आज दो अक्टूबर है और देश में छुट्टी भी है वैसे तो कई लोग इस कलेंडर को गालियाँ दे रहे हें कि एक छुट्टी चली गयी अगर सोमवार को पड़ता तो किसी को दो और किसी को तीन छुट्टियाँ मिल जाती खूब मस्ती करते या फिर घूमने निकल जाते । ठीक भी है बेचारे सरकारी कर्मचारी रात दिन मेहनत करते हें तो छुट्टियों का इन्तजार क्यों न करें?
आज देश में इस छुट्टी का लाभ उठाने वाले लोगों में से कितनों ने गाँधी जी और शास्त्री जी को याद किया होगा , उनके जन्मदिन के उपलक्ष में ही तो छुट्टी ले रहे हें। उन्हें याद कर लें यही बहुत है और अगर उनके चरित्र औरउनके मार्ग पर चलना तो दूर शायद इतिहास में उनके सद्कार्यों के वर्णन का 'क ख ग' भी याद करके अपने बच्चों कोबता दें तो इस दिन की छुट्टी मेरी दृष्टि में सार्थक हो जाएगी लेकिन ऐसा भी नहीं होता है। वे गुजरे ज़माने के लोग थे औरआज के ज़माने में अगर गाँधी या शास्त्री की तरह चलने लगें तो हम भी उनकी तरह से बिना कपड़ों के और शास्त्री जी कीतरह से अच्छे खासे रेल मंत्री थे और रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे डाला.ये आदर्शों का जमाना जा चुकाहै और ये आदर्श सिर्फ किताबों और उपदेशों में अच्छे लगते हें । वास्तव में ये कालातीत हो चुके हें। अरे यहाँ तो अबजमाना है कि करो खुद और डंके की चोट पर करो और बलि का बकरा किसी और को बना कर हलाल करवा दो।
मानवता , नैतिकता और आत्मा की आवाज की परिभाषा भी बदल चुकी है। अब कोई आत्मा दूसरे के हित के बारेमें नहीं सोचती है सब अपने बारे में सोचते हें। गाँधी की तरह एक लंगोटी में जीना नहीं चाहते बल्कि इतना इकठ्ठा करलेना चाहते हें कि आने वाली सात पीढियां खा सकें। उसी संसद में जहाँ गाँधी और शास्त्री की तस्वीरे मुस्करा रही हें , उनके साए में ही बैठ कर ये नेता साजिशें रचा करते हें। देश को बेचने की साजिश, उसको खोखला बनाने की साजिश औरदेश में जितने भी लोग हों सबके बीच में एक दीवार खड़ी करने की साजिश। जिसे जहाँ मौका मिला अपने भविष्य कोसुरक्षित करने की जुगाड़ में लगा रहता है और आज के दिन की गरिमा को कहीं भी किसी को भी बनाये रखने की जरूरतनहीं है।
आज उन दो महान आत्माओं को याद करते हुए सोच रही हूँ कि वे जरूर जहाँ भी होंगी अपने त्यागऔर संघर्ष पर आंसूं बहा रही होंगी कि उन्होंने क्या सोचा था और आज देश क्या हो गया है? पूरा देश ऐसा है ये तो नहीं हैलेकिन कितने प्रतिशत है जो गाँधी और शास्त्री के प्रति कृतज्ञ हें या फिर उनके त्याग के मूल्य को समझ रहे हें। खैर ये तोदुनियाँ है - हम सभी लिखने वाले तो कलम से उनके प्रति आदर और श्रद्धा प्रकट कर ही सकते हें।
रविवार, 2 अक्टूबर 2011
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8 टिप्पणियां:
जब सामाजिक जीवन से नैतिकता का ही हाश्र हो गया हो तब हम क्यों स्वयं से भी पूछे कि हमें आदर्श पुरुषों का स्मरण करते हैं या नही।
बापू और शास्त्रीजी को शत -शत नमन ..
सार्थक आलेख..बापू और शास्त्रीजी को शत -शत नमन ..
bahut khoobsoorat lekh
सही और सर्वकालिक पोस्ट।
सार्थक सोच, इस शमा को जलाए रखें।
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..ये हैं की-बोर्ड वाली औरतें।
waah behtreen lekh.lekh aur mahan hastiyon dono ko naman
पुरुषप्रधान समाज की विसंगतियों को आपने सही स्वर दिया है।
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