क्या पढ़े लिखे और इस विकासशील भारत में जनता अपने अधिकारों और कर्तव्यों से इतना अधिक विमुख है कि सरकार के किसी भी कदम का न तो विरोध कर सकते हैं और न ही उनसे कोई सवाल करने का अधिकार रखते हैं। वे सरकार चुनते समय अपने विवेक को ताक में रख कर बटन दबा कर चले आते हैं। लेकिन मैं यह क्यों भूल रही हूँ कि बटन दबाने के बाद जो चुने जाते हैं उनके ही रास्ते और इरादे बदल जाते हैं। वे पांच साल के बादशाह बन जाते हैं और वह भी निरंकुश बादशाह फिर ठगा सा जनमत कुछ कर ही नहीं सकता है।
पिछले दिनों आई रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में 15 वीं विधान सभा के पूरे 5 वर्ष के 89 दिवस सत्र चले . जब कि एक वर्ष में 365 दिन में अगर 30 दिन भी कार्य होता तो 5 साल में 150 कार्य दिवस होते लेकिन वह भी नहीं हो सका। जो 89 दिवस सदन में कार्य हुआ और 403 विधायकों में से सिर्फ 5 ऐसे थे जो की पूरे 89 दिन उपस्थित थे और इनके समेंत 20 विधायक ऐसे थे जो 88 दिन उपस्थित थे। इसमें से 1 को को छोड़ कर शेष सभी सत्तापक्ष के विधायक थे। शेष कहाँ रहते हैं और क्या करते रहे इसके बारे में न सदन ने कभी जानने की कोशिश की और नहीं उन लोगों ने इस बारे में सूचित करने की कोई जरूरत समझी। उनके वेतन भत्ते में कभी कोई नहीं की जाती है क्योंकि प्रदेश का अस्तित्व उनसे ही है, नहीं तो प्रदेश अनाथ हो जाएगा। ये सिर्फ एक प्रदेश की स्थिति है इस बारे में हमें संसद और शेष सभी राज्यों के विधान सभाओं की स्थिति के बारे में जानकारी उपलब्ध करायी जाए . लोक में जागरूकता जब तक नहीं आएगी तब तक अपना अर्थ सार्थक नहीं कर पायेंगे .
प्रजातंत्र में सरकार में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ही हम अपने प्रतिनिधि को चुनते हैं लेकिन वही प्रतिनिधि अपने दल के कठपुतली बन जाएँ तो ठगे तो हम जाते हैं। चुने हुए प्रतिनिधि तो अपनी जुगाड़ में कहीं और घूमते फिरते हैं सदन की कार्यवाही या उसमें अपनी उपस्थिति से उनको कोई भी मतलब नहीं होता है और नहीं सदन के अध्यक्ष इस विषय में कोई कदम उठता है . सरकारी कार्यालयों और बच्चों के स्कूल में उपस्थिति की तरह से हमारे विधायकों और सांसदों की उपस्थिति का भीएक रिकार्ड होना चाहिए और उसको सार्वजनिक किया जाना चाहिए। उन्हें चुनने वालों को पूरा अधिकार है कि वे अपने प्रतिनिधि की कार्य प्रणाली से पूरी तरह से वाकिफ रहें। ताकि भविष्य में उनसे इस बारे में दुबारा आने पर सवाल तो किया ही जा सके। अन्धानुकरण अधिक दिन नहीं चल सकता है। वर्षों से विधायक और सांसदों के पद पर काबिज लोगो को अब जनमत क्यों नकार रहा है? सिर्फ इस लिए कि उन्होंने अपने क्षेत्र के लिए कुछ किया ही नहीं . कुछ माननीय अपनी नीयत सिर्फ इस इरादे से स्पष्ट कर देते हैं कि वे सिर्फ अपने और अपने क्षेत्र के विकास में में रूचि रखते हैं।
अब हमें जागरूक होने की जरूरत है , पांच साल सिर्फ इसलिए हम चुप नहीं बैठ सकते हैं कि हम उन्हें झेलने के लिए मजबूर है नहीं हमें उनकी गतिविधियों पर निगाह रहने का पूरा पूरा अधिकार होता है। अपनी बात उनके द्वारा संसद में उठाये जाने की बात को लेकर बात करने तक। वे ही हमारा माध्यम हैं और उन्हें अपने क्षेत्र से जुड़े मामले को उठाना ही होगा। बस एक दूसरे का हाथ थाम का शक्ति को बढ़ाना होगा और आवाज को बुलंद करना होगा फिर कल हम सुधार की आशा कर सकते हैं. हम कोई राजनैतिक दल के सदस्य नहीं है लेकिन हम उस विधा से जुड़े हैं कि हम एक दूसरे तक अपनी बात को पहुँचा तो सकते हैं और सोचने के लिए मजबूर भी कर सकते हैं।