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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

ऐसा भी क्या?

                         अनुशासन और सख्ती माँ बाप अपने बच्चों को संस्कारित और सुसंस्कृत बनाने के लिए रखना चाहते हैं और ये अपने बच्चों के हित में ही करते हैं. लेकिन ये अनुशासन और सख्ती अगर बच्चों को इतना डरपोक बना दे कि वे अपनी बात भी माँ बाप से न कह पायें तो कहना ही पड़ेगा ऐसा भी क्या अनुशासन?
                         वह  अनुशासन  जो  माँ   - बाप  और बच्चों के बीच में एक दीवार खड़ी कर दे कोई अच्छे परिणाम तो नहीं दे सकती है. सख्त होने की तख्ती जो  घर में लगा दी जाती है वो दूरियां बढ़ाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करती  है. कभी कभी बच्चों को इससे बचने के लिए छोटी उम्र में ही कुछ ऐसे निर्णय लेने को मजबूर कर देते हैं जिसकी राह आसान नहीं होती है. कभी कभी इसका ही परिणाम होता है कि बच्चे अंतर्मुखी हो जाते हैं और अपने में घुटते हुए वे अपने जीवन के बारे में गलत निर्णय भी ले डालते हैं.  
                          मिसेज सरन खुद एक सरकारी स्कूल कि टीचर और उनके पति सरकारी मुलाजिम. मिसेज सरन एकदम कड़क स्वभाव की - उनकी इच्छा के बगैर पत्ता भी न हिले. घर का वातावरण वैसा ही. उस दबे घुटे माहौल में बच्चे न तो बगावत कर सकते थे और न अपनी मर्जी जाहिर कर सकते थे. फिर वे ऐसा कृत्य कर डालते हैं कि हमें दोष इस अनुचित और सख्त अनुशासन को ही देना पड़ता है. मिसेज  सरन का बेटा बाहर नौकरी कर रहा था और वह किसी लड़की से शादी करना चाहता था पर माँ के नियम कायदों में ये संभव ही नहीं था. इस लिए उसने वही शादी करके घर बसा लिया. घर आता रहा और शादी के लिए बहाने बनाता रहा लेकिन कहाँ तक? एक दिन माँ ने लड़की देखी और शादी पक्की कर दी. उसने कह दिया कि मेरे पास अभी समय नहीं है लेकिन नहीं उसको शादी के लिए मजबूर कर दिया और उसने क्या सोचा ? ये तो मुझे नहीं पता. उसने यहाँ पर माँ की तय की हुई लड़की से शादी की और फिर उसे माँ के पास छोड़ कर चला गया. लड़की भी उसके स्तर से पढ़ी लिखी और आत्मनिर्भर थी. एक दो महीने तक तो उसने इन्तजार किया और फिर एक दिन वह फ़ोन करके उसके पास के लिए निकल पड़ी. लड़के ने एक नया मकान किराये पर लिया और कह दिया कि मैं तो अभी तक पेइंग  गेस्ट की तरह रह रहा था सो कोई भी सामान नहीं है. एक हफ्ते वह कभी रात में रहता और कभी नाईट  शिफ्ट की बात कह कर गोल हो जाता. फिर एक दिन उसको शक हो गया और उसने भी पति के फ़ोन को रात में ट्रेस  किया तो उसकी पत्नी ने उठाया. उसने उसके बारे में पूछा तो उसने सब कुछ बता दिया कि वह उसकी पत्नी है और एक बच्चा भी है. वह लोग ३ साल से शादीशुदा जिन्दगी बिता रहे हैं.
                       एक दिन उसकी पहली पत्नी ने दूसरी का साथ दिया और उसको अपने यहाँ बुला लिया. ऑफिस से सीधे घर पहुंचा तो घर में ताला लगा था. वह हार कर अपने घर आ गया और वहाँ पर उसको दोनों एक साथ मिली तो हैरान. लेकिन इस बात का कोई हल नहीं था. वह सिर्फ अपनी माँ के भय से ये अपराध कर बैठा  (हो सकता है कि आपको ये अविश्वसनीय लगे लेकिन ये सौ  प्रतिशत  सच  घटना  है.) शायद उसको दूसरी पत्नी को पति का दोष कम समझ आया हो. वह वहाँ से वापस आ गयी और उसने इस धोखे के लिए अपने सास ससुर के खिलाफ रिपोर्ट की और वे दोनों हवालात पहुँच गए. इस जगह मिसेज सरन को अपने अति  अनुशासन और सख्ती की सजा मिली. हर व्यक्ति ने मिसेज सरन को दोष दिया.
                        ऐसे ही मिस्टर खन्ना सेना में काम करते करते इतने सख्त अनुशासन वाले कि उनके घर आने पर बच्चे अपने कमरे से बाहर न निकले और डायनिंग टेबल पर सिर झुका कर खाना खाकर चुपचाप उठ जाएँ. अपनी इच्छा भी व्यक्त करें तो माँ के माध्यम से और माँ पर भी कोई कम भय न था. वह भी बात करने में डरती थी. अपनी सोसायटी में मिस्टर खन्ना सीना ठोक कर कहते कि मेरे घर में देखो मैं रहूँ न रहूँ मेरी मर्जी के बिना कोई भी काम हो ही नहीं  सकता है. मैं घर वालों को अधिक छूट  नहीं देता. शायद सांस भी उनकी मर्जी से ली और छोड़ी जाती थी. उनके घर से बाहर होने  पर घर वाले ज्यादा सुखी अनुभव करते .  उनका बड़ा बेटा मेडिकल की पढ़ाई कर रहा था. उससे छोटा इंजीनियर था. सबसे छोटी बेटी. उन्होंने बेटी की शादी कर दी और बड़े बेटे से कहा तो उसने मना कर दिया कि पहले पीजी करूंगा उसके बाद , छोटे की कर लें. जब कि उसकी बात कुछ और ही थी. छोटे बेटे से मेरी सहेली की बेटी की शादी हुई. और जगहों की तरह यहाँ भी चर्चा की बड़े भाई ने शादी क्यों नहीं की? 
                        इसके कुछ वर्षों तक तो वह छुट्टियों में घर आ जाता लेकिन कुछ वर्षों बाद उसने पूरे घर से संपर्क तोड़ लिया और एक बंगाली लड़की से शादी कर ली. बस वह अपने घर में बता नहीं पाया और इस कठोर अनुशासन ने उसको इतनी हिम्मत न दी कि वह अपने मन की बात घर वालों से कह पाता .  इस अति के  कारण एक बेटे ने अपने माँ बाप को छोड़ दिया या फिर माँ बाप ने अपने बेटे को खो दिया. अब वर्षों से वह कोई भी सम्बन्ध नहीं रखता और उन लोगों को ये भी पता नहीं है कि वह कहाँ है?             
                         ये दो घटनाएँ आज के युग में अतिश्योक्ति लग सकती हैं लेकिन ये इतने करीब घटी हैं कि लगता है कि कभी कभी ये अनुशासन या सख्ती व्यक्ति के लिए प्रतिष्ठा का या फिर मानसिक असुरक्षा से बचने का कारण भी हो सकता है. मेरे विचार से तो सख्त अनुशासन के साथ बच्चों के साथ कुछ पल मित्र कि तरह भी गुजारने चाहिए जिससे कि वे अपने मन की बात अपने माँ बाप से बाँट तो सकें. बच्चों पर अपनी इच्छा थोपना आज की मांग नहीं है बल्कि अगर आप चाहते हैं कि बच्चे आपकी भावनाओं कि क़द्र करें तो आप भी उनके विचारों और भावनाओं कि क़द्र करने में पीछे न रहें. जिससे कि वो खाई तो न बने कि वे अपराधी बन जाएँ या फिर अपने कृत्य से आप स्वयं कोई अनजाने में गलती कर बैठे जिससे आप वाकिफ नहीं हैं. आप अपना जीवन अपने अनुसार जी चुके हैं तो उनके जीवन के बारे में उनके निर्णय को जानकर ही उनका भविष्य निश्चित करें.
                              सिर्फ अनुशासन ही नहीं बल्कि इसके दूसरे पक्ष पर भी अगर नजर डालें तो जरूरत से ज्यादा छूट या फिर बच्चों कि हर बात को आँख बंद कर स्वीकार कर लेना भी उनके ही नहीं बल्कि खुद माँ बाप के जीवन के लिए अभिशाप बन जाते हैं. अपनी संतान को हर माँ बाप प्यार करते हैं और उन्हें एक अच्छा जीवन ही देना चाहते हैं.  फिर भी किशोर से लेकर तरुण होने तक उन पर नजर रखना बहुत जरूरी होता है . आप साये की तरह से उनके पीछे नहीं लगे रह सकते हैं फिर भी ये आप को पता होना चाहिए कि उनकी संगति कैसी है? वह किन दोस्तों के साथ उठता बैठता है और उसकी गतिविधियाँ क्या हैं? बस सही दिशा में लग जाने के बाद आप बेफिक्र हो सकते हैं.
                        इधर आए दिन अखबारों में युवकों के अपने ही दोस्तों के द्वारा मार दिए जाने की खबरे मिल  रही हैं और इसमें ही एक परिचित के बेटे की हत्या भी शामिल हो गयी. बाद में पता चल गया कि उसके दोस्तों ने ही उसकी हत्या कर दी क्योंकि वह अपने पैसे को लेकर उनको अपमानित करता रहता था. बस इतनी सी बात ने उसके परिवार को चिराग से वंचित कर दिया.
                        प्यार अनुशासन, और उन पर नजर रखने का काम एक साथ करना चाहिए ताकि बाद में ऐसा कुछ न घटे कि आप खुद को ही दोषी मामने लगें.

बुधवार, 17 नवंबर 2010

आदर्शवाद का ढोंग !

                              मैंने अपने जीवन में ऐसा कोई काम शायद जानबूझ कर नहीं किया कि लोग मुझ पर अंगुली उठा सकें लेकिन 
                           लाभ हानि जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ    

     तुलसीदास जी की इन पंक्तियों को तो मैं भूल ही गयी थी. मेरी एक टिप्पणी पर हमारे ब्लोगर भाई परम आर्य जी ने ऐसी टिप्पणी की कि मैंने मानव जाति की बात कैसे कर सकती हूँ जब कि मैंने स्वयं अपने नाम के आगे अपनी जाति लगा रखी है. ये आदर्शवाद  का ढोंग है.' 
               उनकी टिप्पणी ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया और फिर इसके लिए उठे प्रश्न से दो चार तो होना ही पड़ेगा. 
         क्या नाम के साथ लगी हुई जाति का प्रतीक इंसान की मानवता पर प्रश्न चिह्न लगा देता है? उसको मानवोचित गुणों से वंचित कर देता है या फिर उसकी सोच को जाति के दायरे से बाहर नहीं निकलने देता है. ऐसा कुछ भी नहीं है, ये जाति मेरे नाम के साथ मेरे पापा ने लगाई थी क्योंकि जब बच्चा स्कूल जाता है तो उसके माता पिता नाम देते हैं. मेरे पिता भी अपने नाम के साथ भी यही लगाते थे. किन्तु वे एक ऐसे इंसान थे जो इस दायरे से बाहर थे. हर जाति , धर्म और वर्ग में उनकी अपनी पैठ थी. उनके मित्र और अन्तरंग और सहयोगी थे. नाम कुछ भी हो मानवीय मूल्यों कि परिभाषा नहीं बदलती है या इसमें जाति या धर्म कहीं भी आड़े नहीं आता है.
                 फिर भी आर्य जी का ये आरोप कि जाति लगाकर इंसान मानव जाति और मानव धर्म कि बात नहीं कर सकता एकदम निराधार है. महात्मा गाँधी के साथ उनकी जाति का नाम जुड़ा था और वे क्या थे? उनका व्यक्तित्व क्या था? क्या गाँधी लगने से उनके आदर्शों और मूल्यों की कीमत कम हो गयी. सम्पूर्ण विश्व जिसके दिखाए मार्ग पर चलने की वकालत कर रहा है. अहिंसा का मार्ग ढोंग है, अगर नहीं तो इस आक्षेप का कोई अर्थ नहीं है. इतिहास उठाकर देखें तो यही ज्ञात होगा कि इंसान की सोच और कार्य के आगे नाम और उपनाम नगण्य है. इसका कुछ भी लेना या देना नहीं है. 
              रहा नाम के साथ जाति नाम लगाने का तो इसके लिए हमारी सोच ही इसको ख़त्म कर सकती है लेकिन ऐसी सोच और विचार तो हों. इस प्रसंग में मुझे अजय ब्रह्मात्मज का एक निबंध याद आ रहा है जो कि इसी विषय पर लिखा गया था और वह ५० हजार रुपये से पुरस्कृत भी किया गया था. उसमें उन्होंने लिखा था कि उनके पिता ने अपने बच्चों के नाम के आगे जाति लगने के स्थान पर अपने बेटों के नाम के आगे माँ का नाम और उसके साथ आत्मज जोड़ कर लगाया. इस तरह से ब्रह्मा + आत्मज = ब्रह्मात्मज लगाया और अपनी बेटी के नाम के साथ अपना नाम देव + आत्मजा = देवात्मजा लगाया. इस दृष्टिकोण के रखने वाले पिता को मेरा नमन है. इस सोच को रखने वाले पिता इस समय कम से कम ८० वर्ष के होंगे और इस सोच को उन्होंने आज से करीब ५५-६० वर्ष पहले मूर्त रूप दिया था.

रविवार, 14 नवंबर 2010

आज बाल दिवस है.

                                                         (chitra googal ke sabhar )
                                                  
         आज बाल दिवस है, देश के बच्चों के लिए जो भी किया जाय कम है क्योंकि असली बाल वह है , जो अपने अनिश्चित भविष्य से जूझ रहा है. अगर वह स्कूल भी जा रहा है तो उसको चिंता इस बात की हर अभी घर में जाकर इतना कम कर लूँगा तो इतने पैसे  मिलेंगे. उनकी शिक्षा भविष्य का दर्पण नहीं है बल्कि बस  स्कूल में बैठ दिया गया  है तो बैठे  हैं .
                         अगर माँ बाप भीख मांग रहे हैं तो बच्चे भी मांग रहे हैं. क्या ये बाल दिवस का अर्थ जानते हैं या कभी ये कोशिश की गयी कि in  भीख माँगने वाले बच्चों के लिए सरकार कुछ करेगी. जो कूड़ा बीन रहे हैं तो इसलिए क्योंकि उनके घर को चलने के लिए उनके पैसे की जरूरत है. कहीं बाप का साया नहीं है, कहीं बाप है तो शराबी जुआरी है, माँ बीमार है, छोटे. छोटे भाई बहन भूख से बिलख रहे हैं. कभी उनकी मजबूरी को जाने  बिना हम कैसे कह सकते हैं कि माँ बाप बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते हैं. अगर सरकार उनके पेट भरने की व्यवस्था करे तो वे पढ़ें लेकिन ये तो कभी हो नहीं सकता है. फिर इन बाल दिवस से अनभिज्ञ बच्चों का बचपन क्या इसी तरह चलता रहेगा?
                आज अखबार में पढ़ा कि ऐसे ही कुछ बच्चे कहीं स्कूल में पढ़ रहे हैं क्योंकि सरकार ने मुफ्त शिक्षा की सुविधा जो दी है लेकिन शिक्षक बैठे गप्प  मार रहे हैं.पढ़ाने में और इस लक्ष्य से जुड़े लोगों को रूचि तो सिर्फ सरकारी नौकरी और उससे मिलने वाली सुविधाओं में है. इन बच्चों का भविष्य तो कुछ होने वाला ही नहीं है तभी तो उनको नहीं मालूम है कि बाल दिवस किसका जन्म दिन  है और क्यों मनाया जाता  है. जहाँ  सरकार जागरूक करने  का प्रयत्न  भी कर रही  है वहाँ  घर वाले खामोश है और किसी तरह से बच्चे स्कूल तक  आ  गए  तो उनके पढ़ाने वाले उनको  बैठा  कर समय गुजार  रहे हैं. 
                पिछले  दिनों  की बात है. केन्द्रीय  मंत्री  सलमान खुर्शीद  को किसी भिखारी  की बच्चियां  रास्ते  में मिली  थी  और फिर उन्होंने  उन  बच्चियों  को शिक्षा के लिए गोद  लेने  की सोची  और उनका  घर पता  लगाते  हुए  वे भिखारी  बस्ती  में भी गए . उन्होंने  उसकी  माँ से कहा  कि अपनी बेटियों को  मेरे  साथ   भेज  दो  मैं  उनकी पढ़ाई  लिखाई  का पूरा  खर्चा  उठाऊँगा  और वे पढ़ लिख  जायेंगी  तुम्हारी  तरह से भीख नहीं मांगेंगी . उन्होंने  बहुत  प्रयास  किया लेकिन उसकी  माँ तैयार  ही नहीं हुई  क्योंकि उसका  एक  ही जवाब  था   कि मैं  इसी में गुजरा  कर लूंगी  लेकिन अपनी  बेटियों   को कहीं नहीं भेजूंगी . इस जगह  मंत्री  जी  चूक  गए  उन्हें  लड़कियों  को दिल्ली  ले  जाकर पढ़ाने के स्थान  पर  उनको  वहीं  पढ़ाने का प्रस्ताव  रखना   चाहिए  था  . शायद  वह भिखारिन  मान जाती  तो दो  बच्चियां  अपनी  माँ की तरह से जिन्दगी  गुजारने  से बच  जाती. 
                                                (chitra  googal  ke  sabhar )
                  ऐसे बचपन को इस विभीषिका  से बचाने  के लिए या फिर ऐसे माँ  बाप के बच्चों को स्कूल ले  जाने  के लिए सबसे  पहले  उनके माँ बाप को इस बात  को समझाना  चाहिए  कि उनके बच्चे पढ़ लिख  कर क्या बन  सकते हैं? कैसे वे उनकी इस दरिद्र जिन्दगी  से बाहर  निकल  कर कल  उनका  सहारा  बन  सकते हैं. सर्वशिक्षा  तभी सार्थक  हो सकती  है जब  कि इसके  लिए उनके अभिभावक  भी तैयार  हों . नहीं तो कागजों  में चल  रहे स्कूल और योजनायें  - सिर्फ दस्तावेजों   की शोभा  बनती  rahengin और इन घोषणाओं  से कुछ भी होने वाला नहीं है. अगर इसे  सार्थक  बनाना  है और बाल दिवस को ही इस काम  की पहल  के लिए चुन  लीजिये . सबसे  पहले  बच्चों के माँ बाप को इस बात के प्रोत्साहित  कीजिये  कि वे अपने बच्चे को पढ़े  लिखे  और इज्जत  और मेहनत  से कमाते  हुए  देखें . अगर इस दिशा  में सफल  हो गए  तो फिर ये सड़कों  पर  घूमता  हुआ   बचपन कुछ प्रतिशत  तक  तो सँभल  ही जाएगा   और इस देश का बाल दिवस तभी सार्थक समझना चाहिए .

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

कुछ नहीं रखा है?

                      "मैं बी ए कर रहा हूँ, आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग से सम्बन्ध रखता हूँ. सब लोग कह रहे हैं की 'यहाँ (भारत में) कुछ नहीं रखा है, बाहर निकल जाओ बहुत बहुत पैसा है.' आप बतलाइये मैं क्या करूँ?"


                            ये पत्र था एक लड़के का, जो करियर काउंसलर को लिखा गया था. ऐसे ही कितने युवा है, जो गुमराह किये जाते हैं. जिनकी शिक्षा का अभी आधार भी नहीं बना होता  है. जिन्हें व्यावसायिक शिक्षा का ज्ञान तक नहीं होता है और उन्हें सिर्फ ढेर से पैसे की चाह होती है या फिर उनको ऐसे ही लोग सब्ज बाग़ दिखा  कर दिग्भ्रमित कर देते हैं. इसमें इस युवा का भी दोष नहीं है क्योंकि सीमित साधन वाले माता पिता अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए बहुत क़तर ब्यौत करके खर्च पूरा करते हैं और बच्चे इस बात से अनभिज्ञ नहीं होते हैं. इस बात से उनको बहुत कष्ट होता है (सब को नहीं ) और वे जल्दी से जल्दी पैरों पर खड़े होकर बहुत सा पैसा कामना चाहते हैं. इसमें बुरा कुछ भी नहीं है किन्तु उसके लिए सही शिक्षा और सही मार्गदर्शन भी जरूरी है. 
                       'यहाँ कुछ नहीं रखा है." कहने वाले वे लोग होते हैं जो ऐसे युवाओं को विदेश का लालच देकर वहाँ बंधुआ मजदूर बनवा कर खुद कमीशन हड़प जाते हैं. उनके दिमाग में इस तरह की बात डालना उनके भविष्य को गर्त में डालना है. पैसा कमाने का शार्ट कट या तो अपराध की दुनियाँ में कदम रखवा  सकता है या फिर ऐसे ही लोगों के जाल में फँस कर अपने को बेच देने के बराबर होता है. अब तो हर क्षेत्र में आप चाहे कला, वाणिज्य या फिर विज्ञान स्नातक हों - करियर की इतनी शाखाये खुल रही हैं कि उसमें से  चुनाव आपकी रूचि पर निर्भर करता है. इस दिशा की ओर ले जाने वाले संस्थान अपने देश में भी हैं, जो आपको नौकरी के साथ तकनीकी या विशिष्ट शिक्षा के अवसर प्रदान कर रहे हैं. आप काम करते हुए भी अपने करियर को अपने रूचि के अनुसार संवार सकते हैं.. इग्नू जैसे संस्थान है जो विश्व स्तर पर अपनी शिक्षा के लिए मान्य है. 
                                    वह तो अच्छा हुआ की उसने करियर काउंसलर से सलाह ले ली और उसे सही दिशा निर्देश प्राप्त हो गया अन्यथा ये युवा आसमां में उड़ने का सपना लिए अपने पर तक कटवा बैठते हैं कि एक बार उड़ने के बाद फिर पैरों पर चलने के काबिल भी नहीं रहते . इस विषय में  मेरे अन्य ब्लॉग पर दी गयी पोस्ट इसका सत्य एवं ज्वलंत प्रमाण है.

विदेश में नौकरी : एक खूबसूरत धोखा !

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

चार काँधे!

                                     मैंने अपने जीवन में आदमी के बहुत सारे रूप देखे हैं. हर स्तर पर रिश्तों में, मित्रता में, कार्यक्षेत्र में  और परिवार में भी. हर इंसान की अपनी अलग सोच और अलग ही व्यवहार होता है. कुछ सोचते हैं कि हमें किसी से कोई काम नहीं पड़ने वाला है. मेरे पास इतना पैसा है, इतनी इज्जत है मैं किसी का मुहताज नहीं. ये जीवन में उसकी सबसे बड़ी भूल होती है.
जीवन एक स्थिति वह आती है जब इंसान को सिर्फ इंसान के चार कंधों की जरूरत ही होती है. कोई पैसा कोई इज्जत उसके पार्थिव को उठा कर नहीं रख सकता है.
                                      मैंने बचपन में अपनी दादी से एक कहानी  सुनी थी. एक सरपंच अपने गाँव में बहुत ही पैसे वाला और रुतबे वाला था. उसको किसी से क्या जरूरत ? लेकिन गाँव का सरपंच था तो किसी के यहाँ भी कोई अच्छा या बुरा मौका होता सरपंच के घर सूचना जरूर आती और सरपंच अपने घमंड में उसके घर अपने नौकरों से अपने जूते  भेज देते. ये क्रम तब तक चलता रहा जब तक वह इस स्थति से न गुजरे . सरपंच के घर में उनकी माँ  का निधन हुआ तो पूरे गाँव में डुगडुगी  पिटवा दी गयी कि सरपंच जी कि माँ का स्वर्गवास हो गया है तो सबको उनके यहाँ पहुँचना है. गाँव वाले उनके व्यवहार से पहले से ही क्षुब्ध थे. उन लोगों ने एक आदमी को पूरा गाँव वालों के जूते  लेकर सरपंच के घर भेज दिया. अब सरपंच की माँ को कन्धा देने के लिए चार लोग भी नहीं थे. अपने ही नौकरों की सहायता से उन्होंने अपनी माँ के पार्थिव शरीर को श्मशान पहुँचाया और अपनी गलती के लिए सभी से क्षमा मांगी ताकि खुद उनकी अंतिम क्रिया में कुछ लोग तो हों.
                                     उस समय. हम लोग समझते थे कि ये दादी ऐसी ही कहानी बना कर सुना देती हैं कहीं ऐसा होता है
लेकिन हाँ ऐसा होता है -- आज भी लोग इस कदर मानवता और आत्मीयता से दूर हैं कि चार काँधे के मुहताज हैं.
                                      मेरे एक परिचित या कहूं कि वे मेरे बॉस है. बहुत ही सीमित रहने वाले. उनका अपने विभाग से भी अन्य लोगों से कम ही मिलना जुलना. किसी के यहाँ शादी ब्याह में आना जाना भी कम. हाँ वे अपने काम के प्रति पूर्णतया समर्पित बल्कि मैं कहूँगी कि ऐसा समर्पण अपने जीवन में मैंने नहीं देखा है. जो इंसान साठ साल से ऊपर होकर और किसी घातक बीमारी से ग्रसित हो  और आज भी १८ -२० घंटे कार्य करने कि क्षमता रखता हो तो हम उसके सामने ये नहीं कह सकते कि अब बस. जब भी बाहर मीटिंग होती है तो हमारी मीटिंग १२ घंटे से कम नहीं होती है. वही ब्रेकफास्ट , वही लंच और वही से डिनर  लेकर आप वापस आते हैं. मैं उनके इस समर्पण को सलाम करती हूँ. लेकिन एक इंसान के रूप में शायद वह विफल रहे. अपने परिवार को भी समय देने में वे नगण्य हैं.

                          पिछले दिनों ऑफिस से आने के बाद मुझे फ़ोन मिला कि सर के पिताजी का निधन हो गया. वे उस समय यहीं पर थे. शाम ७ बजे निधन हुआ था. उन्होंने अपने बहनों और भाइयों को खबर की रात में घर में वे , उनकी पत्नी, एक घरेलु नौकर और उसकी पत्नी थी. उनके आस पास वालों तक को खबर न दी. इतना जरूर की आई आई टी में विभाग से मेल भेज दी गयी कि ऐसा हुआ है और उनको १२ बजे भैरों घाट के लिए बस प्रस्थान करेगी. सुबह मैं अपने पतिदेव के साथ उनके घर पहुंचे तो तब तक उनके पास वाले भाई आ चुके थे और बाकी का इन्तजार कर रहे थे. पता चला कि अभी देर है. मेरे पतिदेव तो वापस हो लिए और मैं रुक गयी. वहाँ पर मेरे साथ  कम करने वाले लोग, विभाग के ऑफिस से कुछ लोग भर थे. भैरों घाट जाने के लिए एक गाड़ी शव को ले जाने के लिए और एक बड़ी बस लोगों के लिए भेजी गयी थी. 
                         शव को कन्धा देने के लिए चार मजबूत कंधे न थे क्योंकि ३ बेटे उनके ६० से ऊपर थे और एक पोता था. देने को उनके बेटों ने कन्धा तो दिया लेकिन उठाने में समर्थ न थे सो जो वहाँ लोग उपस्थित थे उन लोगों ने कन्धा देकर शव को गाड़ी में रखा. पूरे विभाग से एक भो प्रो. न था. उनके कोई पड़ोसी न थे. जब बस आकर खड़े हो गयी तो पड़ोसियों  के कान  खड़े हुए कि क्या बात है? सारी महिलाएं बाहर आ गयी . वे आपस में बातें करने लगी कि हम को तो पता ही नहीं लगा. अरे हम इतने पास हैं. उनकी बड़ी बस पूरी खाली थी उसमें सिर्फ उनके चार के घर वाले और ३-४ लोग कुल ऑफिस और प्रोजेक्ट के साथ गए थे. तब लगा कि आदमी का पैसे का या अपने ज्ञान का या अपनी पद का अहंकार उसे इस स्थान पर कितना नीचा दिखा देता है कि चार मजबूत कंधे न जुटा सके कि शव को कम से कम चौराहे तक तो कंधे तक ले जाया जा सकता. 
                          जीवन में एक यही स्थिति ऐसी होती है , जहाँ इंसान को इंसान की जरूरत होती है. इस जगह न अहंकार रहता है और न पद का रुतबा और न ही दौलत का घमंड. इस लिए अगर मानव बन कर आये हैं तो हमें मानव ही बने रहना चाहिए. उससे ऊपर उठ कर आप कुछ नहीं बन सकते हैं.

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

करवा चौथ : एक सार्थक परिवर्तन !

                         

  करवा चौथ का सम्बन्ध हमेशा पति और पत्नी के रिश्ते को मजबूत बनने वाला होता है. इसमें एक दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पण के भाव को देखा जा सकता है. ये तो सदियों से चली आने वाली परंपरा है और कालांतर में इसमें सुधार भी होने लगा है और आज की पीढ़ी के तार्किक विचारों से कहीं सहमत भी होना पड़ता है क्योंकि उनके तर्क हमेशा निरर्थक तो नहीं होते हैं. 
               हमारी पड़ोसन उम्र के साथ साथ डायबिटीज और अन्य रोगों से ग्रस्त हैं , जिसके चलते उनको लम्बे समय तक खाली पेट रहना घातक हो सकता है. वह तो सदैव से बगैर पानी पिए ही इस व्रत को करती रहीं हैं. इस बार उनकी बहू ने बिना पानी डाले सिर्फ दूध की चाय उनको दी कि अब आपका पानी का संकल्प तो ख़त्म नहीं होता इसको आप पी लीजिये. फल भी ले सकती हैं. उनके इस तर्क को कि पति  की दीर्घायु के लिए होता है  और मैं नहीं चाहती कि ये खंडित हो. उनकी बहू का तर्क था कि आप देखिये मेरे माँ ने जीवन भर बिना पानी के व्रत रखा और मेरे पापा नहीं रहे बतलाइए इसमें कहाँ से ये बात सिद्ध होती है. अपनी निष्ठां को मत तोडिये लेकिन उसके लिए पूर्वाग्रह भी मत पालिए. सब कुछ वैसा ही चलता है कुछ नहीं बदलता है. कोई पति तो अपनी पत्नी के लिए व्रत नहीं रखता है तब भी पतिनियाँ उनसे अधिक जीती हुई मिलती हैं. 

              इस दिशा में नई पीढ़ी के विचार बहुत सार्थक परिवर्तन वाले मिलने लगे हैं. दोनों कामकाजी हैं तो फिर दोनों ही आपस में मिलकर तैयारी कर लेते हैं और पत्नी का पूरा पूरा ख्याल भी रखते हैं. पहले तो पत्नी दिन भर व्रत रखी और फिर ढेरों पकवान बनने में लगी रहती थी और  चाँद निकलने तक तैयार ही नहीं हो पाती थी और फिर बस किसी तरह से तैयार होकर पूजा कर ली. फिर व्रत तोड़ कर सबको खाना भी खिलाना होता था. अब अगर अकेले होते हैं तो पति पत्नी कहीं भी बाहर जाकर खाना खा लेते हैं और अगर घर में भी हैं तो पति पूरा सहयोग खाने में भी करता है और तैयारी में भी. बल्कि अब तो ये कहिये की पत्नी के साथ पति ने भी व्रत रखना शुरू कर दिया है और उनकी दलील भी अच्छी है की अगर ये मेरे लिए भूखा रहकर व्रत कर सकती है तो क्या हम एक दिन भूखे नहीं रह सकते हैं. इससे पत्नी को भी मनोबल मिलता है और उनमें एक दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव भी बढ़ता है. आज की युवा पीढ़ी में ५० प्रतिशत युवा इसके समर्थक मिलते हैं.
              पहले तो ये होता था की शादी के बाद ही करवा चौथ का व्रत किया जाता था किन्तु मुझे एक घटना याद है कि  मेरे साथ एक इंजीनियर काम करता था और उसका अफेयर मेरे घर के पास रहने वाली लड़की से था. शादी के लिए संघर्ष चल रहा था क्योंकि वे दोनों ही अलग अलग जाति के थे. लड़की ने करवा चौथ का व्रत रखा लेकिन अपने घर में तो नहीं बताया , उसने लड़की को शाम को मेरे घर आने के लिए बोल दिया और खुद भी आ गया. मेरे साथ उसने करवा चौथ की पूजा की और फिर व्रत तोड़ कर अपने घर चली गयी. ईश्वर की कृपा हुई और उनकी शादी हो गयी और अब दोनों बहुत ही सुखपूर्वक रह रहे हैं. ये तो भाव है, जिससे जुड़ चुका है उसके लिए ही मंगल कामना के लिए व्रत किया जा सकता है. 

                अगर हम पुरुषों को नारी उत्पीड़न के लिए दोषी ठहराते हैं तो वे इतने निर्मल ह्रदय भी हैं कि  वे अपनी पत्नी के लिए खुद भी त्याग करने में पीछे नहीं रहते हैं. मैं इस आज की पीढ़ी को सलाम करती हूँ जो कि एक दूसरे के लिए इतना सोचती है और इस  दिशा में यह बहुत अच्छी सोच है. उनको पुरुष के अहंकार से दूर भी कर रही है. वह अब पत्नी को बराबरी का दर्जा देकर उसके हर कष्ट में खुद भी कष्ट उठाने के लिए तैयार रहता है. उम्मीद की जा सकती है कि  आने वाली ये युवा पीढ़ी सदियों पुराने पूर्वाग्रह से मुक्त होकर एक खुशहाल जीवन व्यतीत करेगी. मेरी यही कामना है कि पाती पत्नी इसी तरह से एक दूसरे के प्रति भाव रखते हुए एक दूसरे का सम्मान करें.  करवाचौथ का ये बदलता हुआ स्वरूप एक अच्छा सन्देश देता है.

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

20 Oct. 1991 !

                      हाँ यही दिन तो था जब कि मेरे धर्मपिता (ससुर ) ने मेरा साथ छोड़ दिया था. मेरी शादी के सख्त विरोधी होने के बाद भी शायद मेरे व्यवहार कहूं या उनके और लोगों में इंसान पहचानने का हुनर कहूं वे मेरे हर जगह पर साथ खड़े थे. मेरे संघर्ष के दिनों में उस धैर्य और सांत्वना का हाथ मेरे सिर पर रखे रहे कि जंग तो हमने ही लड़ी थी लेकिन सिर पर छत होने का अहसास सदैव देते रहे.
                       वह हमारे संघर्ष के वर्ष था जब कि मेरे पति  ने अपनी कंपनी से अपने उसूलों के चलते इस्तीफा दे दिया था और मैं उस समय एम एड करके निकली ही थी. पति के एक मित्र को अपने स्कूल के लिए प्रिंसिपल की जरूरत थी और वे मुझे अपने स्कूल में ले गए लेकिन हमारे रहने की जगह ऐसी थी कि स्कूल की बस सुबह तो आकर ले जाती लेकिन दोपहर  में बच्चों को देर न हो इसलिए वह मुझे करीब दो  किलोमीटर दूर छोड़ देती थी. जहाँ से मुझे अपनी बड़ी बेटी जो ४ साल की थी को लेकर पैदल ही आना पड़ता था. उस समय मैं दूसरी बेटी को भी जन्म देने की प्रक्रिया में चल रही थी. 
                       संयुक्त परिवार में मेरी स्थिति या संघर्ष को कोई स्थान नहीं दिया जाता था . स्कूल से लौटकर घर की जिम्मेदारियों में कमी नहीं इजाफा ही था क्योंकि घर की छोटी बहू तो अधिक काम करने के लिए होती है. मैंने जिन्दगी में कभी हार नहीं मनी चाहे जितना भी संघर्ष क्यों न किया हो?
                       मेरे ससुर को मेरी स्थिति से पूरी सहानुभूति थी और वे जब मेरे स्कूल से लौटने का समय होता था तो छाता लेकर जहाँ मैं बस से उतरती थी वहाँ खड़े मिलते थे और फिर मेरी बेटी को गोद में उठा कर पैदल मेरे साथ चलकर घर लाते थे. ये क्रम उन्होंने मेरे सातवें महीने से लेकर पूरे समय तक जारी रखा. अप्रैल और मई के गर्मी में भी वो कभी आलस नहीं करते थे. रास्ते भर मुझे समझाते हुए आते थे कि बेटा तुमने इतनी पढ़ाई की है तो जल्दी ही कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी और फिर ये भी जल्दी ही कोई दूसरी कंपनी में लग जाएगा. उनकी उतनी सांत्वना मुझे एक संबल बनाकर सहारा देती रही.
मैं लड़ती रही . उस समय उनकी आयु ७१ वर्ष की थी जब वे मुझे लेने जाया करते थे और एक बच्ची को गोद में उठा कर चलते थे. 
            शायद उनके आशीर्वाद से ही मुझे ६ महीने बाद आई आई टी में नौकरी मिल गयी थी और पति भी फिर से नई कंपनी में जॉब करने लगे. लेकिन वे ५ महीने इंसां को परखने के लिए बहुत होते हैं. मेरा रोम रोम उनका ऋणी है और फिर हम दोनों ने उनके अंतिम समय में जो कुछ कर सकते थे किया . उसका बखान करके मैं अपनी बड़ाई नहीं करना चाहती हूँ. लेकिन उनके जो आखिरी शब्द थे वो थे - "बेटा मुझे या नहीं पता था कि तुम मेरी  इतनी सेवा करोगी. मेरी आत्मा तुमसे बहुत खुश है."
                मैं उनकी इस सेवा कर पाने के लिए अपने आई आई टी के  सहयोगियों और बॉस दोनों की ही तहेदिल से शुक्रगुजार  हूँ क्योंकि मैं घर में रात में उनके दर्द के कारण उनके पास रहती थी और सो नहीं पाती थी. ऑफिस में मेज पर सिर रख कर सो जाया करती थी. कभी बॉस भी आ गए तो उन्होंने ने ये नहीं कहा कि काम कब करोगी?  वैसे उस समय का जो वातावरण था वो एक परिवार की तरह था. कोई बॉस नहीं था सब एक दूसरे के सुख दुःख में शामिल होते थे. मेरे उस बड़े दुःख में सब शामिल रहे. अब सब मेरे साथ नहीं है लेकिन जो जहाँ भी है अब भी हम संपर्क में हैं .

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

सोच का आधार : शिक्षा या संस्कार !

                  इस लेख को लिखने के बारे में हमारे ब्लॉग से प्रेरणा मिली. इससे सम्बंधित कई बातें पढ़ी और फिर बार बार सिर उठाने लगीं.  यूँ ही ब्लॉग पर पढ़ने के लिए खोज रही थी कि नजर पढ़ी ऐसे पोस्ट पर कि जिसमें टिप्पणियों की संख्या बहुत ज्यादा थी. सोचा जरूर कोई अच्छा विषय होगा और पढ़ा तो कुछ ख़ास नहीं लेकिन जब टिप्पणियां पढ़ी तो पता चला  कि ये एक विवाद है और उस विवाद में धत तेरे की मची हुई थी. आरोप प्रत्यारोपों की श्रंखला चली थी . कुछ शब्दों में कहूं तो तू ऐसा, तू ऐसी ....... मेरी विचारधारा तो यही है कि अगर कोई ब्लॉग लिखने वाला है तो जरूर ही प्रबुद्ध तो होगा. भाषा संयम, संस्कारित और शिक्षित भी होगा . लेकिन उसमें मिले विचारों ने मेरी सोच को ध्वस्त कर दिया और मैं सिर थाम कर सोचने लगी कि हमारी सोच कहाँ से अधिक प्रभावित होती है?  
हमारी सोच का आधार क्या है --संस्कार, शिक्षा या संगति?
                                        संस्कार जो हमें आँखें खोलते ही देखकर, सुनकर या माता पिता प्रदत्त होते हैं. इनमें से कुछ व्यक्ति ग्रहण कर लेता है और कुछ छोड़ भी देता है क्योंकि कभी कभी बहुत सज्जन माँ बाप के बच्चे बहुत ही निकृष्ट सोच के निकल जाते हैं. माता पिता का हमेशा यही प्रयास रहता है की वह अपने बच्चे को अच्छे संस्कार दे. इसके बाद वह पाठशाला की दहलीज चढ़ता है और वह भी उसके लिए उसकी सोच और आचरण के लिए मंदिर के समान होता है. इस पर पैर रखने के पहले वह बहुत कुछ सीख चुका होता है. अपने बड़ों से संवाद में प्रयुक्त शब्दों का चयन, सम्मान और अपमान जनक भाषा का प्रयोग या फिर अपशब्दों का प्रयोग. इसमें बच्चों की बचपन की संगति भी बहुत काम आती है. 
                          अगर माँ बाप व्यस्त हैं और बच्चा आया या नौकरानी के साथ रहता है, उसके बच्चों के साथ खेलता है तो संस्कार वही पाता है और कभी नहीं भी पाता है. लेकिन अबोध मष्तिष्क पर ये छाप अंकित जरूर हो जाती है. अच्छे उच्च पदस्थ अधिकारियों, नेताओं और महिलाओं तक को गालियाँ बकते हुए सुना है. वे गालियाँ उनकी शिक्षा में समाहित नहीं होती हैं. पुस्तकों में भी नहीं लिखी होती हैं. यदि शिक्षक से सुनी हैं तो वे उसके जीवन में स्थान ले सकती हैं. तब उच्च शिक्षा और पद शर्मिंदा है. अक्सर डॉक्टरों तक को मरीजों से बहुत ही बुरी तरह से बात करते हुए सुना है. 
--अगर पैसे नहीं थे तो यहाँ क्यों आये? क्या धर्मशाला समझ रखी है?
--पहले पैसे जमा करो तब मरीज को हाथ लगायेंगे.
--इतने ही पैसे हैं तो किसी और डॉक्टर के पास जाओ.
                         जब कि डॉक्टर को मरीजों के प्रति सहानुभूति पूर्ण रवैया और मानव सेवा की शपथ दिलाई जाती है. हमारी सोच हमारे संस्कारों से अधिक प्रभावित होती है. मैंने कई अच्छे संस्थानों में छात्रों को गन्दी गन्दी गालियाँ बकते हुए सुना है. भले ही वे आपस में दे रहे हों या मजाक में बात कर रहे हों लेकिन उनकी मेधा और शिक्षा इसमें कहीं भी शामिल नहीं होती है.
                         हम अपने संभाषण में , आरोपों और प्रत्यारोपों में जो अपशब्द प्रयोग करते हैं, वे हमें ही लज्जित करते हैं - हम दूसरों की दृष्टि में गिर जाते हैं. जिसने भी पढ़ा और सुना वो आपके प्रति अच्छी धारणा तो नहीं ही बनाएगा. वह बात और है कि हम अपने को बहुत दबंग या मुंहफट साबित कर रहे हों लेकिन ये सम्मानीय व्यक्तित्व को धूमिल कर देता है. हमारे पास इनके प्रयोग की सफाई भी होती है लेकिन कहीं हम अपना सम्मान खो चुके होते हैं. हमारी प्रबुद्धता कलंकित हो चुकी होती है. इसमें स्त्री या पुरुष का भेद नहीं है. जो बात गलत है वह सब पर लागू होती है. ऐसा नहीं है कि हम पुरुष है तो वह क्षम्य है और स्त्री हैं तो जघन्य अपराध. अपनी सोच और अभिव्यक्ति पर संयम ही आपको सम्मानित स्थान देता है और सम्मान किसी बाजार से खरीदा नहीं जाता बल्कि हमारे विचार और अभिव्यक्ति ही इसके लिए जिम्मेदार होते हैं. इस लिए भाषा का संयम सबसे पहल कदम है जो आपको प्रबुद्ध ही नहीं बल्कि एक जिम्मेदार और संस्कारित मानव की श्रेणी में रखता है.

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

अदम्य इच्छाएं सीढ़ी है अपराध की !

                        मानव मनोभावों और इच्छाओं के बूते ही अपना सुखी जीवन और सुखी संसार बनाता  है. हर कोई चाहता है कि अपनी इच्छाओं कि पूर्ति के लिए कठिन परिश्रम करे और उनका सुख उठाये. किन्तु ये इच्छाएं भी उसके जीवन में अलग अलग प्रयोजनार्थ होती हैं, यदि ये सिर्फ स्वहित से जुड़ी हैं तो उनका मंतव्य कुछ और ही होगा और अगर ये परहित से जुड़ी हैं तो उनकी प्राप्ति के साधन का स्वरूप कुछ और ही होगा. जूनून दोनों में ही होता है लेकिन उसके लिए प्रयास विभिन्न प्रकार के होते हैं. 
                               आज के इस आधुनिकता और स्पर्धा के दौर में जीवन सिर्फ भौतिकताओं में सिमट कर रह गया है और उन्हीं के कारण ये अपने साधनों को चुनने लगे हैं. इससे जुड़ी अदम्य इच्छाएं ही व्यक्ति को ले जाती हैं अपराध की ओर. अगर वह परहित से जुड़ा है तो अपने सीमित साधनों से उसको हासिल करने की चेष्टा करता है किन्तु यदि ये स्वहित से जुड़ी हैं तो निश्चय ही वह उसके लिए कुछ भी करने को तैयार होता है और फिर ये अदम्य इच्छाएं उनके लिए अपराध की सीढ़ी बन जाती हैं और अपराध के दलदल में फंसा इंसां और गहरे में चला जाता है.
                               अपने क्षेत्र में सर्वोपरि बने रहने की अदम्य इच्छा ने व्यक्ति को इतना नीचे गिरा दिया कि वह हत्या करवाने जैसा जघन्य अपराध तक कर बैठता है. एक कोचिंग संचालक ने अपने प्रतिद्वद्वी को पहले अपहरण कर और उसके बाद हत्या कर ऐसे स्थान पर फिंकवाया की उसके मिलने की कोई गुंजाईश ही न थी और फिर मिल भी जाये तो शिनाख्त का कोई प्रश्न नहीं उठता किन्तु शायद उन बूढ़े माँ बाप के कुछ पुण्य शेष रहे होंगे तो उन्हें अपने बेटे की लाश मिल गयी किन्तु उनका तो जीवन ही समाप्त हो गया. जिस दिन अपहरण की सूचना मिली तो वे महोदय अपने क्लास में कह रहे थे कि आज तो मिठाई बांटने का दिन है. हो सकता है कि वे इसमें लिप्त न हों लेकिन अपरोक्ष रूप से वे ही माने गए. साक्ष्य  न मिले और मामला खत्म हो गया किन्तु????????????
                           भौतिक सुखों की  अदम्य  इच्छाएं तो उससे कुछ भी करवा सकती हैं क्योंकि  ये ही उसके जीवन का साध्य बन जाती हैं. इसके लिए वह प्रत्यक्ष रूप से नहीं परोक्ष रूप से चोरी  करेगा. दूसरों को धोखा देगा और अपने घर वालों  से भी झूठ बोलेगा. उनकी आपाधापी में न घर को समय है और न परिवार को. अनैतिक काम भी करेगा . यह वह किसके लिए करता है? करोड़ों का बैंक बैलेंस होगा लेकिन क्या वह रख पायेगा बैंक में. नहीं. बाहर रखेगा और घर की तिजोरी में रखेगा. असीमित धन होने पर भी क्या वह सोने के सिक्के चबायेगा. खाना वह वही खायेगा  क्योंकि इस कार्य में उसका स्वास्थ्य उसको बहुत कुछ खा पाने की पाबन्दी लगा चुका होगा. सोयेगा वह बिस्तर पर ही वह बात और है कि मखमली बिस्तर पर सोये और ज़री के चादर बिछा ले लेकिन क्या नीद उसको चैन की आएगी? गाड़ियाँ वह १० रख सकता है लेकिन चल सिर्फ एक में ही पायेगा. करोड़ों रुपये का मालिक क्या आसमान में पैर रख कर चलेगा, चलना उसे जमीं पर ही पड़ेगा और जब फिर जब जाएगा तो खाली हाथ. उसके साथ कुछ भी नहीं जायेगा. बस उसकी अदम्य इच्छाओं ने उसको गुनाहगार बना दिया. 
                           प्रभाव और स्वामित्व की अदम्य इच्छाएं भी व्यक्ति को किसी और अपराध की ओर ले जाती हैं. राजनीति इसका सबसे पहला पाठ पढ़ती है. अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए वह कितने अपराध करता और करवाता है. चुनाव शुरू नहीं हुए और हत्याओं का दौर शुरू हो गया. अपने प्रभाव को मनवाने का सबसे सफल तरीका है. अपने प्रभाव को कायम रखने के लिए वह अपराधी भी पालता है जो उसके स्थान पर हत्या और अपहरण जैसे छोटे मोटे काम कर सकें. माफिया क्या होते हैं? इन्हीं अदम्य इच्छाओं के स्वामी होते हैं. बस्तियां जलवा दी और बन गया काम्प्लेक्स उसकी कमाई पाप की है लेकिन उनके नाम से लोग थर्राते हैं. किसी को उठवा लेना, किसी को टपका देना और किसी से खोके की मांग ही उनको अपराध जगत में स्थापित करती है. ये भी उनकी अदम्य इच्छा है लेकिन बस सिर्फ यही इच्छा पूरी होती है . शेष घर और परिवार के लिए वे दुर्लभ होते हैं. एक आम इंसां की जिन्दगी क्या होती है? इससे वे अनभिज्ञ  होते हैं.
                        इसका सबसे घिनौना रूप होता है - जब इंसां सेक्स की अदम्य इच्छा का शिकार होता है. इसका कोई अंत नहीं होता है और वह इसके लिए उम्र , जाति और नैतिक और अनैतिक तरीके से भी नहीं डरता है. ये छोटी छोटी लड़कियों के साथ होने वाले कृत्य ,  गरीब या सुन्दर लड़कियाँ जिन पर ऐसे लोगों की नजर पड़ी फिर वे इसके लिए कुछ भी करेंगे. उनकी बुद्धि इतनी भ्रष्ट हो चुकी होती है कि उनको कुछ भी नहीं दिखाई देता है. ये अपराध तो उन्हें सबसे नीचे गिरा देता है. हो सकता है कि वे प्रभाव से बच जाते हों और इसका शिकार किसी और को बना देते हो लेकिन न्याय  तो कभी न कभी होता ही है और फिर ऐसे लोग न घर के होते हैं और न घाट के. ऐसे कार्य के लिए बड़े बड़े अफसर , डॉक्टर , इंजीनियर से लेकर छोटे तबके लोगों तक के चेहरे काले हुए हैं.
                   ऐसा नहीं है, ये अदम्य इच्छाएं यदि परहित के लिए होती हैं तो वे उसको बहुत बड़ा स्टेटस नहीं दे जाती लेकिन उस इंसां के चेहरे के ख़ुशी और मन के सुकून को कोई पा नहीं सकता है. ऐसे ही एक सज्जन हैं जिनको जूनून है कि वे लावारिश लाशों का अंतिम संस्कार ले जाकर  करते हैं और वर्षों से इस काम में जुटे हैं. उनसे मिलकर लगता है कि क्या ये भी कोई कर सकता है लेकिन उनका जूनून है. 
                     मदर टेरेसा जैसी महान आत्मा को क्या दीन- दुखियों की सेवा कि अदम्य इच्छा ने ही यहाँ भारत में लाकर नहीं रखा और उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर सबकी माँ नहीं बना दिया. बस इसके रूप और उद्देश्य अलग अलग होते हैं.

शनिवार, 11 सितंबर 2010

अवसाद, कुण्ठा और तनाव : जीवन के खतरनाक मोड़ !

अवसाद (Depression ) , कुण्ठा (Frustration ),  और तनाव (Tension )  : जीवन के खतरनाक मोड़ होते है , इन मोड़ों पर कभी कभी ये भी देखने को मिलता है  --


*सैनिक ने आत्मा हत्या कर ली
*साथियों पर अंधाधुंध  गोलियां चलाईं  और खुद को गोली मार ली.
*अफसरों के व्यवहार से क्षुब्ध होकर आत्महत्या.
*पत्नी के झगड़कर मायके जाने या वापास न आने पर फाँसी लगा ली.
*परीक्षा में फेल होने के डर से परिणाम से पहले आत्महत्या.


                               जीवन एक सुगम, सरल रास्ता नहीं है , इस पर चलने वाले कितने मानसिक व्याधियों से गुजरते हैं - कभी काबू पा लेते हैं और कभी हार जाते हैं . इन मानसिक स्थितियों का धन - दौलत और ऐश्वर्य से कुछ भी लेना देना नहीं है. 
बहिर्मुखी व्यक्तित्व के लोग अपने इस हाल में घर वाले , मित्र  आदि को अपना हमराज बना लेते हैं और ये सामने वाले की समझदारी होती है कि वे उसको इससे उबारने में कैसे सहायता करते हैं? अक्सर उबर भी जाते हैं.
                           इसके विपरीत  एक पक्ष अंतर्मुखी लोगों का होता है , ये इन स्थितियों में अधिक खतरनाक निर्णय ले बैठते हैं. ये सिर्फ अपने में जीते हैं, उनकी मानसिक स्थिति सिर्फ उनकी संपत्ति है और इससे वे ही निपट सकते हैं ऐसी सोच उनको और सीमित कर देती है. ऐसे लोगों का व्यवहार , बातचीत और दायरा एकदम अलग होता है. 
                           जीवन के खतरनाक मोड़ कुछ लोगों को मौत के द्वार तक ले जाते हैं . इसका स्वरूप आत्महत्या, दूसरों की हत्या कर आत्महत्या या अंधाधुंध शराब पीकर वाहन चलाना दूसरों को क्षति पहुँचाना या खुद को ही पहुँचाना. इस स्थिति में सड़क पर चलते हुए या कहीं भी जाते हुए आगे पीछे के होर्न या अन्य संकेतक कुछ भी नहीं समझ आते हैं और फिर दुर्घटना. 
            इन स्थितियों से यथासंभव बचने का प्रयास करना चाहिए लेकिन मनोवेगों पर भी व्यक्ति का पूर्ण नियंत्रण नहीं होता है. यदि स्वविवेक से कार्य किया जा सके तो अच्छा है अन्यथा मनोचिकित्सक के पास  जाकर इसके लिए रास्ते मिल सकते हैं. कोई भी अनियंत्रित स्थिति पागलपन  की  हद तक जा सकती है. इससे पूर्व कि स्थिति पागलपन या जीवन की समाप्ति के निर्णय तक पहुँच जाये , घर वालों को सतर्क होना चाहिए. अंतर्मुखी व्यक्ति को  हमेशा इस बात के लिए उत्साहित करना चाहिए कि वह डायरी लिखने की आदत डाल ले और भी तरीके से वह अपनी आतंरिक मनोभावों को अभिव्यक्त कर सकता है. कविता कहानी के रूप में या फिर चाहे वह उसको लिख कर फाड़ ही दे लेकिन ये निश्चित है कि वह कुछ हद तक अपनी मानसिक स्थिति से मुक्ति नहीं तो उससे उत्पन्न गलत विचारों से निज़ात  अवश्य ही पा सकता है. दिमाग में उमड़ते घुमड़ते तनाव, कुंठा या अवसाद जब शब्दों में लिख कर निकल जाते हैं तो इंसां बहुत हल्का हो जाता है और वे रास्ते जो उसको सिर्फ और सिर्फ स्वयं को क्षति पहुँचने के लिए खुले मिलते हैं , वे बंद हो जाते हैं.
                            एक जागरुक मानव होने के नाते इस पर एक बार विचार कीजिये और कोशिश कीजिये कि ऐसे कुछ लोग अगर आपके संपर्क में हों तो उन्हें एक नई दिशा दीजिये. सिर्फ और सिर्फ लेखन कितने को बचा सकता है. चलिए इस दिशा में प्रयास करें.

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

रिटायमेंट एक अहसास!

जीवन में आरम्भ से ही व्यक्ति किसी न किसी गतिविधि से जुड़ा रहता है. उसका जीवन सक्रिय रहता है उनसे जुड़े कार्यों में. बचपन से शिक्षा, युवा होने पर करियर फिर नौकरी, परिवार और उससे जुड़ी जिम्मेदारियों को पूरा करते करते वह रिटायर्मेंट की उम्र तक आ जाता है.
                     अगर हम सोचें तो ये रिटायर्मेंट क्या है? जीवन में आने वाला एक अहसास और इस अहसास को हर व्यक्ति पाने ढंग से स्वीकार करता है और करना भी चाहिए लेकिन ये जीवन या जीवन की सक्रियता का अंत तो बिल्कुल नहीं है. हाँ वर्षों से चली आ रही एक जीवन शैली में परिवर्तन का समय होता है और जीवन के इस पड़ाव पर इसका आना भी जरूरी है.
                       मेरे पड़ोसी रिटायर्मेंट के एक साल पहले से ही  - रोज उलटी गिनती दुहराने लगे
 अब इतने दिन रह  गए है.
बस अब इतने महीने रह हैं.
अब इसके बाद मैं क्या करूंगा?
अब दिन कैसे काटेंगे?
मैं तो फिर खाना और सोने के अलावा कुछ भी नहीं करने वाला आदि आदि .
                    और आखिर वह दिन भी आ गया. सुबह से ही बड़े मायूस दिख रहे थे. शाम को उनकी ऑफिस से विदाई हुई और घर आये. घर में भी अच्छा माहौल बनाया गया था. वह दिन तो गुजार गया लेकिन दूसरे दिन दिन  चढ़े तक सोते रहे और फिर धीरे धीरे अपने सुबह के काम निपटाए 'अब कौन कहीं जाना है?' , 'अब कौन सी जल्दी है?' बस इसी तरह के जुमले सुनने को मिलते रहे.
                  रिटायर्मेंट थक कर बिस्तर पड़े रहने का नाम नहीं है. न ही व्यक्ति की क्रियाशीलता की इतिश्री है. यह एक ऐसा अवसर है जब कि आप पर थोपे गए बंधनों से मुक्ति का समय है. जिसमें बांध कर आप जीवन के ३५- ४०  वर्ष गुजारे हैं. अब आपका अपनी इच्छा से समय गुजरने का समय आ गया है - ये सोच कर शेष जीवन एन्जॉय कीजिये. वक्त काटना नहीं पड़ता है अपितु पता नहीं चलता है कि कहाँ गुजार गया?
                   नौकरी करने वाले हर व्यक्ति को एक निश्चित उम्र पर रिटायर्मेंट तो मिलेगा ही, उसको आप किस दृष्टि से देखते हैं, यह आपके ऊपर निर्भर करता है. यदि आप इस उम्र तक सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं तब तो बहुत ही अच्छा है  आप भाग्यशाली हैं. यदि नहीं मुक्त हुए हैं तब भी ये अच्छा समय है जब कि आप अपना सम्पूर्ण समय बिना किसी तनाव के इस कार्य में लगा सकते हैं. वक्त को काटने और न काटने के लिए परेशान नहीं होना चाहिए. यदि आप नौकरी के चलते कहीं आने और जाने के लिए सायं नहीं निकल पाए हैं तो अब उस समय का सदुपयोग कीजिये. अपने रिश्तेदारों के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ बनाइये. अपने हमउम्र लोगों के साथ समय गुजरिये, दूसरे लोगों के सुख दुःख में शरीक होइए. इस नियमबद्ध जीवन को जो आप अब त़क जीते आ रहे हैं  दूसरे नियमों और कार्यों में समाहित कीजिये.
                   आप को अब वक्त मिला है कि आप अपनी पत्नी के साथ वक्त गुजरिये. विवाह से अब तक जीवन की भागदौड़ में जो साथ बिताने वाले पलों की कमी थी उसे अब पूरा कीजिये. उनके साथ शहर से बाहर दर्शनीय स्थलो तीर्थस्थलों और पहाड़ी स्थलों पर जाकर अपना समय बिताकर यादगार क्षणों को संजो सकते हैं. यह मत सोचिये कि अब आप थक चुके हैं या किसी काबिल नहीं रहे. इसका रिटायर्मेंट से कोई सम्बन्ध नहीं है. ये तो अपनी सोच होती है. साठ साल की  उम्र में भी अपने को युवा महसूस करते हुए लोगों को देखा जा सकता है. ये भी तो सोचिये कि  नौकरी के अतिरिक्त कार्य करने वाले लोग कभी रिटायर्मेंट की बात सोच ही नहीं पाते हैं और होते भी नहीं है  व्यापारी, वकील, डॉक्टर जब तक ये सक्रिय रहते हैं कभी आराम या थकने की बात सोचते ही नहीं है. क्या ये ६० वर्ष के नहीं होते हैं   होते हैं लेकिन उन्हें रिटायर्मेंट जैसा अहसास नहीं होता क्योंकि उनका कार्य सतत चलने वाला होता है और उम्र बढ़ने के साथ साथ ही उसमें परिपक्वता आती है और वे दूसरों का मार्गदर्शन करने में लग जाते हैं. उनके पास वक्त नहीं होता.
                    मेरे पड़ोसी की तरह नहीं कि बहुत नौकरी कर ली अब तो आराम और सिर्फ आराम ही करना है. इस सिद्धान्त पर चलने वाले खाना और सोना ही शेष जीवन का लक्ष्य बना कर रहने लगते हैं. एक अच्छे खासे सक्रिय शरीर को निष्क्रिय बनाने के लिए पर्याप्त है. इस अहसास को अपनी सोच से सकारात्मक स्वरूप प्रदान कीजिये यही जीवन कि अनिवार्यता है.

मंगलवार, 15 जून 2010

मंत्र शक्ति का यथार्थ!

                    विषय एकदम अलग - मेरे लेखन का सबसे अलग विषय किन्तु ये मेरी सोच ही नहीं बल्कि यथार्थ के साथ जुड़ी मेरी वह सोच है जिसको मैंने भोगा है और इस भोग से ये महसूस किया कि इससे औरों को कुछ दिया जा सकता  है या बाँटा  जा सकता है तो क्यों न अपने इस वृहद् परिवार में बाँट कर चलें. 


                  मैं आध्यात्म से जुड़ना और उससे जुड़े हुए अनुभवों को सांझा करने की बात कर रही हूँ. हिन्दू धर्म में दुर्गा सप्तशती सभी ने देखी या  पढ़ी होगी . उसमें कुछ श्लोक हैं जो कि कवच कहे जाते हैं. उन मन्त्रों से हम अपने शरीर को सुरक्षित करते हैं. ऐसे ही अगर हम सहज रूप से देखे तो रामचरित मानस है - जिसकी चौपाइयां अपने आप में एक मंत्र हैं और उन मन्त्रों को हम अनुभूत करें तो वे आज भी ये सिद्ध कर देती हैं कि ये विश्वास की शक्ति कभी भी हमें निराश नहीं करती है. ये ज्ञान या विवरण देने से पहले मैं बता दूं कि ये मुझे अपने आध्यात्मिक गुरु जो मेरे फूफा जी भी थे - श्री जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव से प्राप्त हुआ था. बचपन से ही जब भी वे उरई  जाते मुझे अपने पास बिठा कर छोटी छोटी बातें सिखाया करते थे. कुछ मंत्र , कुछ ऐसी बातें जो हमें किताबों में नहीं मिल सकती थी. यही चीजें हम दृढ बनाती हैं - संघर्ष करने की शक्ति देती हैं. 
                  रामचरित मानस सिर्फ एक काव्य ही नहीं है बल्कि एक शक्तिशाली धार्मिक ग्रन्थ है . इसकी चौपाइयां कितनी अर्थपूर्ण और शक्तिपूर्ण है ये मैं बता रही हूँ.
                     मामभि रक्षय रघुकुल नायक,  धृत वर  चाप रुचिर कर सायक . 

ये वह चौपाई है - जिससे हम किसी आकस्मिक दुर्घटना से अपने को सुरक्षित कर सकते हैं. मात्र एक पंक्ति है लेकिन कितनी सशक्त है ये मैंने अपने जीवन में एक बार नहीं बल्कि बार बार अनुभव किया और जिन्हें समझा उनको दिया भी है. 
             सिर्फ एक घटना का उल्लेख कर रही हूँ, अगर मैं इसके घेरे में न होती तो शायद ये लिखने के लिए सबके सामने भी नहीं होती. 
                    आज से करीब ५ साल पहले की घटना है , मेरी माँ को यहाँ ऑपरेशन के लिए लाया गया था और हम दोनों ( मैं और मेरे पति) रात १२ बजे सारी तैयारी करवाने के बाद घर आ रहे थे. स्कूटर ४०-५० की गति से चला रहे थे. स्कूटर चलाने में कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. अचानक इन्होने मुझसे कुछ कहा और मुझे सुनाई दिया - 'रेखा मामभि रक्षय का जप करो' और मैं इस का मन ही मन जप करने लगी. बस ५ मिनट ही बीते थे की हमारा स्कूटर एक मिट्टी के ढेर पर चढ़ गया और इन्होने जो ब्रेक लगाया तो हमारा स्कूटर उछल गया. बस आगे जो देखा तो हमारी साँसें थाम गयी. नीचे करीब दस फुट गहरे गड्ढे में काम हो रहा था और उसके बाहर कोई अवरोध या रोशनी नहीं थी. वे गड्ढे के अन्दर रोशनी रख कर काम कर रहे थे. हमें सामान्य होने में करीब दस मिनट लग गए. लेकिन मैंने ये अहसास किया की इस मंत्र की शक्ति को हम नमन कर सकते. इसको हम घर से बाहर निकलते समय पढ़ कर ही निकलते हैं.

मंगलवार, 8 जून 2010

भटकती युवा पीढ़ी : निदान क्या हो?

                                            
  अभी दो दिन पहले कि बात है, एक बारात आई  और किसी का घर बसा लेकिन किसी कि दुनियाँ उजाड़ गयी. बारात में आये हुए लड़कों ने पास के घर में छत  पर  सोयी अकेली दो लड़कियों में से एक के साथ बलात्कार किया और उसको मार दिया. उसकी गूंगी बहरी  बहन ही उसके साथ थी. शादी के शोर में उसने बहुत चीखने की  कोशिश की लेकिन विवश थी. अपने सामने सब देखा और फिर बयान नहीं कर सकी. जब घर वाले वापस आये तो देखा और पुलिस को सूचना दी. शादी के विडियो से उस गूंगी लड़की ने इस अपराध में लिप्त लड़कों को पहचाना.


                               ये कोई खास घटना नहीं है, ऐसी घटनाएँ अखबार के पेज पर रोज दो चार होती ही हैं लेकिन अगर इसको देखा जाय तो ये हमारी भटकती हुई युवा पीढ़ी कि एक बानगी है.
                                उस लड़की से कोई लेना देना नहीं था. गेस्ट हाउस के बगल में उसका घर था. न वे लड़की को जानते थे और न कोई दुश्मनी ही थी. फिर ऐसा क्यों हुआ? क्या सिर्फ क्षणिक आवेग था? अगर हाँ तो इसके लिए दोषी कौन है? अगर आवेग इतना तीव्र हो कि हत्या तक करवा देता है तो वह आवेग एक मानसिक बीमारी बन चुका है. हम कहते हैं कि युवा पीढ़ी भटक रही है, लेकिन क्यों भटक रही है और इसके लिए समाज की क्या सहभागिता होनी चाहिए इस पर हम कम ही विचार कर पाते हैं. हम ये कह कर छुट्टी पा लेते हैं पता नहीं माँ बाप ने कैसे संस्कार दिए हैं? अगर माँ बाप स्वयं इस प्रवृत्ति के नहीं हैं तो कोई भी माँ बाप अपने बेटे या बेटी को इस तरह के कार्यों में लिप्त नहीं देखना चाहता है. फिर ये इस दिशा में कैसे भटक जाते हैं? छेड़छाड़ तो आम बात है.
                              अगर हम इसके कारणों पर विचार करें तो क्या हमें को यहाँ नहीं लगता है कि इन अपराधी प्रवृत्तियों का बीज कहीं घर के किसी कोने में ही प्रस्फुटित होता है, हम जान नहीं पाते कि हमारा ही व्यवहार बच्चे को कहाँ ले जा रहा है? इन  बीजों की  प्रजातियाँ और पर्यावरण अलग अलग होते हैं और उसी तरह के अपराध पलते हैं. बच्चों कि सबसे नाजुक उम्र होती है १२ से १७ साल के बीच की. इस दौरान उनके मन में बहुत सारे प्रश्न उठते हैं और उन्हें इनके उत्तरों की खोज होती है . वे सबसे पहले उनका उत्तर आने घर में खोजते हैं और अगर समझदार माँ बाप हुए तो उनके प्रश्नों का उत्तर बहुत धैर्य से देते हैं और नहीं तो आम माँ बाप  -
-तुमको इन सबसे क्या मतलब,
-अपने काम से काम रखो,
-आइन्दा ऐसी बातों को जानने कि कोशिश मत करना,
-इन बातों के लिए तुम बहुत छोटे हो,
                  इसके बाद कर्तव्यों कि इतिश्री समझ कर वे अपने अपने कार्यों में लिप्त हो जाते हैं लेकिन बच्चे का  किशोर मन इन बातों के उत्तर खोजता है. नहीं मिलता है तो अपने साथियों से जानने कि कोशिश करता है और कभी कभी उनके अनुसार ही आचरण भी करने लगता है.
                    इस बात की माँ बाप को खबर भी नहीं होती कि वो कहाँ रहता है? उसके साथी कौन है? उसकी गतिविधियाँ क्या हैं?  जब किशोर उम्र के बच्चे इस तरह के काण्ड अंजाम देने लगते हैं तो कटघरे में कड़े माँ बाप और परिवार वाले खुद से ही प्रश्न करते हैं कि गलती कहाँ हुई? वे खुद का आकलन नहीं कर पाते हैं. अपनी ओर से बहुत अच्छी परवरिश की. अच्छी से अच्छी सुविधाएँ दी फिर भी?
                   इस जगह मैं कुछ अपने विचारों के अनुसार आपको कुछ बताना चाहूंगी कि माँ बाप कितने भी व्यस्त हो, अगर उन्हें अपने बच्चे के लिए एक अच्छा भविष्य का सपना देखना है तो  उसको उपेक्षित मत कीजिये. जैसे और काम होते हैं वैसे ही कुछ समय बच्चों के लिए भी दीजिये. उनपर अपनी इच्छाएं  लादिये  मत , उनके मन की भी सुनिए और फिर उस पर विचार करके ही निर्णय लीजिये.  अगर उसकी सोच गलत है तो उस कोमल मन को बड़े धैर्य से अपनी सही बात के लिए तैयार कीजिये.
बच्चे की  टीचर से बराबर मिलते रहिये.
उसके मित्र वर्ग कि भी खबर रखिये - ये सबसे अहम् मुद्दा होता है कि कई जगह पर चालाक लड़के सीधे बच्चे को बरगला कर गलत रास्ते पर ले जाते हैं और उसके पैसे से अपने शौक भी पूरे करते हैं और अगर बहुत अमीर घर के बच्चे हुए तो आपका बच्चा उनके सामने खुद को हीन न दिखने के लिए गलत रास्ते अपना सकता है. इस लिए मित्र वर्ग की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है. उसके दायरे को हमेशा अपने नजर के सामने रखिये.
बच्चे के किशोर होने पर कभी उनको बाइक उपहार में मत दीजिये. युवा मन की दौड़ बहुत तेज होती है और बाइक उसको और गति देती है. ये उनके पढ़ने लिखने कि उम्र होती है और इसके लिए अन्य साधनों को उपलब्ध करिए. सुविधाएँ दीजिये लेकिन उसकी सीमाओं को भी निश्चित कीजिये. कंप्यूटर लाइए लेकिन उसके लिए अन्य सुविधाएँ अपने सामने प्रयोग करने दीजिये. बस उनकी गतिविधियों पर एक नजर रखी जानी चाहिए. उनकी रुचियों के अनुरुप उनको साहित्य और अन्य साधन उपलब्ध करिए.
                            ये बातें लड़कियों और लड़कों दोनों पर ही लागू होती हैं. उनके भविष्य के प्रति आप ९० प्रति शत जिम्मेदार होते हैं, इनसे बचा नहीं जा सकता है. पैसे कमाइए लेकिन बच्चों कि कीमत पर कमाया हुआ आपका पैसा आपको खुद आपकी  नजर में अपराधी बना कर कटघरे में खड़ा कर सकता है. इस विषय पर मनोविश्लेषकों के बहुत महत्वपूर्ण साबित होती है . इससे अतिरिक्त आप सभी के सुझाव भी आमंत्रित है कि  क्या और किया जाय जो इन गतिविधियों में लिप्त होने वाली युवा पीढ़ी की गति को विराम दिया जा सके.

सोमवार, 17 मई 2010

निर्णय से पहले सोचें और विचार करें !

                


     कल की ही बात है मेरे एक बहुत ही आत्मीय मेरे पास आये, उनको ये लगता है कि  मैं जो भी सलाह दूँगी वह सही और तार्किक रूप से बतलाई गयी होगी. उनकी समस्या भी बेटी से ही जुड़ी थी. वे उसकी शादी के लिए लड़का देख रहे थे और कुछ जगह बात भी चला रहे  थे.  उससे पहले भी उनके पास बेटी के साथ पड़े हुए एक ठाकुर लड़के का प्रस्ताव उनको मिला था. जिसको उन्होंने मुझे बताया था लेकिन बात आई -गयी हो गयी. उनकी गतिविधियाँ तेज हो गयी कि लड़की पुणे से गुडगाँव आ गयी है और मुझे सुविधा भी रहेगी.  एक दो जगह उन्होंने लड़की को दिखाया और लोगों ने उसे पसंद कर लिया लेकिन उनमें से कुछ उसको नौकरी नहीं करने देना चाहते थे. लड़की ने बी टेक  किया तो नौकरी न करवाने के लिए ये भी तैयार नहीं थे. 
                    जब लड़की ने देखा की पापा की गतिविधि में तेजी आ रही है तो उसने अपने साथी से कहा कि  वह पापा से बात करे. एकदिन पहले ही उस लड़के ने फ़ोन करके प्रोपोजल सामने रखा.  मेरे आत्मीय जी बहुत गुस्सा हुए, इसने हिम्मत कैसे की? उससे पहले उसके पिता ने भी बात की थी जिसको इन्होने भाव नहीं दिया था. उन्होंने अपनी पत्नी से कहा की बेटी से बात करो कि  क्या चक्कर है? बेटी से बात की तो उसने कहा कि  हाँ लड़का ठीक है मेरे साथ पढता था और वहाँ भी मेरी बहुत हेल्प की थी.  ये सुनकर वो और गुस्सा हो गए. 
                  सुबह ही मेरे पास आये कि मैं क्या करूँ? वो कभी साथ पढता था इसका मतलब ये तो नहीं कि हम शादी ही कर दें. 
                  मैंने उनको समझाया  कि अगर हम आज के परिवेश के अनुसार अपने को न ढाल सके तो पीछे रह जायेंगे. फिर अब हमारी जिन्दगी कितनी है, १०, २० साल और हमने अपनी जिन्दगी अपने अनुसार जी ली. इन बच्चों के सामने अभी पूरा भविष्य पड़ा है और आज के माहौल के अनुसार सब कामकाजी हैं. जो शारीरिक क्षमता हमारे अन्दर थी वह इन बच्चों में नहीं है क्योंकि हमने बचपन में प्रकृति से लेकर आहार तक जो शुद्धता को ग्रहण किया है वो  इन बच्चों को नसीब नहीं है. हमने नौकरी के साथ संयुक्त परिवार में ११ लोगों के साथ गुजारा किया और घर और बाहर सब बराबर हिस्सेदारी थी और आज भी है . हम अपने बच्चों से न ऐसी उम्मीद करें और न करनी ही चाहिए.  उनकी सोच और हमारी सोच अब अलग है. उन्हें अब अपनी सोच से मिलता हुआ जीवन साथी चाहिए.  उनका जीवन अभी शुरू होने जा रहा है , अगर उनकी आपसी समझदारी अच्छी है तो बेहतर है कि हम उनकी ख़ुशी में खुश हों. अब ये जाति-पांति  की संकीर्ण मानसिकता से आगे बढ़ जाना चाहिए. अगर वे हमारी पसंद के साथ सामंजस्य न बिठा सके तो ये हमें भी अफसोस रहेगा कि हमने इसी की बात मान ली होती कम से कम खुश तो रहती. अपने निर्णय में वे सहन करने और सामंजस्य बिठाने का पूरा प्रयास करते हैं और सफल भी होते हैं. कभी इसके भी अपवाद हो जाते हैं लेकिन फिर हम अपने चुनाव के लिए भी तो जुआ ही खेलते हैं. नए घर और नए लोगों के बीच बेटी देते हैं. बाहरी स्वरूप आप देख सकते हैं उनकी सोच और बाकी बातें बहुत बाद में पता चलती हैं. 
                        मैंने उन्हें समझा तो दिया और वे समझ कर चले गए. लेकिन मेरी ये राय सबके लिए है कि सिर्फ जाति के लिए हम योग्य लड़के को नकार दें या लड़की को स्वीकार न करें तो ये हमारी सबसे बड़ी भूल होगी और फिर हम बच्चों कि नजर में अपना वो सम्मान खो देते हैं जिसकी हम अपेक्षा रखते हैं.  ये मेरी राय है, इससे किसी की  सहमति या असहमति के मुद्दे को लेकर किसी विवाद की  अपेक्षा नहीं रखती हूँ.

शनिवार, 15 मई 2010

दिशा बदलें और बदलें शिक्षा का प्रारूप !

             
 
वैसे तो ये रोज की बात है की दो चार हत्या , आत्महत्या के प्रकरण अखबार में न रहे हों. हम पढ़ कर उसको फ़ेंक देते हैं, यह सोचते भी नहीं है की क्या इससे जुड़े लोगों को इसके कारणों से बचा पाने की जानकारी थी. क्या ये हत्या या आत्महत्या का ख्याल टाला नहीं जा सकता था?  काश ऐसा हो सकता तो कितने ही घर बच जाते, पता नहीं इन लोगों से जुड़े कितने लोग असहाय और बेसहारा बन कर रह जाते हैं.
                           एक दिन का अख़बार लेकर बैठी ही थी तो तीसरे पेज पर सिर्फ और सिर्फ हत्या और आत्महत्याओं की खबरे थी.
  •  एक  परिवार में दादी, माँ और बेटी तीनों की हत्या.
  • दो प्रेमियों की अलग अलग आत्महत्या
  • बाप बेटे की सोते समय हत्या
  • परीक्षा में फेल होने के डर से किशोरी ने फाँसी लगाई.
  • पिता के डांटने पर बेटे ने जहर खा लिया.
  • पति से झगडे में पत्नी ने बच्चे सही आग लगाकर आत्महत्या.
                  ये घटनाएँ सिर्फ एक शहर की हैं. ये रोज ही हर शहर में घटित होती रहती हैं और जो इसके शिकार होते हैं - उनके लिए कहीं इकलौता बेटा होता है, कहीं होनहार बेटी और कहीं तो पूरा का पूरा परिवार ही समाप्त.

           ये सब चीजें व्यक्ति के मानसिक अस्थिरता को प्रदर्शित करती हैं. आज के परिवेश में सिवा मानसिक तनावों , कुंठा, अवसाद के कुछ भी नहीं मिल रहा है. आज के परिवेश में ये घटनाएँ घट रही हैं ऐसा नहीं है कि उनको टाला नहीं जा सकता है किन्तु टालें तो कैसे? अंतर्मुखी प्रवृति ने मनुष्य को अन्दर ही अन्दर घुटने के लिए छोड़ दिया है. उसको व्यक्त करने के लिए कोई साधन भी उन्होंने नहीं खोजा है या फिर उनके संज्ञान में नहीं है. 
             अगर हत्याओं के कारणों पर अपना ध्यान केन्द्रित करें तो ये पाते हैं की प्रतिशोध, प्रतिष्ठा, प्रतियोगिता और प्रणय ये ही कारण होते हैं. 
                            जहाँ ३ सदस्यों की हत्या की गयी वो घर का दूधवाला था. दूध देने आया तो पहले से ही तैयार होकर आया था और फिर एक एक करके सबको ख़त्म कर दिया. उसे घर के मुखिया ने किसी दिन उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे घर में सफाई करवा ली थी और तभी से वह बदले के मौके की तलाश में था. वह ख़त्म को मुखिया को ही करना चाहता था लेकिन फिर जो मिल गया.
       प्रेमिका के आत्महत्या की खबर मिलने पर उसे देखने गया और लौट कर खुद फाँसी लगा कर झूल गया. अवसाद को झेल ही नहीं पाया.
        परीक्षा में फेल होने की आशंका में ही आत्महत्या, पिता के डांटने पर फाँसी लगाना. ये दो ऐसी स्थितियां है कि हर वर्ष परीक्षाफल आने के समय पर इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है. कितने आशंकित रहते हैं माँ बाप ? खासतौर पर जब की बच्चे प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहे होते हैं. वर्ष भर के परिश्रम के बाद भी जो  असफल हो  जाते हैं या फिर इच्छित फल नहीं पाते हैं तो वे अवसाद में चले जाते हैं. इस समय उन्हें बहुत सावधानी से देखने और नजर रखने की जरूरत होती है. आज जब कि प्रतियोगिता का जमाना है और हर कोई अपनी पूरी क्षमता से उसमें जुटा हुआ है तो ये मानसिक स्थिति बन जाना अस्वाभाविक नहीं होती है. पर इन स्थितियों से उन्हें बाहर लाने की जरूरत होती है.
                      हम बड़े फख्र के साथ कहते हैं की आज कल के बच्चों की IQ बहुत अच्छी  है , उनमें संवेदनशीलता भी उतनी ही अच्छी होती है. इसमें दोष किसी का नहीं है ये तो जीवन शैली का एक अंग बन चुका है. वह उम्र जो बच्चों के खेलने कूदने की होती है. माँ के आँचल में छुपकर अठखेलियाँ करने की होती है, तब न उन्हें  ममता मिल पाती है और न ही स्वस्थ संरक्षण.  इस बात के लिए मैं माँ को दोषी नहीं ठहरा सकती क्योंकि वह खण्डों में बँटी वह चट्टान है जिसको हर कोई अपने अपने तरीके से उपयोग करना चाहता है. 
                उसका प्रयोग पति अपनी इच्छानुसार, सास ससुर अपनी, अगर वह कामकाजी है तो कार्यस्थल पर अपने कार्य स्वामी के इच्छानुसार चलने को मजबूर होती है. अगर घर में रहती है तो जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी हुई. निम्न मध्यम वर्ग के लिए स्थिति और भी गंभीर होती जा रही है. बच्चे अपनी माँ के पास कितने घंटे रह पाते हैं. कितना वो प्यार दे पाती है. 
                   बच्चों को उस उम्र में क्रच और डे केयर सेंटर में छोड़ दिया जाता है जब कि वे बोलना भी नहीं सीख पाते हैं. उनका कोमल मष्तिष्क उस आयु में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ग्रहण करने लगता है. वह पूर्णतया सकारात्मक नहीं होता है. जब ये कार्य एक व्यवसाय के रूप में किया जाता है तो बच्चों के लिए घर जैसा माहौल की उम्मीद नहीं की जा सकती है. जैसे जैसे वे बड़े होते हैं -वहाँ की आया ( जो प्रशिक्षित नहीं होती) जो संचालिका होती हैं वे भी बाल मनोविज्ञान से वाकिफ नहीं होती हैं.  सिर्फ और सिर्फ एक व्यवसाय के रूप में काम करती हैं. इनमें कुछ बच्चे अंतर्मुखी होते हैं और कुछ आक्रामक भी बन जाते हैं. उन्हें समझाने या फिर उनके मनोभावों के अनुरूप कोई भी व्यवहृत नहीं करता. ये बालमन की नींव होती है और जैसे भी उनके मन में बस गया वह अमिट हो जाता है. या फिर उसकी शिक्षा के साथ उनको बाल मनोविज्ञान के अनुसार शिक्षित किया जाय और उनके लिए प्रशिक्षित टीचर रखें . 
                   जहाँ से बच्चा स्कूल के वातावरण में प्रवेश कर जाता  है, वह अपनी टीचर को अपना आदर्श मान लेते हैं. माँ की बात से अधिक उन्हें टीचर की बात सही लगती है. मैंने कभी अपने एक आलेख में ये जिक्र किया था की लड़कियों के साथ हो रही छेड़खानी और अन्य असामाजिक व्यवहार से बचाने के लिए उन्हें बचपन से ही मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे अपनी सुरक्षा करने में स्वयं को सक्षम पायें. ठीक इसी तरह से बचपन से ही सभी स्कूलों में योग , ध्यान का भी समावेश होना चाहिए. जैसे आज बच्चों में बड़ी तेजी से परिपक्वता के लक्षण नजर आने लगे है तो ये स्वाभाविक है कि वे मानसिक तौर पर अपनी आयु से अधिक संवेदनशील और विचारशील हो रहे हैं. उनकी मनःस्थिति को समझाने की भी बहुत जरूरत महसूस होने लगी है.
                  
           अगर इनके पीछे होने वाले कारणों को देखने की कोशिश की जाय तो हमें यही पता चलता है की ये तनाव और कुंठाएं उसको परिजनों से भी मिलती हैं. हम बहुत समझदार होने का दवा करते हैं लेकिन फिर भी कभी हमारे ही बच्चे आपस में तुलना करने लगते हैं कि आप दूसरे को अधिक प्यार करती हैं और मुझे कम. ये भाई और बहन में तो बहुत ही अधिक पाया जाता है.तब हमें स्वयं खुद को भी तौलने की जरूरत होती है कहीं हम जाने अनजाने में ऐसा व्यवहार तो नहीं कर बैठते हैं कि बच्चों के मन में ये बात घर कर जाए. किशोरावस्था सबसे नाजुक होती है, वे त्वरित निर्णय लेकर उसको अनुप्रयोग कर डालते हैं. इस दृष्टि से कभी भी किसी भी परिप्रेक्ष्य में दो बच्चों की तुलना नहीं करनी चाहिए. सब में अपनी अपनी विशेषताएं होती हैं और सबकी अपनी अपनी बुद्धिमत्ता और ग्रहणशीलता  होती है.

                 इस तरह की घटनाक्रम किशोरावस्था या इससे आगे और पीछे की आयु वाले लोगों के द्वारा ही दोहराए जा रहे हैं. चाहे कुंठा , अवसाद या तनाव कोई भी स्थिति हो, यदि व्यक्ति किसी के साथ बाँट लेता है तो उसके मन का बोझ हल्का हो जाता है लेकिन यदि वह अपने तक ही सीमित रहता है तो उससे उबर नहीं पता है बल्कि उसी के बीच डूबता और तैरता रहता है. निराशा की स्थिति में उसे हर तरफ से निराशा हाथ लगती है और वे अपनी समस्या में किसी को शामिल भी करना पसंद नहीं करते हैं. यदि उन्हेंस्कूल स्तर से ही इस तरह की शिक्षा दी जाय तो वे आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण जैसी बातों से परिचित हो जायेंगे और फिर उनके भटकते हुए मन को योग और ध्यान के द्वारा केन्द्रित किया जा सकता है. जो दूसरों से नहीं ही बांटना चाहते हैं , उनके लिए ये बात समझाई जा सकती है कि  बहुत तनाव या अवसाद की स्थिति में डायरी लिखना भी एक बहुत अच्छा अभिव्यक्ति का साधन होता है और मन के गुबार या कुंठा को वह एक बार चाहे किसी से कहकर या फिर लिखकर व्यक्त कर देता है तो वो इस स्थिति से उबर आता है. अब ये स्थिति युवाओं के मामले में नहीं बल्कि बालपन से ही उभर कर सामने आ रही हैं. बच्चों के मनोविज्ञान से परिचित शिक्षिकाओं को ही इस कार्य के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए. अगर इस दिशा में सकारात्मक प्रयास किये जाएँ तो जल्दी ही हमें उसके परिणाम भी दिखने लगेंगे. 
                         इस समस्या के बारे में यदि और अच्छे तरीके आप लोग सुझा सकें तो और भी बेहतर होगा क्योंकि मनोविज्ञान और मनोचिकित्सक की आवश्यकता आज के समय में अधिक महसूस की जा रही है. 

शुक्रवार, 7 मई 2010

जनगणना और जाति सहित जनगणना !

                             देश में जनगणना का कार्य आरभ्य होने जा रहा है, हमारा गृह मंत्रालय इसके लिए प्रारूप तैयार कर चुका है. कल ये प्रश्न उठा कि इनमें जाति के उल्लेख के लिए कोई कॉलम नहीं है और गृह मंत्री इसके लिए तैयार भी नहीं है. लेकिन जाति के उल्लेख के बारे में सभी विपक्षी दल ही नहीं बल्कि सत्ता दल के  लोग भी एक मत हैं. हमारी व्यवस्था में इसको बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. 


क्योंकि प्रारूप तैयार हो चुका है और प्रिंट होकर तैयार भी हो चुके हैं. 

                              जनगणना कोई रोज होने वाली प्रक्रिया नहीं है और न ही किसी एक व्यक्ति के निर्णय से होने वाला काम है. गहन विचार के बाद ही प्रारूप तैयार होना चाहिए था और जब हमारे देश में जती के आधार पर कुछ क्षेत्रों में सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं तो फिर इसका संज्ञान तो बहुत जरूरी हो जाता है. हमारे देश में कितनी पिछड़ी जातियाँ है और उनकी संख्या कितनी है? इसी तरह से जनजातियों , अनुसूचित जातियों और इससे भी बढ़कर अल्पसंख्यक वर्ग की गणना कि जानकारी भी बहुत जरूरी है. 
                            हमारे संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग को विशिष्ट सुविधाएँ और आरक्षण प्रदान किया गया है और इतने वर्षों में ये अल्पसंख्यक कहलाने वाले वर्ग उस सीमा से आगे बढ़ चुके हैं लेकिन आरक्षण के अधिकारी बने हुए हैं क्यों कि उनको संविधान में  घोषित किया गया. इस अल्पसंख्यक वर्ग को भी पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है. वर्षों से चली आ रही परंपरा को अब ख़त्म करना भी आवश्यक हो चुका है. या फिर इस जाति व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया जाय और इसका उल्लेख कहीं भी नहीं होना चाहिए . अगर इसको जारी रखना है तो हमें ज्ञात होना चाहिए कि हम कितने हैं ? हमारा पूरे देश में क्या  प्रतिशत है ? और क्या प्रतिनिधित्व है.
                             वैसे इस जनगणना के साथ यदि वाकई जाति के स्थान पर राष्ट्रीयता को महत्व दिया जाय तो देश का कल्याण हो सकता है.  जो गणना हो वह भारतियों की हो,  कोई जाति  नहीं ,कोई वर्ग नहीं. हाँ अगर उत्थान की दृष्टि से देखना है तो हमें ये स्तर और वर्ग आर्थिक विकास की दृष्टि से बनाने चाहिए ताकि जो पिछड़े हैं या आर्थिक तौर से कमजोर हैं , उनको आरक्षण का लाभ मिल सके.  सिर्फ जाति के नाम पर आरक्षण लेने वालों में समृद्ध और समृद्ध होता जा रहा है और जो पिछड़े हैं वे वहीं के वही हैं उन तक लाभ पहुँच ही नहीं पाता है.

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मजदूर दिवस - !

                         आज मजदूर दिवस है - आज कोई मजदूर काम नहीं करेगा? 
  • लेकिन क्या और दिवसों की तरह से इन मजदूरों का भी कहीं सम्मान किया जाएगा? 
  • सरकार आज का वेतन इनको मुफ्त में बांटेगी? 
  • वे संस्थाएं जो मजदूर दिवस का ढिंढोरा पीटती रहती हैं, इनको एक दिन कहीं होटल में सही ढाबे में ही मुफ्त खाना खिलवायेंगी ? 
  • इनके इलाके में कोई ठेकेदार या पैसे वाला मुफ्त में मिठाई बांटेगा? 
  • आज इनके मनोरंजन के लिए कोई कार्यक्रम इनकी झुग्गी - झोपड़ियों के आस-पास किये जायेंगे? 
                         अरे ऐसा कुछ भी नहीं होगा. आज की बिचारों की दिहाड़ी ही मारी जायेगी. इससे तो अच्छा होता कि   आज के काम के बदले इनको दुगुनी मजदूरी दे दी जाती तो ये भी इस दिन की कुछ ख़ुशी मना लेते. हाँ बड़ी बड़ी सरकारी   फैक्टरी में भले ही इनके हितार्थ कुछ होता हो. लेकिन वे मजदूर जो बिहार , छत्तीसगढ़, झारखण्ड , असम से तक आ कर यहाँ भवन निर्माण में कम करते हैं, उनकी कोई यूनियन नहीं होती. यहाँ तक की औरत और आदमी के काम के घंटे तो बराबर होते हैं लेकिन उनकी मजदूरी में फर्क होता है. 
बड़ी बड़ी फैक्ट्री और मिलों  में तो उनको बोनस भी मिल जाता है लेकिन ये जो वाकई मजदूर है, इनके लिए न कोई भविष्य है और नहीं वर्तमान. जब तक इनके हाथ पैर चल रहे हैं, ये कमाते रहेंगे और फिर इसके बाद इनके बच्चों को भी यही करना होता है. 
                      हाँ इन मजदूरों के संदर्भ ये जरूर जिक्र करना चाहूंगी की आई आई टी में  निर्माण कार्य में काम करने वाले मजदूरों के बच्चों के लिए यहाँ के छात्र शिक्षित करने में खुद अपना समय देते हैं और उनके लिए जरूरी सामग्री की व्यवस्था भी करते हैं. अगर वे स्वयं यहाँ तक पहुंचे हैं तो उनमें मानवता के ये गुण शेष हैं. उनका यही प्रयास इस मजदूर दिवस के लिए सबसे सार्थक है. क्योंकि इन मजदूरों से उनका सिर्फ मानवता का रिश्ता है. वे उनके नौकर नहीं है, उनके लिए काम नहीं करते हैं फिर भी ये छात्र चाहते हैं की उनके बच्चे इतना पढ़ लें की पिता की तरह ईंट गारा ढो कर जीवनयापन न करें.

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

'खाने' पर सरकारी मुहर !

             "खाना" अब सरकारी मुहर के साथ पूरी तरह से कानूनी बन चुका है. खूब खाओ और खूब खिलाओ कहीं कोई भूखा न रह जाए. 
                        कहीं आप ये तो नहीं समझ रहे हैं की अब इस देश में 'खाना' मिलने का हर व्यक्ति को अनिवार्य अधिकार बना दिया गया हो कि इस देश में कोई भूखा नहीं रहेगा - अरे नहीं कहाँ की बातें करते हैं? अजी - अब भूखे तो भूखे रहेंगे ही साथ ही साथ कुछ और लोगों का भी उसी हालत में पहुँचने की स्थिति आने वाली है. ये 'खाना' तो पहुँच वाले लोगों के लिए परोसा जा रहा है और वे भी 'वसुधैव कुटुम्बकम' के अनुयायी है. अकेले तो खाने जा नहीं रहे हैं, वे मिल बाँट कर खायेंगे - यही तो हमारी संस्कृति हमको सिखाती चली आ रही है. अगर आधी  रोटी है तो उसको आधा आधा बाँट कर खाओ जिससे कोई भूखा  न रहे. 

                      अभी हाल ही में खबर मिली है कि सरकार ने अपने विभागों में कार्यकुशलता को बनाये रखने के लिए और सरकारी कामों में विलम्ब न  हो इसके लिए संविदा पर नियुक्ति का प्रावधान शुरू कर दिया था. चलो यहाँ तक तो ठीक था . ये संविदा नियुक्ति भी बगैर  'खाए' और 'खिलाये ' नहीं हो पाती थी पर अब तो सरकार ने इस संविदा नियुक्ति  से 'खाने' की पूरी सुविधा के द्वार भी खोल दिए हैं.
                       इस खबर का खुलासा जब हुआ तो लगा  कि पढ़े लिखे मजदूर भी अब मजदूर मार्केट में खड़े होंगे और ठेकेदार उन्हें ले जाकर सरकारी विभागों में सप्लाई करेंगे और इसके एवज में उनके वेतन से भी ठेकेदारों का 'खाना' निकाला जाएगा.
                      पहले सोचा कि ये ठेकेदारी भली - एक बार सप्लाई कर दो, 'खाने' की थाली तो मिलती ही रहेगी. परन्तु पता चला कि पहले ठेकेदार बनने के लिए ऊपर 'खिलाओ' तब जाकर आपको 'खाने ' को मिलेगा और ये 'खाना' लाखों का पड़ेगा. अब एक थाली पहले सजाओ और आकाओं को पेश  करो - आका अपने आकाओं का पहले भोग लगायेंगे, यानि कि कुल मिलाकर  जो 'प्रसाद' बचेगा उसी को काफी समझ कर अपनी जेब में रख लेंगे.
                      देश के नामी गिरामी स्वायत्तशासी संस्थानों में भी 'खाने' की यही प्रथा लागू हो चुकी है. कौन जहमत उठाये कि आने वाले ढेरों आवेदनों में से छांटा  जाय फिर उनको 'मेल' करके कॉल किया जाय. बस ठेकेदारों को ठेका दे दिया. उन्हीं में से छांट बीन कर रख लिए जायेंगे. अब इससे तो बाकी रखी सही कसर  भी पूरी होनेवाली है. ये पढ़े लिखे डिग्रीधारी  मजदूर अपने को क्या समझें? और अनपढ़ मजदूरों में क्या अंतर है? वह मजदूर जिन्हें ठेकेदार ट्रक में भर  कर  निर्माण कार्य  के  लिए  ले  जाता  है  और  शाम  को  उनके  मिलने  वाली  निश्चित  मजदूरी  से  अपना  कमीशन  काट  कर  उनको  दे  देता  है . वे खुश हो जाते हैं की आज के दिन के लिए बच्चों के पेट भरने के लिए पैसा मिल गया. किन्तु ये पढ़े लिखे युवा जिन्हें अपनी योग्यता के अनुरूप वेतन भी नहीं मिलने वाला है और उसमें से भी ठेकेदार की चढ़ौती पहले दो और बाद में वेतन के नाम पर मिलने वाले धन से भी एक हिस्सा देना होगा.
                       माँ - बाप के बड़े अरमां थे , पढ़ाई के लिए किसी ने घर गिरवी रखा, किसी ने बेच दिया और कोई तो सिर से पैर तक कर्ज में डूब गए. जब बेटा डिग्री लेकर निकला तो ये ठेकेदारी प्रथा का आगाज हो चुका था. अपने और बेटे के सपनों को साकार करने के लिए सब कुछ लुटा दिया था. अब वह 'खाना' जुटाने के लिए किसको गिरवी  रखें. स्वयं को? पत्नी को या फिर शेष बच्चों को? उस गरीब के सपनों ने तो दिल में ही दम तोड़ दिया. बच्चे ने जो सपने सजाये थे - वे इस 'खाने' और 'खिलाने' की भेंट चढ़  गए. 
                    अब आगे क्या होने वाला है? सारी दुनियाँ इस 'खाने' के लिए ही तो जी तोड़ मेहनत कर रही है - फिर चाहे वह दाल रोटी के रूप में हो या फिर 'खोका ' के रूप में. 
                   ये हमारी सरकार है, किसके लिए सोच रही है? यह न हमें पता है और न इन बेचारों को - जो सिर्फ दिन-रात मेहनत ही तो कर पाते हैं और जो मिलता है उसको भाग्य का लेख समझ कर स्वीकार कर रहे हैं.

शुक्रवार, 19 मार्च 2010



इस विषय की  सार्थकता  क्या है? इस प्रश्न का सामना करने के लिए मैं पूरी तरह से तैयार हूँ.
अभिभावक  इस देश के भविष्य को दिशा निर्देश देने वाले हैं और कई ऐसे निर्णय होते हैं कि उसमें उनकी भूमिका बहुत ही जरूरी होती है. मेरी मुलाकात अपनी बेटी की सहेली से होती है, उसकी शादी एक दक्षिण भारतीय परिवार में हुई. वह दोनों तो अंग्रेजी में बात कर लेते हैं लेकिन उसके सास ससुर तो तमिल ही जानते हैं लेकिन चूँकि तमिल संस्कृत के बहुत ही करीब है इस लिए वह समझ लेती है. और तमिल भी धीरे धीरे सीख रही है.
उसकी एक बेटी है, एकदम छोटी मात्र ३ महीने की. अब उसके पति चाहते हैं कि वह पहला शब्द जो बोले वह तमिल में हो, शची अपनी बेटी से हिंदी में ही बतियाती है और पिता तमिल में. कोई विरोधाभास नहीं है, फिर भी दिल से वह भी चाहती है कि उसकी बेटी तमिल में ही पहला शब्द बोले. वह बाबा और दादी जैसे शब्द तमिल में उसके सामने बोलती है, जिससे कि वह जब भी बोले ऐसे ही बोले. लेकिन वह हिंदी तो उसको अच्छे से सिखाना चाहती है.
ये प्रश्न शची का नहीं है, ये प्रश्न अपनी राष्ट्र भाषा का भी है और अपनी पहचान का भी. आज कल बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाने को प्राथमिकता प्रदान की जाती है. माता और पिता भी बड़े गर्व के साथ बताते हैं कि उस स्कूल में डाला है, फीस जरूर ज्यादा है लेकिन इंग्लिश बढ़िया बोल लेता है. हिंदी विषय में कुछ कमजोर है.
कई मांएं भी ये बात बड़े गर्व के साथ बताती हैं कि हिंदी में अच्छे से नहीं बोल पता क्योंकि अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहा है न. बच्चों के भविष्य के लिए उच्च शिक्षा और सही शिक्षा दिलाना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन उसको अपने राष्ट्र की पहचान देने वाली भाषा का ज्ञान तो होना ही चाहिए. कभी कभी तो ये ज्ञान होते हुए भी कुछ लोग हिंदी का स्वरूप विकृत बना कर बोलते हैं.
  • हमको हिंदी नहीं आता है.
  • हमने वहाँ जाना है.
  • वहाँ का सड़क बहुत टूटा है.
  • यहाँ सूरज बहुत देर से निकलती है.
भाषा का ज्ञान तो कम से कम हिंदी भाषी को होना ही चाहिए. व्याकरण का ज्ञाता न ही हो फिर भी प्राथमिक व्याकरण भी आना आवश्यक है.
इसमें माँ कि भूमिका सबसे अहम् होती है. अगर बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता है तो आप घर में उससे हिंदी में बात कीजिये और उसकी गलतियों को सुधारिए. उसको अपनी जमीन से जुड़े रहने दीजिये. ये बहुत आम बात है कि हम टीवी पर अंग्रेजी सिखाने वाली बहुत किताबों ऑडियो विडियो के विज्ञापन देखा करते हैं और शहर में भी इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के बड़े बड़े बैनर लगे देखते हैं. अपने बच्चों को भेजते भी हैं. लेकिन कभी हमने हिंदी स्पीकिंग कोर्स का कोई भी विज्ञापन देखा है? या फिर कभी सोचा है कि अगर हमारा बच्चा स्कूल के वातावरण में अच्छी हिंदी नहीं सीख रहा है तो उसको हम घर में नहीं तो किसी कोचिंग में ऐसा करवा सकते हैं. नहीं ऐसा तो सोचा ही नहीं जा सकता है क्योंकि हिंदी तो बोलने वाले बड़ी ही हेय दृष्टि से देखे जाते हैं. अंग्रेजी बोलने वालों का तो स्तर ही अलग होता है.
कितने हमारे ब्लॉग से जुड़े जन ऐसे ही हैं, हम हिंदी कि उन्नति और समृद्धि की बात करते हैं और अपने बच्चों से ये उम्मीद करते हैं कि वे इंग्लिश ही बोलें. ये दोहरे प्रतिमानों के क्या अर्थ हो सकते हैं? जिस भाषा पर हमारा अधिकार है, वह भाषा हमारे परिवार में फलनी फूलनी चाहिए. मैं ये नहीं कहती कि आप दूसरी भाषा पर अधिकार नहीं रख सकते हैं. पर अपनी भाषा को भूलिए नहीं. ऐसी भाषा तो आनी ही चाहिए कि हम गर्व से कह सकें कि हम हिन्दीभाषी है और हमारा उस पर पूरा अधिकार है. यही बात अपने परिवेश से जुड़ी होती है.
इस सिलसिले में एक पुरानी बात याद आ रही है, १९९४ के समय में एक इंजीनियर IIT में Ph D करने के लिए कर्नाटक से आया था . उसको हिंदी बिलकुल भी नहीं आती थी, हमारे सहयोग से ही उसका काम होना था. जब तक उसने अपना काम पूरा किया वह बहुत अच्छी हिंदी बोलने लगा था क्योंकि हम उससे इंग्लिश के माध्यम से बात करते और कहते कि हिंदी भी सीख लो. हमने तो कन्नड़ नहीं सीखी लेकिन उसको हिंदी जरूर सिखा दी. फिर हम ये काम अपने घर में तो आसानी से कर सकते हैं. ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती लेकिन आत्मज्ञान यानि कि अपनी भाषा और संस्कृति के बिना इनसान कि पहचान अधूरी होती है. जो एक माँ और बहन सिखा सकती है वह पिता और भाई नहीं सिखा सकते हैं. अपनी भाषा से सबका अच्छा परिचय हो इस कामना के साथ हिंदी को प्रणाम करती हूँ.

सोमवार, 15 मार्च 2010

दायित्व बनाम क़ानून!

                            समाज में  संस्कार, संस्थाएं और उनसे बनी हमारी संस्कृति में बिखराव झलकने लगा है. इसको हम ज़माने का तकाजा या पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं लेकिन क्या हम खुद इस उत्तर से खुद को संतुष्ट कर पाते हैं? 
                       परिवार रुपी वृक्ष कि जड़ें है हमारे बुजुर्ग और यदि इन्हीं को उपेक्षित कर हम पत्तों और शाखों की वृद्धि की आशा करे तो ये तो बेमानी हैं  . पानी हम पेड़ कि जड़ में ही तो डालते हैं तभी तो फूल, पत्तों और फलों से लदे रहते  हैं. समाज का वर्तमान स्वरूप जिस परिवार की परिकल्पना को सिद्ध  कर रहा है, वहा हमारी संस्कृति के अनुरूप नहीं है. 
                         ये समस्या आज नहीं खड़ी नहीं हुई है,  आज से करीब ३५  साल पहले भी ऐसी ही एक घटना ने विचलित किया था , उसको लिख कर अपने आस पास चर्चा का विषय बना दिया था कि  उससे जुड़े लोग मुझे तलाशने लगे थे. जब पता चला तो उलाहना मेरे भाई साहब को मिला, "तुम्हारी बहन ने यह अच्छा नहीं किया?" लड़कियाँ उस समय अधिक बाहर नहीं निकलती थी. 
उस समय मेरे भाई साहब ने यही कहा था, "वह जो भी लिखती है? इसको मैं मना नहीं कर सकता, वो लिखने के लिए स्वतन्त्र है और अगर कहीं कुछ लग रहा है तो जाकर मानहानि का केस कर सकते हो."  
                             मैं एक बहुत छोटी जगह से हूँ, जहाँ सब एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं. वैसी  घटना तब एक या दो ही घटित होती थी और आज ये चलन हो चुका है. आज परिवार में बुजुर्गों को पर्याप्त सम्मान और स्थान मिला रहे ये बहुत बड़ी बात है.  इस विषय में एक घटना उल्लेखनीय है कि ऐसे ही सुपुत्रों ने अपने अपाहिज पिता को मरणासन्न  अवस्था में  सड़क पर फ़ेंक दिया और सड़क से किसी भले मानुष ने उन्हें एक किनारे बने फुटपाथ पर खिसका दिया और दो दिन वहीं पड़े पड़े उन्होंने प्राण त्याग दिए. पुलिस ने लावारिस में उनका संस्कार कर दिया.
                           समय की मांग और जरूरत के अनुसार इस दिशा में स्वयंसेवी संस्थाएं, समाज कल्याण मंत्रालय वरिष्ठ नागरिकों के लिए आश्रय का प्रयास कर रही है. इसके लिए क़ानून भी बनाये जा रहे हैं कि अपने अभिभावकों के प्रति उनकी संतान के दायित्व निश्चित होंगे और उनको उन्हें पूरा करना पड़ेगा. ये तो निश्चित है कि वर्तमान  शक्ति - सामर्थ्य सदैव नहीं रहेगी , आज वो जिस स्थिति और उम्र से गुजर रहे हैं कल निश्चित ही हमको भी उसी में आना है.  पर हमको कल नहीं सिर्फ और सिर्फ आज दिखलाई देता है. 
                    संसद में पारित होकर विधेयक एक क़ानून बन जाएगा किन्तु क़ानून बनना और उसको लागू करवाना दोनों ही जमीन आसमान की दूरी पर हैं. क़ानून बनाना अधिक सरल है, पर ऐसे क़ानून लागू नहीं करवाए जा सके हैं. 
कर्त्तव्य, दायित्व और सम्मान के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता है.  क़ानून बनाकर भी नहीं. जुरमाना और जेल की सजा के बाद इस वरिष्ठ नागरिको के लिए  अपना घर ही पराया हो जाएगा, भले ही उसको पराया पहले से ही बना रखा हो. एक जुर्म की सजा सिर्फ एक बार ही दी जा सकती है. सजा पाकर दोषी अधिक उद्दंड भी हो सकता है. 
                                वरिष्ठ नागरिकों या अभिभावकों की इस उपेक्षा के ९० प्रतिशत मामले सामने आ रहे हैं. इसके पीछे सबसे अधिक है युवा वर्ग का पाश्चात्य संस्कृति के प्रति आकर्षण. इसके साथ ही अभिभावकों की अपने बच्चों पर आर्थिक निर्भरता या फिर पेंशनयाफ्ता अभिभावक जिनसे बच्चे ये अपेक्षा करते हैं कि वे अपनी पूरी पेंशन उनको सौंप दें. आज मिथ्याडम्बर और महत्वाकांक्षाओं कि ऊँची उड़ान से प्रेरित अधिक से अधिक अर्जन की लालसा ने युवा पीढ़ी को जरूरत से अधिक व्यस्त और तनावपूर्ण बना दिया है, जिससे वे घर पहुंचकर अपने कमरे में कैद होकर टी वी  या फिर म्यूजिक सिस्टम के साथ अपना समय बिताना चाहते हैं. अनुशासन और बंदिशें उन्हें पसंद नहीं.
                              इस उपेक्षा में दोषी मात्र युवा पीढ़ी ही नहीं है. दोनों पक्षों का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष के तौर पर यही सामने आया कि दबाव में कराया गया कार्य सौहार्दता तो नहीं ला सकता है.  हमेशा बच्चे ही गलत हों, ऐसा भी सामने नहीं आया है. कहीं कहीं बदमिजाज और जिद्दी बुजुर्ग भी देखे है.  सारे दिन काम से लौटा बेटा या बहू से जरूरत से अधिक अपेक्षा करना भी गलत है. उनको भी समय चाहिए . लेकिन अपने समय में तानाशाही करने वाले पुरुष या स्त्री अपनी उपेक्षा को  सहन नहीं कर पाते लिहाजा एक तनाव पूर्ण वातावरण पैदा कर देते हैं. 

                          तनाव किसी कि भी तरफ से हो, पीड़ित तो शेष सदस्य ही रहते हैं. इसके लिए सामाजिक दृष्टिकोण से सोचा जाय तो सबसे अधिक कारगर साधन कुछ हो सकता है तो वो "काउंसिलिंग " ही है. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तब भी. बहुत से तनावों का निदान इससे खोजा गया है और खोजा जा सकता है.  इसके लिए स्वयंसेवी संस्थाएं, एनजीओ या फिर सरकार कि ओर से परामर्श केंद्र कि स्थापना की जा सकती है. इस समस्या का निदान मानवीय प्रयासों से अधिक आसानी से खोजा जा सकता है. यह भी सच है कि ये काउंसिलिंग यदि घर से बाहर वाला व्यक्ति करता है तो अधिक समझ आता है क्योंकि पीड़ित इस बात को समझता है कि ये मेरा हितैषी है. 
                     यदि युवा पीढ़ी है तो उसको समझाया जा सकता है कि उनके कामकाजी होने के नाते बच्चों को जो अपनत्व दादा दादी से प्राप्त होता है वह - न आया से और नहीं किसी क्रेच में डालने से प्राप्त होगा. संस्कार या तो माता-पिता देते हैं या फिर घर के बड़े बुजुर्ग. बाकी किसी को बच्चों कि मानसिक स्थिति या फिर विकास से कोई मतलब नहीं होता बल्कि उनके लिए ये एक पेशा होता है और वे उसके प्रति न्याय कि चिंता नहीं करते हैं. अतः घर के बुजुर्ग सिर्फ बोझ नहीं बल्कि एक आया या क्रेच से अधिक प्यार देने वाले और संस्कार देने वाले सिद्ध होते हैं. ये सोच उनको काउंसिलिंग से ही प्राप्त कराइ जा सकती है. 
                     इसके ठीक विपरीत यही काउंसिलिंग बुजुर्गों के साथ भी अपने जा सकती है. उन्हें पहले समझ बुझा कर समझने कि कोशिश करनी चाहिए . यदि वे नहीं समझते हैं तो उन्हें अस्थायी  तौर पर 'ओल्ड एज होम' में रखा जा सकता है. घर की सुख -सुविधा और अपनों के दूर रखकर ही उनको इसके महत्व को समझाया जा सकता है और इस दिशा में किया गया सही प्रयास 'काउंसिलिंग ' ही है. अपने घर , अपनत्व और बच्चोंके द्वारा की गयी देखभाल का अहसास होना ही उनको सही दिशा में सोचने के लिए विवश कर सकता है. माँ - बाप के आश्रित होने की दशा  में बच्चों को भी समझाया जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन कि सारी पूँजी अपने बच्चों को काबिल बनने में खर्च कर दी है और उसी के बदौलत आप सम्पन्न हैं.फिर उनका दायित्व कौन उठाएगा? ये सब बातें न तो क़ानून और न न्यायाधीश ही समझा सकता है बल्कि इसको सामजिक मूल्यों के संरक्षण के प्रश्न से जुड़े मानकर मनोवैज्ञानिक तरीके  से ही सुलझाया  जा सकता है. इसके परिणाम बहुत ही बेहतर हो सकते हैं. बस इस दिशा में पहल करने कि आवश्यकता है. मानसिक बदलाव संभव है और परिवार संस्था को पुराने स्वरूप में सरंक्षित किया जा सकता है. हमारी परिवार संस्था पाश्चात्य देशों में आदर्श मानी जाती है और हम खुद भटक रहे हैं. इस भटकाव से बचना और बचाना ही भारतीयता को संरक्षण देना है.