जीवन मूल्यों में हो रहे परिवर्तन ने हमारी संस्कृति को विकृत रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है. एक मिसाल बनकर विश्व में अपना परचम फैलाने वाली भारतीय संस्कृति के आधार परिवार, पारिवारिक प्रेम और रिश्तों की गरिमा को अब लज्जित होने के लिए हम ही उसको इस हद तक पहुंचा रहे है. आज हम खुद ही अपने पारिवारिक मूल्यों की दुहाई देने में कतराने लगे हैं क्यों ? क्योंकि हम अपने नैतिक और पारिवारिक मूल्यों को खोते चले जा रहे हैं ( संचित भी है, इस बात से इनकार नहीं है लेकिन अब खोने का पलड़ा भारी है. )
ऐसा नहीं है पहले भी ऐसा होता था लेकिन उसका प्रतिशत इतना कम था कि
संयुक्त परिवार में वह नगण्य के बराबर होता था और ऐसे उदाहरण सामने आ नहीं
पाते थे. . वैसे इसके लिए उत्तरदायी हम ही हुआ करते हें.
संस्कार कोई गिफ्ट आइटम नहीं है कि जिसे हम अपनी आने वाली पीढ़ी को गिफ्ट पैक बना कर देते हें - उन्हें बहुत कुछ समझाने की जरूरत नहीं होती है , वे आज बहुत समझदार है और उसके अनुसार ही आचरण करते हें. आज की नई पीढ़ी और वह पीढ़ी जो अभी अपने पैरों पर चलने के लिए तैयार हो रही है वह वही ग्रहण कर रही है जो हम उसको दिखा रहे हें.
हमारी अपनी सोच, व्यवहार और आचरण ही उनके लिए संस्कार बन जाते हें . इस विषय में वह लघुकथा सबसे अच्छा उदाहरण है कि 'दादा के निधन के बाद पिता ने उनके खाने वाले बर्तन उठा कर फ़ेंक दिए और उनका बेटा जाकर उन्हें वापस उठा लाया. पिता के ये पूछने पर कि इन फेंके हुए बर्तनों को वह क्यों उठा लाया? तो बेटे ने उत्तर दिया कि कल जब आप बूढ़े हो जायेंगे तो ये ही बर्तन आपके काम आयेंगे. '
आज संयुक्त परिवार टूटते टूटते बिखर गए हैं. कहीं अगर माता पिता को साथ रखा तो तिरस्कृत करके रखा या फिर उन्हें वृद्धाश्रम भेज दिया. बच्चों ने वही देखा और वही ग्रहण किया. जो हमने उनको दिखाया वही उन्होंने संस्कार समझ कर अपना लिया .
संस्कार कोई गिफ्ट आइटम नहीं है कि जिसे हम अपनी आने वाली पीढ़ी को गिफ्ट पैक बना कर देते हें - उन्हें बहुत कुछ समझाने की जरूरत नहीं होती है , वे आज बहुत समझदार है और उसके अनुसार ही आचरण करते हें. आज की नई पीढ़ी और वह पीढ़ी जो अभी अपने पैरों पर चलने के लिए तैयार हो रही है वह वही ग्रहण कर रही है जो हम उसको दिखा रहे हें.
हमारी अपनी सोच, व्यवहार और आचरण ही उनके लिए संस्कार बन जाते हें . इस विषय में वह लघुकथा सबसे अच्छा उदाहरण है कि 'दादा के निधन के बाद पिता ने उनके खाने वाले बर्तन उठा कर फ़ेंक दिए और उनका बेटा जाकर उन्हें वापस उठा लाया. पिता के ये पूछने पर कि इन फेंके हुए बर्तनों को वह क्यों उठा लाया? तो बेटे ने उत्तर दिया कि कल जब आप बूढ़े हो जायेंगे तो ये ही बर्तन आपके काम आयेंगे. '
आज संयुक्त परिवार टूटते टूटते बिखर गए हैं. कहीं अगर माता पिता को साथ रखा तो तिरस्कृत करके रखा या फिर उन्हें वृद्धाश्रम भेज दिया. बच्चों ने वही देखा और वही ग्रहण किया. जो हमने उनको दिखाया वही उन्होंने संस्कार समझ कर अपना लिया .
बाद में हम सिर धुन कर रोते हैं कि पता नहीं आज कल के बच्चों को क्या हो
गया है? माँ - बाप की बात सुनते ही नहीं है, आप जब बड़े हो गए तब अपने
सुनना बंद किया था और आप के बच्चों ने बचपन से ही क्यों? क्योंकि अब वे
प्रगति पर हें और उनकी बुद्धि पिछली पीढ़ी से कहीं अधिक तेज है. ज्यादातर
लोगों की ये सोच होती है कि हम जो कर रहे हें वह सही है लेकिन अगर वही
बच्चों के द्वारा किया जाता है तो हमें कितना बुरा लगता . इसी लिए आचार्य
श्री राम शर्मा की एक उक्ति है - जो व्यवहार आपको अपने लिए पसंद नहीं है तो
वह आप दूसरों के साथ भी न करें. लेकिन ऐसा होता कहाँ है? हम खुद सम्मान और सर
आँखों पर बिठाये जाने की अपेक्षा रखते हें और माँ - बाप को अपने मित्रों से मिलाने में भी शर्म महसूस करते हें . क्यों? इसलिए कि हमारे पिता कभी
क्लर्क होते थे और माँ एक गृहणी थी. उनको बाहर के आचार व्यवहार से परिचय ही
नहीं होता है. वह तो अपना पूरा जीवन आपको पढ़ाने और लिखाने में लगी रही.
पिता ने अपनी आय को आपकी पढ़ाई में लगा दिया और खुद अपने लिए नई साइकिल भी
नहीं खरीद सके, कभी मिल गया तो ऑफिस के बाद पार्ट टाइम जॉब भी कर लिया ताकि
पढ़ाई के साथ साथ आपकी अच्छी खिलाई पिलाई भी कर सकें. इसे हमने उनके फर्ज
मान हाशिये में रख दिया और खुद के अच्छी पढ़ाई के बाद जब नौकरी मिली तो
उनको अपने बराबर बिठाने में शर्म महसूस करने लगे. हमारे जीवनसाथी ने भी यही समझा कि पति की कमाई पर तो उसका ही हक है , माँ बाप को कोई आशा भी नहीं करनी चाहिए ।
यही जो कुछ हम दिखा रहे हें वह हमारे बच्चे ग्रहण कर रहे हें . यही
संस्कार बन रहे हें उन्हें कुछ भी सीखना नहीं पड़ता है . पहले नानी दादी
उन्हें अपने साथ लिटा कर श्रवण कुमार और लक्ष्मण जैसे पुत्र और भाई की
कहानी सुनाया करती थी. और बाल मन पर वह गहराई से बैठ जाया करती थी. आज क्या
आपके पास टीवी देखने या फिर अपने मित्र मंडली के साथ गपशप करने अलावा भी
कुछ है . बच्चे भी साथ साथ टीवी से चिपके रहना चाहते हें. उन्हें कब सिखाया जाए और क्या सिखाया जाए ?अब इसके लिए तो हमें ही सोचना होगा की बच्चों को गलत संस्कार न मिल पायें और वे मानवता और नैतिक मूल्यों के मूल्य को समझें लेकिन ये होगा तभी जब हम उन्हें समझा पायें. चलिए कोशिश करते हैं.
7 टिप्पणियां:
बहुत सही!
जन्मने जायते शूद्राः संस्कारात् द्विज उच्यते!
एकदम सही बात ..संस्कार गिफ्ट पैक नहीं हैं जो उठाये और दे दिए ..उन्हें खुद जी कर दिखाना पड़ता है.
sahee hai. achhhee post hai di.
शत प्रतिशत सही …………विचारणीय आलेख
आज जितनी दुनिया में दरिंदगी देखी जा रही है वह सब संस्कारों के अभाव के कारण है।
सुन्दर विचार...विचारणीय आलेख.
बहुत अच्छा लिखा है...विचारणीय
एक टिप्पणी भेजें