आज दो अक्टूबर है और देश में छुट्टी भी है वैसे तो कई लोग इस कलेंडर को गालियाँ दे रहे हें कि एक छुट्टी चली गयी अगर सोमवार को पड़ता तो किसी को दो और किसी को तीन छुट्टियाँ मिल जाती खूब मस्ती करते या फिर घूमने निकल जाते । ठीक भी है बेचारे सरकारी कर्मचारी रात दिन मेहनत करते हें तो छुट्टियों का इन्तजार क्यों न करें?
आज देश में इस छुट्टी का लाभ उठाने वाले लोगों में से कितनों ने गाँधी जी और शास्त्री जी को याद किया होगा , उनके जन्मदिन के उपलक्ष में ही तो छुट्टी ले रहे हें। उन्हें याद कर लें यही बहुत है और अगर उनके चरित्र औरउनके मार्ग पर चलना तो दूर शायद इतिहास में उनके सद्कार्यों के वर्णन का 'क ख ग' भी याद करके अपने बच्चों कोबता दें तो इस दिन की छुट्टी मेरी दृष्टि में सार्थक हो जाएगी लेकिन ऐसा भी नहीं होता है। वे गुजरे ज़माने के लोग थे औरआज के ज़माने में अगर गाँधी या शास्त्री की तरह चलने लगें तो हम भी उनकी तरह से बिना कपड़ों के और शास्त्री जी कीतरह से अच्छे खासे रेल मंत्री थे और रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे डाला.ये आदर्शों का जमाना जा चुकाहै और ये आदर्श सिर्फ किताबों और उपदेशों में अच्छे लगते हें । वास्तव में ये कालातीत हो चुके हें। अरे यहाँ तो अबजमाना है कि करो खुद और डंके की चोट पर करो और बलि का बकरा किसी और को बना कर हलाल करवा दो।
मानवता , नैतिकता और आत्मा की आवाज की परिभाषा भी बदल चुकी है। अब कोई आत्मा दूसरे के हित के बारेमें नहीं सोचती है सब अपने बारे में सोचते हें। गाँधी की तरह एक लंगोटी में जीना नहीं चाहते बल्कि इतना इकठ्ठा करलेना चाहते हें कि आने वाली सात पीढियां खा सकें। उसी संसद में जहाँ गाँधी और शास्त्री की तस्वीरे मुस्करा रही हें , उनके साए में ही बैठ कर ये नेता साजिशें रचा करते हें। देश को बेचने की साजिश, उसको खोखला बनाने की साजिश औरदेश में जितने भी लोग हों सबके बीच में एक दीवार खड़ी करने की साजिश। जिसे जहाँ मौका मिला अपने भविष्य कोसुरक्षित करने की जुगाड़ में लगा रहता है और आज के दिन की गरिमा को कहीं भी किसी को भी बनाये रखने की जरूरतनहीं है।
आज उन दो महान आत्माओं को याद करते हुए सोच रही हूँ कि वे जरूर जहाँ भी होंगी अपने त्यागऔर संघर्ष पर आंसूं बहा रही होंगी कि उन्होंने क्या सोचा था और आज देश क्या हो गया है? पूरा देश ऐसा है ये तो नहीं हैलेकिन कितने प्रतिशत है जो गाँधी और शास्त्री के प्रति कृतज्ञ हें या फिर उनके त्याग के मूल्य को समझ रहे हें। खैर ये तोदुनियाँ है - हम सभी लिखने वाले तो कलम से उनके प्रति आदर और श्रद्धा प्रकट कर ही सकते हें।
रविवार, 2 अक्टूबर 2011
रविवार, 18 सितंबर 2011
गाड़ी के दो पहिये !
हम ये तो सदियों से सुनते चले आ रहे हें कि पति और पत्नी गाड़ी के दो पहिये होते हें और जब दोनों मेंसामंजस्य होगा तो जीवन रुपी सफर में ये गाड़ी सुखपूर्वक दौड़ती रहेगी। हमारी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार पति काकाम कमाना और पत्नी का काम घर और बच्चों कि देखभाल करना होता है। इसे एक सामान्य पारिवारिक स्वरूप के रूपमें स्वीकार किया जाता है, लेकिन अगर इससे इतर कुछ भी होता है तो फिर स्थिति गड़बड़ाने लगती है। पत्नी कमाती हैऔर दोनों काम देखती है, वह बहुत अच्छा है लेकिन अगर पत्नी कमाती है और पति घर के कामों को देखने लगता है तोये स्वरूप न हमारे पुरुष समाज को स्वीकार होता है और न ही स्त्री समाज को, आखिर क्यों? जब दोनों पहिये हें तो इसमेंभी तो आर्थिक स्रोत कहीं से भी चल रहा हो चलना चाहिए किसी घर्म ग्रन्थ या आचार संहिता में ये नहीं लिखा है कि पत्नीकमा कर घर का खर्च नहीं चल सकती है। मैं अपने एक बहुत करीबी रिश्तेदार के बारे में ऐसा ही कुछ सुनती आ रही थीऔर इत्तेफाक से मुझे वहाँ जाने का और दो दिन रुकने का मौका मिल गया। तब मैंने विश्लेषण किया और पाया कि येसामंजस्य कितनी अच्छा और समझदारी भरा है कि घर भी चल रहा है और काम भी।
जब मैं सुबह उठी तो मिनी किचेन में चाय बना रही थी और निखिल सो कर उठा था और चाय का इंतजारकर रहा था । निखिल बैंक में काम कारता था जब उसकी शादी हुई थी और मिनी गृहणी थी। लेकिन कुछ वक़्त ने पलटाखाया और निखिल बैंक में किसी केस में फँस गया , उसकी नौकरी चली गयी और उसका केस आज भी हाई कोर्ट में चलरहा है। नौकरी जाने के बाद सिर्फ पिता को छोड़ कर सबने किनारा कर लिया। सोचा जा सकता है कि घर की स्थिति कैसी चल रही होगी। घर से बाहर निकलने पर लोगों के कटाक्ष सहने पड़ते थे और उसका जो सामाजिक दायरा था वह भीधीरे धीरे ख़त्म होने लगा था। क्योंकि उसके बराबर खड़े होने के लायक अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा था।
घर पिता के नाम था सो रहने कि कोई समस्या नहीं थी लेकिन रिटार्यड पिता की पेंशन के बल पर कब तकखर्च चलाया जा सकता था? बुजुर्ग भी कभी कभी कुछ न कुछ कह ही देते हें और जब हम समर्थ होते हें तो वह बुरा नहींलगता लेकिन जब हम उनके आश्रित हों तो हमें आत्मग्लानि लगने लगती है। यही हुआ मिनी के साथ और उसने कुछनिर्णय ले डाला। उसने ससुर के विरोध के बावजूद भी ब्यूटीशियन का कोर्स किया और घर के एक कमरे में अपनाब्यूटीपार्लर खोल लिया। कुछ उधार लिया और कुछ मायके से सहायता लेकर शुरू कर दिया काम। इज्जत की दो रोटी कासवाल था। उसके मधुर व्यवहार और काम से उसका काम अच्छा चल निकला।
निखिल ने चाय पीने के बाद अपने काम शुरू किया , पहले पौधों में पानी देना, फिर एक रात पहले भीगे हुएपार्लर के कुछ नेपकिन को धो कर डालना उसने वाशिंग मशीन कपड़े धोने के लिए लगा दी, उसने सारे कपड़े धो कर डालदिए । पार्लर खुलने के समय तक मिनी ने नाश्ता निपटा दिया और वह पार्लर में चली गयी। बाकी काम नौकरानी नेआकर कर दिए । बीच बीच में आकर वह खाने के लिए तैयारी कर जाती। दोपहर के खाने तक वह आती और गरमगरम रोटियां सेंक कर ससुर जी को खिलाती और बच्चों और निखिल के साथ खुद खा लेती। इस बीच निखिल सलादवगैरह काट कर तैयार कर देता है या फिर उसके अपने किसी काम से निकलना हुआ तो निकल जाता है।
घर में सब कुछ इतनी शांत पूर्ण ढंग से हो रहा था कि मुझे लगा कि गाड़ी के दो पहिये ऐसे ही होते हें। क्याफर्क पड़ता है कि आर्थिक स्रोत कहाँ से निकल रहे हें? अगर जीवन में कुछ असामान्य परिस्थितियां भी आ जाती हें तोइन दोनों पहियों को डगमगाना नहीं चाहिए। उनमें संतुलन कायम रहना चाहिए। ये एक समझदारी भरा कदम है किकोई भी काम कोई भी करे परिवार रुपी गाड़ी की गति नहीं रुकनी चाहिए। दोनों में से किसी में भी हीन ग्रंथि का प्रादुर्भावनहीं होना चाहिए। इतना अच्छा सामंजस्य मैंने अपने जीवन में इन परिस्थितियों में किसी में भी नहीं देखी।
ये तो आज की पीढ़ी की बात है मैंने ऐसा सामंजस्य अपने जीवन के प्रारंभिक दौर में भी देखा था। मेरी शादीहुई थी और वहीं सामने वाले घरों में विश्वविद्यालय की एक लिपिक रहती थीं। उनके पति डॉक्टर थे लेकिन कुछ वक्त कीमार कहें या फिर भाग्य उनकी प्रैक्टिस कहीं भी नहीं चली जबकि वे लखनऊ मेडिकल कॉलेज से बी डी एस थे। बीना जीसुबह नौकरी पर चली जाती और वे घर में रहते बच्चों के स्कूल से आने के बाद उनको खाना देना और खुद बीना जी जबलंच में आती तो उनके साथ ही खाते थे। उनके आने तक वह घर के कपड़े धोना और बाकी काम करते थे. जब वे बालकनीमें कपड़े फैलाते तो और घरों की महिलाओं को मैंने सुना था कि डॉक्टर साहब तो बीना जी के चाकरी में ही लगे रहते हें.तब की सोच कुछ और ही थी लेकिन उनको किसी के कहने या कटाक्ष से कोई फर्क नहीं पड़ता था. शाम को उनके आनेतक चाय पर इन्तजार करते और फिर दोनों साथ ही चाय पीते। कहीं कोई लड़ाई या मन मुटाव मुझे सुनाई नहीं दिया। एक शांत पूर्ण जीवन उन दोनों का रहा।
ये समझदारी और आपसी सामंजस्य हमारी अपनी बनायीं हुई होती थी। ये घर की सुख और शांति का आधारहोती है। कमाने के लिए चाहे दोनों कमायें या फिर एक उसे सकारात्मक तरीके से अगर देखें तो ये जीवन एक समर नहींहै बल्कि एक सफर है जो एक दूसरे का हाथ थाम कर गुजर जाता है। ऐसे नहीं कहा जाता है कि दाम्पत्य जीवन में पतिऔर पत्नी दोनों ही दो पहिये होते हें।
जब मैं सुबह उठी तो मिनी किचेन में चाय बना रही थी और निखिल सो कर उठा था और चाय का इंतजारकर रहा था । निखिल बैंक में काम कारता था जब उसकी शादी हुई थी और मिनी गृहणी थी। लेकिन कुछ वक़्त ने पलटाखाया और निखिल बैंक में किसी केस में फँस गया , उसकी नौकरी चली गयी और उसका केस आज भी हाई कोर्ट में चलरहा है। नौकरी जाने के बाद सिर्फ पिता को छोड़ कर सबने किनारा कर लिया। सोचा जा सकता है कि घर की स्थिति कैसी चल रही होगी। घर से बाहर निकलने पर लोगों के कटाक्ष सहने पड़ते थे और उसका जो सामाजिक दायरा था वह भीधीरे धीरे ख़त्म होने लगा था। क्योंकि उसके बराबर खड़े होने के लायक अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा था।
घर पिता के नाम था सो रहने कि कोई समस्या नहीं थी लेकिन रिटार्यड पिता की पेंशन के बल पर कब तकखर्च चलाया जा सकता था? बुजुर्ग भी कभी कभी कुछ न कुछ कह ही देते हें और जब हम समर्थ होते हें तो वह बुरा नहींलगता लेकिन जब हम उनके आश्रित हों तो हमें आत्मग्लानि लगने लगती है। यही हुआ मिनी के साथ और उसने कुछनिर्णय ले डाला। उसने ससुर के विरोध के बावजूद भी ब्यूटीशियन का कोर्स किया और घर के एक कमरे में अपनाब्यूटीपार्लर खोल लिया। कुछ उधार लिया और कुछ मायके से सहायता लेकर शुरू कर दिया काम। इज्जत की दो रोटी कासवाल था। उसके मधुर व्यवहार और काम से उसका काम अच्छा चल निकला।
निखिल ने चाय पीने के बाद अपने काम शुरू किया , पहले पौधों में पानी देना, फिर एक रात पहले भीगे हुएपार्लर के कुछ नेपकिन को धो कर डालना उसने वाशिंग मशीन कपड़े धोने के लिए लगा दी, उसने सारे कपड़े धो कर डालदिए । पार्लर खुलने के समय तक मिनी ने नाश्ता निपटा दिया और वह पार्लर में चली गयी। बाकी काम नौकरानी नेआकर कर दिए । बीच बीच में आकर वह खाने के लिए तैयारी कर जाती। दोपहर के खाने तक वह आती और गरमगरम रोटियां सेंक कर ससुर जी को खिलाती और बच्चों और निखिल के साथ खुद खा लेती। इस बीच निखिल सलादवगैरह काट कर तैयार कर देता है या फिर उसके अपने किसी काम से निकलना हुआ तो निकल जाता है।
घर में सब कुछ इतनी शांत पूर्ण ढंग से हो रहा था कि मुझे लगा कि गाड़ी के दो पहिये ऐसे ही होते हें। क्याफर्क पड़ता है कि आर्थिक स्रोत कहाँ से निकल रहे हें? अगर जीवन में कुछ असामान्य परिस्थितियां भी आ जाती हें तोइन दोनों पहियों को डगमगाना नहीं चाहिए। उनमें संतुलन कायम रहना चाहिए। ये एक समझदारी भरा कदम है किकोई भी काम कोई भी करे परिवार रुपी गाड़ी की गति नहीं रुकनी चाहिए। दोनों में से किसी में भी हीन ग्रंथि का प्रादुर्भावनहीं होना चाहिए। इतना अच्छा सामंजस्य मैंने अपने जीवन में इन परिस्थितियों में किसी में भी नहीं देखी।
ये तो आज की पीढ़ी की बात है मैंने ऐसा सामंजस्य अपने जीवन के प्रारंभिक दौर में भी देखा था। मेरी शादीहुई थी और वहीं सामने वाले घरों में विश्वविद्यालय की एक लिपिक रहती थीं। उनके पति डॉक्टर थे लेकिन कुछ वक्त कीमार कहें या फिर भाग्य उनकी प्रैक्टिस कहीं भी नहीं चली जबकि वे लखनऊ मेडिकल कॉलेज से बी डी एस थे। बीना जीसुबह नौकरी पर चली जाती और वे घर में रहते बच्चों के स्कूल से आने के बाद उनको खाना देना और खुद बीना जी जबलंच में आती तो उनके साथ ही खाते थे। उनके आने तक वह घर के कपड़े धोना और बाकी काम करते थे. जब वे बालकनीमें कपड़े फैलाते तो और घरों की महिलाओं को मैंने सुना था कि डॉक्टर साहब तो बीना जी के चाकरी में ही लगे रहते हें.तब की सोच कुछ और ही थी लेकिन उनको किसी के कहने या कटाक्ष से कोई फर्क नहीं पड़ता था. शाम को उनके आनेतक चाय पर इन्तजार करते और फिर दोनों साथ ही चाय पीते। कहीं कोई लड़ाई या मन मुटाव मुझे सुनाई नहीं दिया। एक शांत पूर्ण जीवन उन दोनों का रहा।
ये समझदारी और आपसी सामंजस्य हमारी अपनी बनायीं हुई होती थी। ये घर की सुख और शांति का आधारहोती है। कमाने के लिए चाहे दोनों कमायें या फिर एक उसे सकारात्मक तरीके से अगर देखें तो ये जीवन एक समर नहींहै बल्कि एक सफर है जो एक दूसरे का हाथ थाम कर गुजर जाता है। ऐसे नहीं कहा जाता है कि दाम्पत्य जीवन में पतिऔर पत्नी दोनों ही दो पहिये होते हें।
शुक्रवार, 12 अगस्त 2011
रक्षा बंधन त्यौहार या अहसास !
rakshaa बंधन हम एक पर्व की तरह से मनाते हैं एक निश्चित दिन लेकिन ये एक अहसास भी है - बहन के द्वारा भाई की कलाई पर बंधा हुआ रेशमी धागा इस बात का प्रतीक है कि बहन ने भाई को अपने रक्षा दायित्व में बाँध लिया है लेकिन उस दायित्व को निभाना भी एक बहूत बड़ा काम होता है। कभी कोई अपना कुछ न होते हुए भी बहूत कुछ बन जाता है। ये एक अहसास है क्योंकि कभी कभी ऐसा भी देखने को मिल जाता है जो हम अपने खून के रिश्तों में नहीं देख पाते हैं। कभी जायदाद को लेकर , कभी माता - पिता की परवरिश को लेकर या फिर कभi छोटे या बड़े मनमुटाव को लेकर खून के रिश्तों में तो दरार आ जाती है लेकिन इन धागों के रिश्तों में शायद ये दरार कभी नहीं आती है। क्योंकि ये रिश्ते किसी स्वार्थ से नहीं जुड़े होते हैं।
मेरे अपने भाई हैं हर समय नहीं जा पाती हूँ , लेकिन मेरे पास में ही मेरा एक माना हुआ भाई रहता है। वह नहीं है लेकिन काफी समय मेरे घर आता रहा और फिर एक दिन बातों बातों में पता चला कि वह कहीं से मेरे रिश्ते में भाई होता है। उसने रक्षा बंधन के दिन खबर भिजवा दी कि आज दीदी मेरे घर आकर रखी बांधेंगी नहीं तो फिर मैं कभी नहीं आऊंगा। इत्तेफाक से उसके कोई बहन भी नहीं है। मुझे वर्ष तो नहीं याद है लेकिन इतना कि मैंने कभी ये महसूस नहीं किया कि ये मेरा खून के रिश्ते वाले भाई से कभी कम है। खून के रिश्ते तो सब निभाते हैं , अगर ये रिश्ते जीवन भर निभाए जाएँ तो प्यार को सन्देश मिलता है जिसकी कोई सीमा नहीं है।ये एक अहसास है जिसे हम प्यार से जी लें तो उससे अच्छा कुछ भी नहीं।
इस पावन पर्व पर मैं अपने सभी भाइयों को हार्दिक शुभकामनाएं भेज रही हूँ। सभी के जीवन में ख़ुशी और समृद्धि बनी रहे। ईश्वर एक स्वस्थ और सुखमय जीवन प्रदान करे ।
शुक्रवार, 5 अगस्त 2011
लोकतंत्र में सुधार चाहिए!
पिछले दिनों केंद्र सरकार ने अपने पोर्टल पर और फेसबुक के सहारे इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा प्रणाली के विषय में मत संग्रह किया - जान सामान्य के विचार जानने के लिए यह एक बहुत ही अच्छा तरीका रहा। इस तरीके के पढ़ते पढ़ते ऐसा ही ख्याल आया कि पुरानी परिभाषाओं को परिमार्जित करके नया कलेवर दिया जा सकता है। लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप की जो दुर्दशा हो रही है, उससे हर कोई वाकिफ है। वंशानुगत दलों की बागडोर सभांलने वाले राजनेता और भावनाओं में बहने वाला मतदाता को जो अपने छाले जाने का अहसास होता तब तक वह पांच साल के लिए मजबूर हो चुका होता है। फिर भले ही वे अपने प्रतिनिधि को उनके ही पेट में लात मारकर अपनी तिजोरियां भरते हुए देखें या फिर निरंकुश शासक बन आने ही घर को कांचन महल बनाकर अंगूठा दिखाते रहें।
उनके चुने हुए प्रतिनिधि दलों के निर्जीव मुहरे होते हैं। जिन्हें पार्टी हाई कमान अपनी इच्छानुसार नाचता रहता है और सत्ता पर काबिज पटरी अपनी इच्छानुसार विधेयक बनाकर पेश करती रहती है। जिसमें लाभान्वित चाहे कोई भी न हो लेकिन अपनी सत्ता के भविष्य में काबिज रहने की संभावनाओं को पुख्ता करने के साधन जुटाए जाते हैं।
अब लोकतंत्र को वास्तव में जनता के लिए जनता के द्वारा शासन की परिभाषा को सत्य तो होने दीजिये। उसके अब सुधार की जरूरत हो रही है। जब समय के साथ हर क्षेत्र में क्रांति हो रही है फिर ये क्षेत्र अछूता क्यों रहे? अब इसको भी परिमार्जित किया जाना चाहिए। अब विधेयक का प्रारूप तैयार करने के बाद सदन में रखने से पूर्व ठीक इसी तरह से सरकारी पोर्टल और अन्य सोशल नेट वर्क पर डाल कर जनमत संग्रह होना चाहिए। ये सारे विधेयक सिर्फ सदन या संसद में लागू नहीं होने है। ये बनाये तो उनके प्रतिनिधियों के द्वारा ही हैं लेकिन उसके ही गले को काटने की तैयारी भी की जा रही है। ये सत्य है की ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग इन सब चीजों से वाकिफ नहीं है, वे कैसे भाग ले सकते हैं तो इसके लिए ग्राम पंचायतों में कंप्यूटर की व्यवस्था होनी चाहिए । ऐसे विधेयक या नए विधेयक की सम्पूर्ण रूपरेखा सार्वजनिक तौर पर प्रकाशित या प्रदर्शित की जानी चाहिए । टी वी तो आजकल हर घर में है चाहे वे झुग्गी झोपड़ी में ही क्यों न रहते हों? उसकी जानकारी दी जानी चाहिए। सिर्फ जानकारी नहीं बल्कि उसमें मतदान के लिए भी रूचि जाग्रत किया जाना चाहिए। आरम्भ में इस प्रक्रिया को जटिल कह कर रद्द किया जा सकता है लेकिन इसको सहज भी बनाया जा सकता है। अपनी राय देने के साथ राय देने वाले का नाम और मतदाता संख्या का उल्लेख भी हो तो उसकी उपयोगिता और उसकी सत्यता को आँका जा सकता है। नहीं तो ये टी वी सीरियल की तरह फर्जी या फिर कई कई बार वोटिंग करके जनमत का मखौल उठाया जा सकता है। अगर इस प्रक्रिया को अपना लिया जाय तो फिर किसी अन्ना हजारे या रामदेव को अनशन या प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। किसी विधेयक को न्यायालय में चुनौती देकर न्यायिक सक्रियता के दायरे में नहीं लाया जाएगा। सदन के बहुमत पर ये मतदान भरी पड़ेगा। विधेयक की सार्थकता को समझाने वाला बुद्धिजीवी वर्ग ही अगर इसमें शामिल हो जाता है तो फिर इसके सार्थक होने में संदेह नहीं किया जा सकता है। विधेयक राजनेताओं के स्वार्थ पूर्ति के लिए नहीं बल्कि प्रजा के कल्याण के लिए बनाये जाते हैं। यहाँ संसद में सत्तारूढ़ दल अपनी मनमानी और अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए अपने अधिकारों का दुरूपयोग नहीं कर पायेंगे। सार्वजनिक तौर पर रखे गए विधेयक में सुधार भी प्रस्तावित किये जा सकते हैं। इस प्रक्रिया से गुजर कर जो विधेयक बनेगा वह लोकहित में होगा।
यहाँ कुछ विषयों को तुरुप का पत्ता बना कर बाजी हमेशा अपने पक्ष में ही नहीं रखी जायेगी।
सत्तारूढ़ दल के निरंकुश होते रवैये पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। लोक विरोध करता हुआ छटपटाता रहता है और हासिल उसको कुछ भी नहीं होता है। लोकपाल बिल, सांप्रदायिक हिंसा निषेध बिल के लिए किसी अन्ना हजारे या कालेधन के लिए किसी रामदेव बाबा को इस तरह से अनशन न करने पड़ते और न ही सरकार के कुकृत्यों के द्वारा लोक को लज्जित होना पड़ा।
अब लोक को ही जागरूक होना पड़ेगा, तभी तो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ये जागरूकता हस्तांतरित होगीऔर फिर आज नहीं तो कल आने वाली पीढ़ी को एक स्वस्थ समाज और सरकार मिल सकेगी । एक काले कारनामों से रहित और लोकहित के लिए सोचने वाली सरकार। क्या ऐसा संभव है? असंभव तो कुछ भी नहीं है और मुझे लगता है किआने वाली पीढ़ी पिछली पीढ़ी से अधिक विस्तृत सोच रखती है। फिर इसके लिए ये प्रस्ताव कैसा है?
उनके चुने हुए प्रतिनिधि दलों के निर्जीव मुहरे होते हैं। जिन्हें पार्टी हाई कमान अपनी इच्छानुसार नाचता रहता है और सत्ता पर काबिज पटरी अपनी इच्छानुसार विधेयक बनाकर पेश करती रहती है। जिसमें लाभान्वित चाहे कोई भी न हो लेकिन अपनी सत्ता के भविष्य में काबिज रहने की संभावनाओं को पुख्ता करने के साधन जुटाए जाते हैं।
अब लोकतंत्र को वास्तव में जनता के लिए जनता के द्वारा शासन की परिभाषा को सत्य तो होने दीजिये। उसके अब सुधार की जरूरत हो रही है। जब समय के साथ हर क्षेत्र में क्रांति हो रही है फिर ये क्षेत्र अछूता क्यों रहे? अब इसको भी परिमार्जित किया जाना चाहिए। अब विधेयक का प्रारूप तैयार करने के बाद सदन में रखने से पूर्व ठीक इसी तरह से सरकारी पोर्टल और अन्य सोशल नेट वर्क पर डाल कर जनमत संग्रह होना चाहिए। ये सारे विधेयक सिर्फ सदन या संसद में लागू नहीं होने है। ये बनाये तो उनके प्रतिनिधियों के द्वारा ही हैं लेकिन उसके ही गले को काटने की तैयारी भी की जा रही है। ये सत्य है की ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग इन सब चीजों से वाकिफ नहीं है, वे कैसे भाग ले सकते हैं तो इसके लिए ग्राम पंचायतों में कंप्यूटर की व्यवस्था होनी चाहिए । ऐसे विधेयक या नए विधेयक की सम्पूर्ण रूपरेखा सार्वजनिक तौर पर प्रकाशित या प्रदर्शित की जानी चाहिए । टी वी तो आजकल हर घर में है चाहे वे झुग्गी झोपड़ी में ही क्यों न रहते हों? उसकी जानकारी दी जानी चाहिए। सिर्फ जानकारी नहीं बल्कि उसमें मतदान के लिए भी रूचि जाग्रत किया जाना चाहिए। आरम्भ में इस प्रक्रिया को जटिल कह कर रद्द किया जा सकता है लेकिन इसको सहज भी बनाया जा सकता है। अपनी राय देने के साथ राय देने वाले का नाम और मतदाता संख्या का उल्लेख भी हो तो उसकी उपयोगिता और उसकी सत्यता को आँका जा सकता है। नहीं तो ये टी वी सीरियल की तरह फर्जी या फिर कई कई बार वोटिंग करके जनमत का मखौल उठाया जा सकता है। अगर इस प्रक्रिया को अपना लिया जाय तो फिर किसी अन्ना हजारे या रामदेव को अनशन या प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। किसी विधेयक को न्यायालय में चुनौती देकर न्यायिक सक्रियता के दायरे में नहीं लाया जाएगा। सदन के बहुमत पर ये मतदान भरी पड़ेगा। विधेयक की सार्थकता को समझाने वाला बुद्धिजीवी वर्ग ही अगर इसमें शामिल हो जाता है तो फिर इसके सार्थक होने में संदेह नहीं किया जा सकता है। विधेयक राजनेताओं के स्वार्थ पूर्ति के लिए नहीं बल्कि प्रजा के कल्याण के लिए बनाये जाते हैं। यहाँ संसद में सत्तारूढ़ दल अपनी मनमानी और अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए अपने अधिकारों का दुरूपयोग नहीं कर पायेंगे। सार्वजनिक तौर पर रखे गए विधेयक में सुधार भी प्रस्तावित किये जा सकते हैं। इस प्रक्रिया से गुजर कर जो विधेयक बनेगा वह लोकहित में होगा।
यहाँ कुछ विषयों को तुरुप का पत्ता बना कर बाजी हमेशा अपने पक्ष में ही नहीं रखी जायेगी।
सत्तारूढ़ दल के निरंकुश होते रवैये पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। लोक विरोध करता हुआ छटपटाता रहता है और हासिल उसको कुछ भी नहीं होता है। लोकपाल बिल, सांप्रदायिक हिंसा निषेध बिल के लिए किसी अन्ना हजारे या कालेधन के लिए किसी रामदेव बाबा को इस तरह से अनशन न करने पड़ते और न ही सरकार के कुकृत्यों के द्वारा लोक को लज्जित होना पड़ा।
अब लोक को ही जागरूक होना पड़ेगा, तभी तो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ये जागरूकता हस्तांतरित होगीऔर फिर आज नहीं तो कल आने वाली पीढ़ी को एक स्वस्थ समाज और सरकार मिल सकेगी । एक काले कारनामों से रहित और लोकहित के लिए सोचने वाली सरकार। क्या ऐसा संभव है? असंभव तो कुछ भी नहीं है और मुझे लगता है किआने वाली पीढ़ी पिछली पीढ़ी से अधिक विस्तृत सोच रखती है। फिर इसके लिए ये प्रस्ताव कैसा है?
मंगलवार, 26 जुलाई 2011
विकल्प हैं - उन्हें खोजें !
मेरी कल की पोस्ट "कल का सच - जो आज देखा" आज की एक समस्या है, जिसे आम तौर परहम कल झेलेंगे क्योंकि ये आज की पीढ़ी है जिसमें से सभी तो नहीं लेकिन कुछ तो हैं जो बिल्कुल ऐसे ही बच्चों केलिए विकल्प खोज कर अपने काम को कर रही हैं। इसके विकल्प नहीं है ऐसा नहीं है - विकल्प हैं लेकिन हम उसकोअब महसूस करने के लिए तैयार नहीं है। हमारी प्राचीन संस्कृति ऐसे ही नहीं परिवार संस्था को अस्तित्व में रखे है। बच्चे आज भी अपने पूर्वजों के लिए श्राद्ध करते हैं। कई बार तो अपने भविष्य को दांव पर लगा कर माता पिता केलिए नौकरी चुन लेते हैं।
संयुक्त परिवार - आज संयुक्त परिवार की परिभाषा लम्बे चौड़े परिवार की नहीं रह गयी है बल्कि घर में बच्चों के दादादादी को ही शामिल कर लिया जाय तो वह संयुक्त हो जाता है। चाचा और बुआ अगर अविवाहित हैं तो इसमें आ जातेहैं। फिर होने को तो कई भाई एक साथ एक व्यवसाय में लग कर उसको चलाते रहते हैं। बात हम सिर्फ नौकरी पेशामाता पिता की कर रहे हैं। आप की ये कोशिश होनी चाहिए की अगर संभव है तो बच्चे को दादा दादी के पास ही छोड़ें। अगर आप शहर में ही अलग रह रहे हैं तो भी वह अपने पोते को रखने से इंकार नहीं करेंगे। लेकिन अपनी सोच किमेरा बच्चा दादा दादी के पास बिगड़ जाएगा उसको वे अपने तरीके से सिखायेंगे ( आप उसको कुछ और सीखना चाहती हों) लेकिन वह वहाँ सुरक्षित और प्यार के बीच रहेगा। आपके दूर रहने पर भी उसे प्यार से वंचित नहीं होनापड़ेगा।
कितनी बहुएँ हैं जो बच्चो को कृच में छोड़ना पसंद करती हैं और दादा दादी तरसते रहते हैं। उस समय आप ही दोषी हैं , बच्चे के उस सवाल के कि पैसे से प्यार नहीं मिलता है।
पाश्चात्य संस्कृति - दोनों कामकाजी लोग अपने जीवन स्तर को अलग ढंग से बनाने के पक्षधर भी देखे गए हैं। वो दोनों नौकरी कर रहे हैं एक बेहतर जीवन जीने के लिए लेकिन अपने जीवन का सुख खोने के लिए नहीं।
'अब तुम बड़े हो गए हो , अपने कमरे में सोओ।'
'मम्मी सारे दिन काम करती है रात में तो उसे चैन लेने दिया करो।'
'प्लीज इस समय मुझसे कुछ मत बोलो, मैं अकेले रहना चाहती हूँ।'
'तुम जाओ दोस्तों के संग खेलो , मुझे परेशान मत करो।'
ये आम जुमले हैं, मैं मानती हूँ कि आप दिन भर में थक कर आती हैं लेकिन वह बच्चा भी तोदिन भर अकेले रहता है और चाहता है कि कब मम्मी आये और वह उसके साथ बैठे। उसकी गोद में खेले। उससे आपअपनी थकान या परेशानी की आड़ में उनका प्यार तो नहीं छीन रहीं है। अगर परिवार बनाया है तो अतिरिक्तदायित्वों और परिश्रम आपकी नियति बन चुकी है। फिर अपनी झुंझलाहट आप बच्चे पर निकलें तो वह खुदबखुद दूरहो जायेगा।
उसे भी समय चाहिए और आप आकर कुछ देर के लिए उसे गोद में लेकर प्यार कर लें आप कोआराम करना है तो उसको लेकर बेड पर लेट जाइए उसे भी लिटा लीजिये । देखिये उसके सानिंध्य में आप की थकानकितनी जल्दी उतर जाती है और वह कितना खुश हों जाता है? ये आपसे जोड़ने का एक तरीका है। दिन भर वह अलगरहता है तो उसके लिए माँ एक नियामत होती है।
अपनी पार्टी ये चीज तो कामकाजी ही नहीं बड़े घरों की महिलाओं के लिए एक मनोरंजन का साधनहोता है , के लिए बच्चों को छोड़ देना अकलमंदी नहीं है। उन्हें बड़ा होने का इन्तजार कीजिये और अपने बच्चे केमनोविज्ञान का भी आपको ज्ञान होना चाहिए कुछ बच्चे अतिसंवेदनशील होते हैं उनको दूसरे ढंग से देखना पड़ता है। उनके साथ बातचीत की भाषा और लहजा भी उनको आहत कर सकता है तो एक माता पिता होने के नाते इस बात काध्यान तो जरूर रखें। उन्हें ये अहसास न होने दें कि वे पता नहीं क्यों उन्हें डिस्टर्ब करने के लिए आ जाते हैं। बाल मनउस कच्ची मिट्टी की तरह होता है की जिस पर एक बार जो छाप बन गयी न तो फिर जीवन भर नहीं मिट पाती है।
कामकाजी होने के साथ बच्चों को पर्याप्त समय दें। छुट्टी में उन्हें उनकी तरह से जीने का हक़दीजिये। आप रोज निकलती हैं तो आप को लगेगा की एक छुट्टी का दिन मिला है तो आराम कर लें लेकिन वे रोजएक ही जीवन जीते हाँ या घर में रहते हैं या फिर क्रच में - उन्हें भी तो चेंज चाहिए और फिर ऐसे क्षणों में वे अपनेआप को आपके बहुत करीब पाते हैं।
अगर कर सकती हों और आर्थिक परेशानी का सामना न करना पड़े तो कुछ सालों का आप ब्रेक भी लेसकती हैं और फिर दुबारा जॉब शुरू कर सकती हैं और नहीं संभव है तो फिर कोशिश ये करें कि बच्चे माँ की कमीदूसरे लोगों या फिर बेजान खिलौने में खोजने के लिए मजबूर न हों। ऐसे बच्चों को दूसरे लोग बरगला भी लेते हैं औरउनको गलत रास्ते पर भी ले जाने से नहीं चूकते हैं।
जिनके भविष्य के लिए आप इतना परिश्रम कर रहे हैं और कल को वो आपको ही कटघरे में खड़ाकरके सवाल पूछे तो फिर आपकी सारी मेहनत और प्रयास असफल हों जाता है। बच्चों को दूर न करें । यथासंभवउन्हें अपने करीब रखें। जब उनकी उम्र दूर जाने की होती है तो फिर तो वे दूर चले ही जाते हैं।
बच्चों को कभी भी प्रताड़ित करने के लिए उन्हें ऐसे न कहें -
'बहुत परेशान करोगे तो होस्टल में डाल दूँगा।'
'एक ही शहर में रहते हुए उन्हें होस्टल में यथासंभव न डालें।'
'घर की छत के नीचे जो सुख और प्यार है वह कहीं और नसीब नहीं होता, इस बात का अहसासे आप भी करें औरउन्हें भी करने दें। प्यार देंगे तो प्यार मिलेगा - दूरियां बनायेंगे तो फिर प्यार की आशा कैसे कर सकते हैं? वे वहीसीखते हैं जो हम उनको सिखाते हैं या बातें सिर्फ बोल कर ही नहीं सिखाई जाती है बल्कि इसको तो वे हमारे व्यवहार से भी सीख जाते हैं।
संयुक्त परिवार - आज संयुक्त परिवार की परिभाषा लम्बे चौड़े परिवार की नहीं रह गयी है बल्कि घर में बच्चों के दादादादी को ही शामिल कर लिया जाय तो वह संयुक्त हो जाता है। चाचा और बुआ अगर अविवाहित हैं तो इसमें आ जातेहैं। फिर होने को तो कई भाई एक साथ एक व्यवसाय में लग कर उसको चलाते रहते हैं। बात हम सिर्फ नौकरी पेशामाता पिता की कर रहे हैं। आप की ये कोशिश होनी चाहिए की अगर संभव है तो बच्चे को दादा दादी के पास ही छोड़ें। अगर आप शहर में ही अलग रह रहे हैं तो भी वह अपने पोते को रखने से इंकार नहीं करेंगे। लेकिन अपनी सोच किमेरा बच्चा दादा दादी के पास बिगड़ जाएगा उसको वे अपने तरीके से सिखायेंगे ( आप उसको कुछ और सीखना चाहती हों) लेकिन वह वहाँ सुरक्षित और प्यार के बीच रहेगा। आपके दूर रहने पर भी उसे प्यार से वंचित नहीं होनापड़ेगा।
कितनी बहुएँ हैं जो बच्चो को कृच में छोड़ना पसंद करती हैं और दादा दादी तरसते रहते हैं। उस समय आप ही दोषी हैं , बच्चे के उस सवाल के कि पैसे से प्यार नहीं मिलता है।
पाश्चात्य संस्कृति - दोनों कामकाजी लोग अपने जीवन स्तर को अलग ढंग से बनाने के पक्षधर भी देखे गए हैं। वो दोनों नौकरी कर रहे हैं एक बेहतर जीवन जीने के लिए लेकिन अपने जीवन का सुख खोने के लिए नहीं।
'अब तुम बड़े हो गए हो , अपने कमरे में सोओ।'
'मम्मी सारे दिन काम करती है रात में तो उसे चैन लेने दिया करो।'
'प्लीज इस समय मुझसे कुछ मत बोलो, मैं अकेले रहना चाहती हूँ।'
'तुम जाओ दोस्तों के संग खेलो , मुझे परेशान मत करो।'
ये आम जुमले हैं, मैं मानती हूँ कि आप दिन भर में थक कर आती हैं लेकिन वह बच्चा भी तोदिन भर अकेले रहता है और चाहता है कि कब मम्मी आये और वह उसके साथ बैठे। उसकी गोद में खेले। उससे आपअपनी थकान या परेशानी की आड़ में उनका प्यार तो नहीं छीन रहीं है। अगर परिवार बनाया है तो अतिरिक्तदायित्वों और परिश्रम आपकी नियति बन चुकी है। फिर अपनी झुंझलाहट आप बच्चे पर निकलें तो वह खुदबखुद दूरहो जायेगा।
उसे भी समय चाहिए और आप आकर कुछ देर के लिए उसे गोद में लेकर प्यार कर लें आप कोआराम करना है तो उसको लेकर बेड पर लेट जाइए उसे भी लिटा लीजिये । देखिये उसके सानिंध्य में आप की थकानकितनी जल्दी उतर जाती है और वह कितना खुश हों जाता है? ये आपसे जोड़ने का एक तरीका है। दिन भर वह अलगरहता है तो उसके लिए माँ एक नियामत होती है।
अपनी पार्टी ये चीज तो कामकाजी ही नहीं बड़े घरों की महिलाओं के लिए एक मनोरंजन का साधनहोता है , के लिए बच्चों को छोड़ देना अकलमंदी नहीं है। उन्हें बड़ा होने का इन्तजार कीजिये और अपने बच्चे केमनोविज्ञान का भी आपको ज्ञान होना चाहिए कुछ बच्चे अतिसंवेदनशील होते हैं उनको दूसरे ढंग से देखना पड़ता है। उनके साथ बातचीत की भाषा और लहजा भी उनको आहत कर सकता है तो एक माता पिता होने के नाते इस बात काध्यान तो जरूर रखें। उन्हें ये अहसास न होने दें कि वे पता नहीं क्यों उन्हें डिस्टर्ब करने के लिए आ जाते हैं। बाल मनउस कच्ची मिट्टी की तरह होता है की जिस पर एक बार जो छाप बन गयी न तो फिर जीवन भर नहीं मिट पाती है।
कामकाजी होने के साथ बच्चों को पर्याप्त समय दें। छुट्टी में उन्हें उनकी तरह से जीने का हक़दीजिये। आप रोज निकलती हैं तो आप को लगेगा की एक छुट्टी का दिन मिला है तो आराम कर लें लेकिन वे रोजएक ही जीवन जीते हाँ या घर में रहते हैं या फिर क्रच में - उन्हें भी तो चेंज चाहिए और फिर ऐसे क्षणों में वे अपनेआप को आपके बहुत करीब पाते हैं।
अगर कर सकती हों और आर्थिक परेशानी का सामना न करना पड़े तो कुछ सालों का आप ब्रेक भी लेसकती हैं और फिर दुबारा जॉब शुरू कर सकती हैं और नहीं संभव है तो फिर कोशिश ये करें कि बच्चे माँ की कमीदूसरे लोगों या फिर बेजान खिलौने में खोजने के लिए मजबूर न हों। ऐसे बच्चों को दूसरे लोग बरगला भी लेते हैं औरउनको गलत रास्ते पर भी ले जाने से नहीं चूकते हैं।
जिनके भविष्य के लिए आप इतना परिश्रम कर रहे हैं और कल को वो आपको ही कटघरे में खड़ाकरके सवाल पूछे तो फिर आपकी सारी मेहनत और प्रयास असफल हों जाता है। बच्चों को दूर न करें । यथासंभवउन्हें अपने करीब रखें। जब उनकी उम्र दूर जाने की होती है तो फिर तो वे दूर चले ही जाते हैं।
बच्चों को कभी भी प्रताड़ित करने के लिए उन्हें ऐसे न कहें -
'बहुत परेशान करोगे तो होस्टल में डाल दूँगा।'
'एक ही शहर में रहते हुए उन्हें होस्टल में यथासंभव न डालें।'
'घर की छत के नीचे जो सुख और प्यार है वह कहीं और नसीब नहीं होता, इस बात का अहसासे आप भी करें औरउन्हें भी करने दें। प्यार देंगे तो प्यार मिलेगा - दूरियां बनायेंगे तो फिर प्यार की आशा कैसे कर सकते हैं? वे वहीसीखते हैं जो हम उनको सिखाते हैं या बातें सिर्फ बोल कर ही नहीं सिखाई जाती है बल्कि इसको तो वे हमारे व्यवहार से भी सीख जाते हैं।
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