मैंने अपने जीवन में ऐसा कोई काम शायद जानबूझ कर नहीं किया कि लोग मुझ पर अंगुली उठा सकें लेकिन
लाभ हानि जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ
तुलसीदास जी की इन पंक्तियों को तो मैं भूल ही गयी थी. मेरी एक टिप्पणी पर हमारे ब्लोगर भाई परम आर्य जी ने ऐसी टिप्पणी की कि मैंने मानव जाति की बात कैसे कर सकती हूँ जब कि मैंने स्वयं अपने नाम के आगे अपनी जाति लगा रखी है. ये आदर्शवाद का ढोंग है.'
उनकी टिप्पणी ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया और फिर इसके लिए उठे प्रश्न से दो चार तो होना ही पड़ेगा.
क्या नाम के साथ लगी हुई जाति का प्रतीक इंसान की मानवता पर प्रश्न चिह्न लगा देता है? उसको मानवोचित गुणों से वंचित कर देता है या फिर उसकी सोच को जाति के दायरे से बाहर नहीं निकलने देता है. ऐसा कुछ भी नहीं है, ये जाति मेरे नाम के साथ मेरे पापा ने लगाई थी क्योंकि जब बच्चा स्कूल जाता है तो उसके माता पिता नाम देते हैं. मेरे पिता भी अपने नाम के साथ भी यही लगाते थे. किन्तु वे एक ऐसे इंसान थे जो इस दायरे से बाहर थे. हर जाति , धर्म और वर्ग में उनकी अपनी पैठ थी. उनके मित्र और अन्तरंग और सहयोगी थे. नाम कुछ भी हो मानवीय मूल्यों कि परिभाषा नहीं बदलती है या इसमें जाति या धर्म कहीं भी आड़े नहीं आता है.
फिर भी आर्य जी का ये आरोप कि जाति लगाकर इंसान मानव जाति और मानव धर्म कि बात नहीं कर सकता एकदम निराधार है. महात्मा गाँधी के साथ उनकी जाति का नाम जुड़ा था और वे क्या थे? उनका व्यक्तित्व क्या था? क्या गाँधी लगने से उनके आदर्शों और मूल्यों की कीमत कम हो गयी. सम्पूर्ण विश्व जिसके दिखाए मार्ग पर चलने की वकालत कर रहा है. अहिंसा का मार्ग ढोंग है, अगर नहीं तो इस आक्षेप का कोई अर्थ नहीं है. इतिहास उठाकर देखें तो यही ज्ञात होगा कि इंसान की सोच और कार्य के आगे नाम और उपनाम नगण्य है. इसका कुछ भी लेना या देना नहीं है.
रहा नाम के साथ जाति नाम लगाने का तो इसके लिए हमारी सोच ही इसको ख़त्म कर सकती है लेकिन ऐसी सोच और विचार तो हों. इस प्रसंग में मुझे अजय ब्रह्मात्मज का एक निबंध याद आ रहा है जो कि इसी विषय पर लिखा गया था और वह ५० हजार रुपये से पुरस्कृत भी किया गया था. उसमें उन्होंने लिखा था कि उनके पिता ने अपने बच्चों के नाम के आगे जाति लगने के स्थान पर अपने बेटों के नाम के आगे माँ का नाम और उसके साथ आत्मज जोड़ कर लगाया. इस तरह से ब्रह्मा + आत्मज = ब्रह्मात्मज लगाया और अपनी बेटी के नाम के साथ अपना नाम देव + आत्मजा = देवात्मजा लगाया. इस दृष्टिकोण के रखने वाले पिता को मेरा नमन है. इस सोच को रखने वाले पिता इस समय कम से कम ८० वर्ष के होंगे और इस सोच को उन्होंने आज से करीब ५५-६० वर्ष पहले मूर्त रूप दिया था.
बुधवार, 17 नवंबर 2010
रविवार, 14 नवंबर 2010
आज बाल दिवस है.
(chitra googal ke sabhar )
आज बाल दिवस है, देश के बच्चों के लिए जो भी किया जाय कम है क्योंकि असली बाल वह है , जो अपने अनिश्चित भविष्य से जूझ रहा है. अगर वह स्कूल भी जा रहा है तो उसको चिंता इस बात की हर अभी घर में जाकर इतना कम कर लूँगा तो इतने पैसे मिलेंगे. उनकी शिक्षा भविष्य का दर्पण नहीं है बल्कि बस स्कूल में बैठ दिया गया है तो बैठे हैं .
अगर माँ बाप भीख मांग रहे हैं तो बच्चे भी मांग रहे हैं. क्या ये बाल दिवस का अर्थ जानते हैं या कभी ये कोशिश की गयी कि in भीख माँगने वाले बच्चों के लिए सरकार कुछ करेगी. जो कूड़ा बीन रहे हैं तो इसलिए क्योंकि उनके घर को चलने के लिए उनके पैसे की जरूरत है. कहीं बाप का साया नहीं है, कहीं बाप है तो शराबी जुआरी है, माँ बीमार है, छोटे. छोटे भाई बहन भूख से बिलख रहे हैं. कभी उनकी मजबूरी को जाने बिना हम कैसे कह सकते हैं कि माँ बाप बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते हैं. अगर सरकार उनके पेट भरने की व्यवस्था करे तो वे पढ़ें लेकिन ये तो कभी हो नहीं सकता है. फिर इन बाल दिवस से अनभिज्ञ बच्चों का बचपन क्या इसी तरह चलता रहेगा?
आज अखबार में पढ़ा कि ऐसे ही कुछ बच्चे कहीं स्कूल में पढ़ रहे हैं क्योंकि सरकार ने मुफ्त शिक्षा की सुविधा जो दी है लेकिन शिक्षक बैठे गप्प मार रहे हैं.पढ़ाने में और इस लक्ष्य से जुड़े लोगों को रूचि तो सिर्फ सरकारी नौकरी और उससे मिलने वाली सुविधाओं में है. इन बच्चों का भविष्य तो कुछ होने वाला ही नहीं है तभी तो उनको नहीं मालूम है कि बाल दिवस किसका जन्म दिन है और क्यों मनाया जाता है. जहाँ सरकार जागरूक करने का प्रयत्न भी कर रही है वहाँ घर वाले खामोश है और किसी तरह से बच्चे स्कूल तक आ गए तो उनके पढ़ाने वाले उनको बैठा कर समय गुजार रहे हैं.
पिछले दिनों की बात है. केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद को किसी भिखारी की बच्चियां रास्ते में मिली थी और फिर उन्होंने उन बच्चियों को शिक्षा के लिए गोद लेने की सोची और उनका घर पता लगाते हुए वे भिखारी बस्ती में भी गए . उन्होंने उसकी माँ से कहा कि अपनी बेटियों को मेरे साथ भेज दो मैं उनकी पढ़ाई लिखाई का पूरा खर्चा उठाऊँगा और वे पढ़ लिख जायेंगी तुम्हारी तरह से भीख नहीं मांगेंगी . उन्होंने बहुत प्रयास किया लेकिन उसकी माँ तैयार ही नहीं हुई क्योंकि उसका एक ही जवाब था कि मैं इसी में गुजरा कर लूंगी लेकिन अपनी बेटियों को कहीं नहीं भेजूंगी . इस जगह मंत्री जी चूक गए उन्हें लड़कियों को दिल्ली ले जाकर पढ़ाने के स्थान पर उनको वहीं पढ़ाने का प्रस्ताव रखना चाहिए था . शायद वह भिखारिन मान जाती तो दो बच्चियां अपनी माँ की तरह से जिन्दगी गुजारने से बच जाती.
(chitra googal ke sabhar )
ऐसे बचपन को इस विभीषिका से बचाने के लिए या फिर ऐसे माँ बाप के बच्चों को स्कूल ले जाने के लिए सबसे पहले उनके माँ बाप को इस बात को समझाना चाहिए कि उनके बच्चे पढ़ लिख कर क्या बन सकते हैं? कैसे वे उनकी इस दरिद्र जिन्दगी से बाहर निकल कर कल उनका सहारा बन सकते हैं. सर्वशिक्षा तभी सार्थक हो सकती है जब कि इसके लिए उनके अभिभावक भी तैयार हों . नहीं तो कागजों में चल रहे स्कूल और योजनायें - सिर्फ दस्तावेजों की शोभा बनती rahengin और इन घोषणाओं से कुछ भी होने वाला नहीं है. अगर इसे सार्थक बनाना है और बाल दिवस को ही इस काम की पहल के लिए चुन लीजिये . सबसे पहले बच्चों के माँ बाप को इस बात के प्रोत्साहित कीजिये कि वे अपने बच्चे को पढ़े लिखे और इज्जत और मेहनत से कमाते हुए देखें . अगर इस दिशा में सफल हो गए तो फिर ये सड़कों पर घूमता हुआ बचपन कुछ प्रतिशत तक तो सँभल ही जाएगा और इस देश का बाल दिवस तभी सार्थक समझना चाहिए .
आज बाल दिवस है, देश के बच्चों के लिए जो भी किया जाय कम है क्योंकि असली बाल वह है , जो अपने अनिश्चित भविष्य से जूझ रहा है. अगर वह स्कूल भी जा रहा है तो उसको चिंता इस बात की हर अभी घर में जाकर इतना कम कर लूँगा तो इतने पैसे मिलेंगे. उनकी शिक्षा भविष्य का दर्पण नहीं है बल्कि बस स्कूल में बैठ दिया गया है तो बैठे हैं .
अगर माँ बाप भीख मांग रहे हैं तो बच्चे भी मांग रहे हैं. क्या ये बाल दिवस का अर्थ जानते हैं या कभी ये कोशिश की गयी कि in भीख माँगने वाले बच्चों के लिए सरकार कुछ करेगी. जो कूड़ा बीन रहे हैं तो इसलिए क्योंकि उनके घर को चलने के लिए उनके पैसे की जरूरत है. कहीं बाप का साया नहीं है, कहीं बाप है तो शराबी जुआरी है, माँ बीमार है, छोटे. छोटे भाई बहन भूख से बिलख रहे हैं. कभी उनकी मजबूरी को जाने बिना हम कैसे कह सकते हैं कि माँ बाप बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते हैं. अगर सरकार उनके पेट भरने की व्यवस्था करे तो वे पढ़ें लेकिन ये तो कभी हो नहीं सकता है. फिर इन बाल दिवस से अनभिज्ञ बच्चों का बचपन क्या इसी तरह चलता रहेगा?
आज अखबार में पढ़ा कि ऐसे ही कुछ बच्चे कहीं स्कूल में पढ़ रहे हैं क्योंकि सरकार ने मुफ्त शिक्षा की सुविधा जो दी है लेकिन शिक्षक बैठे गप्प मार रहे हैं.पढ़ाने में और इस लक्ष्य से जुड़े लोगों को रूचि तो सिर्फ सरकारी नौकरी और उससे मिलने वाली सुविधाओं में है. इन बच्चों का भविष्य तो कुछ होने वाला ही नहीं है तभी तो उनको नहीं मालूम है कि बाल दिवस किसका जन्म दिन है और क्यों मनाया जाता है. जहाँ सरकार जागरूक करने का प्रयत्न भी कर रही है वहाँ घर वाले खामोश है और किसी तरह से बच्चे स्कूल तक आ गए तो उनके पढ़ाने वाले उनको बैठा कर समय गुजार रहे हैं.
पिछले दिनों की बात है. केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद को किसी भिखारी की बच्चियां रास्ते में मिली थी और फिर उन्होंने उन बच्चियों को शिक्षा के लिए गोद लेने की सोची और उनका घर पता लगाते हुए वे भिखारी बस्ती में भी गए . उन्होंने उसकी माँ से कहा कि अपनी बेटियों को मेरे साथ भेज दो मैं उनकी पढ़ाई लिखाई का पूरा खर्चा उठाऊँगा और वे पढ़ लिख जायेंगी तुम्हारी तरह से भीख नहीं मांगेंगी . उन्होंने बहुत प्रयास किया लेकिन उसकी माँ तैयार ही नहीं हुई क्योंकि उसका एक ही जवाब था कि मैं इसी में गुजरा कर लूंगी लेकिन अपनी बेटियों को कहीं नहीं भेजूंगी . इस जगह मंत्री जी चूक गए उन्हें लड़कियों को दिल्ली ले जाकर पढ़ाने के स्थान पर उनको वहीं पढ़ाने का प्रस्ताव रखना चाहिए था . शायद वह भिखारिन मान जाती तो दो बच्चियां अपनी माँ की तरह से जिन्दगी गुजारने से बच जाती.
(chitra googal ke sabhar )
ऐसे बचपन को इस विभीषिका से बचाने के लिए या फिर ऐसे माँ बाप के बच्चों को स्कूल ले जाने के लिए सबसे पहले उनके माँ बाप को इस बात को समझाना चाहिए कि उनके बच्चे पढ़ लिख कर क्या बन सकते हैं? कैसे वे उनकी इस दरिद्र जिन्दगी से बाहर निकल कर कल उनका सहारा बन सकते हैं. सर्वशिक्षा तभी सार्थक हो सकती है जब कि इसके लिए उनके अभिभावक भी तैयार हों . नहीं तो कागजों में चल रहे स्कूल और योजनायें - सिर्फ दस्तावेजों की शोभा बनती rahengin और इन घोषणाओं से कुछ भी होने वाला नहीं है. अगर इसे सार्थक बनाना है और बाल दिवस को ही इस काम की पहल के लिए चुन लीजिये . सबसे पहले बच्चों के माँ बाप को इस बात के प्रोत्साहित कीजिये कि वे अपने बच्चे को पढ़े लिखे और इज्जत और मेहनत से कमाते हुए देखें . अगर इस दिशा में सफल हो गए तो फिर ये सड़कों पर घूमता हुआ बचपन कुछ प्रतिशत तक तो सँभल ही जाएगा और इस देश का बाल दिवस तभी सार्थक समझना चाहिए .
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
कुछ नहीं रखा है?
"मैं बी ए कर रहा हूँ, आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग से सम्बन्ध रखता हूँ. सब लोग कह रहे हैं की 'यहाँ (भारत में) कुछ नहीं रखा है, बाहर निकल जाओ बहुत बहुत पैसा है.' आप बतलाइये मैं क्या करूँ?"
ये पत्र था एक लड़के का, जो करियर काउंसलर को लिखा गया था. ऐसे ही कितने युवा है, जो गुमराह किये जाते हैं. जिनकी शिक्षा का अभी आधार भी नहीं बना होता है. जिन्हें व्यावसायिक शिक्षा का ज्ञान तक नहीं होता है और उन्हें सिर्फ ढेर से पैसे की चाह होती है या फिर उनको ऐसे ही लोग सब्ज बाग़ दिखा कर दिग्भ्रमित कर देते हैं. इसमें इस युवा का भी दोष नहीं है क्योंकि सीमित साधन वाले माता पिता अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए बहुत क़तर ब्यौत करके खर्च पूरा करते हैं और बच्चे इस बात से अनभिज्ञ नहीं होते हैं. इस बात से उनको बहुत कष्ट होता है (सब को नहीं ) और वे जल्दी से जल्दी पैरों पर खड़े होकर बहुत सा पैसा कामना चाहते हैं. इसमें बुरा कुछ भी नहीं है किन्तु उसके लिए सही शिक्षा और सही मार्गदर्शन भी जरूरी है.
'यहाँ कुछ नहीं रखा है." कहने वाले वे लोग होते हैं जो ऐसे युवाओं को विदेश का लालच देकर वहाँ बंधुआ मजदूर बनवा कर खुद कमीशन हड़प जाते हैं. उनके दिमाग में इस तरह की बात डालना उनके भविष्य को गर्त में डालना है. पैसा कमाने का शार्ट कट या तो अपराध की दुनियाँ में कदम रखवा सकता है या फिर ऐसे ही लोगों के जाल में फँस कर अपने को बेच देने के बराबर होता है. अब तो हर क्षेत्र में आप चाहे कला, वाणिज्य या फिर विज्ञान स्नातक हों - करियर की इतनी शाखाये खुल रही हैं कि उसमें से चुनाव आपकी रूचि पर निर्भर करता है. इस दिशा की ओर ले जाने वाले संस्थान अपने देश में भी हैं, जो आपको नौकरी के साथ तकनीकी या विशिष्ट शिक्षा के अवसर प्रदान कर रहे हैं. आप काम करते हुए भी अपने करियर को अपने रूचि के अनुसार संवार सकते हैं.. इग्नू जैसे संस्थान है जो विश्व स्तर पर अपनी शिक्षा के लिए मान्य है.
वह तो अच्छा हुआ की उसने करियर काउंसलर से सलाह ले ली और उसे सही दिशा निर्देश प्राप्त हो गया अन्यथा ये युवा आसमां में उड़ने का सपना लिए अपने पर तक कटवा बैठते हैं कि एक बार उड़ने के बाद फिर पैरों पर चलने के काबिल भी नहीं रहते . इस विषय में मेरे अन्य ब्लॉग पर दी गयी पोस्ट इसका सत्य एवं ज्वलंत प्रमाण है.
ये पत्र था एक लड़के का, जो करियर काउंसलर को लिखा गया था. ऐसे ही कितने युवा है, जो गुमराह किये जाते हैं. जिनकी शिक्षा का अभी आधार भी नहीं बना होता है. जिन्हें व्यावसायिक शिक्षा का ज्ञान तक नहीं होता है और उन्हें सिर्फ ढेर से पैसे की चाह होती है या फिर उनको ऐसे ही लोग सब्ज बाग़ दिखा कर दिग्भ्रमित कर देते हैं. इसमें इस युवा का भी दोष नहीं है क्योंकि सीमित साधन वाले माता पिता अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए बहुत क़तर ब्यौत करके खर्च पूरा करते हैं और बच्चे इस बात से अनभिज्ञ नहीं होते हैं. इस बात से उनको बहुत कष्ट होता है (सब को नहीं ) और वे जल्दी से जल्दी पैरों पर खड़े होकर बहुत सा पैसा कामना चाहते हैं. इसमें बुरा कुछ भी नहीं है किन्तु उसके लिए सही शिक्षा और सही मार्गदर्शन भी जरूरी है.
'यहाँ कुछ नहीं रखा है." कहने वाले वे लोग होते हैं जो ऐसे युवाओं को विदेश का लालच देकर वहाँ बंधुआ मजदूर बनवा कर खुद कमीशन हड़प जाते हैं. उनके दिमाग में इस तरह की बात डालना उनके भविष्य को गर्त में डालना है. पैसा कमाने का शार्ट कट या तो अपराध की दुनियाँ में कदम रखवा सकता है या फिर ऐसे ही लोगों के जाल में फँस कर अपने को बेच देने के बराबर होता है. अब तो हर क्षेत्र में आप चाहे कला, वाणिज्य या फिर विज्ञान स्नातक हों - करियर की इतनी शाखाये खुल रही हैं कि उसमें से चुनाव आपकी रूचि पर निर्भर करता है. इस दिशा की ओर ले जाने वाले संस्थान अपने देश में भी हैं, जो आपको नौकरी के साथ तकनीकी या विशिष्ट शिक्षा के अवसर प्रदान कर रहे हैं. आप काम करते हुए भी अपने करियर को अपने रूचि के अनुसार संवार सकते हैं.. इग्नू जैसे संस्थान है जो विश्व स्तर पर अपनी शिक्षा के लिए मान्य है.
वह तो अच्छा हुआ की उसने करियर काउंसलर से सलाह ले ली और उसे सही दिशा निर्देश प्राप्त हो गया अन्यथा ये युवा आसमां में उड़ने का सपना लिए अपने पर तक कटवा बैठते हैं कि एक बार उड़ने के बाद फिर पैरों पर चलने के काबिल भी नहीं रहते . इस विषय में मेरे अन्य ब्लॉग पर दी गयी पोस्ट इसका सत्य एवं ज्वलंत प्रमाण है.
विदेश में नौकरी : एक खूबसूरत धोखा !
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