परिवार और रिश्तों का जो सम्बन्ध है वह प्रेम , स्नेह और सामीप्य से जुड़ा है। हम आधुनिक बनने की लालसा में और उससे अधिक खुद को माडर्न देखने की झूठी शान में डूबते हुए वह खोते चले जा रहे हैं , जो हमारी शान रही है और जिसे पाने के लिए सब तरसते हैं।
भारत में परिवार और विवाह जैसी संस्था विदेशों में एक सुखद आश्चर्य के रूप में देखी जाती है और उसमें बसने वाला प्रेम और एकसूत्र में बंधे रहने की भावना तो और भी अधिक अनुकरणीय समझी जाती है। वह बात और है कि अब हम उनके पीछे दौड़ कर अपने को आधुनिक कहलाने में ज्यादा गर्व महसूस करने लगे हैं। वह यहाँ आकर हमारी संस्कृति के अनुसार शादी करना चाहते हैं और हमारे परिवार में आकर उसकी परम्पराओं को अपनाने के लिए लालायित रहते हैं।
आज सुबह ही ऐसा कुछ सामने आया कि मन किया कि हम अपने आपको ही सुधारें और उनको सुधारने का प्रयास करें जो अपने संस्कृति और संस्कारों से भटक रहे हैं। समझाना हमारा काम है और मानना उनका। सुबह मेरी पारिवारिक मित्र परिवार की पोती मेरे पास आई और बोली दादू आपको "पुंटी " ने बुलाया है। पहले मुझे कुछ समझ नहीं आया फिर मैंने पूछा ये 'पुंटी ' कौन है? अरे दादू पूनम आंटी को हम ही पुंटी कहते हैं।एक तो एक साथ रहते हुए चाची को आंटी कहना और फिर वह भी नाम लेकर। घर के बड़े लोगों ने भी रोकने या टोकने की जरूरत नहीं समझी , जबकि वे लोग बहुत अधिक आधुनिक नहीं है। हाँ आधुनिकता ओढ़ने का काम जरूर करते हैं।
वह तो कह कर चली गयी लेकिन मेरे लिए एक सवाल छोड़ गयी कि उस परिवार में अभी सिर्फ दो बेटों की शादी हुई है . मेरे लिए अपने ही परिवार की तरह से है। बड़े बेटे के बच्चे हैं छोटे की पत्नी को आंटी कहने के लिए नाम जोड़ कर उन लोगों ने उसे 'पुंटी ' बना दिया और घर वाले उसको उसी रूप में स्वीकार कर लिए कभी टोका नहीं . आंटी शब्द हमने अंग्रेजी भाषा से ही लिया है और अंकल भी क्योंकि उनके यहाँ चाहे जो रिश्ता हो वह अंकल और आंटी में ही निहित होता है और हमारे यहाँ के संबोधन रिश्तों की अलग परिभाषा ही नहीं देता है बल्कि उसकी गरिमा भी बताता है साथ ही पैत्रिक परिवार या मातृ परिवार किस से सम्बंधित रिश्ता है इसको भी स्पष्ट करता है। और ये शब्द बच्चे घर से बाहर जाकर नहीं सीखते हैं बल्कि इन्हें तो घर में बाबा, दादी, नाना , नानी , माता पिता ही उनको वाणी ज्ञान होते ही सिखाते हैं कि ये आपके ये हैं। अगर हम बच्चों को चाहे चाचा हो, मामा हो या फिर मौसा या फूफा जो सबको अंकल ही कहने की शिक्षा देते हैं तो ये हमारी कमी है। जो अपनत्व अपने भारतीय संबोधन में है वह विदेशी या अंग्रेजी से आये संबोधन में नहीं है।
हम आधुनिक बनें लेकिन किस दृष्टि से -- अपनी कुरीतियों के बहिष्कार के लिए, अपने बच्चों में लिंग भेद को छोड़ कर सबको समान प्यार और हक देने के लिए , उनकी समान शिक्षा और अधिकार देने के लिए और उनकी तरह से ही स्वयं अपने कामों के लिए आत्मनिभर होने के लिए बने। ये नहीं कि आप छोटे छोटे कामों के लिए पत्नी या बहू पर निर्भर रहें , उसे भी इंसान समझ कर उसके काम में हाथ बंटा लें तो आपकी भारतीयता कम नहीं होती। हम दोहरी मानसिकता पाल कर आधुनिक और विदेशी संस्कृति के अनुयायी बन रहे हैं तो यह तो वह हुआ 'दोऊ दीन से गए पांडे , हलुआ मिला न मांडे ' .
शायद मैं विषय से भटक रही हूँ , इन संबोधन में भी एक प्यार और अपनत्व झलकता है जो सिर्फ भारतीय संस्कृति में ही मिलता है और कहीं भी ये देखने को नहीं मिलेगा। अगर बड़े छोटों को बेटा और बेटी कहकर बुलाते हैं तो ही वह हमारा रक्त सम्बन्धी न हो लेकिन एक अपनत्व से जोड़ने का अहसास जरूर दे जाता है। हमारी ग्रामीण संस्कृति में आज भी चाहे वह जाति का कोई भी हो, छोटा और बड़ा सब एक रिश्ते से बंधे और संबोधन से बंधे होते हैं। हमारे बुंदेलखंड में तो ये आज भी है। नाम लेकर बुलाना तो बहुत कम होता है। बड़े हैं तो चाचा और दादा और महिला हुई हुई तो चाची या दादी कह कर संबोधन करते हैं चाहे वह परिचित हो या न हो। हमारे मुंह से उतने ही शब्द निकलते हैं चाहे हम ए बुढ़िया कहें या चाची या अम्मा कहें . लेकिन इन शब्दों में हमारी तहजीब और तमीज छिपी रहती है जो मुंह से निकलते ही जाहिर हो जाती है।आज की पीढ़ी यह भी कह कर बड़ों को झिड़क देती है। एक घटना मुझे याद है - मैं बैंक में खड़ी थी और मुझसे आगे एक वृद्ध जिन्हें शायद खड़े होने में तकलीफ भी हो रही थी क्योंकि वह बार बार आकर खड़े हो जाते और फिर बेंच पर बैठ जाते। कई पीछे के लोग काम करवा कर चले गए तो वह काउंटर पर आकर उस लड़की से बोले बेटा मैं बहुत देर से खड़ा हूँ मेरा काम कब होगा ? ये बुढऊ यहाँ रिश्तेदारी बनाने का काम मत करो , जो काउंटर पर आगे खड़ा होगा उसका ही काम होगा। मैं सुनकर अवाक रह गयी। मानवता के आगे कोई रिश्ता या धर्म नहीं होता है। एक बुजुर्ग को इस तरह से बोलना शायद हमारे संस्कारों की छवि दिखा रहा था। ये तो हमारी भारतीयता का प्रतीक नहीं है। इन रिश्तों में कोई खून का संबंध जरूरी नहीं है बल्कि अपनेपन की जरूरत होती है और यही अपनापन समाज की डहरी नींव का प्रतीक है ।
अगर हम कम शिक्षित लोगों की बात करें तो वो आज भी इस परंपरा का पालन करते हुए मिल जायेंगे। लेकिन हम चाहे आधुनिक न भी हों, उच्च शिक्षित न भी हों लेकिन खुद को आधुनिकता के लिबास में लपेटे हुए बच्चों को अंकल आंटी, ग्रांड माँ , ग्रांड पा बोलना जरूर सिखा देते हैं। फिर बच्चे अगर भावनात्मक रूप से न जुड़ पायें तो इसमें हम उनको दोष क्यों दें? हम ही उनके मन में दूर रहने वाले संबोधनों के बीज बो रहे हैं फिर कल को वे हमें भी उस नजर से देखना शुरू कर देते हैं तो हमें कष्ट क्यों होता है? आज जिस जगह पर हमारे बुजुर्ग या बराबर के लोग खड़े हैं कल वहीँ हम भी खड़े होंगे और तब शायद ये अनुभव करें कि हमने ही गलत सिखाया।
अगर हम अपने सदियों से चले आ रहे रिश्तों की गहन बंधन और उसमें बसे प्यार को देखे तो वह बंधन सदैव अटूट रहता है। भले ही हम दो घरों में रहे लेकिन वो संबोधन हमें बांधे रहने में पूरी तरह से सक्षम हैं। चलो हम ही कुछ बच्चों में कैसे ही ये संस्कार डालें कि कम से कम हम संबोधन तो अपने रख ही सकते हैं। मैं तो परिवार की बात कर रही हूँ लेकिन हमारे मित्रों के बीच भी अंकल और आंटी कहने का रिवाज नहीं है। बच्चे चाचा चाची या फिर मामा और मामी और मौसा मौसा ही कहते हैं और फिर हम आपस में जितना जुड़े हैं वो कहने की बात नहीं है। इसमें कोई पैसा या स्तर कभी भी आड़े नहीं आया क्योंकि बचपन के मित्र एक स्तर के नहीं होते हैं लेकिन परिवारों के बीच वही अपनत्व है। यही भारतीयता है और इसको कायम रखना हमारे हाथ में है।
भारत में परिवार और विवाह जैसी संस्था विदेशों में एक सुखद आश्चर्य के रूप में देखी जाती है और उसमें बसने वाला प्रेम और एकसूत्र में बंधे रहने की भावना तो और भी अधिक अनुकरणीय समझी जाती है। वह बात और है कि अब हम उनके पीछे दौड़ कर अपने को आधुनिक कहलाने में ज्यादा गर्व महसूस करने लगे हैं। वह यहाँ आकर हमारी संस्कृति के अनुसार शादी करना चाहते हैं और हमारे परिवार में आकर उसकी परम्पराओं को अपनाने के लिए लालायित रहते हैं।
आज सुबह ही ऐसा कुछ सामने आया कि मन किया कि हम अपने आपको ही सुधारें और उनको सुधारने का प्रयास करें जो अपने संस्कृति और संस्कारों से भटक रहे हैं। समझाना हमारा काम है और मानना उनका। सुबह मेरी पारिवारिक मित्र परिवार की पोती मेरे पास आई और बोली दादू आपको "पुंटी " ने बुलाया है। पहले मुझे कुछ समझ नहीं आया फिर मैंने पूछा ये 'पुंटी ' कौन है? अरे दादू पूनम आंटी को हम ही पुंटी कहते हैं।एक तो एक साथ रहते हुए चाची को आंटी कहना और फिर वह भी नाम लेकर। घर के बड़े लोगों ने भी रोकने या टोकने की जरूरत नहीं समझी , जबकि वे लोग बहुत अधिक आधुनिक नहीं है। हाँ आधुनिकता ओढ़ने का काम जरूर करते हैं।
वह तो कह कर चली गयी लेकिन मेरे लिए एक सवाल छोड़ गयी कि उस परिवार में अभी सिर्फ दो बेटों की शादी हुई है . मेरे लिए अपने ही परिवार की तरह से है। बड़े बेटे के बच्चे हैं छोटे की पत्नी को आंटी कहने के लिए नाम जोड़ कर उन लोगों ने उसे 'पुंटी ' बना दिया और घर वाले उसको उसी रूप में स्वीकार कर लिए कभी टोका नहीं . आंटी शब्द हमने अंग्रेजी भाषा से ही लिया है और अंकल भी क्योंकि उनके यहाँ चाहे जो रिश्ता हो वह अंकल और आंटी में ही निहित होता है और हमारे यहाँ के संबोधन रिश्तों की अलग परिभाषा ही नहीं देता है बल्कि उसकी गरिमा भी बताता है साथ ही पैत्रिक परिवार या मातृ परिवार किस से सम्बंधित रिश्ता है इसको भी स्पष्ट करता है। और ये शब्द बच्चे घर से बाहर जाकर नहीं सीखते हैं बल्कि इन्हें तो घर में बाबा, दादी, नाना , नानी , माता पिता ही उनको वाणी ज्ञान होते ही सिखाते हैं कि ये आपके ये हैं। अगर हम बच्चों को चाहे चाचा हो, मामा हो या फिर मौसा या फूफा जो सबको अंकल ही कहने की शिक्षा देते हैं तो ये हमारी कमी है। जो अपनत्व अपने भारतीय संबोधन में है वह विदेशी या अंग्रेजी से आये संबोधन में नहीं है।
हम आधुनिक बनें लेकिन किस दृष्टि से -- अपनी कुरीतियों के बहिष्कार के लिए, अपने बच्चों में लिंग भेद को छोड़ कर सबको समान प्यार और हक देने के लिए , उनकी समान शिक्षा और अधिकार देने के लिए और उनकी तरह से ही स्वयं अपने कामों के लिए आत्मनिभर होने के लिए बने। ये नहीं कि आप छोटे छोटे कामों के लिए पत्नी या बहू पर निर्भर रहें , उसे भी इंसान समझ कर उसके काम में हाथ बंटा लें तो आपकी भारतीयता कम नहीं होती। हम दोहरी मानसिकता पाल कर आधुनिक और विदेशी संस्कृति के अनुयायी बन रहे हैं तो यह तो वह हुआ 'दोऊ दीन से गए पांडे , हलुआ मिला न मांडे ' .
शायद मैं विषय से भटक रही हूँ , इन संबोधन में भी एक प्यार और अपनत्व झलकता है जो सिर्फ भारतीय संस्कृति में ही मिलता है और कहीं भी ये देखने को नहीं मिलेगा। अगर बड़े छोटों को बेटा और बेटी कहकर बुलाते हैं तो ही वह हमारा रक्त सम्बन्धी न हो लेकिन एक अपनत्व से जोड़ने का अहसास जरूर दे जाता है। हमारी ग्रामीण संस्कृति में आज भी चाहे वह जाति का कोई भी हो, छोटा और बड़ा सब एक रिश्ते से बंधे और संबोधन से बंधे होते हैं। हमारे बुंदेलखंड में तो ये आज भी है। नाम लेकर बुलाना तो बहुत कम होता है। बड़े हैं तो चाचा और दादा और महिला हुई हुई तो चाची या दादी कह कर संबोधन करते हैं चाहे वह परिचित हो या न हो। हमारे मुंह से उतने ही शब्द निकलते हैं चाहे हम ए बुढ़िया कहें या चाची या अम्मा कहें . लेकिन इन शब्दों में हमारी तहजीब और तमीज छिपी रहती है जो मुंह से निकलते ही जाहिर हो जाती है।आज की पीढ़ी यह भी कह कर बड़ों को झिड़क देती है। एक घटना मुझे याद है - मैं बैंक में खड़ी थी और मुझसे आगे एक वृद्ध जिन्हें शायद खड़े होने में तकलीफ भी हो रही थी क्योंकि वह बार बार आकर खड़े हो जाते और फिर बेंच पर बैठ जाते। कई पीछे के लोग काम करवा कर चले गए तो वह काउंटर पर आकर उस लड़की से बोले बेटा मैं बहुत देर से खड़ा हूँ मेरा काम कब होगा ? ये बुढऊ यहाँ रिश्तेदारी बनाने का काम मत करो , जो काउंटर पर आगे खड़ा होगा उसका ही काम होगा। मैं सुनकर अवाक रह गयी। मानवता के आगे कोई रिश्ता या धर्म नहीं होता है। एक बुजुर्ग को इस तरह से बोलना शायद हमारे संस्कारों की छवि दिखा रहा था। ये तो हमारी भारतीयता का प्रतीक नहीं है। इन रिश्तों में कोई खून का संबंध जरूरी नहीं है बल्कि अपनेपन की जरूरत होती है और यही अपनापन समाज की डहरी नींव का प्रतीक है ।
अगर हम कम शिक्षित लोगों की बात करें तो वो आज भी इस परंपरा का पालन करते हुए मिल जायेंगे। लेकिन हम चाहे आधुनिक न भी हों, उच्च शिक्षित न भी हों लेकिन खुद को आधुनिकता के लिबास में लपेटे हुए बच्चों को अंकल आंटी, ग्रांड माँ , ग्रांड पा बोलना जरूर सिखा देते हैं। फिर बच्चे अगर भावनात्मक रूप से न जुड़ पायें तो इसमें हम उनको दोष क्यों दें? हम ही उनके मन में दूर रहने वाले संबोधनों के बीज बो रहे हैं फिर कल को वे हमें भी उस नजर से देखना शुरू कर देते हैं तो हमें कष्ट क्यों होता है? आज जिस जगह पर हमारे बुजुर्ग या बराबर के लोग खड़े हैं कल वहीँ हम भी खड़े होंगे और तब शायद ये अनुभव करें कि हमने ही गलत सिखाया।
अगर हम अपने सदियों से चले आ रहे रिश्तों की गहन बंधन और उसमें बसे प्यार को देखे तो वह बंधन सदैव अटूट रहता है। भले ही हम दो घरों में रहे लेकिन वो संबोधन हमें बांधे रहने में पूरी तरह से सक्षम हैं। चलो हम ही कुछ बच्चों में कैसे ही ये संस्कार डालें कि कम से कम हम संबोधन तो अपने रख ही सकते हैं। मैं तो परिवार की बात कर रही हूँ लेकिन हमारे मित्रों के बीच भी अंकल और आंटी कहने का रिवाज नहीं है। बच्चे चाचा चाची या फिर मामा और मामी और मौसा मौसा ही कहते हैं और फिर हम आपस में जितना जुड़े हैं वो कहने की बात नहीं है। इसमें कोई पैसा या स्तर कभी भी आड़े नहीं आया क्योंकि बचपन के मित्र एक स्तर के नहीं होते हैं लेकिन परिवारों के बीच वही अपनत्व है। यही भारतीयता है और इसको कायम रखना हमारे हाथ में है।