्बन्ध सभी के अनुरूप सबके लिए खरा उतरने के लिए उन्हें कुछ और  पढाई करनी होगी .  वह  पढाई करते हैं चयन के लिए और चयनित होने के बाद -- अपने काम को सफलतापूर्वक करने के बारे में उन्हें कोई सयाना आदमी बताने वाला नहीं होता है सो उनके रास्ते में ढेर सारे पत्थर पड़े होते हैं और उन्हें ठोकर भी नहीं मार सकते हैं और अगर मारने की कोशिश करें भी तो कभी कभी वे खुद ही घायल हो जाते हैं .अपने पद पर रहते हुए निर्विवाद रूप से कार्य करते हुए निरंतर तन, मन , धन और पद पर अपना स्थायित्व  बनाये रख सकें . बस यही चूक हो जाती है . जिन्हें अपनी मेधा पर विश्वास होता है और वे उसका अवसर के अनुरूप प्रयोग कर लेते हैं  और वे पद पर रहते हुए यश लाभ , धन लाभ और पद लाभ सभी का पूरा पूरा आनंद उठाते हैं . लेकिन जो तैयारी  के साथ ये अवसरवादिता और 'यस सर' के पाठ को सिर्फ सरसरी निगाह से देख भर लेते हैं और आगे बढ जाते हैं . बस वही जो चयनित हो जाए  तो वे अपने पद पर जाने से पहले कुछ गुर हमसे सीख लें तो 200 प्रतिशत सफलता की गारंटी और जरा सी भी चूक हो तो पूरे  पैसे वापस करने की गारंटी . इसके लिए उन्हें पद पर रहकर समय बर्बाद करने की जरूरत नहीं बल्कि वे परिणाम आने के बीच के समय में हमसे संपर्क कर गुर सीख सकते हैं . इस कोचिंग के ज्वाइन करने के बाद मजाल है कि  किसी भी नजर से आप असफल हो जाएँ बल्कि अपने सेवाकाल में किसी भी तरीके से बालबांका भी नहीं हो सकता है . 
                      चलिए कोचिंग तो बाद में शुरू करेंगे कुछ बिंदु तो  हम उजागर कर ही सकते हैं . सांकेतिक जानकारी आतंरिक विषय को उजागर करने के लिए पर्याप्त होती है --

१. सांसद/विधायक  / सांसद* पति / सांसद पत्नी / सांसद पुत्र/ सांसद पुत्री / सांसद दामाद / सांसद साले आदि आदि रिश्तों के अतिरिक्त उनके चमचों की बात को वेदवाक्य मानकर अपने पद की गरिमा बचाए रखने में सहायक होगा . *सांसद के साथ विधायक भी पढ़ा जाय 
२. दलों के स्वयमभू / पुत्र / पुत्री / पुत्रवधू / दामाद/ खानदानी या मुंहबोले चमचों के सामने नजरें झुकाकर बात करें . उनके चरण स्पर्श करने का गुण विक्सित कर लें तो सोने पे सुहागा . 

३. सांसद / विधायक और उनसे जुड़े सभी मान्यवर के आदेश पर सिर्फ 'यस सर' ही बोले , सुनने की शक्ति विकसित कर लें ताकि फटकार जैसी चीजों से दो चार न होना पडे . 

४. इमानदारी , कर्तव्यपरायणता / न्यायप्रियता / पदनिष्ठा जैसे अवगुणों को सदैव दबा कर रखें अगर न रख सकें तो सत्येन्द्र दुबे और मंजुनाथ जैसे अफसरों की याद कर लें . 

५. भ्रष्टाचार जो पूरे देश के शक्तिशाली हाथ वालों की रगों में खून बनकर बह रहा है , अपने खून में शामिल कर पायें या नहीं उसे देख कर अनदेखा करना सीख लें या फिर जहाँ वे कहें वहां पर चिड़िया बिठा दें , सुखी रहेंगे . 

६. जिनके ऊपर दबंगों का हाथ हो उनसे उलझने की कोशिश न ही करें नहीं तो पद की बात छोडिये , आपके जीवन की गारंटी पीरियड बिना किसी नोटिस के ख़त्म किया जा सकता है . 

                                ये तो कुछ पॉइंट हैं - इनसे जुड़े बहुत सारे मुद्दे पढाई के दौरान समझाये जायेंगे . जो भी सुधिजन इसको पढ़ें कृपया भावी नौकरशाहों तक जरूर पहुंचा दें .



   

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

पापा को गए 22 साल हुए !

                                  आज 10 अगस्त को पापा को  हमसे दूर गए हुए 22 साल हो गए . लेकिन  क्या कभी वे हमारी यादों से दूर हुए शायद कभी नहीं क्योंकि जनक वो थे हमारे .   अपने सारे   संस्कार , विचार और जीवनचर्या को पूरी पूरी तरह से हमको दे कर गए हैं .
                                 उन्होंने कभी अपने और अपनी जरूरतों को सामने प्राथमिकता  नहीं  दी थी . जबकि एक दुनियांदार इंसान  के लिए ये बहुत जरूरी होता है . किसी भी जरूरतमंद को देखा तो वे कभी न नहीं कर पाते थे .   कई बार हुआ कि पापा खेती जुता कर गाँव से पैसे लेकर आये और जोतने वाला रोने  लगा तो पैसे  छोड़ कर ही चले आये और घर में सब लोग उनको  कहने लगते कि इतने दयालु बनने की क्या जरूरत है ? लेकिन नहीं जरूरतमंद अगर उनके पास पैसे हुए और अगर माँगने लगा तो बगैर कुछ सोचे अपनी जरूरत को न देखते हुए उसको दे देते . भले भी फिर वो कभी न मिला हो .
                                   उनके उस गुण को हम भाई  बहन ने भी ग्रहण किया , ग्रहण क्यों  वह तो हमें विरासत में मिला और इस बात का आज के  समय में लोग नाजायज फायदा भी उठा लेते हैं लेकिन कुछ गुण ऐसे होते हैं की धोखा खाकर भी इंसान बदल नहीं पाता है. शायद उनके  रास्ते  पर चलकर हम उनके प्रति अपने सच्चे मन से कृतज्ञता ज्ञापित कर पाते है . उन्हें मेरा शत शत नमन और श्रद्धांजलि .

बुधवार, 10 जुलाई 2013

संस्कार कोई गिफ्ट पैक नहीं !

                             

  आज कल चल रहे समाज के वीभत्स वातावरण को देख कर आत्मा काँप जा रही है . हम किस उम्र की बात कहें ? सवा साल की बच्ची से दुष्कर्म की बात पढ़ कर तो लगा कि क्या वाकई बच्चियों को जन्म से पहले ही मार देने की प्रथा इसी लिए चलाई गयी थी . परदे की प्रथा इसी लिए शायद शुरू की गयी होगी लेकिन तब तो ऐसे कृत्य नहीं हुआ करते थे.

                              जो आजकल हो रहा है , मुझे नहीं लगता है कि  हमने ऐसे बच्चों को अगर सही संस्कार दिए होते तो बच्चे इतना नहीं भटकते . जो भटक रहे हैं या तो उनके घर का वातावरण सही नहीं होगा या फिर माता पिता  दोनों ही इतने व्यस्त रहे होंगे कि  उन्हें अपने बच्चों के लालन पालन के लिए समय नहीं मिला होगा . दोनों काम पर ( उस काम की श्रेणी कुछ भी हो सकती है .) और बच्चे अपने साथियों के साथ निरंकुश हो कर स्वच्छंद आचरण की तरह चल दिये. या फिर बहुत पैसे वाले माता  पिता की संतान भी पैसे के घमंड में पथ भ्रष्ट हो रहे है . पिता को कमाने से फुरसत नहीं है और माता को उस धन के उपयोग करने के लिए किटी पार्टी , क्लब या फिर अपनी सोशल स्टेटस को दिखाने  के लिए किसी न  किसी तरह से खुद को व्यस्त रखना है . बच्चे भी स्कूल से लौट कर अपने कमरे में कुछ भी करने के  लिए स्वतन्त्र होते है . अगर उनको उस समय घर में किसी का साया मिल जाए तो शायद वे स्कूल से लौट  कर कुछ देर उसके पास बैठ कर अपनी बातों  को शेयर कर कुछ अपनत्व पाकर कहीं और साथ खोजने या समय को बिताने के लिए बाध्य न हों . नेट हो , फिल्में हों या फिर मोबाइल के द्वारा बढ़ रहे विभिन्न गजेट्स से मनोरंजन के लिए भटकने की उनकी मजबूरी न हो और न वे अपने माता - पिता से इतने दूर हों .
                          इन सब वारदातों के लिए लड़कियों और महिलाओं को दोषी ठहराया जा रहा है , उनके पहनावे को, उनके रहन सहन को लेकिन इस कुत्सित मानसिकता के कारणों को खोजने के लिए पहल नहीं की जा रही है  . बड़े नेता , अफसर तक जब बयान  देंगे तो उनकी जबान फिसल जाती है , उनका विवेक शालीनता की सारी सीमायें लांध जाता है . उनके दिमाग में जो महिलाओं के प्रति भाव पलते हैं वे अवचेतन नहीं बल्कि सचेतन मन से निकल ही जाते हैं . कितनी बातें पर्दों के पीछे चल रही होती हैं उनको उजागर करने के संकेत देने वाले बयान  होते हैं .
                          हम संस्कारों की बात कर रहे हैं तो संस्कार किसी भी धर्म , वर्ग  और जाति की धरोहर नहीं है बल्कि ये तो अपने घर के वातावरण और उसके  सदस्यों के आचरण में पल रहे अनुशासन , नैतिक मूल्यों की उपस्थिति और आपसी सम्मान की भावना से मिलते है . ये कोई गिफ्ट पैक नहीं कि उनको हम सारे  संस्कार और नैतिकता भर कर उन्हें थमा दें और वे उसको लेकर अपने जीवन में उतार लें .  शिशु से जैसे जैसे बड़े होने की प्रक्रिया शुरू होती है माँ  प्रथम शिक्षक उसको बड़ों के नाम लेने से लेकर उनको सम्मान करने का प्रतीक अभिवादन चाहे जिस रूप में हो सिखाते हैं  और बच्चे जब अपने नन्हें नन्हें हाथों से चाहे पैर छुए या फिर वह नमस्कार करे माता - पिता के लिए ख़ुशी का पल होता है और अपनी संस्कृति से परिचय का पहला चरण . जब हमने पश्चिमी संस्कृति के अनुसार बच्चों को गुड मोर्निंग कहना सिखाते हैं तो बच्चे इसको हवा में उछालते हुए मॉम और डैड से मुखातिब हुए बिना ही सामने से गुजर जाते हैं . इस संस्कृति को जब हम अपनाने में गर्व महसूस करते है और तो फिर बच्चों की निजी मामलों  में दखल देने की मॉम और डैड जरूरत भी नहीं समझते है .
                            ऐसा नहीं है कि  जो हम देख रहे हैं और कई लोगों ने इस तरफ ध्यान भी आकर्षित किया है कि  इस तरह के अपराधों को अधिकतर निम्न वर्गीय परिवार के लडके अंजाम दे रहे हैं .  अपराधिक पृष्ठभूमि से आने वाले युवक इसी क्षेत्र में जाएँ ऐसा जरूरी नहीं है और सभी निम्न वर्गीय बच्चे चारित्रिक तौर से गिरे हुए हों ऐसा भी नहीं है लेकिन उनकी संगति  और परिवार  का वातावरण कैसा है ? इस बात का बहुत प्रभाव पड़ता है.    मैं इस बात के लिए  अभिभावकों  को दोषी नहीं  ठहरा  रही लेकिन फिर भी जब तक बच्चा माँ की गोद में रहता है और माँ से कुछ सीखता है तो उन्हें घर वालों के अलावा अपने से बड़ों और लड़कियों और महिलाओं को सम्मान देने की बात भी सिखानी चाहिए . नन्हे मष्तिष्क में जो भी भरा जाता है वह चिर स्थायी ही होता है . अगर बच्चा बचपन से घरेलु हिंसा को देखता है तो वह समझता है की ऐसा ही होता होगा और हमें ऐसा ही करना चाहिए . फिर उनको उस बात से अलग करके समझने वाला कौन होगा ? माँ कहती है तो बच्चे कहते हैं कि  पापा भी तो गलियां देते  हैं , फिर मैं क्यों नहीं ?  या फिर वे समझ लेते हैं कि  ऐसे व्यवहार किया जाता होगा और वे उसी का अनुगमन  करने  हैं . बात भी सही है बच्चे अपने माता पिता को ही अपना रोल मॉडल मानते हैं और उसके बाद किसी और को मानते हैं . तो फिर उन्हें सही संस्कार देने के लिए पहले हमें खुद सुसंस्कृत होना होगा .
                          यह तो स्पष्ट हो ही चुका  है  बचपन में बच्चे को सिखाई हुई हर चीज चिरस्थायी होती है और इसी समय दिए गए संस्कार गहरे पैठ बना लेते हैं . शुरुआत सही समय से करेंगे तो हमें कल सुहावना मिल सकेगा . इस काम में देर कभी नहीं होती, फिर आज से हम शुरू करें . कल की सुबह सुहानी होगी ऐसा विश्वास है .

रविवार, 7 जुलाई 2013

पहली बार केक काटा !

                           कभी इस तरह से सोचा ही नहीं कि जन्मदिन कैसे मनाया जाय ? अपने से तो कोई प्रोग्राम बनाया नहीं जाता और मैं खुद अपनी एनिवर्सरी या बर्थडे मनाने  लिए पार्टी रखने में विश्वास भी नहीं करती हूँ . बचपन से चार बहनों और एक भाई के परिवार में उस समय लड़कियों के जन्मदिन मनाये नहीं जाते थे . सो जाना ही नहीं की कैसे मनाया जाता है ?
                          जब लेखन के क्षेत्र में आई तो सत्तर के दशक में पत्र मित्र बनीं ( बने नहीं क्योंकि उस समय ऐसी अनुमति नहीं थी ) . कुछ जागरूक किस्म की सहेलियों ने जन्मदिन पर कार्ड भेजे तो बड़ा अच्छा लगा लेकिन घर में तब भी कोई खास तवज्जों नहीं दी जाती थी . शादी के बाद भी घर में ये जागरूकता आई कि  दामाद जी का जन्म दिन याद रखा जाय और विश कैसे किया जाय क्योंकि तब फ़ोन तो इतने कॉमन थे नहीं . जन्मदिन के कार्ड  उरई जैसे जगह पर उपलब्ध न होते थे . हाँ पत्र से शुभकामनाएं मिलने लगी . ससुराल में भी मेरी बर्थडे को ओइ तवज्जो नहीं मिली हाँ पतिदेव जरूर उस दिन अपने हिसाब से कुछ न कुछ अलग कर लेते थे .
                           इस दिन को सबसे अधिक तवज्जो मिली 2000 के बाद - जब आई आई टी में हमारी टीम में युवाओं ने कदम रखा , उस टीम में हम सबसे पुराने लोग ४ लोग ऐसे थे जो शादीशुदा और बच्चों वाले थे . हम लोग उन सबसे बड़े थे और वे सब नयें नए बी  टेक और एम् सी ए करके आये हुए लोग थे . तब सब सुबह सुबह विश करने लगे थे और जिसका बर्थडे होता वह लैब के हाल में छोटी मोटी  पार्टी कर लेता  था। मैंने केक भी कभी नहीं काटा था . वह पहली बार था जब कि  मेरी बर्थडे पर लैब ने सबसे अलग तरीके से मनाने की पहल की . मुझे कुछ नहीं पता था हाँ ये पता था कि  मुझे पार्टी देनी है और मैं किसी भी बच्चे को रुपये देती और कहती कि  जो सब लोग कहें वो सब चीजें ले आना . उस बार बड़ी लैब में बच्चों ने अपने तरफ से केक लाये और पार्टी भी उन्होंने ने ही रखी थी . मैंने जीवन में पहली बार केक काटा  था और इतने सारे लोगों के बीच अपना जन्मदिन मनाया था . वो यादें आज भी संचित हैं कुछ साझा कर लेते हैं . 

हमारी मशीन ट्रांसलेशन प्रोजेक्ट की टीम
               केक जो पहली बार मेरी बर्थडे पर काटा गया था .


और अब थी पार्टी की बारी , उसके बाद बहुत सारे बच्चे नयी जॉब मिलते हैं अलग अलग और कुछ लड़कियाँ शादी के बाद हमारी लैब को छोड़ कर एक एक करके विदा हो गयी . नए लोग आते रहे और फिर काम उसी तरह से चलता रहा . ये टीम सबसे प्रिय टीम थी और साथ गुजारा  हुआ सबसे अच्छा समय .  ये जन्मदिन मुझे हमेशा याद रहेगा क्योंकि बच्चों ने लैब की रीति को तोड़ कर कुछ अलग किया था मेरे लिए .



ये पार्टी की मस्ती फिर अब कभी नहीं करने को मिलेगी . मैं ही नहीं सारे बच्चे आई आई टी की लैब को आज भी मिस करते हैं .

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

विश्व के सामने नारी !

                         विश्व पटल पर "नारी" ब्लॉग आप सबके सामने  आया है . अपने  अस्तित्व के लिए सिर्फ ये ब्लॉग   ही नहीं बल्कि ये आधी आबादी भी  रही है . लेकिन यहाँ बात उस अस्तित्व की नहीं है बल्कि  इस बात से है कि  आधी आबादी के हक के  लिए लड़ रहा ये ब्लॉग  सिर्फ हमारे सामने अपने  को सिद्ध नहीं कर रहा है बल्कि अब ये  विश्व  के सामने हमारे देश में तार तार हो रहे इस आबादी के मान और उसके अस्तित्व के  प्रति सकारात्मक स्वरूप  करने के लिए प्रतिबद्ध एक मंच है और उसको आगे ले जाने का काम हम सभी का है .
               यह सिर्फ एक अपनी मातृभाषा को सामने लाने का मौका सामने है , आगे कोई भी जाए , सब हमारी भाषा के प्रतिनिधि ब्लॉग है लेकिन इसको आगे ले जाने का  आप सभी से अनुरोध करती हूँ  . बहुत सारे सवाल उठाये जा रहे हैं कि नारी में कुछ  नहीं है लेकिन नारी में वह है जिसे हम इतनी बेबाकी से कहीं और नहीं देख   पाते हैं .

                          आपसे मेरा अनुरोध है की आप चौबीस  घंटे में इसके लिए मतदान कर सकते हैं और अपने फेसबुक अकाउंट और ओपन आई डी से अलग अलग मत दे सकते हैं तो फिर सहयोग करें और इसको आगे ले चले . दिए गए लिंक पर जाकर वोट करे .

https://thebobs.com/hindi/category/2013/best-blog-hindi-2013/#openid-login&lg=en

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

उत्तर खोजें !

                     ये प्रश्न सिर्फ मेरे मन में ही उठा है या और भी लोगों के मन में उठा होगा ये तो मैं नहीं जानती लेकिन अपने समाज और युवाओं के बढते हुए आधुनिकता के दायरे में आकर वे उन बातों को बेकार की बात समझने लगे हैं ,जिन्हें ये दकियानूसी समाज सदियो से पालता  चला आ रहा है। 
                    आज के लडके और लड़कियाँ 'लिव इन रिलेशन ' को सहज मानने लगे हैं और सिर्फ वही क्यों ? अब तो हमारा क़ानून भी इसको स्वीकार करने में नहीं हिचक रहा है। उसके बाद जब तक एक दूसरे को झेल सके झेला और फिर उस रिश्ते को छोड़ने पर 'ब्रेक अप ' का नाम देकर आगे बढ़ लिए . दोनों के लिए फिर से नए विकल्प खुले होते हैं। कहीं कोई प्रश्न खड़ा नहीं होता है सब कुछ सामान्य होता है। फिर यही लोग घर वालों की मर्जी से शादी करके अपने नए घर बसा कर रहने लगते हैं। 
                   इस समाज में अगर एक लड़की बलात्कार का शिकार हो जाती है तो उस पीड़िता को  समाज में  हेय दृष्टि से देखा जाता है जब कि उसमें कहीं भी वह दोषी नहीं होती है . वास्तव में इस काम के लिए दोषी लोगों को तो समाज सहज ही क्षमा करके भूल भी जाता है और वे अपने घर के लिए या तो पहले से एक लड़की ला चुके होते हैं या फिर इसी समाज के लोग उनके लिए अपनी लड़की लेकर खड़े होते हैं। इसके पीछे कौन सी सोच है? इस बात को हम आज तक समझ नहीं पाए हैं।
                    और उस पीडिता को कोई भी सामान्य रूप से विवाहिता बना कर अपने जीवन में लेने की बात सोच नहीं सकता है (वैसे अपवाद इसके भी मिल जाए हैं। ) आखिर इस हादसे में उस लड़की का गुनाह क्या होता है ? और क्यों उसको इसकी सजा मिलती है? वैसे तो अगर इस बात को गहरे से देखें तो सब कुछ सामने है कि  हमारे समाज में अब विवाह-तलाक-विवाह को हम स्वीकार करने लगे हैं . हमारी सोच इतनी तो प्रगतिशील हो चुकी है। हम विधवा विवाह को भी समाज में स्वीकार करने लगे हैं लेकिन फिर भी इस पीडिता में ऐसा कौन सा दोष आ जाता है कि  हम परित्यक्ता से विवाह की बात , विधवा से विवाह की बात तो स्वीकार कर रहे हैं  , उसमें भी वह लड़की किसी और के साथ वैवाहिक जीवन व्यतीत कर चुकी होती है भले ही उसकी परिणति दुखांत रही हो   हम उस लड़की को स्वीकार करते हुए देखे जा रहे हैं। लेकिन एक ऐसी लड़की जो न तो वैवाहिक जीवन जी चुकी होती है और न ही वह मर्जी से इस काम में शामिल होती है फिर भी वह इतनी बड़ी गुनाहगार होती है कि कोई भी सामान्य परिवार उसको बहू के रूप में स्वीकार करने का साहस करते  नहीं देखा सकता है। 
                एक बलात्कारी सामान्य जीवन जी सकता है और समाज में वही सम्मान भी पा  लेता है। लेकिन एक पीड़िता  उसके दंश को जीवन भर सहने के लिए मजबूर होती है। मैं अपने से और आप सभी से इस बारे में सोचने और विचार करने के लिए कह रही हूँ कि एक परित्यक्ता  या विधवा से विवाह करने में और एक पीड़िता से विवाह करने में क्या फर्क है? दामिनी के साथ हुए अमानवीय हादसे के बाद पूरे देश में युवा लोग उसके लिए न्याय की गुहार के लिए खड़े हैं और दूसरे लोग उसमें दोष निकाल  रहे हैं या फिर लड़कियों के लिए नए आचार संहिता को तैयार करने की बात कर रहे हैं। उस घटना के बाद देश में ऐसी घटनाएँ बंद नहीं हुई बल्कि और बढ़ गयी हैं या कहें बढ़ नहीं गयीं है बल्कि पुलिस की सक्रियता से सामने आने शुरू हो गये है। अब सवाल हमारा अपने से है और युवा पीढी से है कि  क्या वह ऐसी पीडिता से विवाह करने के लिए खुद को तैयार कर सकेंगे। वे न्याय के लिए लड़ रहे हैं लेकिन इस अन्याय का शिकार लड़कियाँ क्या जीवन भर अभिशप्त जीवन जीने के लिए मजबूर रहेंगी। समाज इस दिशा में भी सोचे - ये नहीं कि वे पीडिता हैं तो उन मासूम बच्चियों को कोई चार बच्चों का बाप सिर्फ इस लिए विवाह करने को तैयार हो जाता है क्योंकि  उसको एक जवान लड़की मिल जायेगी और उसके चार बच्चों को पालने  के लिए एक आया भी। एक तो वह वैसे भी अभिशप्त और दूसरे उसको जीवन एक नयी सजा के रूप में सामने आ जाता है। अब इस समाज को इसा दिशा में भी सोचना होगा कि  इन्हें एक सामान्य जीवन देने की दिशा में भी काम करना चाहिए . पीडिता को रहत देने वाले इस काम को भी करने के लिए प्रतिबद्ध होना होगा। 
                   इस विषय में आप सबके विचार आमंत्रित हैं और सुझाव भी कि ऐसा क्यों नहीं सोचा गया है या क्यों नहीं सोचा जा सकता है ?