हाँ यही दिन तो था जब कि मेरे धर्मपिता (ससुर ) ने मेरा साथ छोड़ दिया था. मेरी शादी के सख्त विरोधी होने के बाद भी शायद मेरे व्यवहार कहूं या उनके और लोगों में इंसान पहचानने का हुनर कहूं वे मेरे हर जगह पर साथ खड़े थे. मेरे संघर्ष के दिनों में उस धैर्य और सांत्वना का हाथ मेरे सिर पर रखे रहे कि जंग तो हमने ही लड़ी थी लेकिन सिर पर छत होने का अहसास सदैव देते रहे.
वह हमारे संघर्ष के वर्ष था जब कि मेरे पति ने अपनी कंपनी से अपने उसूलों के चलते इस्तीफा दे दिया था और मैं उस समय एम एड करके निकली ही थी. पति के एक मित्र को अपने स्कूल के लिए प्रिंसिपल की जरूरत थी और वे मुझे अपने स्कूल में ले गए लेकिन हमारे रहने की जगह ऐसी थी कि स्कूल की बस सुबह तो आकर ले जाती लेकिन दोपहर में बच्चों को देर न हो इसलिए वह मुझे करीब दो किलोमीटर दूर छोड़ देती थी. जहाँ से मुझे अपनी बड़ी बेटी जो ४ साल की थी को लेकर पैदल ही आना पड़ता था. उस समय मैं दूसरी बेटी को भी जन्म देने की प्रक्रिया में चल रही थी.
संयुक्त परिवार में मेरी स्थिति या संघर्ष को कोई स्थान नहीं दिया जाता था . स्कूल से लौटकर घर की जिम्मेदारियों में कमी नहीं इजाफा ही था क्योंकि घर की छोटी बहू तो अधिक काम करने के लिए होती है. मैंने जिन्दगी में कभी हार नहीं मनी चाहे जितना भी संघर्ष क्यों न किया हो?
मेरे ससुर को मेरी स्थिति से पूरी सहानुभूति थी और वे जब मेरे स्कूल से लौटने का समय होता था तो छाता लेकर जहाँ मैं बस से उतरती थी वहाँ खड़े मिलते थे और फिर मेरी बेटी को गोद में उठा कर पैदल मेरे साथ चलकर घर लाते थे. ये क्रम उन्होंने मेरे सातवें महीने से लेकर पूरे समय तक जारी रखा. अप्रैल और मई के गर्मी में भी वो कभी आलस नहीं करते थे. रास्ते भर मुझे समझाते हुए आते थे कि बेटा तुमने इतनी पढ़ाई की है तो जल्दी ही कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी और फिर ये भी जल्दी ही कोई दूसरी कंपनी में लग जाएगा. उनकी उतनी सांत्वना मुझे एक संबल बनाकर सहारा देती रही.
मैं लड़ती रही . उस समय उनकी आयु ७१ वर्ष की थी जब वे मुझे लेने जाया करते थे और एक बच्ची को गोद में उठा कर चलते थे.
शायद उनके आशीर्वाद से ही मुझे ६ महीने बाद आई आई टी में नौकरी मिल गयी थी और पति भी फिर से नई कंपनी में जॉब करने लगे. लेकिन वे ५ महीने इंसां को परखने के लिए बहुत होते हैं. मेरा रोम रोम उनका ऋणी है और फिर हम दोनों ने उनके अंतिम समय में जो कुछ कर सकते थे किया . उसका बखान करके मैं अपनी बड़ाई नहीं करना चाहती हूँ. लेकिन उनके जो आखिरी शब्द थे वो थे - "बेटा मुझे या नहीं पता था कि तुम मेरी इतनी सेवा करोगी. मेरी आत्मा तुमसे बहुत खुश है."
मैं उनकी इस सेवा कर पाने के लिए अपने आई आई टी के सहयोगियों और बॉस दोनों की ही तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ क्योंकि मैं घर में रात में उनके दर्द के कारण उनके पास रहती थी और सो नहीं पाती थी. ऑफिस में मेज पर सिर रख कर सो जाया करती थी. कभी बॉस भी आ गए तो उन्होंने ने ये नहीं कहा कि काम कब करोगी? वैसे उस समय का जो वातावरण था वो एक परिवार की तरह था. कोई बॉस नहीं था सब एक दूसरे के सुख दुःख में शामिल होते थे. मेरे उस बड़े दुःख में सब शामिल रहे. अब सब मेरे साथ नहीं है लेकिन जो जहाँ भी है अब भी हम संपर्क में हैं .
मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
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12 टिप्पणियां:
परमपूज्य धर्म पिता जी को मेरी भी श्रद्धाञ्जलि!
आप सौभाग्यशाली है कि ऐसे धर्मपिता के साथ रहने को मिला . हमारी श्रधांजलि
परमपूज्य धर्म पिता जी को मेरी भी श्रद्धाञ्जलि!
ऐसे पिता नसीब से ही मिलते हैं ……………आप बहुत सौभाग्यशाली हैं।
unko meri bhavbhari shraddhanjali.pita ka ek ye roop bhi hai jo rishton ki garima badhaaata hai
रेखा मेम
प्रणाम !
वट वृक्ष कि तरह होते है घर के बुजुर्ग , धर्म पिता का को हमारी और से भी श्रधा सुमन अर्पित है .
ओम शांति शांति !
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एक भावपूर्ण अभिव्यक्ति। आपके संघर्ष को नमन! अश्रुपूरित कर गया यह आलेख।
आपके धर्मपिता को विनम्रश्रद्धांजलि।
Rekha Maa
Poojya pita ji bhavbhari shraddhanjali
Di aapke dharam peeta ke liye jo aapne post kiya!!wo batata hai, aap kaise apne family ke liye samarpit ho.......:)
ek sachchi dil se shraddhanjali mere aur se bhi..........
परमपूज्य धर्म पिता जी को मेरी भी श्रद्धाञ्जलि!
ऐसे पिता की क्षत्रछाया नसीब वालों को ही मिलती है.
अच्छा लगा पिता जी के बारे में जानकर..
पिता जी को श्रद्धांजलि!!
आप जेसी बहु भी किस्मत वालो को मिलती हे, ओर आप के ससुर जेसा पिता(ससुर) भी किस्मत वालो को मिलता हे, आप के पिता ससुर को भाव भीनी श्रधांजलि
आप के ससुर जी को मेरी श्रद्धांजली
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